श्री कृष्ण जन्म अष्टमी …. —
इस वर्ष श्री कृष्ण जन्माष्टमी 28 अगस्त,2013 (बुधवार ) को मनाई जाएगी…
जब-जब भी असुरों के अत्याचार बढ़े हैं और धर्म का पतन हुआ है तब-तब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और धर्म की स्थापना की है। इसी कड़ी में भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया।
चूँकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अतः इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी अथवा जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इस दिन स्त्री-पुरुष रात्रि बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झाँकियाँ सजाई जाती हैं और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है।
कृष्ण को लोग रास रसिया, लीलाधर, देवकी नंदन, गिरिधर जैसे हजारों नाम से जानते हैं. कृष्ण भगवान द्वारा बताई गई गीता को हिंदू धर्म के सबसे बड़े ग्रंथ और पथ प्रदर्शक के रूप में माना जाता है. कृष्ण जन्माष्टमी (Janmashtami) कृष्ण जी के ही जन्मदिवस के रूप में प्रसिद्ध है.
शास्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होने के बाद मनुष्य का भाग्य चमक जाता है। इंसान के जीवन की सभी समस्याएं नष्ट हो जाती हैं और अच्छा समय प्रारंभ हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्ति के लिए जन्माष्टमी का दिन श्रेष्ठ है। जन्माष्टमी के दिन भगवान कन्हैया का जन्म हुआ था अत: इस दिन श्रीकृष्ण की विशेष पूजा-अर्चना करना चाहिए।
मुरली मनोहर कृष्ण कन्हैया जमुना के तट पे विराजे हैं
मोर मुकुट पर कानों में कुण्डल कर में मुरलिया साजे है
मानव जीवन सबसे सुंदर और सर्वोत्तम होता है. मानव जीवन की खुशियों का कुछ ऐसा जलवा है कि भगवान भी इस खुशी को महसूस करने समय-समय पर धरती पर आते हैं. शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु ने भी समय-समय पर मानव रूप लेकर इस धरती के सुखों को भोगा है. भगवान विष्णु का ही एक रूप कृष्ण जी का भी है जिन्हें लीलाधर और लीलाओं का देवता माना जाता है
मान्यता है कि द्वापर युग के अंतिम चरण में भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था. इसी कारण शास्त्रों में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी के दिन अर्द्धरात्रि में श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी मनाने का उल्लेख मिलता है. पुराणों में इस दिन व्रत रखने को बेहद अहम बताया गया है. इस वर्ष जन्माष्टमी (Janmashtami) 28 अगस्त,2013 (बुधवार ) को मनाई जाएगी…हमारे शास्त्रों ऋग्वेद, यर्जुवेद से भविष्य पुराण, श्री पुराण से धर्म सिन्धु तक में स्पष्ट कहा गया है कि भाद्र पक्ष की कृष्ण पक्ष की अष्टमी में श्रीकृष्ण जी का जन्म मध्य रात्रि को 12 बजे हुआ था
भगवन श्री कृष्ण के जन्म की कथा—
श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्र रूप में हुआ था. कंस ने अपनी मृत्यु के भय से अपनी बहन देवकी और वसुदेव को कारागार में कैद किया हुआ था. कृष्ण जी जन्म के समय घनघोर वर्षा हो रही थी. चारो तरफ़ घना अंधकार छाया हुआ था. भगवान के निर्देशानुसार कुष्ण जी को रात में ही मथुरा के कारागार से गोकुल में नंद बाबा के घर ले जाया गया.
नन्द जी की पत्नी यशोदा को एक कन्या हुई थी. वासुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को अपने साथ ले गए. कंस ने उस कन्या को वासुदेव और देवकी की संतान समझ पटककर मार डालना चाहा लेकिन वह इस कार्य में असफल ही रहा. दैवयोग से वह कन्या जीवित बच गई. इसके बाद श्रीकृष्ण का लालन–पालन यशोदा व नन्द ने किया. जब श्रीकृष्ण जी बड़े हुए तो उन्होंने कंस का वध कर अपने माता-पिता को उसकी कैद से मुक्त कराया था…
श्रीकृष्ण धरती पर जनकल्याण के लिए आए थे। उनका उद्देश्य धरती पर हो रहे अनाचार को मिटाना था। उन्होंने युग को नव-सृजन की दिशा में मोड़ा। ग्रंथों में अवतार का यही प्रयोजन है।
स्कन्दपुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्यपुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो ‘जयंती’ नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए।
पूजन सामग्री की सूची——-
धूप बत्ती (अगरबत्ती), कपूर, केसर, चंदन, यज्ञोपवीत 5, कुंकु, चावल, अबीर, गुलाल, अभ्रक, हल्दी, आभूषण, नाड़ा, रुई, रोली, सिंदूर, सुपारी, पान के पत्ते, पुष्पमाला, कमलगट्टे-, तुलसीमाला, धनिया खड़ा, सप्तमृत्तिका, सप्तधान्य, कुशा व दूर्वा, पंच मेवा, गंगाजल, शहद (मधु), शकर, घृत (शुद्ध घी), दही, दूध, ऋतुफल, नैवेद्य या मिष्ठान्न , (पेड़ा, मालपुए इत्यादि), इलायची (छोटी), लौंग मौली, इत्र की शीशी, सिंहासन (चौकी, आसन), पंच पल्लव, (बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते), पंचामृत, तुलसी दल, केले के पत्ते , (यदि उपलब्ध हों तो खंभे सहित), औषधि, (जटामॉसी, शिलाजीत आदि), श्रीकृष्ण का पाना (अथवा मूर्ति) , गणेशजी की मूर्ति, अम्बिका की मूर्ति, श्रीकृष्ण को अर्पित करने हेतु वस्त्र, गणेशजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र, अम्बिका को अर्पित करने हेतु वस्त्र, जल कलश (तांबे या मिट्टी का), सफेद कपड़ा (आधा मीटर), लाल कपड़ा (आधा मीटर), पंच रत्न (सामर्थ्य अनुसार), दीपक, बड़े दीपक के लिए तेल, बन्दनवार, ताम्बूल (लौंग लगा पान का बीड़ा), श्रीफल (नारियल), धान्य (चावल, गेहूँ), पुष्प (गुलाब एवं लाल कमल), एक नई थैली में हल्दी की गाँठ, खड़ा धनिया व दूर्वा आदि, अर्घ्य पात्र सहित अन्य सभी पात्र।
व्रत-पूजन कैसे करें…????
उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें।
उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ।
पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें।
इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें—-
ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥
अब मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए ‘सूतिकागृह’ नियत करें।
तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।
मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों अथवा ऐसे भाव हो।
इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें।
पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः निर्दिष्ट करना चाहिए।
फिर निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें-
‘प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।
वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।
सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तु ते।’
अंत में प्रसाद वितरण कर भजन-कीर्तन करते हुए रतजगा करें।
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विश्व भर में मनाई जाती है जन्माष्टमी की खुशियां—-
कृष्ण का जन्मोत्सव मात्र उनकी जन्मस्थली मथुरा ही नहीं, बल्कि भारतवर्ष सहित विश्व के अन्य देशों में भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। मंदिरों की सजावट देखते ही बनती है। खासकर गोकुल, मथुरा और बृंदावन (उत्तरप्रदेश) के मंदिरों की तो बात ही निराली होती है।
गोकुल में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म लेने की सूचना प्रात: अष्टमी तिथि को प्रसारित हुई थी। अत: ब्रजमंडल में उसी परंपरा का अनुसरण करते हुए भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव सूर्योदय के समय विद्यमान उदयातिथि के रूप में उपलब्ध अष्टमी के दिन मनाया जाता है। इसी कारण इसे गोकुलाष्टमी कहा जाता है। वैष्णव मंदिरों में जन्माष्टमी का उत्सव उदयातिथि वाले दिन ही मनाया जाता है। नंद के पुत्र-रत्‍‌न की प्राप्ति की खुशी में दूसरे दिन गोकुल में बड़े हर्ष के साथ उत्सव मनाया गया, जिसमें समस्त गोकुलवासियों ने भाग लिया। उस परंपरा का निर्वाह आज भी ब्रजमंडल में अत्यंत भव्य रूप में होता है। नंदोत्सव भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की नवमी को मनाया जाता है। इस उत्सव को स्थानीय भाषा में दधिकादो कहा जाता है।
श्रीमद्भागवत महापुराण में इसका अत्यंत सुंदर वर्णन मिलता है। इस उत्सव में भगवान के श्रीविग्रह पर कपूर, हल्दी, दही, घी, तेल, केसर तथा जल आदि चढ़ाने के बाद लोग बड़े हर्षोल्लास के साथ इन वस्तुओं का परस्पर विलेपन और सेवन करते हैं। कई स्थानों पर हाडी में दूध-दही भरकर, उसे काफी ऊंचाई पर टागा जाता है। युवकों की टोलिया उसे फोड़कर इनाम लूटने की होड़ में बहुत बढ़-चढ़कर इस उत्सव में भाग लेती हैं। वस्तुत: श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत केवल उपवास का दिवस नहीं, बल्कि यह दिन महोत्सव के साथ जुड़कर व्रतोत्सव बन जाता है। श्रीकृष्णावतार हुए पाच सहस्त्राब्दिया बीत चुकी हैं, परंतु उनका महात्म्य दिन दूना-रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। श्रीकृष्ण हम सबके प्रेरणास्त्रोत हैं, जिनकी अमृतवाणी गीता के रूप में आज भी हमें जीवन जीने की कला सिखा रही है।
ब्रजभूमि में भगवान श्रीकृष्ण कभी बड़े नहीं होते। भक्तों के अपार भाव को देखते हुये उन्हें हर साल जन्म लेना पड़ता है। बरसाना स्थित श्रीजी मंदिर हो अथवा नंदगाव का नंदभवन, अपने प्रभु के जन्म से पूर्व सजधज कर तैयार है।
नंदगाव में जन्म लेने वाले कन्हैया को बरसाना का गोसाई समाज बधाई देने के लिए तत्पर दिखाई दे रहा है। विभिन्न लीलाओं के माध्यम से श्रद्धालुओं को कान्हा की ब्रजलीलाओं का दर्शन भी आकर्षण का केन्द्र रहता है। नंदगाव ही ऐसा स्थल है जहा भगवान आशुतोष भोलेनाथ को प्रभु के दर्शन काफी मन्नतों के बाद हुये और उनको एक बार तो नंद के द्वार से ही लौटा दिया गया था। ब्रज की परंपरा में खास बात यह है कि यहा जन्मोत्सव नहीं मनाया जाता बल्कि भक्तों में प्रभु के जन्म लेने का भाव होता है और उसी भाव से नंदोत्सव, लाला को झूला झुलाना, खिलौनों से खिलाने का भाव प्रभु के हर साल जन्म लेने के भाव को प्रदर्शित करता है।
बरसाना में भी मनाता हें जन्मोत्सव——
भगवान श्रीकृष्ण की आराध्य शक्ति राधारानी का गाव बरसाना भी आनंद कंद श्रीकृष्ण चंद्र के जन्मोत्सव की तैयारियों में डूबा हुआ है। सेवायत छैल बिहारी गोस्वामी के अनुसार यहा रात्रि बारह बजे भगवान श्याम सुंदर एवं राधारानी का पंचामृत अभिषेक कर आकर्षक श्रगार किया जाऐगा। गोसाईं समाज द्वारा परंपरागत बधाई गायन के साथ आने वाले भक्तों को पंजीरी का प्रसाद वितरण किया जाऐगा। श्रद्धालुओं की सुविधा के लिऐ नगर पंचायत द्वारा रंगीली गली, पीली पोखर मार्ग, राधा बाग आदि मागरें पर सफाई व रोशनी के विशेष प्रबंध किये गये हैं।
ननिहाल से आता है बधाई संदेश——
नंदगाव में जन्माष्टमी की अपनी अनूठीे परंपरा है। यहा भादों मास के प्रारंभ से अष्टमी तक गोसाई समाज द्वारा बधाई गायन किया जाता है। अष्टमी के दिन दोपहर को कन्हैया की ननिहाल महराना गाव तथा गिडोह गाव से भाईचारा में चाव यानी बधाई आती है। चाव अर्थात एक परात अथवा डलिया में फल, मिष्ठान, वस्त्र, अलंकार आदि रखकर ग्रामीण नाचते गाते बधाई देने के लिऐ नन्द भवन पहुंचते हैं। रात्रि दस बजे ढाड़ी ढाड़िन लीला का अद्भूत मंचन किया जाता है। ढाड़ी गोवर्धन का रहने वाला था उसने नंद बाबा से कभी कुछ नहीं मागा।
रात्रि बारह बजे जन्म लेंगे नन्दलाल—-
नन्दगाव में जन्माष्टमी के दिन रात्रि बारह बजे भगवान श्रीकृष्ण और बलराम का अभिषेक किया जाएगा। ठीक बारह बजे प्रभु के पट खोल दिये जाते हैं और आरती उतारी जाती है। नन्दगाव की गली-गली नन्द के आनंद भयौ जय कन्हैया लाल के जयकारों से गूंज उठती है। खास बात यह है कि उसी समय प्रभु के स्पर्श वस्त्र को श्रद्धालुओं में बाटा जाता है, जिसे फरुआ भी कहा जाता है। इसको लेने के लिए श्रद्धालुओं और स्थानीय लोगों में होड़ सी मची रहती है।
नंद के आनंद भयौ जय कन्हैया लाल की——-
जन्मोत्सव के उपरात नंदगाव में नंदोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। बताते हैं कि कृष्ण के जन्म के अगले दिन बरसाना से राधारानी के माता पिता वृषभानु और कीरत रानी सखियों के साथ नन्द बाबा को बधाई देने आये थे। बरसाना के गोसाई समाज द्वारा उसी परंपरा का निर्वहन बड़े धूमधाम से किया जाता है। समाज बरसाना से नन्द भवन आकर बधाई गायन करता है।
भोलेबाबा करते हैं कान्हा की झाड़ फूंक—–
कान्हा के जन्म की खबर सुनकर भगवान भोलेनाथ भी दर्शन करने के नन्द भवन पहुंचे, लेकिन उनके विकराल स्वरूप को देखकर यशोदा माता ने उन्हें दर्शन नहीं कराये। इस पर कान्हा रोने लगे तो भोले बाबा को बुलाकर झाड़-फूंक कराई गई। इस पर लाला हंसने लग गया। भाड खंभे पर चढ़कर नंदबाबा की वंशावली का बखान करता है।
परिवार सहित विराजे हैं कान्हा—–
नंदगाव (उत्तरप्रदेश)में एक मात्र ऐसा मंदिर है, जहा कान्हा अपने परिजनों के साथ विराजमान हैं। मंदिर में कान्हा के पिता नन्द बाबा, माता यशोदा रानी, बड़े भाई बलराम, सखा धनसुखा एवं मनसुखा तथा ससुराल की मर्यादा में कोने में दूर खड़ी राधारानी के साथ भगवान श्रीकृष्ण विराजमान हैं।
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जनकल्याण के लिए जन्मे थे कान्हा—–
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण अपने अवतार लेने [प्रकट होने] के विषय में कहते है- —
अजोऽपि सव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
अर्थात ‘मैं अजन्मा और अविनाशी होते हुए तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूं।’
गीता के इस कथन से विदित होता है कि भगवान नित्य और शाश्वत है। इस दृश्य-जगत में लोक-कल्याण और जन-हित के उद्देश्य से धरा पर अवतरित होते है। ‘अवतार’ का शाब्दिक अर्थ है- अवतरित होना अर्थात ऊपर से नीचे आना। निजधाम से पृथ्वी पर जनकल्याण के बड़े उद्देश्य से पृथ्वी पर प्रत्यक्ष आगमन ही अवतार कहा जाता है। इसलिए ‘अवतार’ का भावार्थ हुआ- अव्यक्त का व्यक्तरूप में आविर्भाव।
ग्रंथों में अवतारों की कई कोटि बताई गई है- जैसे अंशांशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार आदि। शास्त्रों में ‘कृष्णावतार’ को ‘पूर्णावतार’ माना गया है, यानी श्रीकृष्ण के रूप में भगवान अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ धरा पर आए थे। श्रीमद्भागवत में वर्णित है कि द्वापर युग में जब अधर्मियों के अत्याचार से आक्रांत एवं पाप के भार से व्याकुल पृथ्वी करुण क्रंदन करते हुए ब्रह्माजी के पास पहुंची, तब सृष्टिकर्ता ने समस्त देवगणों को साथ लेकर भगवान की स्तुति की। उस समय ब्रह्माजी ने ध्यानावस्था में आकाशवाणी सुनी- ‘वसुदेवगृहे साक्षाद्भगवान पुरुष: पर:।’ अर्थात वसुदेवजी के यहां साक्षात भगवान [परमपुरुष] ही प्रकट होंगे। कंस के कारागार में बंद वसुदेव-देवकी के समक्ष भगवान भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी की मध्यरात्रि में शिशु के रूप में प्रकट हुए। अतएव भगवान का अवतरण, उनके जन्म लेने के सदृश ही प्रतीत हुआ। श्रीमद्भागवत के वक्ता शुकदेवजी कहते है- कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्। जगद्धिताय सोऽप्यत्र देही वा भाति मायया॥ अर्थात ‘आप श्रीकृष्ण को समस्त प्राणियों की आत्मा [परमात्मा] जानें। भूलोक में भक्तजनों के उद्धार हेतु ये भगवान अपनी माया के कारण देहधारी-से प्रतीत होते हैं।’
श्रीमद्भागवत के एकादशवें स्कंध के 31वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम-गमन का संपूर्ण विवरण मिलता है। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने लोकहितार्थ जिस देह से 125 वर्ष लीलाएं कीं, वह देह भी अंत में नहीं मिली। उनकी देह दिव्य और अप्राकृत थी। वे अपने उसी दिव्य वपु [शरीर] से निजधाम पधारे।
गीता में भगवान ने अर्जुन के माध्यम से समस्त प्राणियों को अपने अवतार लेने का प्रयोजन बताया गया है- यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ अर्थात ‘जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार-रूप से संसार में [लोगों के सम्मुख] प्रकट होता हूं।’ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥ अर्थात ‘साधु पुरुषों की रक्षा और पापियों के नाश हेतु तथा धर्म की स्थापना करने की लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं।’
मान्यता है कि जब-जब ऐसी परिस्थितियां बनती है, तब-तब भगवान अवतार लेते हैं। श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेकर उन्होंने उस समय लोगों पर हो रहे अनाचार को मिटाया और एक नए युग का सूत्रपात किया। इस वर्ष श्रीकृष्ण की 5239वीं जयंती जन्माष्टमी- व्रतोत्सव के रूप में मनाई जाएगी। श्रीकृष्ण जगद्गुरु के रूप में सारे संसार के पथ-प्रदर्शक है।
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भगवान का देवकी के गर्भ में प्रवेश——
भगवान श्रीकृष्ण सर्वप्रथम वसुदेवजी के हृदय में प्रविष्ट हुए, उनका प्रवेश होते ही वसुदेव सूर्य, चंद्रमा और अग्नि के सदृश तेज से उद्भासित हो उठे। मानो उनके रूप में दूसरे यज्ञनारायण ही प्रकट हो गए। संसार को अभय देने वाले श्रीकृष्ण देवी देवकी के गर्भ में आविष्ट हुए इससे उस कारागृह में देवकी दिव्यदीप्ति से दमक उठीं। समस्त मथुरा नगर निश्चेष्ट होकर सो रहा था। घनघोर अंधकार से रात्रि व्याप्त थी।
जब रात्रि के सात मुहूर्त निकल गए और आठवाँ उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न उपस्थित हुआ क्योंकि वह वेदों से अतिरिक्त तथा दूसरों के लिए दुर्ज्ञेय लग्न था, उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। अशुभ ग्रहों की दृष्टि पड़ना तो स्वाभाविक ही नहीं था। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग सम्पन्न हो गया।
जब आधा चंद्रमा उदय हुआ उस समय लग्न की ओर देखकर भयभीत हुए सूर्य आदि सभी ग्रह आकाश में अपने गति के क्रम को लाँघकर मीन लग्न में जा पहुँचे। शुभ तथा अशुभ सभी ग्रह वहाँ एकत्र हो गए। संसार की रचना करने वाले की आज्ञा से एक मुहूर्त के लिए वे सभी ग्रह प्रसन्नचित्त से ग्यारहवें स्थान में जाकर स्थित हो गए। उस समय आकाश से वर्षा होने लगी। ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। पृथ्वी अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में थी। दसों दिशाएं स्वच्छ एवं निर्मल हो गईं। ऋषि-मुनि, यक्ष-गंधर्व, किन्नर, देवता तथा देवियां सभी प्रसन्न एवं आनंदमग्न थे। उस समय अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। गंधर्वराज तथा विद्याधरियां गीत का गायन कर रही थीं।
समस्त नदियाँ सुखपूर्वक प्रवाहित हो रही थीं। अग्निहोत्र की अग्नियां प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो रही थीं। स्वर्ग में दुन्दुभियों एवं अन्य वाद्यों की ध्वनि होने लगी। उसी समय पृथ्वी माता एक नारी का रूप धारण करके स्वयं बंदीगृह में पहुंचीं। वहां जय-जयकार, शंखनाद और हरिकीर्तन का शब्द गुंजायमान हो रहा था। इसी समय देवकी गिर पड़ीं, उनके पेट से वायु निकल गई और वहीं भगवान श्रीकृष्ण दिव्य रूप धारण करके देवकी के हृदयकमल के कोष से प्रकट हो गए। उनका शरीर अत्यंत कमनीय और परम मनोहर था। उनकी दो भुजाएँ थीं। हाथ में मुरली शोभायमान थी। कानों में मकराकृत कुण्डल सुशोभित थे। मुख मंद-मंद हास्य की छटा से प्रसन्न जान पड़ता था। ऐसा ज्ञात होता था कि वे अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए कातर से दिखाई दे रहे हैं।
श्रेष्ठ मणिरत्नों के सारतत्व से बने हुए आभूषण उनकी देहयष्टि की शोभा बढ़ा रहे थे। पीताम्बर से सुशोभित श्रीविग्रह की कांति नूतन जलधर के समान श्याम थी। चंदन, अगरु, कस्तूरी तथा कुंकुम के द्रव्य से निर्मित अंगराग उनके सर्वांग में लगा हुआ था। उनका मुख शरद पूर्णिमा के शशधर की शुभ्रा ज्योत्स्ना को भी तिरस्कृत कर रहा था। बिम्बफल के सदृश लाल अधर के कारण उनकी मनोहरता और भी बढ़ गई। उनके माथे पर मोरपंख के मुकुट और उत्तम रत्नमय किरीट से श्रीहरि की दिव्य ज्योति और भी जाज्वल्यमान हो उठी।
टेढ़ी कमर, त्रिभंगीझाँकी, वरमाला का श्रृंगार, वक्ष में श्रीवत्स की स्वर्णमयी रेखा और उस पर मनोहर कौस्तुभमणि की भव्य प्रभा अद्भुत शोभा पा रही थी। उनकी किशोर अवस्था थी, वे शांत स्वरूप भगवान श्री हरि, ब्रह्मा और महादेवजी के भी प्राणवल्लभ थे। वसुदेव और देवकी ने उन्हें अपने समक्ष इस प्रकार जब देखा तो उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ। वसुदेवजी ने अपनी पत्नी के साथ अश्रुपूरित नयन, पुलकित शरीर तथा नमस्तक हो दोनों हाथों को जोड़कर उनकी भक्तिभाव से प्रार्थना की।
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जन्माष्टमी के दिन होती हें में मटकी/हांडी फोड़ प्रतियोगिता —
श्रीकृष्ण जी का जन्म मात्र एक पूजा अर्चना का विषय नहीं बल्कि एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है. इस उत्सव में भगवान के श्रीविग्रह पर कपूर, हल्दी, दही, घी, तेल, केसर तथा जल आदि चढ़ाने के बाद लोग बडे हर्षोल्लास के साथ इन वस्तुओं का परस्पर विलेपन और सेवन करते हैं. कई स्थानों पर हांडी में दूध-दही भरकर, उसे काफी ऊंचाई पर टांगा जाता है. युवकों की टोलियां उसे फोडकर इनाम लूटने की होड़ में बहुत बढ-चढकर इस उत्सव में भाग लेती हैं. वस्तुत: श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत केवल उपवास का दिवस नहीं, बल्कि यह दिन महोत्सव के साथ जुड़कर व्रतोत्सव बन जाता है.
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क्यों दो दिन होती है जन्माष्टमी?
भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव ज्यादातर दो दिन मनाया जाता है। उनका अवतार भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी की अर्धरात्रि में रोहिणी नक्षत्र के अंतर्गत वृष लग्न में हुआ था, परंतु इसके साक्षी केवल देवकी और वसुदेव जी ही थे।
भगवान के निर्देशानुसार उन्हें रात में ही मथुरा के कारागार से गोकुल में नंद बाबा के घर ले जाया गया। वहां योगमाया के प्रभाव से सभी निद्रामग्न थे। यहां तक कि यशोदा माता को बालक श्रीकृष्ण की उपस्थिति का भान प्रात:काल प्रसव पीड़ा की मूच्र्छा से उठने के बाद ही हुआ। सुबह यह शुभ समाचार सारे गोकुल में फैल गया कि नंदबाबा के यहां पुत्र का जन्म हुआ है। इसी के कारण सनातन धर्म में यह विशेष व्यवस्था बनी कि वैष्णवों के अतिरिक्त अन्य सभी लोग अर्धरात्रिव्यापिनी अष्टमी वाले दिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत रखेंगे। किंतु वैष्णव गुरु से दीक्षा प्राप्त भक्तगण और साधु-संत अपने संप्रदाय के नियमानुसार सप्तमी से संयुक्त अर्धरात्रिव्यापिनी अष्टमी तिथि को त्यागकर दूसरे दिन उदयातिथि के रूप में उपलब्ध अष्टमी के दिन व्रत रखते हैं।
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इस बार कृतिका नक्षत्र में जन्मेंगे कन्हा जी–
देवकी नंदन इस बार रोहिणी नक्षत्र में जन्म नहीं लेंगे। 19 साल पहले यानी सन् 1995 में कृतिका नक्षत्र की जन्माष्टमी थी, जो इस बार 28 अगस्त को भी होगी। इस रात्रि बारह बजे जब भगवान श्री कृष्ण का 5239 वा जन्म होगा, उस समय कृतिका नक्षत्र होगा।इस दिन्चंद्र्मा वृष राशी में रहेंगे एवं इस दिन सरार्थ सिद्धि योग भी रहेगा..
श्री कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि में लगभग हर साल रोहिणी नक्षत्र की युति रहती है, किंतु इस बार कृतिका नक्षत्र रात्रि बारह बजे शून्य काल में रहेगा और चंद्रोदय भी रात्रि 00.07 बजे होगा।
27 अगस्त को स्मार्त जन्माष्टमी करेंगे और वैष्णव जन अगले दिन 28 अगस्त को श्री कृष्ण जन्माष्टमी मनाएंगे। 28 अगस्त के दिन ही रोहिणी नक्षत्र रहेगा। भगवान श्री कृष्ण के जन्म समय भाद्रपद अष्टमी रोहिणी नक्षत्र होने से ही विशेष महत्व वाली मानी जाती है।लेकिन 28 अगस्त की रात्रि में इस बार कृतिका नक्षत्र गोचर करेगा। 
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॥ गोविन्दाष्टकम्‌ ॥——-
सत्यं ज्ञानमनन्तं नित्यमनाकाशं परमाकाशं
गोष्ठप्रांगण-रिंगल-लोलमनायासं परमायासम्‌।
मायाकल्पित-नानाकारमनाकारं भुवनाकारं
क्ष्माया नाथमनाथं प्रणमत गोविंद परमानन्दम्‌॥1॥
मृत्स्नामत्सीहेति यशोदाताडन-शैशव-सन्त्रासं
व्यादित-वक्त्रालोकित-लोकालोक-चतुर्दशलोकालिम्‌।
लोक्त्रयपुरमूलस्तम्भं लोकालोकमनालोकं
लोकेशं परमेशं प्रणमत गोविंदं परमानन्दम्‌॥2॥
त्रैविष्टप-रिपुवीरघ्नं क्षितिभारघ्नं भवरोगघ्नं
कैवल्यं नवनीताहारमनाहारं भुवनाहारम्‌।
वैमल्य-स्फुटचेतोवृत्ति-विशेषाभासमनाभासं
शैवं केवलशान्तं प्रणमत गोविंदं परमानन्दम्‌॥3॥
गोपालं भूलीलाविग्रहगोपालं कुलगोपालम्‌।
गोपीखेलन-गोवर्धन-धृतिलीलालालित-गोपालम्‌।
गोभिर्निगदित-गोविंद-स्फुटनामानं बहुनामान
गोपीगोचरदूरं प्रणमत गोविंदं परमानन्दम्‌॥4॥
गोपीमण्डलगोष्ठीभेदं भेदावस्थामभेदाभं
शश्वद्गोखुर-निर्धूतोत्कृत-धूलीधूसर-सौभाग्यम्‌।
श्रद्धाभक्ति-गृहीतानन्दमचिन्त्यं चिन्तितसद्भावं
चिन्तामणिमहिमानं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम्‌॥5॥
स्नानव्याकुल-योषिद्वस्त्रमुपादायागमुपारूढं
व्यादित्सन्तीरथ दिग्वस्त्राद्युपदातुमुपाकर्षन्तम्‌।
निर्धूतद्वय-शोक-विमोहं बुद्धं बुद्धेरप्यन्तस्थं
सत्तामात्रशरीरं प्रणमत गोविंदं परमानन्दम्‌॥6॥
कान्तं कारणकारणमादिमनादिं कालमनाभासं
कालिन्दीगत-कालियशिरसि मुहुर्नृत्यन्तं सुनृत्यन्तम्‌।
कालं कालकलातीतं कलिताशेषं कलिदोषघ्नं
कालत्रयगतिहेतुं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम्‌॥7॥
वृंदावनभुवि वृंदारकगणवृन्दाराधित वन्देऽहं
कुन्दाभामल-मन्दस्मेर-सुधानन्दं सुहृदानन्दम्‌।
वन्द्याशेष-महामुनिमानस-वन्द्यं वृन्दपदद्वन्द्वं
वन्द्योशेषगुणाब्धिं प्रणमत गोविंद परमानन्दम्‌॥8॥
गोविन्दाष्टकमेतदधीते गोविंदार्पितचेता यो
गोविंदाच्युत माधव विष्णो गोकुल नायक कृष्णेति।
गोविंदांघ्रिसरोज-ध्यानसुधाजल-धौतसमस्ताधो
गोविन्दं परमानन्दामृतमन्तःस्थं स समभ्येति॥9॥
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ग्रहों ने बनाया हर कला में माहिर ‘कृष्ण’ को—–
(भगवान श्री कृष्ण की जन्म कुंडली का विवेचन )—-
ईश्वर में ब्रह्मा, विष्णु, महेश का ही नाम आता है व इन्हीं त्रिदेवों ने संसार को रचा। ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो भगवान विष्णु बने पालनहार तो भगवान शिव ने संहार किया। वैसे शिवजी को आदि और अंत कहा जाता है तो भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को 16 कलाओं का ज्ञाता।
अवतार की श्रेणी में देखा जाए तो सिर्फ भगवान विष्णुजी ने ही अवतार लिए। वे त्रेतायुग में राम के अवतार में अवतरित हुए तो द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के। जहाँ राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता रहे।
राम आदर्शवादी थे तो श्रीकृष्ण ने छल, बल, कपट का सहारा लिया लेकिन उन्होंने जग की भलाई के लिए ही कार्य किया क्योंकि आज का युग कलियुग भगवान श्रीकृष्ण के गुणों वाला ही है।
श्रावण के बाद भाद्रपद मास में श्रीकृष्ण का जन्म कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में रोहिणी नक्षत्र में नंदगाँव मथुरा की जेल में पिता वसुदेव, माता देवकी के यहाँ हुआ।
भगवान श्री कृष्ण की जन्म कुंडली का विवेचन —-
कहते हैं भगवान ने माता कैकई को वचन दिया था कि माँ मैं तेरी कोख से द्वापर युग में जन्म लूँगा तो आपने अपना वचन निभाया। आपका जन्म वृषभ लग्न में हुआ। लग्न में तृतीयेश पराक्रम व भाई सखा आपका स्वामी चंद्रमा उच्च का होकर लग्न में होने से आपका व्यक्तित्व शानदार उत्तम कद-काठी के, हर कला में माहिर हुए। मंगल की नीच दृष्टि से आपके सगे भाई बलरामजी ने दूसरी माता रोहिणी की कोख से जन्म लिया। आज के युग में उसे परखनली या टेस्ट ट्‍यूब के रूप में जन्माते हैं।
आपकी पत्रिका में द्वितीय वाणी, धन-कुटुंब भाव का स्वामी बुध उच्च का होकर पंचम भाव विद्या-संतान-मनोरंजन में होने से आपकी वाणी में विशेष प्रभाव होता है तभी आपकी वाणी के सशक्त प्रभाव से सभी प्रभावित थे।
भागवत महापुराण के दशम स्कंध में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के विषय में उल्लेख मिलता है – ‘जब परम शोभायमान और सर्वगुण संपन्न घडी आई, चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में आया| आकाश निर्मल तथा दिशाएँ स्वच्छ हुई, महात्माओं के मन प्रसन्न हुए, तब भाद्रपद मॉस की कृष्णपक्ष अष्टमी की मध्यरात्री में चतुर्भुज नारायण वासुदेव-देवकी के समक्ष बालक के रूप में प्रकट हुए|’ अर्थात भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि में रोहिणी नक्षत्र में हुआ|
इस स्कंध के अनुसार गर्गाचार्य ने इनका नामकरण संस्कार करते हुए इनका नाम ‘कृष्ण’ रखा और कहा- ‘इस बालक के नामाक्षर बड़े अच्छे हैं, पांच गृह उच्च क्षेत्र में हैं| मात्र राहू ही बुरे स्थान में है| गर्गाचार्य ने बताया कि जिसके सप्तम स्थान में नीच का राहू होता है, वह पुरुष कई स्त्रियों का स्वामी होता है|
श्रीकृष्ण सोलह कलाओं में प्रवीन थे| इन्होने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया और महाभारत के युद्ध में पाण्डवों को विजय दिलाई| आइये इनकी जन्म कुंडली के माध्यम से यह जाने कि किन योगों के कारण यह सोलह कलाओं में प्रवीण बने|
भगवान श्रीकृष्ण कि कुंडली में उच्च का चन्द्रमा लग्न में ‘मृदंग योग’ बना रहा है| इस योग के परिणाम स्वरूप ही कृष्ण शासनाधिकारी बने| सात राशियों में समस्त गृह ‘वीणा योग’ का निर्माण कर रहे हैं| इस योग से ही कृष्ण गीत, नृत्य, संगीत में प्रवीण बने| इसी के माध्यम से महारास जैसा आयोजन सम्पन्न कराया| कुंडली में ‘पर्वत योग’ इन्हें यशस्वी व तेजस्वी बना रहे हैं, तो उच्च के लग्नेश व भाग्येश ने ‘लक्ष्मी योग’ बनाकर धनि व पराक्रमी बनाया| बुध अस्त होकर भी यदि उच्च का हो तो ‘विशिष्ट योग’ बनता है| ये योग इन्हें कूटनीतिज्ञ व विद्वान बना रहा है| बलवान लग्नेश व मकर राशि का मंगल ‘यशस्वी योग’ बनाकर युगयुगांतर तक इन्हें आदरणीय व पूजनीय बना रहे हैं| वहीँ सूर्य से दूसरा गृह बुध व बुध से एकादश चन्द्र या गुरु हो तो , ‘भास्कर योग’ का निर्माण होता है| यह योग ही श्रीकृष्ण को पराक्रमी, भगवान के तुल्य सम्मान शास्त्रार्थी, धीर और समर्थ बना रहे हैं| इसके अलावा कई अन्य महत्वपूर्ण योग इनकी कुंडली में हैं| ऋणात्मक प्रभावकारी ‘ग्रहण योग’ ने इनके जीवन में कलंक भी लगाया| इस योग के प्रभाव स्वरूप ही कृष्ण ने अपने मामा का वध कर बुरा कार्य किया, तो स्यमंतक मणि के चोरी के झूठे कलंक का सामना भी इन्हें करना पड़ा| ग्रहों की स्थिति का आकलन करें, तो उच्च के लग्नेश लग्न भाव में निरूग व दीर्घायु [युग-युगांतर तक याद किये जा रहे हैं] बना रहे हैं|
द्वितीयेश बुध पंचम भाव में प्रसिद्धि दिलाते हैं, लेकिन आखिरी समय में परेशानी भी देते हैं| इनके सामने ही इनके समस्त कुल का नाश हुआ| तृतीयेश चन्द्रमा लग्न में केतु के साथ होने से स्वजनों से दूर रखते हैं| इनका अधिकांश समय घर से बाहर व युद्ध क्षेत्र में ही बीता था| चतुर्थेश या सुखेश स्वग्रही सूर्य मातृभूमि से दूर रखते हैं| परिणाम स्वरूप जन्म होते ही श्रीकृष्ण को अपनी जन्मस्थली से दूर ले जाया गया व आजीवन उस जगह नहीं आ पाए| पंचमेश यदि पंचम भाव में हो तो सच्चरित्र पुत्रों का पिता, चतुर व विद्वान बनाते हैं, चतुराई में तो भगवान् श्रीकृष्ण की कहीं कोई सानी नहीं है| षष्टेश शुक्र छठे भाव में शत्रुहत्ता, योगिराज व अरिष्ट नाशक बनाते हैं| सप्तमेश नवं भाव में उच्च के मंगल स्त्री सुख में परिपूर्ण व रमणियों के साथ रमण करने वाले बनाते हैं| इनके आठ रानियाँ – रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवंती, सत्या, कालिंदी, भद्रा, मित्रबिन्दा व लक्ष्मणा थीं| साथ ही राहू सप्तम में होने से नरकासुर के चंगुल से छुड़ाई 16000 राजकुमारियों ने भी इन्हें ही अपना पति माना| अष्टमेश सहज भाव में सहोदर रहित करते हैं| इनके कोई भी सहोदर जीवित नहीं बचा| बलराम से इनके सामान्य सम्बन्ध थे| भाग्येश शनि के छठे भाव में उच्च का होकर भी इन्हें रणछोड़दास बनाया| वहीँ दशमेश छठे भाव में जाकर आजीवन शत्रुओं द्वारा परेशान कराते रहे| बाल्यावस्था भी तकलीफ में गुजारी, एकादशेश गुरु जहां लक्ष्मीवान व सुखी कर रहे हैं, तो व्ययेश उच्च के मंगल में दान की प्रेरणा व लम्बी-लम्बी यात्राएं इन्हें आजीवन कराते रहे|
ऐसे योगेशेवर कृष्ण की आराधना हमें नित्य प्रति करने से लाभ होता है| जहाँ इनका पूजन होता है, वहां समृद्धि, सुख, व समस्त वैभव मौजूद रहते हैं|
उच्च के गृह:—– 
—भगवान श्रीकृष्ण की कुंडली में पांच ग्रह- चन्द्र, गुरु, बुध, शनि और मंगल उच्च के हैं| सूर्य और शुक्र स्वक्षेत्री हैं|
—-लग्न में केतु, चंद्रमा के साथ होने से ग्रहण योग बन रहा है|
—–योगादियोग मृदंग योग, वीणा योग, पर्वत योग, लक्ष्मी योग, विशिष्ट योग, यशस्वी योग, भास्कर योग और ग्रहण योग बन रहे हैं| श्रीकृष्ण की कुंडली में ग्रहण योग को छोड़कर सभी अन्य योग शुभ हैं|
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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतकथा—–
(माहात्म्य सहित)
इन्द्र उवाच—
ब्रह्मपुत्र! मुनिश्रेष्ठ! सर्वशास्त्रविशारद!।
ब्रूहि व्रतोत्तमं देव येन मुक्तिर्भवेन्नृणाम्‌।
तद्व्रतं वद भो ब्रह्मन्‌! भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्‌॥
इंद्र ने कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, हे देव, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा हे ब्रह्मन्‌! उस व्रत से प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए।
नारद उवाच—–
त्रेतायुगस्य चान्ते हि द्वापरस्य समागमे।
दैत्यः कंसाख्य उत्पन्नः पापिष्ठो दुष्टकर्मकृत्‌॥
इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।
नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे अदितिपुत्र इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में ‘कृष्ण’ के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।
ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णनकीजिए, और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।
इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी।
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श्रीकृष्ण स्मरण वर्तमान के संदर्भ में—–
युद्धाय कृत निश्चयः …
गीता के उपदेश की सार्थकता इसी में थी कि अर्जुन युद्ध करने के लिए तैयार हो जाए। वह पूरे मनोयोग से युद्ध करने के लिए न केवल तत्पर ही हुआ अपितु महाभारत युद्ध के विजेता का गौरव भी प्राप्त कर सका।
उस समय केवल एक अर्जुन था, परन्तु आज की परिस्थिति में प्रत्येक भारतवासी को अर्जुन बनना पड़ेगा तभी भगवान श्रीकृष्ण की आराधना एवं गीता का अध्ययन-मनन सार्थक हो सकेगा।
महाभारत काल में वैदिक ज्ञान-विज्ञान प्रायः लुप्त हो चुका था और तात्कालीन सामाजिक व्यवस्था लड़खड़ा गई थी। इनके स्थान पर आत्मा के सच्चे स्वरूप के विषय में सामाजिक कर्तव्य के विषय में उस युग के तत्ववादियों के विभिन्न मतों का एक जंजाल ही दिखाई देने लगा था, उदाहरणार्थ प्रज्ञावाद, नियतिवाद, भूतवाद,स्वभाववाद, यदृच्छावाद, सद्सद्वाद, योनिवाद आदि चिन्तनधाराएँ उस काल में जन्म ले चुकी थीं, परिणामतः समाज लड़खड़ा रहा था और मतिभ्रम उत्पन्न हो गया था।
वर्तमान में हर मनुष्य एक बने अर्जुन——
यदि अर्जुन युद्ध से पलायन कर जाता तो क्या स्थिति बनती?। द्रौपदियों की लाज सरेआम नीलाम होती दिखाई देती। आज हर एक क ओ अर्जुन बनना होगा।
जैसा कि वर्तमान में वैदिक ज्ञान के अभाव में अनेक मत, पंथ, संप्रदायों ने समाज को छिन्न-भिन्न और मृतप्राय बना रखा है। तात्पर्य यह है कि वैचारिक क्षेत्र में वर्तमान का परिदृश्य महाभारत काल के परिदृश्य से काफी कुछ मिलता-जुलता है।
इन सभी मत-वादों के कारण उस काल में समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित तो हो ही चुका था अपितु अकर्मण्यता भी बढ़ती जा रही थी। उस काल की विभिन्न विचारधाराओं में कुछ धाराएँ उन ज्ञानमार्गियों की थीं, जो कर्म को त्याज्य व बन्धन का कारण मानते थे।
आज भी हमें इस स्थिति के दर्शन होते हैं। समाज टुकड़ों में विभाजित है और समाज, संस्कृति और देश हित के प्रति उदासीन अकर्मण्यों की जमात बड़ी संख्या में दिखाई दे रही है।
मान लीजिए, यदि अर्जुन युद्ध से पलायन कर जाता तो क्या स्थिति बनती? स्पष्ट है दुर्बुद्धि दुर्योधन जैसे स्वार्थी, अनाचारी और अधर्मियों की जमात बढ़ जाती और भीष्म, द्रोणाचार्य जैसे व्यक्ति उनकी हाँ में हाँ मिलाते दिखाई देते। द्रौपदियों की लाज सरेआम नीलाम होती दिखाई देती। अन्याय और हठधर्मिता का सर्वत्र साम्राज्य हो जाता। सोचिए और अपने अन्तःकरण में विश्लेषण कीजिए कि अर्जुन का युद्ध करना कितना उचित था?
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ज्योतिष एवं श्री कृष्ण का सम्बन्ध—–
वेद-पुराणों द्वारा प्रतिपादित ज्योतिष शास्त्र में पूरे नव ग्रह श्रीकृष्ण के इर्द-गिर्द ही घूमते नजर आते हैं। पुराणों में स्पष्ट लिखा है कि शनि, राहु व केतु जैसे महाकू्रर ग्रह श्रीकृष्ण के भक्तों को कष्ट पहुंचाना तो दूर, वे कृष्ण भक्तों को देख तक भी नहीं सकते। श्रीकृष्ण कारागृह में जन्म से लेकर धर्मक्षेत्र-कुरूक्षेत्र के युद्ध तक सारे जीवन में नवग्रहों के प्रभाव को मानव जीवन में स्थापित करते दिखते हैं। श्रीकृष्ण का भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र मे जन्में थे।
यह रोहिणी चंद्रमा का नक्षत्र है। जिस व्यक्ति का भी जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ है, उन्हें अनिवार्य रूप से श्रीकृष्ण की आराधना करनी ही चाहिए। साथ ही जन्म नक्षत्र पाया ‘सोना’ होने से सोने के पाए में जन्म लेने वाले सभी जातकों को श्रीकृष्ण की नियमित पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
जिन लोगों का जन्म अमावस्या के आसपास हुआ हो या जिनकी जन्मपत्री में चंद्रमा क्षीण हो या अन्य किसी ग्रह से पीडित हो, उन्हें भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए क्योंकि पाराशर मुनि ने श्रीकृष्ण को चंद्र का अवतार ही माना है-चंद्रस्य यदुनायक:।
चंद्रमा के कमजोर होने से होने वाले सारे अरिष्ट श्रीकृष्ण के पूजन-अर्चन से खुद ब खुद ही दूर हो जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण मानव मात्र के लिए परम साधन-सिद्धिप्रदाता हैं।
सारे शास्त्र श्रीकृष्ण को ही गुरुओं का गुरू कहते हैं-’कृष्णं वन्दे जगद्गुरूम्।’ श्रीकृष्ण महादेवता तो हैं ही, साथ ही वे योगीश्वर, कर्मयोग के प्रवर्तक और संसार के सबसे बडे ज्ञानसंग्रह ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के उपदेशक भी हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार श्रीकृष्ण सृष्टि के उत्पादक, नियामक और संहारक हैं। शास्त्रों की यह प्रबल मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही संसार के हरेक जीव को ‘शेषी’ रूप से धारण करते हैं। भाद्रपद की अष्टमी तिथि को श्रीकृष्ण ने अवतार लेकर इस दिन को खासा महत्व प्रदान किया है।
जगद्गुरू रामानंदाचार्य ने अपने ग्रंथ ‘वैष्णवमताब्जभास्कर’ में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का निर्णय करते हुए लिखा है कि सिंह राशि में सूर्य के होने पर भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवार को रोहिणी नक्षत्र से युक्त अर्द्धरात्रि में चंद्रोदय होने पर श्रीकृष्ण माता देवकी से प्रकट हुए। ऎसी पवित्र श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को उल्लास-पूर्वक व्रतोत्सव, उपवास, श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चना और रात्रि में जागरण करने का महाफल है। इस दिन श्रीकृष्ण की कथा सुनने और कहने मात्र से ही कई जन्मों के संचित पापों का नाश हो जाता है।

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