तन्त्र-एक परिचय —खींवराज शर्मा 

तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है – “तनोति त्रायति तन्त्र” । जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय “गुह्य या गूढ़ साधनाओं” से किया जाता रहा है।
तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है और साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्रचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं।

तन्त्रों के विषय वस्तु को मोटे तौर पर निम्न तौर पर बतलाया जा सकता है-
ज्ञान, या दर्शन,
योग,
कर्मकाण्ड,
विशिष्ट-साधनायें, पद्धतियाँ तथा समाजिक आचार-विचार के नियम।
सांख्य तथा वेदान्त के अद्वैत विचार दोनों का प्रभाव तन्त्र ग्रन्थों में दिखलायी पड़ता है। तन्त्र में प्रकृति के साथ शिव अद्वैत दोनों की बात की गयी है। परन्तु तन्त्र दर्शन में ‘शक्ति’ (ईश्वर की शक्ति) पर विशेष बल दिया गया है।

तन्त्र की तीन परम्परायें मानी जाती हैं –
शैव आगम या शैव तन्त्र,
वैष्णव संहितायें, तथा
शाक्त तन्त्र

शैव आगम
शैव आगमों की चार विचारधारायें हैं –
.. शैवसिद्धान्त,
.. तमिल शैव,
.. कश्मीरी शैवदर्शन, तथा
4. वीरशैव या लिंगायत शैव दर्शन
आगमों की भारतीय परम्परा में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन मन्दिरों, प्रतिमाओं, भवनों, एवं धार्मिक-आध्यात्मिक विधियों का निर्धारण इनके द्वारा हुआ है।

शैव सिद्धान्त
प्रचीन तौर पर शैव सिद्धान्त के अन्तर्गत 28 आगम तथा 15. उपागमों को माना गया है।
शैव सिद्धान्त के अनुसार सैध्दान्तिक रूप से शिव ही केवल चेतन तत्त्व हैं तथा प्रकृति जड़ तत्त्व है। शिव का मूलाधार शक्ति ही है। शक्ति के द्वारा ही बन्धन एवं मोक्ष प्राप्त होता है।

कश्मीरी शैवदर्शन
प्रमुख ग्रन्थ शिवसूत्र है। इसमें शिव की प्रत्यभिज्ञा के द्वारा ही ज्ञान प्राप्ति को कहा गया है। जगत् शिव की अभिव्यक्ति है तथा शिव की ही शक्ति से उत्पन्न या संभव है। इस दर्शन को ‘त्रिक’ दर्शन भी कहा जाता है क्योंकि यह – शिव, शक्ति तथा जीव (पशु) तीनों के अस्तित्व को स्वीकार करता है।

वीरशैव दर्शन
इस दर्शन का महत्पूर्ण ग्रन्थ “वाचनम्” है जिससे अभिप्राय है ‘शिव की उक्ति’।
यह दर्शन पारम्परिक तथा शिव को ही पूर्णतया समस्त कारक, संहारक, सर्जक मानता है। इसमें जातिगत भेदभाव को भी नहीं माना गया है।
इस दर्शन के अन्तर्गत गुरु परम्परा का विशेष महत्व है।

वैष्णव संहिता
वैष्णव संहिता की दो विचारधारायें मिलती हैं – वैखानस संहिता, तथा पंचारात्र संहिता।
वैखानस संहिता – यह वैष्णव परम्परा के वैखानस विचारधारा है। वैखानस परम्परा प्राथमिक तौर पर तपस् एवं साधन परक परम्परा रही है।

पंचरात्र संहिता – पंचरात्र से अभिप्राय है – ‘पंचनिशाओं का तन्त्र’। पंचरात्र परम्परा प्रचीनतौर पर विश्व के उद्भव, सृष्टि रचना आदि के विवेचन को समाहित करती है। इसमें सांख्य तथा योग दर्शनों की मान्यताओं का समावेश दिखायी देता है। वैखानस परम्परा की अपेक्षा पंचरात्र परम्परा अधिक लोकप्रचलन में रही है। इसके 108 ग्रन्थों के होने को कहा गया है। वैष्णव परम्परा में भक्ति वादी विचारधारा के अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त भी समाहित है।

तंत्र भारतीय उपमहाद्वीप की एक वैविधतापूर्ण एवं सम्पन्न आध्यात्मिक परिपाटी है। तंत्र के अन्तर्गत विविध प्रकार के विचार एवं क्रियाकलाप आ जाते हैं। तन्यते विस्तारयते ज्ञानं अनेन् इति तन्त्रम् – अर्थात ज्ञान को इसके द्वारा तानकर विस्तारित किया जाता है, यही तंत्र है। इसका इतिहास बहुत पुराना है। समय के साथ यह परिपाटी अनेक परिवर्तनों से होकर गुजरी है और सम्प्रति अत्यन्त दकियानूसी विचारों से लेकर बहुत ही प्रगत विचारों का सम्मिश्रण है। तंत्र अपने विभिन्न रूपों में भारत, नेपाल, चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया, कम्बोडिया, म्यांमार, इण्डोनेशिया और मंगोलिया में विद्यमान रहा है।
भारतीय तंत्र साहित्य विशाल और वैचित्र्यमय साहित्य है। यह प्राचीन भी है तथा व्यापक भी। वैदिक वाड्मय से भी किसी किसी अंश में इसकी विशालता अधिक है। चरणाव्यूह नामक ग्रंथ से वैदिक साहित्य का किंचित् परिचय मिलता है, परंतु इसकी अपेक्षा उपलब्ध वैदिक साहित्य एक प्रकार से साधारण मालूम पड़ता है। तांत्रिक साहित्य का अति प्राचीन रूप लुप्त हो गया है। परंतु उसके विस्तार का जो परिचय मिलता है उससे अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीन काल में वैदिक साहित्य से भी इसकी विशालता अधिक थी और वैचित्र्य भी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि परम अद्वैत विज्ञान का सूक्षातिसूक्ष्म विश्लेषण और विवरण जैसा तंत्र ग्रंथों में है वैसा किसी शास्त्र के ग्रंथों में नहीं है। साथ ही साथ यह भी सच है कि उच्चाटन, वशीकरण प्रभृति क्षुद्र विद्याओं का प्रयोग विषयक विवरण भी तंत्र में मिलता है। स्पष्टत: वर्तमान हिंदू समाज वेदाश्रित होने पर भी व्यवहार-भूमि में विशेष रूप से तंत्र द्वारा ही नियंत्रित है।

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