श्राद्ध कर्म का औचित्य और पितृ्दोष–????
जन्म एवं मृ्त्यु का रहस्य अत्यन्त गूढ है। वेदों में,दर्शन शास्त्रों में,उपनिषदों एवं पुराण आदि में हमारे पुर्वाचार्यों नें इस विषय पर विस्तृ्त विचार किया है। श्रीमदभागवत में भी स्पष्ठ रूप से बताया गया है कि जन्म लेने वाले की मृ्त्यु और मृ्त्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है। भगवान श्री कृ्ष्ण ने स्वयं जन्म-मरण के चक्र को एक ध्रुव सत्य माना है।
मनुष्य योनि त्रिगुणात्मक है और इसमें जो गुण हो,उसके अनुसार ही उसका कर्म और स्वभाव निर्मित होता है। जिन मनुष्यों में सत्वगुण की प्रधानता रहती है–वे अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए,धर्म का आश्रय लिए जीवनपथ पर बढते चले जाते हैं। रजोगुण प्रधान मनुष्य भूत-प्रेत,पीरों-फकीरों के चक्कर उलझा रहता है और तमोगुणी व्यक्ति को तो भौतिक सुखों के अतिरिक्त कुछ ओर दिखाई ही नहीं देता। नास्तिक भाव का प्रादुर्भाव सिर्फ तमोगुणी व्यक्ति में ही होता है।
श्रीमदभागवत गीता भी कहती है—-साथ ही पूर्वजन्म संबंधी अनेक बातें अनेक सामयिकों में भी यदा कदा पढने को मिल ही जाती है। जिसमें कि किसी मनुष्य को अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रहता है। इस प्रकार की एक घटना का प्रत्यक्षदर्शी या कहें कि भुक्तभोगी तो मैं स्वयं हूँ। ऎसी ही एक घटना मेरे परिवार में घट चुकी है,जिसके कि आज भी सैकंडों की संख्या में प्रत्यक्षदर्शी मौजूद हैं। खैर…कभी समय मिला तो उस घटना के बारे में फिर कभी लिखूँगा। बहरहाल हम मूल विषय पर बात करते हैं।
इस पूर्वजन्म के आधार पर ही कर्मकाँड में श्राद्धादि कर्म का विधान निर्मित किया गया है। अपने पूर्वजों के निमित दी गई वस्तुएँ/पदार्थ सचमुच उन्हे प्राप्त हो जाते हैं——–
इस विषय में अधिकतर लोगों को संदेह है। हमारे पूर्वज अपने कर्मानुसार किस योनि में उत्पन हुए हैं,जब हमें इतना ही नहीं मालूम तो फिर उनके लिए दिए गये पदार्थ उन तक कैसे पहुँच सकते हैं? क्या एक ब्राह्मण को भोजन खिलाने से हमारे पूर्वजों का पेट भर सकता है? वैसे इन प्रश्नों का सीधे सीधे उत्तर देना तो शायद किसी के लिए भी संभव न होगा,क्यों कि वैज्ञानिक मापदंडों को इस सृ्ष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता। दुनियाँ में कईं बातें ऎसी हैं जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पडता है। यहाँ इसके लिए हम एक व्यवहारिक उदाहरण ले सकते है—जैसे कि दवाईयाँ । अमूमन दवा के किसी भी पैक पर उसका फार्मूला या कंटेन्ट् लिखा रहता है। किन्तु हमारे पास इस बात का कोई सबूत नहीं है कि जो दवा हम खा रहे हैं;वास्तव में उसमें उसके पैक पर लिखे सभी कंटैन्स होंगे ही!!! यहाँ हम सिर्फ श्रद्धा से काम लेते हैं। यही सोच हमें कर्मकाँड के विषय में भी रखनी चाहिए। श्रद्धा रखकर ही हम फलप्राप्ति की अपेक्षा करें। मान लीजिए यदि कुछ नहीं भी हुआ तो कोई नुक्सान तो नहीं है न ? अब ये तो बात हुई सिर्फ श्रद्धा की, लेकिन इस विषय में शास्त्रों का कथन है कि–जिस प्रकार मानव शरीर पंचतत्वों से निर्मित है,उसी प्रकार से जो देव और पितर इत्यादि योनियों हैं; प्रकृ्ति द्वारा उनकी रचना नौ तत्वों द्वारा की गई है। जो कि गंध तथा रस तत्व से तृ्प्त होते हैं,शब्द तत्व में निवास करते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है,पशुओं का आहार तृ्णादि,ठीक उसी प्रकार इन योनियों का आहार अन्न का सार-त्तत्व है। वे सिर्फ अन्न और जल का सार-त्तत्व ही ग्रहण करते हैं,शेष जो स्थूल वस्तुएं/पदार्थ हैं,वह तो यहीं स्थित रह जाते हैं।
पितृ्दोष क्या है?
‘सीमा’ एक ऎसा शब्द है,जिससे कि पूरी दुनिया जुडी भी हुई है और उससे प्रभावित भी होती है। प्रत्येक वस्तु,प्रत्येक जीव इस शब्द से प्रत्यक्ष रूप से जुडा हुआ है,सभी की अपनी अपनी सीमाएं हैं। जब भी इस सीमा का,इस मर्यादा का उलंघन किया जाता है तो सदैव अनिष्ट ही होता है। जैसे कि जल को ही ले लीजिए,जब तक जल अपनी मर्यादा में है,हम सब को जीवन देने वाला है। परन्तु यदि जल अपनी सीमाओं को लाँघ दे तो यही प्राणदायी जल बाढ,सुनामी इत्यादि के रूप में हमारे विनाश का कारण भी बन जाता है। वायु जब तक अपने मूल स्वभाव अनुरूप बह रही है तो शीतलता देने वाली है,हमारी साँसें भी इसी के जरिए चल रही है। परन्तु यदि वो अपनी सीमाओं को लाँघ जाए,अनुशासन त्याग दे तो आँधी,तूफान,चक्रवात के रूप में चारों ओर हाहाकार ही सुनाई देगा। अत: यह तो स्पष्ट है कि जब तक प्रत्येक वस्तु,पदार्थ,प्राणी एक सीमा—एक मर्यादा—एक अनुशासन में बंधे हुए हैं,तब तक तो वह सबके लिए उत्तम है। बिल्कुल यही बात हमारे घर-परिवार व धार्मिक संस्कारों पर भी लागू होती है। घर का कोई सदस्य अपनी मर्यादा का उल्लंघन करे,अनुशासन भंग करे तो उसके परिणामस्वरूप सभी पारिवारिक सदस्यों को कष्ट/परेशानी का सामना करना पडेगा ही। एक घर परिवार का अनुशासन टूटेगा,मर्यादा भंग होगी तो उसका प्रभाव आस-पडोस में,मोहल्ले में और बाकी समाज पर भी निश्चित रूप से पडेगा।
इसी प्रकार परिवार के मुखिया द्वारा जो सत्कर्म अथवा दुष्कर्म अपने जीवन में किए जाते हैं,उनका फल उसके जाने के बाद पारिवारिक सदस्यों को भोगना पडता है—विशेषरूप से उसकी संतान को। अब वो फल अच्छा है या बुरा,वो तो उस मुखिया के किए गये कर्मों पर निर्भर करता है। यदि पूर्वज द्वारा अच्छे कार्य किए गये हैं तो निश्चित रूप से वह अपने परिवार को सम्पन्नता एवं प्रसन्नता दे पाएगा। यदि उसने अपने जीवन में अनैतिक कर्मों का ही आश्रय लिया है तो वह अपने परिवार को अपमान एवं दुख के अतिरिक्त ओर क्या दे सकता है।
अक्सर इस प्रकार के बहुत से दुष्परिणामों का एक कारण व्यक्ति की कुंडली में होने वाला पितृदोष भी होता है। जन्मकुंडली में यह दोष अपने किसी पूर्वज द्वारा मर्यादा भंग किए जाने से निर्मित होता है।
लेकिन जो व्यक्ति नियमपूर्वक अपने पूर्वजों के निमित श्राद्धादि कर्म करता है,उसे पितृ्दोष इत्यादि किसी दोष से भय की कोई आवश्यकता नहीं, अन्य किसी प्रकार की बाह्य आडंबर,दिखावा अथवा भारी भरकम पूजा-अनुष्ठान इत्यादि करने की भी कोई आवश्यकता नहीं। क्यों कि श्राद्ध का अर्थ है “श्रद्धा”—अपने पूर्वजों/पितरों के प्रति श्रद्धा भाव रखना। उनके निमित किसी भूखे,गरीब व्यक्ति को भोजन करा दें तो समझिए वही आपके द्वारा किया गया सच्चा श्राद्ध है और पितृ्दोष से पीडित व्यक्ति के लिए दोष निवृ्ति का सबसे बडा उपाय्।
देखा जाए तो हमारे पूर्वजों ने हम पर जो अहसान किए हैं,उनसे मुक्त होने का जो एक माध्यम है–उसी का नाम श्राद्ध है,जिसे कि हमारे आध्यात्मिक और समाजिक जीवन के कर्तव्यों का निर्वहण भी कहा जा सकता है।