मंगल एक – विचार अनेक….

मंगल की उत्पत्ति, परिचय एवं प्रभाव:- मंगल की माता का नाम पृथ्वी तथा पिता का नाम भगवान विष्णु हैं जो उनके पसिने की बूंद को पृथ्वी द्वारा धारण किये जाने से उत्पन्न हुआ । वामन पुराण में कथा हैं कि जब भगवान शिव ने अंधकासुन नामक दैत्य का वध किया तब उनके श्रम से उपजे पसिने से मंगल का जन्म हुआ । पद्म पुराण के अनुसार जब भगवान शिव ने दक्ष प्रजापति का यज्ञ 
नवग्रहों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शीघ्रफलदायी ग्रह हैं –  मंगल। यह प्रसन्न हो तो राजा बना दे और प्रतिकूल होते ही धन वैभव को मोहताज करदे। मंगल ग्रह नेसर्गिक रूप से पापी ग्रह के रूप में जाना गया है । क्रोध, उग्रता का स्वामी, भाईयों का कारक, संतान उत्पन्न करने वाला, मांस, मज्जा, एवं वीर्य को नियंत्रण करना वाला, तृष्णा और उत्तेजना को जन्म देने वाला, रक्त, हिंसा, शक्ति और पराक्रम का कारक ग्रह मंगल माना गया हैं । इसकी उपस्थिति से जातक में हिम्मत, दृढ़ता, रोग, छोटा भाई और भूमि का अध्ययन भी किया जाता हैं । इसकी सबल स्थिति राज्य का लाभ कराती हैं वहीं यह निर्बल स्थिति रोग, शत्रु और राजदण्ड से जातक को हानि भी कराती हैं । मेष तथा वृश्चिक राशि का स्वामी तथा उच्च राशि मकर और नीच राशि कर्क हैं । जन्म कुण्डली में यह जिस भाव में रहता हें या जिस भाव पर दृष्टि होती हैं, उसभाव से सम्बन्धित पृथकता जन्म स्थितियों का निर्माण होता हैं । निर्जल, रक्तवर्णीय तथा क्षत्रिय जाति को धारण करने वाला मंगल शरीर के पेट और पीठ के हिस्से पर अपना प्रभाव रखता हैं । जब कुण्डली में यह लग्न, चतुर्थभाव, सपतम, अष्टम या द्वादश भाव में होता हैं तो जातक के दाम्पत्य जीवन में विघटन का कारण बनता हैं । अतः इसे कुंज दोष कहा गया हैं । मंगल गृह दक्षिण दिशा का स्वामी, अग्नितत्वीय, पित्त पृकृति वाला,  पुरूष जाति तथा रक्त वर्णिय होता हैं । 
व्यवसाय में मंगल का योगदान:-  मंगल शोर्य का प्रतीक ग्रह हैं अतः जिनकी कुण्डली में दशम भाव में मंगल हो या दशम भाव मंगल से प्रभावित हो तो वे सेना, पुलिस, सिक्यूरिटी गार्ड, प्रशासनिक अधिकारी, गुप्तचर, या अग्निशमन विभाग व ऐसे उद्योग जहां अग्नि का प्रयोग हो, कोयला उद्योग के अलावा मांस काटना, बाल काटना या दुःसाहस के प्रदर्शन सम्बिन्धित व्यवसाय से लाभ दिलवाता हैं। दूषित अवस्था का मंगल जातक को अपराधी , डाकू, तस्कर, हत्यारा, दुष्ट, झूंठा, विश्वासधाती, पाश्विक प्रवृति, कामातुर और अति क्रूर कर्मी तक बनाता हैं। इसके कारण जातक पुत्रहीन व ऋणि रहता हैं।  मंगल की स्थिति के अनुसार एक और जहां खेल-खिलाड़ी के भविष्य या परिणाम के रूप में घोषणा की जाती हें। इसके कारण गोली लगना, घाव होना, दुर्घटना, युद्ध, बल , साहस, पराक्रम, शल्य चिकित्सा, मांसाहारी, वाद-विवाद, महत्वाकांक्षी, चंचलता, रजोदर्शन, हडडी टूटना व थाना कचहरी तथा सेना आदि का विचार किया जाता हैं। 
मंगल और वर्षा योग:- मंगल के प्रभव को चलत्यंगार के वृष्टि सूत्र के अनुसार वर्षायोग में भी देखा जाता हैं । सूर्य के गोचर भ्रमण में आगे चलने वाले मंगल के कारण कम वर्षा का योग माना जाता हैं । जैसा कि विगत तीन चार वर्षो से देखा जाता रहा हैं। 
मंगल और स्वास्थ्य:- मंगल की स्थिति के अनुसार स्वास्थ्य के बारे में भी विचार किया जाता हैं मंगल के दूषित भवस्थ होने पर रक्त संबंधी सभी विकृतियां रक्त केंसर, शरीर के किसी भी हिस्से में चोट लगना (विशेषकर चेहरे पर), अप्रेशन योग्य बीमारियां, अपेंडिक्स आदि बेरी-बेरी रोग, सिरदर्द तथा शरीर में विष के प्रभाव को भी जाना जाता हैं । वैसे मंगल रक्त, आहार नली, मांसल भाग (मज्जा) स्नायु, नाक, तथा ललाट पर अपना प्रभाव दर्शाता हैं। नेत्र रोग, खुजली, त्वचा में खुरदरापन, मिर्गी, कुष्ठ रेाग, वायु जनित प्रकोप एवं बहुत अधिक प्यास लगना तथा मज्जा रोग होने की सम्भावनाएँ ही मंगल के कारण बढ़ जाती हैं। 

मंगल और संतान:- पंचम भाव में मंगल हो या मंगल की राशि (मेष-वृश्चिक) हो तो विलम्ब से संतान होती हैं । मंगल यदि स्वगृही हो तो कई संताने गर्भ में ही नष्ट हो जाती है वहीं शुभ भावस्थ मंगल की संतान भावस्थ दृष्टि संतान की संख्या एवं उसके साहस का परिचायक भी बताया गया हैं । गर्भ धारण की पुष्टि भी मंगल की शुक्र, चन्द्र अथवा गुरू में से किन्ही दो ग्रहो की युति पंचम, सपतम, अष्टम, एकादश या लग्न भाव में होने पर की जाती हैं । 
मंगल और मंगलीदोष:- जन्म के समय कुण्डली में यदि मंगल प्रथम (लग्न) चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भावस्थ मंगल से मंगली दोष बनता हैं (जातक को मांगलिक कहा जाता हैं) किन्तु इन्ही भावों में यदि चन्द्र, गुरू या शनि हो तो मंगल दोष का परिहार बताया गया हैं । स्वक्षेत्री एवं शुभ राशि स्थमंगल भी दोष नाशक होता हैं। मांगलिक दोष होने पर वर वधु दोनो का दाम्पत्य जीवन नर्क तुल्य माना गया हैं । वर की कुण्डली में उक्त स्थानों पर मंगल वधु का एवं वधु की कुण्डली में मंगल का इन स्थानों पर होना वर का नाश करता हैं । भारतीय संस्कृति में मंगल का आशय शुभता, श्रेष्टता और कुशलता से होता हैं, मांगलिक होने का अर्थ यही हैं कि ऐसा जातक अपने जीवन में श्रेष्ठता प्राप्त करता हैं अर्थात उच्चतम यश, कीर्ति, धन, मान, पुरूषार्थ, प्रतिष्ठा और उच्च पद, पूर्ण जीवन प्राप्त करने वाला होता हैं । प्रकृति का सामान्य नियम हैं कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता हैं । उक्त सब पाने के लिए जातक का वैवाहिक सुख खो जाता हैं । यही भाग्य की विडम्बना होता हैं अर्थात वैवाहिक जीवन का विचार आने पर मंगल, अमंगलकारी हो जाता हैं । 
हिन्दू धर्म में विवाह को अनिवार्य संस्कार माना तो इस्लाम में जीवनपर्यन्त साथ रहने का वचन (समझोता) । अन्य धर्मो में भी इसी प्रकार विवाह को विशेष महत्व दिया गया हैं । संसार के सभी लोगो ने इस विवाह नामक संस्था को बनाये रखा । इस अवस्था से शौर्य और सौन्दर्य, वीर्य और रज, घ्रणा और प्यार, जीवन और मृत्यु के बीच परस्पर नियंत्रण और नव सृजन होता हैं । समान गुण-दोष वाले स्त्री पुरूष मिलकर परस्पर निर्भरता के चलते सांसारीक गतिविधियों में भाग लेते हैं । संतान को जन्म देकर संसार चक्र को गति प्रदान करते हैं । इसलिए जीवनरथ को चलाने के लिए पति-पत्नि को रथ के दो पहियों की संज्ञा दी गई हें । इस संसार में कोई भी कार्य बिना प्रेरणा के असंभव होता हैं । विवाह मनुष्य को पाशविक होने से बचाये रखने की अनिवार्य व्यवस्था हैं जिसे मानवीय सभ्यता के विकास क्रम में प्रत्येक धर्म, संस्कृति, जाति, देश काल के मानवीय समाज ने दृढ़ता से अपनाया ही नहीं वरन उसे संरक्षण दिया, पोषित किया, मजबूत किया। प्रत्येक युग में विवाह को जीवन का अनिवार्य अंग माना गया हैं । जहां उसे अपनाने की प्रक्रिया को सर्वत्र सहज, सुलभ और सर्वव्यापि बनाया वहीं विवाह को तोड़ने की घटना को जटिल, असहज व निन्दनीय माना गया हैं । 
यदि गणितीय दृष्टी से विचार करें तो विश्व का प्रत्येक व्यक्ति .. में से किसी एक लग्न में जन्म लेता हैं । उनमें से चित्रानुसार दर्शित पांच लग्नों में जन्म लेने वाला जातक मांगलिक होगा । मांगलिक दोष का स्वाभाविक लक्षण होता हैं पृथकता, उत्पन्न करना और विवाह से आशय हैं जीवन पर्यन्त शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से साथ रहना । मंगल इस व्यवस्था में बाधक बनता हैं । जब जातक मनोवृत्ति, विकारगृस्त हो जाता हैं तो जीवन साथी के प्रति अपने कर्तव्य और भावनाओं में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता हैं । उनके बीच पृथकता उत्पन्न होने लगती हैं और वैवाहिक जीवन दोष पूर्ण होने लगता हैं । 

मंगल के प्रभाव:- शुभ भावों का मंगल भूमि जायदाद में वृद्धि तथा साहस-पराक्रम दर्शाता हैं । वहीं अशुभ भाव स्थमंगल शत्रु वृद्धि तथा भूमि लाभ से वंचित करता हैं । द्वादश भावस्थ बायें नेत्र का नाश करवाता हैं । इस प्रकार से ज्योतिष शास्त्र में मंगल के शुभ-अशुभ प्रभाव की विवेचना की गई हैं । शत्रुओं से युद्ध, भाई व मित्र एवं पुत्रों से कलह एवं अग्नि, अधिकारी व चोरों से भय की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।  
मंगलनाथ मंदिर का विवरण:- उज्जैन में मंगलनाथ का स्थान सर्वोपरि हैं जो कि मंगल ग्रह की सीध में स्थापित हैं । कर्क रेखा के मध्य और खगरता समक्ष यह मंगलनाथ मंदिर जो कि शिप्रा नदी के किनारे सांदिपनी आश्रम के निकट हैं । अति प्राचीन इस मंदिर में श्रंद्धालुजन पूजा अर्चना कर, अभिषेक करवाकर मंगल के दोषो से राहत पाते हुए अपनी मनोकामनाए पूर्ण करते हैं । लाल पदार्थो से भगवान मंगलनाथ की पूजी अर्चना की जाती हैं । क्रोध पर अंकुश लगाने से भी मंगल के कुप्रभाव को टाला जा सकता हैं । संतान, विवाह आदि में मंगलनाथ की कृपा आवश्यक मानी गई हैं । अतः ज्योतिष में आस्था रखने वाले मंगल प्रभाव से पीडि़तजनों को पवित्र नदी शिप्रा में स्नान कर भगवान मंगलनाथ की पूजा अर्चना करनी चाहिए । 
भगवान महामंगल का चतुर्भुज स्वरूप:- भगवान मंगलनाथ की चार भुजाएं हैं । शरीर की रूहें लाल हैं । इनके हाथों में क्रम से अभय मुद्रा, त्रिशुल, गदा और वर मुद्रा हैं । उन्होंने गले में लाल मालाएं व शरीर पर लाल वस्त्र धारण कर रखे हैं । इनके मस्तक पर स्वर्ण मुकुट हैं । तथा ये मेंडा (            ) के वाहन पर सवार हैं । इनका रथ सोने का बना हुआ हैं । 
मंगलगृह उत्पत्ति की विभिन्न कथाएं:- स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान शंकर का अंधकासुर राक्षस से इस स्थान पर भीषण संग्राम हुआ । राक्षस को भगवान शंकर का वरदान था कि उसके शरीर से एक बंूद रक्त भी पृथ्वी पर गिरने से अनेकों राक्षस उत्पन्न होगें । राक्षस ने देवता, ऋषी, मुनी और ब्राह्मणों को सताना शुरू किया तो वे सब घबरा कर ब्रह्ममाजी के पास गए । ब्रह्ममा जी ने विष्णु जी के पास भेज दिया । ये सभी देवता, ऋषी, मुनि भगवान भोलेनाथ के पास गए । भगवान भोलेनाथ स्वयं युद्ध लड़ने आए । लड़ते-लड़ते स्वयं थक गए । भगवान के ललाट से पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिरी और धरती के गर्भ से अंगारक स्वरूप मंगल की उत्पत्ति हुई । भगवान शंकर ने जैसे ही राक्षस पर त्रिशुल से प्रहार किया तो मंगल भगवान ने राक्षस के सारे रक्त को स्वाहा कर दिया । भगवान मंगल का स्वरूप अंगार के समान लाल हैं । भगवान मंगल का स्वरूप अष्टावक के स्वरूप में हैं । मंगल भगवान अग्नितत्व हैं और मंगल विष्णु स्वरूप भी हैं । मंगल पूर्ण ब्रह्म हैं । भगवान भोलेनाथ ने मंगल को अवंतिका में महांकाल वन में तीसरा स्थान दिया हैं । मंगल का उत्पत्ति स्थल अंगारेश्वर, शिप्रा नदी के किनारे कर्क रेखा पर स्थित हैं । ऐसी मान्यता हैं कि यदि इस स्थान पर छेंद किया जाए तो उसका अन्तिम सिरा अमेरिका में निकलेगा । 
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार पृथ्वी को दुखित देखकर उसके पिता ब्रह्मा ने उसे मेढक पुत्र-रूप में दिया । पुत्र-रूप में मेढक को देखकर पृथ्वी प्रलाप और रूदन करने लगी । उसकी इस अवस्था से द्रवीभूत होकर विधाता (ब्रह्मा) ने मेढक को मानव रूप में बदल दिया । पृथ्वी के उस पुत्र का नाम भौमासुर हुआ । भौमासुर ने अपने अत्याचारों से पृथ्वीमण्डल और आकाशमण्डल को मथ डाला, त्रसित एवं उत्पीडि़त कर डाला । तब पृथ्वी ने फिर पुकारा कि इस बार उसके पिता ने भौम नामक एक दूसरा पुत्र पृथ्वी को दिया और कहा ‘‘पुत्री ! यह भौम भौमासुर की भांति किसी को संतप्त नहीं करेगा । पृथ्वी पर सब सुख देगा तथा सभी के दुःखों को मोचन करेगा । इसे पुरूष ही नहीं, स्त्री भी प्रेम करेगी । इसे अपने शीश पर बिठाएगी ।‘‘ 
उसी समय से मंगलसूत्र नाम का आभूषण आज भी नारियों के सुगाग का प्रतीक बना हुआ हैं । यही वह भौम (मंगल) हैं, जो विश्व-कल्याण के लिए, धर्म और सत्य के लिए, जगत् के धरा-धाम में विहार करता हैं । जो धर्म, मर्यादा और प्राचीन मूल्यों का तिरोभाव करता-फिरता हैं, यह उसे दंड देता हैं । भयानक दंड देने के कारण ही मंगल को अकरूण, क्रुर और कठोर कहा जाता हैं । वास्तव में मंगल मंगलदायक हैं, कष्टदायक नहंी । मंगल बल-विक्रम का देवता माना जाता हैं । श्रीहनुमान् की भांति पृथ्वीनंदन मंगल की भी आराधना की जाती हें । बलिदान का स्वरूप, त्याग का अवतार तथा रोग-पिड़ा का विनाशक मंगल ही हैं । 

मंगल का शांति पूजन:- मंगल भगवान अग्नि तत्व होने के कारण जातक की कुण्डिली में मंगल यदि गलत स्थान में स्थित हो जावे तो जातक के कार्य में विघ्न उत्पन्न होने लगता हैं । उसी कार्य को सही करने का विधान हैं माता पूजा । दही भात मिलाकर शिवस्वरूप भगवान मंगल पर चढ़ाया जाता हैं । जिससे भगवान की अग्नि शांत होती हैं जिससे भगवान प्रसन्न होकर भक्त पर कृपा दृष्टि करते हैं तथा मंगल की पीढ़ा शांत हो जाती हैं । मंगल अग्नि तत्व होने के कारण मस्तिष्क की सारी बीमारियां 28 वर्ष तक भ्रमित करती हैं जो कि कलयुग में आधी उम्र मानी जाती हैं । लेकिन मंगल गृह को मानने से यह व्याधि शांत करता हैं । कुण्डली में लग्न चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादशी भाव में मंगल स्थित होने से जातक की कुण्डली मंगली होती हैं जिससे विवाह में व्यवधान उत्पन्न होता हैं । मंगल की शांति से यह व्यवधान भी समाप्त होता हैं । भगवान मंगल के वाहन मेडे (          ) के कान में आवाज लगाने से भगवान मंगल भक्त की आवाज सुनकर उसकी मनोकमना तुरन्त पूर्ण करते हैं । भूमि से जुड़े सभी कार्य को सिद्ध करने के लिए मंगल भगवान की माता पृथ्वी ( माँ भुवनेश्वरी) के पूजन के बाद मंगल का पूजन करने से भूमि संबंधीत सभी कार्य जैसे घर, मकान बनाने, खेती, किसानी, भूमि सम्बन्धि मुकदमें आदि में आश्चर्यजनक लाभ होता हैं । 
मंगल दान:- जिस जातक को मंगल की पीडा होती हैं या मंगल दोष होता हैं । उस दोष को मिटाने का सबसे बड़ा आसान उपाय हैं मंगल दान । सामान्य सामग्री – लाल कपड़ा एक मीटर, सवा किलो गेहूॅ, सवा किलो मसूर की दाल, 5.0 ग्राम गुड़, तांबे का पात्र, कनेर या गुलाब के पुष्प (लाल पुष्प), केसर, लाल चंदन, कस्तुरी, मुंगा, स्वर्ण व यथा शक्ति दक्षिणा को लाल कपड़े में बांधकर मंगलनाथ मंदिर में मंगल भगवान के समक्ष अर्पण करने से मन में संकल्प करने से जातक की समस्त मंगल जनित व्याधियां शांत होती हैं । मंगल कार्य के लिए भूमि दान, तुला दान, स्वर्ण दान व गुड़ का दान किया जाता है। 
मंगल शांति हेतु वैदिक मंत्र:- 
‘‘ओम अग्र्निमुर्धा दिवाः ककुत्पतिः पृथिव्याअयम अपागुरेता सिजिन्वति‘‘
पौराणिक मंत्र:- 
‘‘ओम धरणी गर्भ सम्भुंतं विधुत कान्ती समप्रभम् कुमारं शक्ति हंस्त च मंगलम प्रणाम्यहम‘‘
बीज मंत्र:- 
‘‘ओम कां कीं सः भौमाय नमः‘‘
सामान्य मंत्र:- 
‘‘ओम अं अंगारकाय नमः‘‘
इनमें से कोई एक मंत्र श्रद्धानुसार 10,000 नित्य जाप करें या किसी के द्वारा जाप करवाए। कलयुग में जप संख्या चार गुना कराने से अप्रत्याशित लाभ । विशेष परिस्थिति में ब्राह्मण या गुरू की सलाह लेकर जाप करें । 

भगवान मंगलनाथ के विभिन्न श्रृंगार:- 
1 गुलाल श्रृंगार 
2 गुुलाब श्रृंगार 
. विजया श्रृंगार (भांग से )
4 मावा श्रृंगार (मंगलवार के दिन)
5 छप्पन भोग श्रृंगार (दीपावली पर विशेष)
भगवान मंगलनाथ की आरतीयों का समय प्रातः 5 बजे एवं सायं 6 बजे । भगवान मंगल को मुख्य रूप से नैवेद्य (भोग) गुड़-चुरमा का चढ़ाया जाता हैं । 

मंगल यंत्र:- मंगल यंत्र को 21 कोणों में बांटा गया हैं । मंगल के 21 नामोें का उल्लेख होता हैं जो क्रम से इस प्रकार हैं:- 1. ओम मंगलाय नमः 2. ओम भूमि पुत्राय नमः 3. ओम ऋण हर्ते नमः 4. ओम धनप्रदाय नमः 5. ओम स्थिरआसनाय नमः 6. ओम महाकाय नमः 7. ओम सर्वकर्मा विरोधिकाय नमः 8. ओम लोहिताय नमः 9. ओम लोहिताक्षाय नमः 10. ओम सामागानां कृपाकाय नमः 11. ओम ध्रातत्मजाय नमः 12. ओम कुजाय नमः 13. ओम भोमाय नमः 14. ओम भुमिदाय नमः 15. ओम भूमिनन्दयाय नमः 16. ओम अंगारकाय नमः 17. ओम यमाय नमः 18. ओम सर्वरोगोपहारकाय नमः 19. ओम वृष्टिकत्रे नमः 20. ओम वृष्टिहत्रे नमः 21. ओम सर्वकाम फलप्रदाय नमः 
उपरोक्त मंत्रों से पूजन करने के बाद मंगलवार को 21 कनैर के पुष्प चढ़ाकर दूध धारा या जल धारा से पूजन कर स्थापित करके नित्य पूजन करने से मंगल की अनुकूलता प्राप्त होती हैं । ऋण दोष के लिए सबसे सरल व अचूक उपाय ऋण मोचक मंगल स्त्रोत का पाठ करें या योग्य ब्राह्मण द्वारा करावें । 
शिवोपासना का सबसे सरल उपाय: रूद्राष्टक 
मंगल शांति के उपाय: –
1 लाल पुष्पों को जल में प्रवाहीत करें। 
2 मंगलवार को गुड़ व मसूर की दाल जरूर खायें।
3 मंगलवार को रेवडि़या पानी में विसर्जित करें। 
4 आटे के पेड़े में गुड व चीनी मिलाकर गाय को खिलायें। 
5 मीठी रोटियों का दान करें। 
6 ताँबे के तार में डाले गये रूद्राक्ष की माला धारण करें। 
7 मंगलवार को शिवलिंग पर जल चढ़ावे। 
8 बन्दरों को मीठी लाल वस्तु जैसे – जलेबी, इमरती, शक्करपारे आदि खिलावे।
9 शिवजी या हनुमान जी के नित्य दर्शन करें और हनुमान चालीसा या महामृत्युन्जय मंत्र की      रोजाना कम से कम एक माला का जाप करे। हनुमान जी के मन्दिर में दीपदान करें तथा बजरंग बाण का प्रत्येक मंगलवार को पाठ करे।
10 गेहूँ , गुड़, मंूगा, मसूर, तांबा, सोना, लाल वस्त्र, केशर – कस्तूरी, लाल पुष्प , लाल चंदन , लाल रंग का बैल, धी, पीले रंग की गाय, मीठा भोजन आदि लाल वस्तुओं का दान मंगलवार मध्यान्ह में करें। दीन में मंगल यंत्र का पूजन करें। मंगलवार को लाल वस्त्र पहने। 
11 शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार से 21 या 45 मंगलवार तक अथवा पूरे वर्ष मंगलवार का व्रत करें। गुड़ का बना हलवा भोग लगाने व प्रसाद बाँटने के काम में लाये और सांयकाल को वही प्रसाद ग्रहण करें। 
12 जिस मंगलवार को व्रत करें उस दिन बिना नमक का भोजन एक बार विधिवत मंगल की पूजा अर्चना कर ग्रहण करें। 
13 पति-पत्नि दोनों एक साथ रसोई में बैठकर भोजन करें। 
14 स्नान के बाद सूखे वस्त्र को हाथ लगाने से पहले पूर्व दिशा में मुँह करके सूर्य का अर्ध देकर प्रणाम करें। (सूर्य देव दिखाई दे या न दे)
15 शयन कक्ष में पलंग पर काँच लगे हो तो उन्हें हटा दे, मंगल का कोप नहीं रहेगा अन्यथा उस काँच में पति – पत्नि का जो भी अंग दिखाई देगा वह रोगग्रस्त हो जायेगा।
16 मन का कारक चन्द्रमा होता हैं जिसके कारण मन को चंचलता प्राप्त होती हैं। पति-पत्नि के बीच जब भी वाद-विवाद हो, उग्रता आने लगे तब दोनों में से कोई एक उस स्थान से हट जायें, चन्द्र संतुलित रहेगा। 
17 शयन कक्ष में यदि रोजाना पति-पत्नि के बीच वाद-विवाद, झगड़े जैसी घटनाएँ होने लगे तो जन्म कुण्डली के बारहवें भाव में पड़े ग्रह की शान्ति करावें। 
18 दाम्पत्य की दृष्टि से पत्नि को अपना सारा बनाव श्रृगांर (मेकअप) आदि सांयकाल या उसके पश्चात करना चाहिए जिससे गुरू , मंगल और सूर्य अनुकूल होता हैं। दीन में स्त्री जितना मेकअप करेगी पति से उसकी दूरी बढ़ेगी। 
19 पति-पत्नि के बीच किसी मजबूरी के चलते स्वैच्छिक दूरी बढ़े तो पति-पत्नि दोनों को गहरे पीले रंग का पुखराज तर्जनी अंगुली में धारण करना चाहिए। 
20 यह बात ध्यान रखें कि वैवाहिक जीवन में मंगल अहंकार देता हैं स्वाभिमान नहीं। दाम्पत्य जीवन की सफलता हेतु दोनंों की ही आवश्यकता नहीं होती हैं। पाप ग्रहों का प्रभाव दाम्पत्य को बिगाड़ देता हैं। ऐसी स्थिती में चन्द्रमा के साथ जिस पाप ग्रह का प्रभाव हो उस ग्रह की शांति कराने से दाम्पत्य जीवन सुखमय होता हैं। शुक्ल पक्ष मेें पति-पत्नी चाँदनी रात में चन्द्र दर्शन कर, चन्द्रमा की किरणों को अपने शरीर से अवश्य स्पर्श करवावें। 
21 बाग – बगीचा, नदी , समुद्र, खेत, धार्मिक स्थल एवं पर्यटन स्थलों आदि पर पति – पत्नी साथ जायें तो श्रेष्ट होगा। इससे गुरू व शुक्र प्रसन्न होगें, इसके विपरीत कब्रिस्तान , कोर्ट – कचहरी , पुलिस थाना , शराब की दुकान , शमशान व सुना जंगल आदि स्थानों पर  पति-पत्नी भूलकर भी साथ न जायें। 
22 मंगल के कोप के कारण बार – बार संतान गर्भ में नष्ट होने से पति-पत्नी के बीच तनाव , रोग एवं परेशानियां उत्पन्न होती हैं ऐसी स्थिति में पति – पत्नी को महारूद्र या अतिरूद्र का पाठ करना चाहिए। 
23 मंगल की अशुभ दशा , अन्तर्दशा में पति – पत्नी के बीच कलह , वाद – विवाद व अलगाव सम्भावित हैं। ऐसी स्थिती में गणपति स्त्रोत , देवी कवच , लक्ष्मी स्त्रोत , कार्तिकेय स्त्रोत एवं कुमार कार्तिकेय की नित्य पूजा अर्चना एवं पाठ करना चाहिए। 
24 जिन युवक-युवतियों का विवाह मंगल दोष के कारण नहीं हो रहा हैं, उन्हें प्रतीक स्वरूप विवाह करना चाहिए। जिनमें कन्या का प्रतीक विवाह भगवान विष्णु से या सालिग्राम के पत्थर या मूर्ति से कराया जाता हैं। इसी प्रकार पुरूष का प्रतीक विवाह बैर की झाडि़यों से कराया जाता हैं। 
25 विवाह के इच्छुक मांगलिक युवक-युवतियों को तांबंे का सिक्का पाकेट या पर्स में रखना चाहिए। तांबें की अंगुठी अनामिका अंगुली में धारण करे, तांबे का छल्ला साथ रखें, रात्रि में तांबे के पात्र में जल भरकर रखें व प्रातः काल उसे पीयें। 
26 प्रतिदिन तुलसी को जल चढ़ाने और तुलसी पत्र का सेवन करने से मंगल के अनिष्ठ शांत होते हैं। 
27 अपना चरित्र हमेशा सही रखें । झूठ नहीं बोले । किसी को सताए नहीं । झूठी गवाही कभी भी ना देवे । दक्षिण दिशा वाले द्वार में न रहें । किसी से ईष्र्या, द्वेश भाव न रखे । यथा शक्ति दान करें । 
28 मंगलवार के दिन सौ गा्रम बादाम दक्षिणमुखी हनुमानजी के यहां ले जावे । उनमें से आधे बादाम मंदिर में रख देवे और आधे बादाम घर लाकर पूजा स्थल पर रखें । बादाम खुले में ही रखे । यह जब तक रखे जब तक की आपकी मंगल की महादशा चलती हैं । 
29 मूंगा या रूद्राक्ष की माला हमेशा अपने गले में धारण करें । 
30 आँखो में सुरमा लगावें । जमीन पर सोयें । गायत्री मंत्र का जाप संध्याकाल में करें । 
31 नित्य सुबह पिता अथवा बड़े भाई के चरण छुकर आशीर्वाद लेवें । 
32 मंगल की शांति हेतु मूंगा रत्न धारण करना चाहिए इसके लिए चांदी की अंगुठी में मूंगा जड़वाकर दायें हाथ की अनामिका में धारण करना चाहिए। मंूगे का वजन 6 रत्ती से अधिक होना चाहिए। धारण करने से पूर्व मंूगे को गंगाजल, गौमूत्र अथवा गुलाब जल से स्नान करवाकर शुद्ध करें तत्पश्चात विधि अनुसार धारण करें। 
33 जो जातक मूंगा धारण नहीं कर सकते उन्हें तीनमुखी रूद्राक्ष धारण कराना चाहिए । तीन मुखी रूद्राक्ष को लाल धागे में गुथकर धूपित करके, मंगलवाल के दिन गले या दाहिने हाथ में धारण करें । इसके प्रभाव से उन्हें मंगल शांति में सफलता मिलती हैं । 
34 क्रुर व उग्र होते हुए भी सौम्य ग्रहों की युति से मंगल विशेष सौम्य फल प्रदान करता हैं । चन्द्र व मंगल की युति आकस्मिक धनप्राप्ति, शनि मंगल की युति डुप्लीकेट सामान बनाने व नकल करने में माहिर बनाता हैं, ऐसा व्यक्ति कार्टूनिस्ट, पोट्रेट आर्टिस्ट व मुखौटे बनाने में निपुण हो सकता हैं । शुक्र व मंगल की युति फोटोग्राफी, सिनेमा तथा चित्रकारी आदि की योग्यता भी देता हैं । बुध के साथ युति होने पर जासूस का वैज्ञानिक और मांगलिक प्रभाव भी नष्ट करता हैं, किन्तु जिन घरों पर वह दृष्टि डालता हें वहां अवश्य ही हानि करने वाला होता हैं । कुण्डली में सातवां घर मंगल का ही माना जाता हैं क्योकिं यह मंगल की उच्च राशि हैं । अतः सातवां घर मंगल की स्वराशि का घर कहलाता हैं । 
35 पुत्रहीनता तथा ऋणग्रस्तता दूषित मंगल की ही देन होती हैं । स्त्रियों में कामवासना का विशेष विचार भी मंगल से किया जाता हैं । मंगल के प्रभाव से होने वाले रोगादि रक्त-सम्बन्धी रोग, पित्त विकार, मज्जा विकार, नेत्र विकार, जलन, तृष्णा, मिर्गी व उन्माद आदि मानसिक रोग, चर्म रोग, अस्थिभ्रंश, आॅपरेशन, दुर्घटना, रक्तस्त्राव व घाव, पशुभय, भूत-पिशाच के आवेश से होने वाली पीड़ाएं आदि विशेष हैं । निर्बल होने से यह जीवन शक्ति उत्साह व उमंग का नाश करता हैं तथा कायर बनाता हैं । 
मंगल के विशेष फल: – 
1 लग्न में यदि मंगल हो तो स्त्री अंहकार युक्त होती हैं। 
2 जिस स्त्री के अष्टम स्थान में मंगल बैठा हो वह व्यभिचारिणी होती हैं।
3 जिस स्त्री के लग्न में मंगल, शनि हो उसका गर्भपात होता हैं। 
4 यदि मंगल के घर के राहु हो अथवा सप्तम , अष्टम या द्वादश स्थानों में हो तो स्त्री विधवा हो जाती हैं। यदि सप्तम स्थान में पापी ग्रह हो तो विवाह पश्चात सात वर्ष के अन्दर स्त्री विधवा हो जाती हैं। यदि स्त्री की कुण्डली में 1ए 4ए 8ए 12 स्थानों का मंगल विवाह के पश्चात पति – पत्नी दोनों का नाश करता हैं। ऐसा मंगल बड़ा अमंगलकारी होता है।
5 यदि सप्तम स्थान में मंगल व शुक्र एक दूसरे के नवमांश में हो तो स्त्री पति के अतिरिक्त किसी दूसरे पुरूष पर आसक्त होती हैं। 
6 यदि सप्तम स्थान में मंगल का नवमांश हो तो स्त्री का स्वभाव बड़ा चंचल तथा क्रोधी होता हैं। 
7 यदि स्त्री की कुण्डली के पंचम स्थान में मंगल हो तो उस स्त्री के तीन पुत्र होते हैं। 
8 यदि चन्द्रमा तथा लग्नेश स्थिर राशि में हो तथा लग्न में स्थिर राशि हो तो कन्या अक्षत योनि होती हैं। यदि लग्न में चर राशि हो, चन्द्रमा तथा लग्नेश चर राशि में स्थित हो तो वह कन्या विवाह पूर्व दूसरों के साथ रमण करती हैं। यदि चन्द्रमा, सूर्य व शनि लग्न में हो तो कन्या दूसरे व्यक्ति द्वारा उपयोग की गई होती है। यदि स्त्री की जन्म कुण्डली के किसी घर में शुक्र के नवमांश में मंगल हो और मंगल के नवमांश में शुक्र हो तो वह स्त्री पर-पुरूष गमन करके अपनी कामाग्नि शान्त करती है। यदि जन्म काल में लग्न अथवा चन्द्रमा मंगल की मेष या वृश्चिक राशि में हो और उसमें इन्हीं राशियों का त्रिशांश हो तो ऐसी कन्या विवाह से पूर्व ही पर पुरूष गमन करती हैं। 
9 यदि चैथे और बारहवें स्थान में पापयुक्त मंगल हो तो स्त्री चंचल नेत्रों वाली होती हैं वह पति का तिरस्कार करके दूसरे पुरूष से कामलीला करती है। यदि लग्न में सूर्य, मंगल अथवा शनि हो तो स्त्री दुर्भाग्य वाली होती हैं, वह दूसरे पुरूष की इच्छा करती हैं। यदि सप्तम स्थान का मंगल शुक्र व चन्द्रमा के साथ हो तो स्त्री पति की आज्ञा से व्यभिचार करती हैं। यदि सप्तम व अष्टम स्थान में मंगल की राशि और उसमें पापी ग्रह सहित राहु हो तो स्त्री वैश्या होती हैं। 
10 यदि सप्तम स्थान में मंगल और लग्न में चन्द्रमा हो तो स्त्री – पुरूष दोनों में से एक की मृत्यु आठवें वर्ष में होती हैं। 
11 यदि लग्न की राशि शनि या मंगल का घर हो, चन्द्रमा शुक्र से युक्त हो और उसको पापी ग्रह देखें तो स्त्री बन्ध्या होती हैं। 
12 जब मंगल पंचव भाव में होता हैं तो जातक को उदर रोग होता हैं। यदि तीसरे – ग्यारहवें घर और गुरू – मंगल शनि से युक्त हो या दृष्ट हो तो कान का रोग होता हैं। यदि सूर्य और चन्द्रमा दूसरे या बारहवें स्थान में हो और उनको मंगल या शनि देखते हो तो नेत्र रोग होता हैं। 

क्या पितृ दोष का कारण मंगल हैं ? 
क्या हैं पितृ दोष – यदि हमारे पूर्वजों ने किसी प्रकार के अशुभ कार्य किये हो एंव अनैतिक रूप से धन एकत्र किया हो तो उसके दुष्परिणाम आने वाली पीढि़यों को भोगने पड़ते हैं, क्योंकि आगे आने वाली पीढि़यों के भी कुछ ऐसे अशुभ कर्म होते हैं कि वे उन्ही पूर्वजों के यहाँ पैदा होते हैं। अतः पूर्वजों के कर्मा के फलस्वरूप आने वाली पीढि़यों पर पड़ने वाले अशुभ प्रभाव को पितृ-दोष कहा जाता है। पितृ-दोष या गुण पीढ़ी दर पीढ़ी संक्रमित होते रहते हैं। हमें अपने पूर्व जन्मों के कर्मो के अनुसार ही उस वेश, उस जाति, उस परिवार एवं उस माता-पिता के यहाँ ही जन्म लेना पड़ता हैं, जिनसे पूर्व जन्मों में हमारे सम्बन्ध रहे हैं, एवं उनके साथ रहकर उनकी स्वीकृति अथवा सहयोग से हमने पाप या पुण्य कर्म किये होते हैं। चूंकि मंगल का संबंध रक्त से होता हेै जो पितृदोष का कारक माना जाता हैं । रक्त कम हो जाना, पितृदोष में आया मंगल रक्त की कमी करके संतान पैदा करने की शक्ति का हनन करता हैं। 
भूतकाल से वर्तमान काल तक आती हुई अनन्त भविष्य तक गतिशील पीढि़यों के स्वभाव तो होते ही हैं पेतृक भी होते हैं। कुछ पैतृक चिन्ह व स्वभाव आश्र्चय जनक होते हैं। जैसे – प्रायः व्यक्ति का चेहरा स्पष्ट हो जाता हैं कि यह व्यक्ति अमुक का पुत्र या भाई हैं। इसी प्रकार कई बार पिता – पुत्र की वाणी बात करने के लहजे में अद्भुत समानता देखने में आती हैं। जब व्यक्ति अपने कर्म फल लेकर मानव योनि में उत्पन्न होता हैं तब परिवार वाले उसकी कुण्डली बनवाते हैं। कुण्डली विवेचन कर ज्योतिषी उसके पूर्व जनम के कर्माे का परिणाम धोषित करता हैं। कुछ ज्योतिषी जातक की कुण्डली में पितृ-दोष की सूचना देनेे में छाया ग्रह राहु – केतु की प्रमुख भुमिका मानते है। राहू – केतु जहाँ पितृ-दोष के सूचक प्रमुख घटक ग्र्रह हैं, तो वहीं यह दोनों ग्रह स्पष्टतया ’’ काल सर्प योग ’’ की भी धोषणा करते हैं, अर्थात राहु-केतु ही ’’पितृ-दोष’’ और ’’काल सर्प ’’ योग के प्रमुख घटक हैं। दोनों ही दोष जातक के पितरों व उसके स्वंय के पूर्व जन्म  व जन्मों में किये गये अशुभ कर्मो का ही परिणाम होते हैं। इनके कारण वंश वृद्धि तक रूक जाती है। इस प्रकार देखें तो पितृ-दोष और काल सर्प योग में कोई अन्तर नहीं हैं। पितृ-दोष को दूर करने के लिए किसी भी प्रकार के उपायों के उपक्रम में पारिवारिक सम्बन्धों को सुधारना प्राथमिक आवश्यकता हैं। यदि कोई यह चाहे कि अपने माता-पिता आदि का तिरस्कार करते हुए या कष्ट देेते हुये इन दोषों को किसी पूजा, टोटके या दान आदि से दूर कर लेगा तो उस जातक के दोष दूर करने के स्थान पर बढ़ते जायेगें। पितृ-दोष के कारण जातक का मन पूजा पाठ में नहीं लगता और जातक को नास्तिक बनाता हैं। ईश्वर के प्रति उनकी आस्था कम हो जाती हैं, स्वभाव चिड़चिड़ा, जिद्दी और क्रोधी हो जाता हैं। धार्मिक कार्यो को मात्र ढकोसला मानते हैं। कुछ लोग किसी ग्रह के शुभ होने से पूजा विधान कराना तो चाहते हैं किन्तु धन के अभाव में उन्हें टालते रहते हैं। 
अकाल मृत्यु ही पितृदोष का मुख्य कारक बनती हैं। अकाल मृत्यु यानी समय से पहले ही किसी दुर्घटना का शिकार हो जाना, ब्रह्मलीन हो जाना हैं। इस अवस्था में मृत आत्मा तब तक तड़फती रहती हैं जब तक की उस की उम्र पूरी नहीं होती हैं। उम्र पूरी होने के बाद भी कई मृत आत्माएँ भूत, प्रेत, नाग आदि बनकर पृथ्वी पर विचरण करती रहती हैं और जो धार्मिक आत्माएँ रहती हैं वो किसी को भी परेशान नहीं करती बल्कि सदैव दूसरों का भला करती हैं। लेकिन दुष्ट आत्माएँ हमेशा दूसरों को दुःख, तकलीफ ही देती रहती हैं। हमारे पूर्वज मृत अवस्था में जो रूप धारण करते है वह तड़पते रहते हैं। और आकाश में विचरण करते रहते हैं। न उन्हें पानी मिलता हैं और ना ही खाने के लिए कुछ मिलता हैं। वह आत्माएँ चाहती हैं कि उनका लडका, पोता, पोती या पत्नी इनमें से कोई भी उस आत्मा का उद्धार करे। इसलिए वे आत्माएँ पुत्र या पोते के जीवन में घनघोर संकट के रूप में सामने दिखाई देने लगती हैं, जो कि पितृ-दोष का मुख्य कारण बन जाती हैं। पितृ-दोष परिवार में एक को ही होता हैं। जो भी उस आत्मा के सबसे निकट होगा, जो उसे ज्यादा चाहता होगा वही उसका मुख्य पात्र बनता हैं। 
जब हम किसी विद्वान पण्डित को कुण्डली या हाथ दिखाते हैं तो वह पितृ-दोष उसमें स्पष्ट आ जाता हैं। हाथ में पितृ-दोष, गुरू पर्वत और मस्तिष्क रेखा के बीच में से एक लाईन निकलकर जाती हैं जो कि गुरू पर्वत को काटती हैं यह पितृ-दोष का मुख्य कारण बनती हैं। पितृ-दोष को ही काल सर्प योग कहते हैं। काल सर्प योग पितृ-दोष का ही छोटा रूप माना जाता हैं। पितृ-दोष को मंगल का कारक भी कहा गया हैं क्योंकि कुण्डली में मंगल को खुन के रिश्ते से जोड़ा गया हैं। इसलिए पितृ-दोष मंगल दोष भी होता हैं जो कि शिव आराधना से दूर होता हैं।
 काल सर्प के बारे में एक कथा प्रचलित हैं कि जब समुद्र मंथन हुआ था तो उसमें से चैदह रत्नों की प्राप्ति हुई, उसमें से एक रत्न अमृत के रूप में भी निकला। जब अमृत निकला तो इसे ग्रहण करने के लिए देवताओं और राक्षसों में युद्ध छिड़ने लगा तब भोलेनाथ ने समझा-बुझाकर दोनों को पंक्ति में बैठने को कहा, विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर अमृत का पात्र अपने पास लेकर सभी को अमृत पान कराना आरम्भ किया। चालाक विष्णु ने पहले देवताओं वाली पंक्ति में अमृत पान कराना आरम्भ किया, उसी समय एक दैत्य देवताओं की इस युक्ति को समझ गया और देवता का रूप बनाकर देवता वाली पंक्ति में बैठकर अमृत पान कर लिया, जब सूर्य और चन्द्र को पता लगा तो उन्होनें विष्णु से इस बात की शिकायत की, विष्णु जी को क्रोध आया और उन्होनें सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। सुदर्शन चक्र ने उस राक्षस के सर को धड़ से अलग कर दिया, क्योंकि वह अमृत पान कर चुका था इसलिए वह मरा नहीं ओर दो हिस्सों में बंट गया। सर राहु और धड़ केतु बन गया लेकिन जब उसका सर कटकर पृथ्वी पर गिरा तब भरणी नक्षत्र था और उसका योग काल होता हैं, जब धड़ पृथ्वी पर गिरा तब अश्लेशा नक्षत्र था जिसका योग सर्प होता हैं। इन दोनों योग के जुड़ने से ही काल सर्प योग की उत्पत्ति हुई। 
पंचमेश और लाभेश भाव में आया राहु, केतु पितृदोष का निर्माण करता हैं एवं शत्रु भाव में आया और व्यय भाव में आया राहु , केतु भी जातक की कुण्डली में पितृ-दोष का कारक माना जाता हैं। यदि इन दोनों भावों में चन्द्र $ केतु और राहु , केतु की युति आती हैं तो उस जातक का भगवान ही मालिक होता हैं। इसके कारण पारिवारिक कलह , व्यवसाय में व्यवधान , पढ़ाई में मन न लगना , सपने आना, सपनों में नाग दिखना, पहाड़ दिखना, पूरे हुए कार्य का बीच में बिगड़ जाना , आकाश में विचरण करना , हमेशा अनादर पाना, मन में अशान्ति रहना , शान्ति में व्यवधान , कौआ बैठना , कौओं का शोरगुल हमेशा अपने घर के आस-पास होना पितृ-दोष (कालसर्प योग) की निशानी होेता हैं। इसका उपाय किसी विद्वान पण्डित से ब्रह्म सरोवर, पुष्कर (राजस्थान) या उज्जैन जाकर शिप्रा किनारे सिद्ध वट पर पूजा अर्चना कर पितृ शान्ति करवानी चाहिए। पितृ-दोष , काल सर्प या नारायण बली का निवारण किसी अच्छे व योग्य पण्डित के द्वारा ही करवाना चाहिए क्योंकि आजकल लोगों को ज्यादा लूटा जाता हैं। इसलिए अपने किसी परिचित के साथ जाकर इसका निवारण करवाना चाहिए। 
पितृ-दोष निवारण के उपाय: – 
1 प्रतिदिन ‘‘सर्प सूक्त‘‘ का पाठ भी कालसर्प योग में राहत देता हैं । 
2 ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें , नाग पंचमी का वृत करें, नाग प्रतिमा की अंगुठी पहनें । 
3 कालसर्प योग यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नित्य पूजन करें । घर एवं दुकान में मोर पंख लगाये । 
4 ताजी मूली का दान करें । मुठ्ठी भर कोयले के टुकड़े नदी या बहते हुए पानी में बहायें । 
5 महामृत्युंजय जप सवा लाख , राहू केतु के जप, अनुष्ठान आदि योग्य विद्धान से करवाने चाहिए । 
6 नारियल का फल बहते पानी में बहाना चाहिए । बहते पानी में मसूर की दाल डालनी चाहिए। 
7 पक्षियों को जौ के दाने खिलाने चाहिए । 
8 शिव उपासना एवं रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल हो जाता हैं । 
9 सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के दिन सात अनाज से तुला दान करें । 
10 72000 राहु मंत्र ‘‘ऊँ रां राहवे नमः‘‘ का जप करने से काल सर्प योग शांत होता हैं । 
11 राहु एवं केतु के नित्य 108 बार जप करने से भी यह योग शिथिल होता हैं । राहु माता सरस्वती एवं    केतु श्री गणेश की पूजा से भी प्रसन्न होता हैं । 
12 हर पुष्य नक्षत्र को महादेव पर जल एवं दुग्ध चढाएं तथा रूद्र का जप एवं अभिषेक करें । 
13 हर सोमवार को दही से महादेव का ‘‘ऊँ हर-हर महादेव‘‘ कहते हुए अभिषेक करें । 
14 राहु-केतु की वस्तुओं का दान करें । राहु का रत्न गोमेद पहनें । चांदी का नाग बना कर उंगली में    धारण करें । 
15 शिव लिंग पर तांबे का सर्प अनुष्ठानपूर्वक चढ़ाऐ। पारद के शिवलिंग बनवाकर घर में प्राण प्रतिष्ठित करवाए । 
16 लाल मसुर की दाल और कुछ पैसे प्रातःकाल सफाई करने वाले को दान करे । कुछ कोयले पानी में बहावें । 
17 नारायणबली, नागबली अथवा त्रिपिण्डी श्राद्ध करें इससे कुछ लाभ मिलता हैं । यह अनुष्ठान ब्रह्म सरोवर पुष्कर (राजस्थान), सिद्धवट, उज्जैन (म0प्र0), गया, तक्षकपीठ (इलाहाबाद संगम) , विश्व प्रसिद्ध तिरूपति बाला जी के पास काल हस्ती शिव मंदिर में भी कालसर्प योग शान्ति कराई जाती हैं। त्रयंबकेश्वर में व केदारनाथ में भी शान्ति कराई जाती हैं । गेहूॅ या उड़द के आटे की सर्प मूर्ति बनाकर एक साल तक पूजन करने और बाद में नदी में छोड़ देने तथा तत्पश्चात नाग बलि कराने से काल सर्प योग शान्त होता हैं । 
18 पितरों के मोक्ष का उपाय करें । श्राद्ध पक्ष में पितरों का श्राद्ध श्रृृद्धा पूर्वक करना चाहिए । 
19 कुलदेवता की पूजा अर्चना नित्य करनी चाहिए ।
20 यदि वैवाहिक जीवन में बाधा आ रही हो तो पत्नि के साथ सात शुक्रवार नियमित रूप से किसी देवी मंदिर में सात परिक्रमा लगाकर पान के पत्ते में मक्खन और मिश्री का प्रसाद रखें । पति पत्नि एक -एक सफेद फूल अथवा सफेद फूलों की माला देवी माँ के चरणों में चढाए । 
21 नाग योनी में पड़े पित्रों के उद्धार तथा अपने हित के लिए नागपंचमी के दिन चाॅदी के नाग की पूजा करें । 
22 अपने शयन कक्ष में लाल रंग की चादर, तकिये का कवर, तथा खिड़की दरवाजोे में लाल रंग के ही पर्दो का उपयोग करें । 
23 हानि एवं हिन भावना से बचने हेतु हिंजड़ों को वर्ष में एक या दो बार नवीन वस्त्र, फल, मिष्ठान, सुगंधित तेल आदि का दान करें । 

गृहराज महामंगल भगवान का शिव स्वरूप:- स्कन्द पुराण में बताया हैं जिस प्रकार से काशी शिवपूरी हैं उसी प्रकार से शिव नगरी हैं । इस अवंतिका में इतने मंदिर हैं कि एक बोरी चावल की लेकर एक-एक चावल का दाना प्रत्येक मंदिर पर चढ़ाया जावे तो चावल की बोरी समाप्त हो जावेगी लेकिन मंदिर खत्म नहीं होगें । मंगल भगवान का पूजन अर्चन शिवस्वरूप में होता हैं । पूजा में पंचामृत से स्नान कराया जाता हैं । दूध, दही, घी, शक्कर और सुगंधित दृव्य से ऋतुफल, केसर स्नान, विजया स्नान सप्ततीर्थ स्थान और भी अनेक प्रकार औषधियों आदि से स्नान कराया जाता हैं । 

  पं0 दयानन्द शास्त्री 
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,  
पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार, 
झालरापाटन सिटी (राजस्थान) 326023
मो0 नं0…. .

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