नारी-जगत—वस्तुस्थिति पर एक दृष्टि …….. गोपाल ‘राजू ‘
नारी-जाति आधी मानव-जाति है। पुरुष-जाति की जननी है। पुरुष (पति) की संगिनी व अर्धांगिनी है। नबी, रसूल, पैग़म्बर, ऋषि, मुनि, महापुरुष, चिंतक, वैज्ञानिक, शिक्षक, समाज-सुधारक सब की जननी नारी है, सब इसी की गोद में पले-बढ़े। लेकिन धर्मों, संस्कृतियों, सभ्यताओं, जातियों और क़ौमों का इतिहास साक्षी है कि ईश्वर की इस महान कृति को इसी की कोख से पैदा होने वाले पुरुषों ने ही बहुत अपमानित किया, बहुत तुच्छ, बहुत नीच बनाया; इसके नारीत्व का बहुत शोषण किया; इसकी मर्यादा, गरिमा व गौरव के साथ बहुत खिलवाड़ किया, इसके शील को बहुत रौंदा; इसके नैतिक महात्म्य को यौन-अनाचार की गन्दगियों में बहुत लथेड़ा।
● प्राचीन यूनानी सभ्यता में एक काल्पनिक नारी-चरित्रा पांडोरा (Pandora) को इन्सानों की सारी मुसीबतों की जड़ बताया गया। इस सभ्यता के आरंभ में तो स्त्री को अच्छी हैसियत भी प्राप्त थी लेकिन आगे चलकर, उसे वेश्यालयों में पहुँचा दिया गया जो हर किसी की दिलचस्पी के केन्द्र बन गए। कामदेवी Aphrodite की पूजा होने लगी और कामवासना भड़काने वाली प्रतिमाएँ कला के नमूनों का महत्व पा गईं।
● रूमी सभ्यता में भी उपरोक्त स्थिति व्याप्त थी। औरतें (.4-56 ई॰ पूर्व में) अपनी उम्र का हिसाब पतियों की तादाद से लगातीं। सेंट जेरोम (.40-4.0 ई॰) ने एक औरत के बारे में लिखा कि उसने आख़िरी शादी 23वें पति से की और स्वयं वह, उस पति की 2.वीं पत्नी थी। अविवाहित संबंध को बुरा समझने का विचार भी समाप्त हो गया था। वेश्यावृत्ति का कारोबार इतना बढ़ा कि वै़$सर टाइबरियस के दौर (14-37 ई॰) में शरीफ़ ख़ानदानों की स्त्रियों को पेशेवर वेश्या बनने से रोकने के लिए क़ानून लागू करना पड़ा। फ्लोरा नामक खेल में स्त्रियों को पूर्ण नग्न-अवस्था में दौड़ाया जाता था।
● पाश्चात्य धर्मों में नारी को ‘साक्षात पाप’ कहा गया। ‘तर्क’ यह था कि प्रथम स्त्री (हव्वा Eva) ने, अपने पति, प्रथम पुरुष (आदम Adam) को जन्नत (Paradise) में ईश्वर की नाफ़रमानी करने पर उक्साया और परिणामतः दोनों स्वर्गलोक से निकाले गए। इस ‘तर्क’ पर बाद की तमाम औरतों को ‘जन्मगत पापी (Born Sinner) कहा गया, और यह मान्यता बनाई गई कि इस अपराध व पाप के प्रतिफल-स्वरूप पूरी नारी जाति को प्रसव-पीड़ा का ‘दंड’ हमेशा झेलना पड़ेगा।
● भारतीय सभ्यता में, अजंता और खजुराहो की गुफाएँ (आज भी बता रही हैं कि) औरत के शील को सार्वजनिक स्तर पर कितना मूल्यहीन व अपमानित किया गया, जिसको शताब्दियों से आज तक, शिल्पकला के नाम पर जनसाधारण की यौन-प्रवृत्ति के तुष्टिकरण और मनोरंजन का साधन बनने का ‘श्रेय’ प्राप्त है। ‘देवदासी’ की हैसियत से देवालयों (के पवित्र प्रांगणों) में भी उसका यौन शोषण हुआ। अपेक्षित पुत्र-प्राप्ति के लिए पत्नी का परपुरुषगमन (नियोग) जायज़ तथा प्रचलित था। ‘सती प्रथा’ के विरुद्ध वर्तमान में क़ानून बनाना पड़ा जिसका विरोध भी होता रहा है। वह पवित्र धर्म ग्रंथ वेद का न पाठ कर सकती थी, न उसे सुन सकती थी। पुरुषों की धन-सम्पत्ति (विरासत) में उसका कोई हिस्सा नहीं था यहाँ तक कि आज भी, जो नारी-अधिकार की गहमा-गहमी और शोर-शराबा का दौर है, कृषि-भूमि में उसके विरासती हिस्से से उसे पूरी तरह वंचित रखा गया है।
● अरब सभ्यता में लड़कियों को जीवित गाड़ देने की प्रथा थी। स्त्रियाँ पूर्ण नग्न होकर ‘काबा’ की परिक्रमा (तवाफ़) करती थीं। औरत को कोई अधिकार प्राप्त न थे। यह प्रथा भी प्रचलित थी कि एक स्त्री दस पुरुषों से संभोग करती; गर्भधारण के बाद दसों को एक साथ बुलाती और जिसकी ओर उंगली उठा देती वह बच्चे का पिता माना जाता। मर्दों की तरह औरतों (दासियों) को भी ख़रीदने-बेचने का कारोबार चलता था।
प्राचीन सभ्यता के वैश्वीय दृश्य-पट (Global Scenario) पर औरत की यह हैसियत थी जब इस्लाम आया और सिर्फ़ 21 वर्षों में पूरी कायापलट कर रख दी। यह वै$से हुआ, इस विस्तार में जाने से पहले, वर्तमान स्थिति पर एक नज़र डाल लेनी उचित होगी, क्योंकि इस्लाम वही भूमिका आज भी निभाने में सक्षम है जो उसने 1400 वर्ष पहले निभाई थी।

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