जानिए क्या हैं आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में वास्तु के प्रभाव और लाभ—-
प्रिय पाठकों/मित्रों, हमारी भारत भूमी के प्राचीन ऋषि तत्वज्ञानी थे और उनके द्वारा इस कला को तत्व ज्ञान से ही प्रतिपादित किया गया था. आज के युग में विज्ञान नें भी स्वीकार किया है कि सूर्य की महता का विशेष प्रतिपादन सत्य है, क्योंकि ये सिद्ध हो चुका है कि सूर्य महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य, आयुष्य, तेज, ओज, बल, उत्साह, स्फूर्ति, पुरूषार्थ और विभिन्न महानता मानव में परिणत होने लगती है |
क्या वास्तु सम्मत निमार्ण से भाग्य बदल जाता है?
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक यह प्रश्न वास्तु के प्रचलन को देखकर सभी के मन में आता होगा। आजकल सभी यह सोचकर वास्तु सम्मत निर्माण करने लगे हैं कि शायद ऐसा करने से भाग्य बदल जाए। प्रत्येक व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर जानना चाहता है। कार्य कोई भी करें यदि वो सही ढंग लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है तो अपना फल पूर्ण और शुभ देता है और कार्य यदि अनुचित ढंग से शीघ्रता सहित बिना-सोचे समझें लक्ष्य को ध्यान में रखे बिना किया है तो फल अपूर्ण और अशुभता लिए हुए होता है। वास्तु शास्त्र रहने या कार्य करने के लिए ऐसे भवन का निर्माण करना चाहता है, जिसमें पंच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्, वायु और आकाश का सही अनुपात हो अर्थात् एक सन्तुलन हो, इसके अतिरिक्त गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का समुचित प्रबन्ध हो। जब ऐसा होगा तो उस भवन में रहने वाला व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक क्षमता उन्नत कर सकेगा। यह जान लें कि वास्तु का सम्बन्ध वस्तु या ऐसे निर्माण से है जिसमें पंचमहाभूत का सही अनुपात हो, जबकि भाग्य का सम्बन्ध कर्म से है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के अनुसार कर्म संचित होते हैं जोकि भाग्य में परिवर्तित हो जाते हैं। वर्तमान हमारे भूतकाल के कर्मों पर आधारित होता है। हमारा भविष्य उन कर्मों पर आधारित होगा जो हम वर्तमान में कर रहे हैं। कर्म गति टारे नहीं टरे, जैसा बोए वैसा ही पाए। कर्मों का फल शुभाशुभ जैसा भी हो हमें भोगना अवश्य पड़ेगा। इतना है कि सुकर्म कष्ट को कम कर देते हैं। प्रकृति में जब भी पंच तत्त्चों का असन्तुलन होता है तो प्रकृति में विकृति आ जाती है जिस कारण भूकम्प, ज्वालामुखी का फटना, तूफान, बाढ़, दैवीय आपदा आदि आती है।
मानवीय जरूरतों के लिए सूर्य, वायु, आकाश, जल और पृथ्वी –
इन पाँच सुलभ स्रोतों को प्राकृतिक नियमों के अनुसार प्रबन्ध करने की कला को हम वास्तुशास्त्र कह सकते हैं। अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच तत्त्वों के समुच्चय को प्राकृतिक नियमों के अनुसार उपयोग में लाने की कला को वास्तुकला और संबंधित शास्त्र को वास्तुशास्त्र का नाम दिया गया है। वर्तमान युग में वास्तुशास्त्र हमें उपरोक्त 5 स्रोतों के साथ कुछ अन्य मानव-निर्मित वातावरण पर दुष्प्रभाव डालने वाले कारणों पर भी ध्यान दिलाता है। उदाहरण के तौर पर विज्ञान के विकास के साथ विद्युत लाइनों, माइक्रोवेव टावर्स, टीवी, मोबाइल आदि द्वारा निकलने वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगें आदि। ये मानव शरीर पर अवसाद, मानसिक तनाव, हड्डियों के रोग, बहरापन, कैंसर, चिड़चिड़ापन आदि उत्पन्न करने का एक प्रमुख कारण पायी गयी हैं। कैंसर जैसे महारोग के प्रमुख कारणों में विद्युत भी एक है। आधुनिक विज्ञान ने इन दुष्परिणामों को मापने के लिए मापक यंत्रों का भी आविष्कार दिया है, जिससे वातावरण में व्याप्त इनके घातक दुष्प्रभावों का मापन कर उन्हें संतुलित भी किया जा सके। पंचतत्त्वों से निर्मित मानव-शरीर के निवास, कार्यकलापों व शरीर से संबंधित सभी कार्यों के परिवेश अर्थात् वास्तु पर पाँचों तत्त्वों का समुचित साम्य एवं सम्मिलन आवश्यक है अन्यथा उस जगह पर रहने वाले व्यक्तियों के जीवन में विषमता पैदा हो सकती है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की हमारे पुराने मनीषियों ने वास्तुविद्या का गहन अध्ययन कर इसके नियम निर्धारित किये हैं। आधुनिक विज्ञान ने भी इस पर काफी खोज की है। विकसित यंत्रों के प्रयोग से इसको और अधिक प्रत्यक्ष व पारदर्शी बनाया है। शरीर पर हानिकारक प्रभाव डालने वाली उच्च दाब की विद्युत, चुम्बकीय, अल्फा, बीटा, गामा व रेडियो तरंगों के प्रभाव का मापन कर वास्तु का विश्लेषण किया जा सकता है। वर्तमान में हम किसी भी मकान, भूखंड, दुकान, मंदिर कारखाना या अन्य परिसर में वास्तु की निम्न तीन तरह से जाँचकर मानव-शरीर पर इसके प्रभावों की गणना कर सकते हैं।
आधुनिक भवन-निर्माण तकनीक मुख्यतः भौतिक सुख-सुविधा का ध्यान रखती है परंतु आंतरिक सुख शान्ति का विचार नहीं करती। प्राचीन भवन-निर्माण तकनीक अथवा वास्तु विज्ञान मस्तिष्क, शरीर व आत्मा के स्थायित्व को ध्यान में रखकर स्वस्थ वातावरण के निर्माण पर जोर देता है। यदि निर्माण वास्तु सिद्धान्तों के अनुकूल न हो तो वहाँ के निवासी और वहाँ कार्यरत लोगों के विचार व कार्य असम्यक व अविवेकपूर्ण होते हैं, जिससे वे अस्वस्थता व अशान्ति को प्राप्त होते हैं। वास्तु विज्ञान में समाहित प्रकृति के नियमों का भली भाँति पालन करने से प्रकृति वहाँ के निवासियों एवं कार्यरत लोगों को संबल प्रदान करती है। अतः आंतरिक सुख-शांति के लिए लोग वास्तुशास्त्र की शैली व सिद्धान्तों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक हमारा सौर मंडल विद्युत-चुंबकीय तरंगों से भरा हुआ है। पृथ्वी इसी सौरमंडल का एक उपग्रह है। पृथ्वी भी एक बड़ा चुंबक ही है। अपनी धुरी पर घूमते हुए पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है। इस तरह पैदा होनेवाली विद्युत-चुम्बकीय तरंगों से पूरा वातावरण आच्छादित है। हमारे शरीर के विभिन्न कार्य भी विद्युत-चुम्बकीय तरंगों द्वारा ही हृदय, मस्तिष्क व इन्द्रियों द्वारा होते हैं। इस विद्युत शक्ति के माध्यम से ही जीवनशक्ति या चेतना शक्ति काम करती है।
अतएव विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र मानव जीवन के लिए आवश्यक तत्त्व है जिससे यह जीवन क्रियावान है। वास्तु विज्ञान जीवन तंत्र और पर्यावरण के बीच स्थापित सम्बन्ध को सही रास्ते पर चलाने में एक सेतु है जो उचित मार्गदर्शन कर रास्ता दिखाता है। डी.सी. (डायरेक्ट करंट के रूप में) विद्युत के आविष्कार के बाद से ही ए.सी. (Alternating Current) .1.V, .20V, 440V, 11000V हजारों मेगावोल्ट, माइक्रोवेव, रेडियो तरंगे आदि की खोज हुई। यह तरंगे द्वारा एवं बिना तार के भी अदृश्य रूप से वातावरण में हमारे शरीर के चारों तरफ रहती हैं, प्रभाव डालती हैं, जिसे जानने व मापने के लिए वैज्ञानिक दिन-प्रतिदिन नयी-नयी खोजों में व्यस्त हैं। पशुओं∕पक्षियों पर भी इनके प्रभाव के अध्ययन हुए। मानव शरीर पर हुई खोजों से पता चला कि उच्चदाब विद्यित लाइन के पास रहने वालों में कैंसर रोग की बढ़ोतरी सामान्य से दुगनी होती है। उच्चदाब की विद्युत लाइन पर काम करने वालों में सामान्य से 1. गुना ज्यादा दिमागी कैन्सर की संभावना रहती है।
टी.वी. से निकलने वाली विद्युत-चुम्बकीय तरंगें आँखों के नुकसान पहुँचाती हैं व इन तरंगों का परिमाण 3 फीट के क्षेत्र में 3 मिलीगास से अधिक होता है। पलंग लगे साइड बिजली स्विच∕साइड लैम्प से तरंगे हमारे शरीर तक पहुँचकर एक तरह का तनाव पैदा करती है जिसके कारण कई तरह की बिमारीयाँ पैदा होती हैं। मोबाइल, कार्डलेस फोन का ज्यादा उपयोग करने वालों का अनुभव है उनके कान व सिर में दर्द होने लगता है। वैज्ञानिक खोज से पता चला है कि मोबाइल फोन के पास लाने से मस्तिष्क में विद्युत-चुम्बकीय तरंगें लाखों गुना बढ़ जाती हैं। इसी तरह कम्पयूटर सबसे ज्यादा तरंगे पीछे की तरफ से प्रसारित करता है। इसलिए कम्पयूटर की पीठ हमारी तरफ नहीं होनी चाहिए। इसी तरह मोबाइल टावर्स के आसपास का क्षेत्र भी हानिकारक आवृत्ति की तरंगों से भरपूर रहता है वहाँ ज्यादा समय तक रहना स्वास्थ्य के लिए अति नुकसान दायक हैं।
विद्युत के स्विच बोर्ड व मरकरी टयूबलाइट आदि के आसपास छिपकलियाँ दिखाई देती हैं। छिपकली ऋणात्मक ऊर्जा का प्राणी है इसलिए ऋणात्मक ऊर्जा प्राप्त कर जीवनयापन करती है। मनुष्य, गाय, घोड़ा, बकरी, कुत्ता, भेड़ आदि धनात्मक ऊर्जा पुंज वाले प्राणी हैं अतः इनके सम्पर्क में रहना और ऋणात्मक ऊर्जा वाले तत्त्वों से दूर रहना मानव शरीर को स्वस्थ व सम्बल बनाये रखने के लिए जरूरी है। छिपकली, दीमक, साँप, बिल्ली, शेर आदि ऋणात्मक ऊर्जा पुंज का प्राणि है और ऋणात्मक ऊर्जा क्षेत्रों में निवास बनाते व रहना पसंद करते हैं।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की वैज्ञानिकों को शोध से पता चला है कि वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों के पालन से वास्तु अनुकूल वातावरण व उनके रहवासियों में वांछित ऊर्जा स्तर होता है जो उनके स्वास्थ्य व विकास में सहायक होता है। वास्तु अनुकूल व प्रतिकूल वातावरण व वहाँ के निवासियों के आभामंडल चित्रण तथा एक्यप्रेशर बिन्दुओं के परीक्षण से यह निष्कर्ष प्राप्त हुए। खोज में पाया गया है कि एक ही तरह के वास्तु विरूद्ध निर्माण में रहने से वहाँ के निवासियों में एक ही तरह के एक्यूप्रेशर बिन्दु मिलते हैं। वास्तु अनुकूल वातावरण बनाने से वातावरण तथा वहाँ के निवासियों के आभामंडल में वांछित बदलाव आता है। इस पर आगे खोज जारी है तथा इन यंत्रों का वास्तु निरीक्षण में प्रयोग शुरू भी हो गया है।
इसी तरह विद्युत-चुम्बकीय व अन्य अलफा, बीटा, गामा रेडियो धर्मी तरंगों से बचाव व जानकारी हेतु परम्परागत वास्तु के साथ-साथ नये वैज्ञानिक यंत्र डॉ. गास मीटर, एक्मोपोल, जीवनपूर्ति ऊर्जा परीक्षक (Biofeed back energy Tester) लेचर एंटीना, रेड-अलर्ट, उच्च व नीची आवृत्ति (Low and high frequency) की तरंगों व रेडियो धर्मी तरंगों के मापक यंत्र आदि का उपयोग भी वास्तु सुधार में उल्लेखनीय पाया गया है जो परम्परागत वास्तु के आधुनिक प्रगति के दुष्परिणामों से बचाव के लिए हमें सावधान कर सकता है।
वास्तु सिद्धान्तों का प्रयोग अब नये क्षेत्रों जैसे इन्टरनेट में वेब डिजाइन, लेटरपेड, विजिटिंग कार्ड डिज़ाइन, ‘खेती में वास्तु’ में भी सफलतापूर्वक किया गया है। पुरातन काल में भी फर्नीचर, शयन, विमान (वाहन) में वास्तु के उपयोग का वर्णन शास्त्रों में है। नयी खोजों व प्रयोगों से वास्तु सुधार में गौमूत्र की उपयोगिता पर भी प्रयोग किये गये हैं व पुरातन ज्ञान की पुष्टि हुई है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक आज भी वैज्ञानिक मानते हैं कि सूर्य की अल्ट्रावायलेट रश्मियों में विटामिन डी प्रचूर मात्रा में पाया जाता है, जिनके प्रभाव से मानव जीवों तथा पेड-पौधों में उर्जा का विकास होता है. इस प्रभाव का मानव के शारीरिक एवं मानसिक दृ्ष्टि से अनेक लाभ हैं. मध्यांह एवं सूर्यास्त के समय उसकी किरणों में रेडियोधर्मिता अधिक होती है, जो मानव शरीर, उसके स्वास्थय पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. अत: आज भी वास्तु विज्ञान में भवन निर्माण के तहत, पूर्व दिशा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. जिससे सूर्य की प्रात:कालीन किरणें भवन के अन्दर अधिक से अधिक मात्रा में प्रवेश कर सकें और उसमें रहने वाला मानव स्वास्थय तथा मानसिक दृष्टिकोण से उन्नत रहे |
वास्तु नियम के अनुसार पूर्व एवं उत्तर दिशा में अधिक से अधिक दरवाजें, खिडकियाँ रखी जानी चाहिए. ये भाग अधिक खुले होने से हवा और रोशनी अधिक मात्रा में प्रवेश करती है. प्रवेश करने वाली हवा दक्षिण-पश्चिम के कम दरवाजों-खिडकियों से धीरे धीरे बाहर निकलती है, जिससे कि भवन का वातावरण स्वच्छ, साफ एवं प्रदूषण मुक्त होता है |
आजकल परम्परागत भारतीय वास्तु विद्या की धूम आयुर्वेद की तरह मची हुई है। लोग रहस्यमय कौतुहल के साथ इसे जानना-समझना चाहते हैं। अनेक लोग प्रश्न करते है कि क्या सचमुच इसका प्रभाव जीवन पर पड़ता है? पड़ता है, तो क्यों? इसका वैज्ञानिक आधार क्या है? यहाँ हम इन्ही प्रश्नों एवं रहस्यों का उत्तर दे रहे है;जो अब तक वास्तु विद्या के सम्बन्ध में विश्व में कहीं भी, किसी भी भाषा में उपलब्ध नहीं है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की दक्षिण दिशा में सिरहाना करने का महत्व प्रतिपादित है, जिसका मूल कारण पृ्थ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में पडने वाला प्रभाव है, क्यों कि सर्वविदित है कि चुम्बकीय प्रभाव उत्तर से दक्षिण की ओर रहता है. मानवीय जैव चुम्बकत्व भी सिर से पैर की ओर होता है. अत: सिर को उतरायण एवं पैरों को दक्षिणायण कहा गया है. यदि सिर उत्तर दिशा में रखा जाए तो पृ्थ्वी का उत्तरी ध्रुव मानव सिर के ध्रुव चुम्बकीय प्रभाव को अस्वीकार करेगा. इससे शरीर के रक्त संचार के लिए अनुकूल चुम्बकीय लाभ नहीं होगा.
इसको आधुनिक मस्तिष्क वैज्ञानिकों नें भी माना है कि मस्तिष्कीय क्रिया क्षमता का मूलभूत स्त्रोत अल्फा तरंगों का पृ्थ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन का संबंध आकाशीय पिंडों से है और यही वजह है कि वास्तु कला शास्त्र हो या ज्योतिष शास्त्र, सभी अपने अपने ढंग से सूर्य से मानवीय सूत्र सम्बंधों की व्याख्या प्रतिपादित करते हैं. अत: वास्तु के नियमों को, भारतीय भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रख कर, भूपंचात्मक तत्वों के ज्ञान से प्रतिपादित किया गया है. इसके नियमों में विज्ञान के समस्त पहलुओं का ध्यान रखा गया है, जिनसे सूर्य उर्जा, वायु, चन्द्रमा एवं अन्य ग्रहों का पृ्थ्वी पर प्रभाव प्रमुख है तथा उर्जा का सदुपयोग, वायु मंडल में व्याप्त सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों का आंकलन कर, उन्हे इस वास्तु शास्त्र के नियमों में निहित किया गया है |
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लेकिन यह वास्तु पुरुष देवता है क्या?
क्या ऐसे किसी पुरुष देवता का अस्तित्त्व सचमुच इनमें है?
हम पहले ही कह आये हैं कि यह रूपक है और हमारी परम्परा रही है कि ब्रह्माण्ड की तमाम ऊर्जात्मक शक्तियों को हमने भाव रूप देकर एक देवता या देवी के रूप में ही व्यक्त किया है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की इसे समझने के लिए प्रयोग शाला में एक 6” का एक आधा इंच चौड़ा चुम्बक बार लीजिये। इसे टेबल पर रखकर चारों ओर समान टेक देकर इसके ऊपर एक पतला शीशा डाल दीजिये। इस पर लोहे का महीन बुरादा छिड़क कर टेबल को धीरे-धीरे ठोकिये। ये कण एक आकृति बनायेंगे। इस आकृति को देखिये और वास्तु पुरुष के हाथ-पाँव सिर की स्थिति मध्य का भाग देखिये। पता चल जाएगा कि यह वास्तव में क्या है। यह वह चुम्बकीय बल है, जो इस भौतिक जगत के कण-कण में , पृथ्वी में, सूर्य में, तारों में, सौर मंडल में, ब्रह्माण्ड में, यहाँ तक कि यह परमाणुओं में और ‘आत्मा’ नामक सुपर एटम में भी विद्यमान है।
जब हम अपनी एक और पौराणिक कथा पर ध्यान देंगे, तो यह और स्पष्ट होगा। जब धरती पानी में डूबती जा रही थी, तो विष्णु ने मत्स्यावतार का रूप धारण करके उसे बचाया। ये चुम्बकीय रेखायें, सूंढ़-पूँछ वाली एक मछली की ही आकृति बनाती है और किसी पौधे या वृक्ष को देखिये, तो उसमें भी यह मछली नजर आएगी। इसका बल बड़ी इकाई के अंदर की ओर उल्टा होता है; और यहाँ यह स्पष्ट नजर आएगा।
जब हम 6” के बार को दो टुकड़ों में विभक्त कर देते है, तो उनमें अलग-अलग यह मछली बन जाती है। इसी प्रकार पृथ्वी के भूखंडों को हम जितने भाग में ढाई हाथ की गहराई में काटते हैं; वहाँ यह वास्तु बली पुरुष सम्पूर्ण रूप में अवतरित हो जाता है।
यह तो एक विज्ञान सम्मत निष्कर्ष है कि इस चुम्बकीय क्षेत्र का तमाम स्थान एक जैसे ऊर्जा-बल से युक्त नहीं होता।हर जगह बल की स्थिति अलग होती है और वहाँ का प्रभाव भी अलग होता है। इन्ही बलों और भौगोलिक स्थितियों की आनुपातिक गणना पर भूमि में देवी-देवताओं की स्थिति को माना गया है। पर ये सभी पदार्थों में ऐसे ही व्याप्त होते है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक हम-आप जिस मकान में रहते है; वास्तु विद्या में वहाँ का एक ग्रह-मैप होता है। प्रत्येक स्थान, कमरे आदि की स्थिति का आकलन इस मैप के अनुसार होता है। प्रत्येक वस्तु एवं काम का भी ग्रह-वर्गीकरण है। अब यदि सारा नक्शा सही है; पर काम और वास्तु का स्थान विपरीत ग्रह है, तो परेशानियां बढेंगी, कम नहीं होगी। इसलिए यह भी आवश्यक है कि ग्रहों के स्थान के अनुसार वस्तुओं की सेटिंग और काम की सेटिंग हो। इस ज्योतिषीय गणना में भी एक और गणना जुड़ जाती है, सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति की गणना। इससे यह और जटिल हो जाती है। आजकल मकानों में आसमान नहीं होता। यह राहु दोष है। ऐसे ही जैसे खोपड़ी में चाँद गायब हो जाए। इससे प्रकृति का नैसर्गिक अमृत हमें प्राप्त नहीं होता। यह आयु और विचारों को प्रभावित करता है। इसे मकानों में कृत्रिम तौर पर उत्पन्न करने या लाने के लिए इसमें सूर्य और चन्द्रमा को स्थापित करना आवश्यक है, और इसके लिए स्थान मुकर्रर करना भी एक गणनात्मक विषय है।
यह सबके लिए अलग-अलग होता है। प्राचीन काल में छत बुध और शनि के होते थे,फर्श शुक्र के। छत पर पकी ईंटे, खपड़े, या घास होते थे, जो शनि है और बाँस या लकड़ी भी बुध-शनि ही होते थे। फर्श कच्ची हुआ करती थी। पर आज की छते रॉड की जाली पर बालू-सीमेंट से बनती है। यानी राहु-बुध और शनि। फर्श शुक्र की जगह श्स्नी-बुध की होती है। इन दोनों में बुध भी शनि के रूप में ढल जाता है। अब प्राचीन –सूत्रों के अनुसार इसका शुभाशुभ कैसे निकाल सकते है? इसलिए वर्त्तमान आधुनिक परिवर्त्तन भी गणना का एक फैक्टर बन जाता है। जल स्रोत ईशान में होना चाहिए, पर पानी टंकी ईशान में लगायेंगे, तो जिंदगी की गाड़ी ही आगे झुक कर रफ़्तार को दबा देगी। वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक जन्मकुंडली का महत्त्व केवल प्लाट, मकान और वस्तु पर ही नहीं; दीवार और छत के रंगों, फर्श की डिज़ाइनिंग पर भी पड़ता है। आप जो कपडे पहनते हैं , जूते प्रयोग करते है, गाड़ी प्रयोग करते है, जिस बर्त्तन में खाना खाते है, जिससे पानी , चाय , दूध, कॉफ़ी पीते है। वे सभी आप पर प्रभाव डालते है। वास्तु विद्या में इंटीरियर डिज़ाइनिंग का भी प्रभाव है। अब यदि आप चाहते है कि अपने मकान का वास्तु दोष निवारण करें , तो आपको प्रत्येक क्षेत्र को देखना होगा। मोटे तौर पर किये गये उपाय भारी पड़ सकते है। नक्शा बनाना है, तो इन सबका ध्यान रखना होगा।
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वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक संक्षिप्त में हमें वातावरण में व्याप्त आधुनिक प्रगति से बचने के लिए निम्न सावधानियाँ रखनी चाहिए—
—-नयी जमीन खरीदते समय ध्यान रखें कि जमीन उच्च दाब की विद्युत लाइन से कम-से-कम 60 मीटर (200 फीट) दूर हो ताकि विद्युत तरंगों के मानव शरीर पर सतत दुष्प्रभाव से बचाव हो सके।
कम्प्यूटर के सामने से कम से कम ढाई फीट दूर व पीछे से 3 फीट दूर रहे तथा मानीटर से साढ़े तीन फीट दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
—- शयन कक्ष में विद्युत उपकरणों को सोने से पहले बन्द कर उनके प्लग साकेट से बाहर निकाल देना चाहिए। शयन स्थल व कार्य स्थल से सात फीट के अन्दर किसी तरह का विद्युत स्विच व लैम्प आदि न लगायें।
मोबाइल फोन का उपयोग हैन्ड फ्री सेट∕इय़रफोन से ही करें तथा मोबाइल फोन हृदय के पास न रखें।
—-शेविंग मशीन, हेयर ड्रायर, माइक्रोवेव ओवन आदि शक्तिशाली तरंगे उत्पन्न करते हैं इनका उपयोग कम-से-कम होना चाहिए।
इलेक्ट्रानिक घड़ी आदि शरीर से 2.5 फीट दूर रखें। सर के पास रखकर न सोयें।
—-नई जमीन खरीदते समय विकिरण तरंगों (अल्फा, बीटा, गामा आदि) की जाँच करवा लें ताकि यदि यह सहनीय स्तर से अधिक हो तो बचाव हो सके। प्रारम्भिक प्रयोगों से पता चला है कि गौमूत्र से उत्पादित (फिनाइल आदि) के पौंछे से विकिरण की तरंगों से बचाव हो जाता है। इसी उद्देश्य से तहत संभवतः हमारे ऋषि-मुनियों ने गौमूत्र व गोबर से पोछा लगाने की प्रथा प्रचलित की थी जो अब धार्मिक कार्यों के अलावा लुप्त प्रायः हो गई है।
—–नये भवन के निर्माण में विद्युत संबंधित लाइनें व उपकरण इस तरह लगायें जायें जिससे मान शरीर पर उनका प्रभाव न पड़े अथवा कम से कम पड़े।
—– आप अपने घर में किसी भी प्रकार की बंद पड़ी घड़ी, टी.वी., टेप रिर्काडर, रेडियो, इत्यादि न रखें। यह बंद पड़ी चीजें आपकी तरक्की में रूकावट पैदा करती हैं। घर में अनावश्यक पड़ा बेकार सामान, कबाड़, टूटा फूटा फर्निचर, मकड़ी के जाले आदि नकारात्मक ऊर्जा बढ़ाते हैं और सकारात्मक ऊर्जा को अंदर आने से रोकते हैं।
—–घर को साफ-सुथरा एवं सुव्यवस्थित रखने के लिए झाड़ू और पोंछे का इस्तेमाल किया जाता है। यो दोनों कार्य घर में प्रवेश करने वाली बुरी और नकारात्मक ऊर्जाओं को नष्ट करते हैं। कभी-कभी पोंछे के पानी में नमक मिला लें शुभता का संचार होगा।
—–कुछ मकान बहुत सुंदर नजर आते हैं एक ही नजर में किसी का भी मन मोह लेते हैं लेकिन कमपाऊण्ड वॉल, सिक्यूरिटी का कमरा, रंग रोगन या घर का कोई कोना टूटा फूटा हो और वहां कबाड़ रखा हो तो ऐसे घरों में रहने वालों को शत्रु परेशान करते रहते हैं।
प्लॉट खरीदते समय उस पर खड़े अनुभव करें। यदि आपको सकारात्मक अनुभूति हो तो ही वह प्लॉट खरीदें अन्यथा न खरीदें।
—–अगर आप बना हुआ मकान खरीद रहें हैं तो पता लगा लें कि वहाँ पहले रह चुका परिवार खुशहाल परिवार है या नहीं।
—दरिद्रता या किसी मजबूरी के चलते बेचे जाने वाले मकान या प्लॉट को ना ही खरीदें तो बेहतर है। और अगर लेना ही है तो उसमें सावधानी बरतें।
—–जीर्ण-शीर्ण अवस्था वाले भवन न खरीदें।
—-मकान या प्लॉट को खरीदने से पहले जान लें कि वहाँ की भूमि उपजाऊ है या नहीं। अनुपजाऊ भूमि पर भवन बनाना वास्तु शास्त्र में उचित नहीं माना जाता है।
—-.भवन के लिए चयन किए जाने वाले प्लॉट की चारों भुजा राइट एगिंल (90 डिग्री अंश कोण) में हों। कम ज्यादा भुजा वाले प्लॉट अच्छे नहीं होते।
—- प्लाट जहाँ तक संभव हो उत्तरमुखी या पूर्वमुखी ही लें। ये दिशाएँ शुभ होती हैं और यदि किसी प्लॉट पर ये दोनों दिशा (उत्तर और पूर्व) खुली हुई हों तो वह प्लॉट दिशा के हिसाब से सर्वोत्तम होता है।
—प्लाट के एकदम लगे हुए, नजदीक मंदिर, मस्जिद, चौराह, पीपल, वटवृक्ष, सचिव और धूर्त का निवास कष्टप्रद होता है।
—पूर्व से पश्चिम की ओर लंबा प्लॉट सूर्यवेधी होता है जो कि शुभ होता है। उत्तर से दक्षिण की ओर लंबा प्लॉट चंद्र भेदी होता है जो ज्यादा शुभ होता है ओर धन वृद्धि करने वाला होता है।
—-प्लॉट के दक्षिण दिशा की ओर जल स्रोत हो तो अशुभ माना गया है। इसी के विपरीत जिस प्लॉट के उत्तर दिशा की ओर जल स्रोत (नदी, तालाब, कुआँ, जलकुंड) हो तो शुभ होता है।
— प्लॉट के पूर्व व उत्तर की ओर नीचा और पश्चिम तथा दक्षिण की ओर ऊँचा होना शुभ होता है।
— भवन का ब्रह्म स्थान रिक्त होना चाहिए अर्थात भवन के मध्य कोई निर्माण कार्य नहीं करें।
— बीम के नीचे न तो बैठें और न ही शयन करें। शयन कक्ष, रसोई एवं भोजन कक्ष बीम रहित होने चाहिए।
— वाहनों हेतु पार्किंग स्थल आग्नेय दिशा में उत्तम रहता हैं क्योंकि ये सभी उष्मीय ऊर्जा (ईधन) द्वारा चलते हैं।
— भवन के दरवाजें व खिड़कियां न तो आवाज करें और न ही स्वतः खुले तथा बन्द हो।
—व्यर्थ की सामग्री (कबाड़) को एकत्र न होने दें। घर में समान को अस्त व्यस्त न रखें। अनुपयोगी वस्तुओं को घर से निकालते रहें।
—भवन के प्रत्येक कोने में प्रकाश व वायु का सुगमता से प्रवेश होना चाहिए। शुद्ध वायु आने व अशुद्ध वायु बाहर निकलने की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसा होने से छोटे मोटे वास्तु दोष स्वतः समाप्त हो जाते हैं।
—दूकान में वायव्य दिशा का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अपना सेल काउंटर वायव्य दिशा में रखें, किन्तु तिजौरी एवं स्वयं के बैठने का स्थान नैऋत्य दिशा में रखें, मुख उत्तर या ईशान की ओर होना चाहिए।
—- भवन के वायव्य कोण में कुलर या ए.सी. को रखना चाहिए जबकि नैऋत्य कोण में भारी अलमारी को रखना चाहिए। वायव्य दिशा में स्थायी महत्व की वस्तुओं को कभी भी नहीं रखना चाहिए।
— घर एवं कमरे की छत सफेद होनी चाहिए, इससे वातावरण ऊर्जावान बना रहता है।
—- भवन में सीढियॉ पूर्व से पश्चिम या दक्षिण अथवा दक्षिण पश्चिम दिशा में उत्तर रहती है। सीढिया कभी भी घूमावदार नहीं होनी चाहिए। सीढियों के नीचे पूजा घर और शौचालय अशुभ होता है। सीढियों के नीचे का स्थान हमेशा खुला रखें तथा वहॉ बैठकर कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं करना चाहिए।
—-पानी का टेंक पश्चिम में उपयुक्त रहता हैं । भूमिगत टंकी, हैण्डपम्प या बोरिंग ईशान (उत्तर पूर्व) दिशा में होने चाहिए। ओवर हेड टेंक के लिए उत्तर और वायण्य कोण (दिशा) के बीच का स्थान ठीक रहता है। टेंक का ऊपरी हिस्सा गोल होना चाहिए।
—शौचालय की दिशा उत्तर दक्षिण में होनी चाहिए अर्थात इसे प्रयुक्त करने वाले का मुँह दक्षिण में व पीठ उत्तर दिशा में होनी चाहिए। मुख्य द्वार के बिल्कुल समीप शौचालय न बनावें। सीढियों के नीचे शौचालय का निर्माण कभी नहीं करवायें यह लक्ष्मी का मार्ग अवरूद्ध करती है। शौचालय का द्वार हमेशा बंद रखे। उत्तर दिशा, ईशान, पूर्व दिशा एवं आग्नेय कोण में शौचालय या टेंक निर्माण कदापि न करें।
—भवन की दीवारों पर आई सीलन व दरारें आदि जल्दी ठीक करवा लेनी चाहिए क्योकि यह घर के सदस्यों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं रहती।
— घर के सभी उपकरण जैसे टीवी, फ्रिज, घड़ियां, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर आदि चलते रहने चाहिए। खराब होने पर इन्हें तुरन्त ठीक करवां लें क्योकि बन्द (खराब) उपकरण घर में होना अशुभ होता है।
—-दक्षिण दिशा में रोशनदान खिड़की व शाट भी नहीं होना चाहिए। दक्षिण व पश्चिम में पड़ोस में भारी निर्माण से तरक्की अपने आप होगी व उत्तर पूर्व में सड़क पार्क होने पर भी तरक्की खुशहाली के योग अपने आप बनते रहेगें।
—मुख्य द्वार उत्तर पूर्व में हो तो सबसे बढ़िया हैं। दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम में हो तो अगर उसके सामने ऊँचे व भारी निर्माण होगा तो भी भारी तरक्की के आसार बनेगें, पर शर्त यह हैं कि उत्तर पूर्व में कम ऊँचे व हल्के निर्माण तरक्की देगें।
— यदि सम्भव हो तो घर के बीच में चौक (बरामदा ) अवश्य छोड़े एवं उसे बिल्कूल साफ-स्वच्छ रखें। इससे घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है।
—घर का प्रवेश द्वार यथासम्भव पूर्व या उत्तर दिशा में होना चाहिए। प्रवेश द्वार के समक्ष सीढियॉ व रसोई नहीं होनी चाहिए। प्रवेश द्वार भवन के ठीक बीच में नहीं होना चाहिए। भवन में तीन दरवाजे एक सीध में न हो।
—भवन में कांटेदार वृक्ष व पेड़ नहीं होने चाहिए ना ही दूध वाले पोधे -कनेर, ऑकड़ा केक्टस आदि। इनके स्थान पर सुगन्धित एवं खूबसूरत फूलों के पौधे लगाये।
—-घर में युद्ध के चित्र, बन्द घड़ी, टूटे हुए कॉच, तथा शयन कक्ष में पलंग के सामने दर्पण या ड्रेसिंग टेबल नहीं होनी चाहिए।
— भवन में खिड़कियों की संख्या सम तथा सीढ़ियों की संख्या विषम होनी चाहिए ।
— भवन के मुख्य द्वार में दोनों तरफ हरियाली वाले पौधे जैसे तुलसी और मनीप्लान्ट आदि रखने चाहिए। फूलों वाले पोधे घर के सामने वाले आंगन में ही लगाए। घर के पीछे लेगे होने से मानसिक कमजोरी को बढावा मिलता है।
—मुख्य द्वार पर मांगलिक चिन्ह जैसे स्वास्तिक, ऊँ आदि अंकित करने के साथ साथ गणपति लक्ष्मी या कुबेर की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए।
—मुख्य द्वार के सामने मन्दिर नहीं होना चाहिए। मुख्य द्वार की चौड़ाई हमेशा ऊँचाई की आधी होनी चाहिए।
—-मुख्य द्वार के समक्ष वृक्ष, स्तम्भ, कुआं तथा जल भण्डारण नहीं होना चाहिए। द्वार के सामने कूड़ा कर्कट और गंदगी एकत्र न होने दे यह अशुभ और दरिद्रता का प्रतिक है।
—रसोई घर आग्नेय कोण अर्थात दक्षिण पूर्व दिशा में होना चाहिए। गैस सिलेण्डर व अन्य अग्नि के स्त्रोतों तथा भोजन बनाते समय गृहणी की पीठ रसोई के दरवाजे की तरफ नहीं होनी चाहिए। रसोईघर हवादार एवं रोशनीयुक्त होना चाहिए। रेफ्रिजरेटर के ऊपर टोस्टर या माइक्रोवेव ओवन ना रखे। रसोई में चाकू स्टैण्ड पर खड़ा नहीं होना चाहिए। झूठें बर्तन रसोई में न रखे।
—-ड्राइंग रूम के लिए उत्तर दिशा उत्तम होती है। टी.वी., टेलिफोन व अन्य इलेक्ट्रोनिक उपकरण दक्षिण दिशा में रखें। दीवारों पर कम से कम कीलें प्रयुक्त करें। भवन में प्रयुक्त फर्नीचर पीपल, बड़ अथवा बेहडे के वृक्ष की लकड़ी का नहीं होना चाहिए।
—किसी कौने में अधिक पेड़-पौधें ना लगाए इसका दुष्प्रभाव माता-पिता पर भी होता हैं वैसे भी वृक्ष मिट्टी को क्षति पहुंचाते हैं।
—घर का मुख्य द्वार छोटा हो तथा पीछे का दरवाजा बड़ा हो तो वहॉ के निवासी गंभीर आर्थिक संकट से गुजर सकते हैं।
—घर का प्लास्टर उखड़ा हुआ नहीं होना चाहिए चाहे वह आंगन का हो, दीवारों का या रसोई अथवा शयनकक्ष का। दरवाजे एवं खिड़किया भी क्षतिग्रस्त नहीं होनी चाहिए। मुख्य द्वार का रंग काला नहीं होना चाहिए। अन्य दरवाजों एवं खिडकी पर भी काले रंग के इस्तेमाल से बचे।
—मुख्य द्वार पर कभी दर्पण न लगायें। सूर्य के प्रकाश की और कभी भी कॉच ना रखे। इस कॉच का परिवर्तित प्रकाश आपका वैभव एवं ऐश्वर्य नष्ट कर सकता है।
वास्तु के इन मुख्य नियमों का पालन कर हम सुख एवं समृद्धि में वृद्धि कर खुशहाल रह सकते हैं। यदि दिशाओं का ध्यान रखकर भवन का निर्माण एवं भूखण्ड की व्यवस्था की जाए तो समाज में मान सम्मान बढ़ता हैं। इस प्रकार भारतीय वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों का पालन कर हम सुख एवं वैभव की प्राप्ति कर सकते हैं।
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कैसे करें वास्तु पर पड़े रहे प्रभावों का मापनः—-
आधुनिक यंत्रों की सहायता से परिसर व भवन में व्याप्त प्राकृतिक व मानव निर्मित कृत्रिम वातावरण से उत्पन्न विद्युतीय एवं अन्य तरंगों के प्रभावों का अध्ययन (एन्टिना तथा अन्य वैज्ञानिक यंत्रों, गास मीटर, विद्युत दाब (E.M.F.) का मापन द्वार निर्मित वास्तु∕भूमि पर पड़ रहे विभिन्न प्राकृतिक व कृत्रिम प्रभावों का मापन न निष्कर्ष)।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक वास्तु क्षेत्र एवं वहाँ के रहवासियों के आभामंडल(Aura) का फोटो चित्रण तथा रहवासियों के हाथ के एक्यूप्रेशर बिन्दुओं का अध्ययन आधुनिक विज्ञान ने परम्परागत वास्तु के नियमों को न केवल सही पाया बल्कि मानव निर्मित उच्च दाब की विद्युत लाइनों व अन्य कारणों, मकानों-परिसर व मानव शरीर पर इसके दुष्प्रभावों की जानकारी देकर इसे और व्यापक बनाया है।
हाल ही में वास्तु के आभामंडल के चित्रण एवं एक्यूप्रेशर के यंत्रों द्वारा मानव शरीर पर वास्तु के प्रभावों के अध्ययन ने तो इसको और भी ज्यादा स्पष्ट कर प्रभावी विज्ञान का दर्जा दिया है। वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तों का पालन करने से उनमें रहने वालों की भौतिक आवश्यकता के साथ-साथ मानसिक एवं आत्मिक शांति की प्राप्ति भी होती है। वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक भवन कितना भी सुविधाजनक और सुन्दर हो यदि उसमें रहने वाले अस्वस्थ, अशांत अथवा अनचाही परिस्थितियों में घिर जाते हों और ऐच्छिक लक्ष्य की प्राप्ति न होकर अन्य नुकसान होता हो तो ऐसा भवन∕वास्तु को त्यागना अथवा संभव हो तो उसमें वास्तु अनुकूल बदलाव करना ही श्रेयस्कर होता है। वास्तु से प्रारब्ध तो नहीं बदलता परंतु जीवन में सहजता आती है। वास्तु सिद्धान्तों को मानने से जीवन के कठिन काल के अनुभवों में कठिनाइयों कम होती हैं और सुखद काल और भी सुखद हो जाता है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक आजकल नगर व शहरी क्षेत्रों के असीमित विकास, बढ़ती जनसंख्या व आवश्यकताओं के कारण भवनों का निर्माण एक जरूरत हो गया है। अतः इन बहुमंजिला भवनों के निर्माण में आत्मीयता व शांति के सुरम्य वातावरण को उत्पन्न करने एवं बनाये रखने के लिए उचित तकनीक की आवश्यकता है। इसको अनदेखा नहीं किया जा सकता। वर्तमान में की गयी लापरवाही अनचाहे कष्टों, रोगों एवं अर्थहानि का कारण तथा भावी विकास में बाधक हो सकती है, ऐसा अनेक उदाहरणों से सिद्ध हुआ है। किसी गलती को भविष्य में सुधारने की अपेक्षा वर्तमान में ही उसे न करना बुद्धिमानी है। वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के अनुसार वास्तु नियमों के पालन से प्रकृति हमें संबल प्रदान कर हमारे लक्ष्यों को सरल, व अल्प प्रयास से शीघ्र पूरा कर देती है। आधुनिक आर्किटैक्ट एक वैभवपूर्ण मकान बना सकते हैं परंतु उस मकान में रहने वालों के सुखद जीवन की गारंटी नहीं दे सकते जबकि वास्तु-विज्ञान वास्तु अनुरूप बने मकान के रहवासियों व मालिक के शांति पूर्ण, समृद्धिशाली एवं विकासपूर्ण जीवन की गारंटी देता है।
|| शुभम भवतु || कल्याण हो ||
प्रिय पाठकों/मित्रों, हमारी भारत भूमी के प्राचीन ऋषि तत्वज्ञानी थे और उनके द्वारा इस कला को तत्व ज्ञान से ही प्रतिपादित किया गया था. आज के युग में विज्ञान नें भी स्वीकार किया है कि सूर्य की महता का विशेष प्रतिपादन सत्य है, क्योंकि ये सिद्ध हो चुका है कि सूर्य महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य, आयुष्य, तेज, ओज, बल, उत्साह, स्फूर्ति, पुरूषार्थ और विभिन्न महानता मानव में परिणत होने लगती है |
क्या वास्तु सम्मत निमार्ण से भाग्य बदल जाता है?
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक यह प्रश्न वास्तु के प्रचलन को देखकर सभी के मन में आता होगा। आजकल सभी यह सोचकर वास्तु सम्मत निर्माण करने लगे हैं कि शायद ऐसा करने से भाग्य बदल जाए। प्रत्येक व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर जानना चाहता है। कार्य कोई भी करें यदि वो सही ढंग लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है तो अपना फल पूर्ण और शुभ देता है और कार्य यदि अनुचित ढंग से शीघ्रता सहित बिना-सोचे समझें लक्ष्य को ध्यान में रखे बिना किया है तो फल अपूर्ण और अशुभता लिए हुए होता है। वास्तु शास्त्र रहने या कार्य करने के लिए ऐसे भवन का निर्माण करना चाहता है, जिसमें पंच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्, वायु और आकाश का सही अनुपात हो अर्थात् एक सन्तुलन हो, इसके अतिरिक्त गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का समुचित प्रबन्ध हो। जब ऐसा होगा तो उस भवन में रहने वाला व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक क्षमता उन्नत कर सकेगा। यह जान लें कि वास्तु का सम्बन्ध वस्तु या ऐसे निर्माण से है जिसमें पंचमहाभूत का सही अनुपात हो, जबकि भाग्य का सम्बन्ध कर्म से है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के अनुसार कर्म संचित होते हैं जोकि भाग्य में परिवर्तित हो जाते हैं। वर्तमान हमारे भूतकाल के कर्मों पर आधारित होता है। हमारा भविष्य उन कर्मों पर आधारित होगा जो हम वर्तमान में कर रहे हैं। कर्म गति टारे नहीं टरे, जैसा बोए वैसा ही पाए। कर्मों का फल शुभाशुभ जैसा भी हो हमें भोगना अवश्य पड़ेगा। इतना है कि सुकर्म कष्ट को कम कर देते हैं। प्रकृति में जब भी पंच तत्त्चों का असन्तुलन होता है तो प्रकृति में विकृति आ जाती है जिस कारण भूकम्प, ज्वालामुखी का फटना, तूफान, बाढ़, दैवीय आपदा आदि आती है।
मानवीय जरूरतों के लिए सूर्य, वायु, आकाश, जल और पृथ्वी –
इन पाँच सुलभ स्रोतों को प्राकृतिक नियमों के अनुसार प्रबन्ध करने की कला को हम वास्तुशास्त्र कह सकते हैं। अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच तत्त्वों के समुच्चय को प्राकृतिक नियमों के अनुसार उपयोग में लाने की कला को वास्तुकला और संबंधित शास्त्र को वास्तुशास्त्र का नाम दिया गया है। वर्तमान युग में वास्तुशास्त्र हमें उपरोक्त 5 स्रोतों के साथ कुछ अन्य मानव-निर्मित वातावरण पर दुष्प्रभाव डालने वाले कारणों पर भी ध्यान दिलाता है। उदाहरण के तौर पर विज्ञान के विकास के साथ विद्युत लाइनों, माइक्रोवेव टावर्स, टीवी, मोबाइल आदि द्वारा निकलने वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगें आदि। ये मानव शरीर पर अवसाद, मानसिक तनाव, हड्डियों के रोग, बहरापन, कैंसर, चिड़चिड़ापन आदि उत्पन्न करने का एक प्रमुख कारण पायी गयी हैं। कैंसर जैसे महारोग के प्रमुख कारणों में विद्युत भी एक है। आधुनिक विज्ञान ने इन दुष्परिणामों को मापने के लिए मापक यंत्रों का भी आविष्कार दिया है, जिससे वातावरण में व्याप्त इनके घातक दुष्प्रभावों का मापन कर उन्हें संतुलित भी किया जा सके। पंचतत्त्वों से निर्मित मानव-शरीर के निवास, कार्यकलापों व शरीर से संबंधित सभी कार्यों के परिवेश अर्थात् वास्तु पर पाँचों तत्त्वों का समुचित साम्य एवं सम्मिलन आवश्यक है अन्यथा उस जगह पर रहने वाले व्यक्तियों के जीवन में विषमता पैदा हो सकती है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की हमारे पुराने मनीषियों ने वास्तुविद्या का गहन अध्ययन कर इसके नियम निर्धारित किये हैं। आधुनिक विज्ञान ने भी इस पर काफी खोज की है। विकसित यंत्रों के प्रयोग से इसको और अधिक प्रत्यक्ष व पारदर्शी बनाया है। शरीर पर हानिकारक प्रभाव डालने वाली उच्च दाब की विद्युत, चुम्बकीय, अल्फा, बीटा, गामा व रेडियो तरंगों के प्रभाव का मापन कर वास्तु का विश्लेषण किया जा सकता है। वर्तमान में हम किसी भी मकान, भूखंड, दुकान, मंदिर कारखाना या अन्य परिसर में वास्तु की निम्न तीन तरह से जाँचकर मानव-शरीर पर इसके प्रभावों की गणना कर सकते हैं।
आधुनिक भवन-निर्माण तकनीक मुख्यतः भौतिक सुख-सुविधा का ध्यान रखती है परंतु आंतरिक सुख शान्ति का विचार नहीं करती। प्राचीन भवन-निर्माण तकनीक अथवा वास्तु विज्ञान मस्तिष्क, शरीर व आत्मा के स्थायित्व को ध्यान में रखकर स्वस्थ वातावरण के निर्माण पर जोर देता है। यदि निर्माण वास्तु सिद्धान्तों के अनुकूल न हो तो वहाँ के निवासी और वहाँ कार्यरत लोगों के विचार व कार्य असम्यक व अविवेकपूर्ण होते हैं, जिससे वे अस्वस्थता व अशान्ति को प्राप्त होते हैं। वास्तु विज्ञान में समाहित प्रकृति के नियमों का भली भाँति पालन करने से प्रकृति वहाँ के निवासियों एवं कार्यरत लोगों को संबल प्रदान करती है। अतः आंतरिक सुख-शांति के लिए लोग वास्तुशास्त्र की शैली व सिद्धान्तों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक हमारा सौर मंडल विद्युत-चुंबकीय तरंगों से भरा हुआ है। पृथ्वी इसी सौरमंडल का एक उपग्रह है। पृथ्वी भी एक बड़ा चुंबक ही है। अपनी धुरी पर घूमते हुए पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है। इस तरह पैदा होनेवाली विद्युत-चुम्बकीय तरंगों से पूरा वातावरण आच्छादित है। हमारे शरीर के विभिन्न कार्य भी विद्युत-चुम्बकीय तरंगों द्वारा ही हृदय, मस्तिष्क व इन्द्रियों द्वारा होते हैं। इस विद्युत शक्ति के माध्यम से ही जीवनशक्ति या चेतना शक्ति काम करती है।
अतएव विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र मानव जीवन के लिए आवश्यक तत्त्व है जिससे यह जीवन क्रियावान है। वास्तु विज्ञान जीवन तंत्र और पर्यावरण के बीच स्थापित सम्बन्ध को सही रास्ते पर चलाने में एक सेतु है जो उचित मार्गदर्शन कर रास्ता दिखाता है। डी.सी. (डायरेक्ट करंट के रूप में) विद्युत के आविष्कार के बाद से ही ए.सी. (Alternating Current) .1.V, .20V, 440V, 11000V हजारों मेगावोल्ट, माइक्रोवेव, रेडियो तरंगे आदि की खोज हुई। यह तरंगे द्वारा एवं बिना तार के भी अदृश्य रूप से वातावरण में हमारे शरीर के चारों तरफ रहती हैं, प्रभाव डालती हैं, जिसे जानने व मापने के लिए वैज्ञानिक दिन-प्रतिदिन नयी-नयी खोजों में व्यस्त हैं। पशुओं∕पक्षियों पर भी इनके प्रभाव के अध्ययन हुए। मानव शरीर पर हुई खोजों से पता चला कि उच्चदाब विद्यित लाइन के पास रहने वालों में कैंसर रोग की बढ़ोतरी सामान्य से दुगनी होती है। उच्चदाब की विद्युत लाइन पर काम करने वालों में सामान्य से 1. गुना ज्यादा दिमागी कैन्सर की संभावना रहती है।
टी.वी. से निकलने वाली विद्युत-चुम्बकीय तरंगें आँखों के नुकसान पहुँचाती हैं व इन तरंगों का परिमाण 3 फीट के क्षेत्र में 3 मिलीगास से अधिक होता है। पलंग लगे साइड बिजली स्विच∕साइड लैम्प से तरंगे हमारे शरीर तक पहुँचकर एक तरह का तनाव पैदा करती है जिसके कारण कई तरह की बिमारीयाँ पैदा होती हैं। मोबाइल, कार्डलेस फोन का ज्यादा उपयोग करने वालों का अनुभव है उनके कान व सिर में दर्द होने लगता है। वैज्ञानिक खोज से पता चला है कि मोबाइल फोन के पास लाने से मस्तिष्क में विद्युत-चुम्बकीय तरंगें लाखों गुना बढ़ जाती हैं। इसी तरह कम्पयूटर सबसे ज्यादा तरंगे पीछे की तरफ से प्रसारित करता है। इसलिए कम्पयूटर की पीठ हमारी तरफ नहीं होनी चाहिए। इसी तरह मोबाइल टावर्स के आसपास का क्षेत्र भी हानिकारक आवृत्ति की तरंगों से भरपूर रहता है वहाँ ज्यादा समय तक रहना स्वास्थ्य के लिए अति नुकसान दायक हैं।
विद्युत के स्विच बोर्ड व मरकरी टयूबलाइट आदि के आसपास छिपकलियाँ दिखाई देती हैं। छिपकली ऋणात्मक ऊर्जा का प्राणी है इसलिए ऋणात्मक ऊर्जा प्राप्त कर जीवनयापन करती है। मनुष्य, गाय, घोड़ा, बकरी, कुत्ता, भेड़ आदि धनात्मक ऊर्जा पुंज वाले प्राणी हैं अतः इनके सम्पर्क में रहना और ऋणात्मक ऊर्जा वाले तत्त्वों से दूर रहना मानव शरीर को स्वस्थ व सम्बल बनाये रखने के लिए जरूरी है। छिपकली, दीमक, साँप, बिल्ली, शेर आदि ऋणात्मक ऊर्जा पुंज का प्राणि है और ऋणात्मक ऊर्जा क्षेत्रों में निवास बनाते व रहना पसंद करते हैं।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की वैज्ञानिकों को शोध से पता चला है कि वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों के पालन से वास्तु अनुकूल वातावरण व उनके रहवासियों में वांछित ऊर्जा स्तर होता है जो उनके स्वास्थ्य व विकास में सहायक होता है। वास्तु अनुकूल व प्रतिकूल वातावरण व वहाँ के निवासियों के आभामंडल चित्रण तथा एक्यप्रेशर बिन्दुओं के परीक्षण से यह निष्कर्ष प्राप्त हुए। खोज में पाया गया है कि एक ही तरह के वास्तु विरूद्ध निर्माण में रहने से वहाँ के निवासियों में एक ही तरह के एक्यूप्रेशर बिन्दु मिलते हैं। वास्तु अनुकूल वातावरण बनाने से वातावरण तथा वहाँ के निवासियों के आभामंडल में वांछित बदलाव आता है। इस पर आगे खोज जारी है तथा इन यंत्रों का वास्तु निरीक्षण में प्रयोग शुरू भी हो गया है।
इसी तरह विद्युत-चुम्बकीय व अन्य अलफा, बीटा, गामा रेडियो धर्मी तरंगों से बचाव व जानकारी हेतु परम्परागत वास्तु के साथ-साथ नये वैज्ञानिक यंत्र डॉ. गास मीटर, एक्मोपोल, जीवनपूर्ति ऊर्जा परीक्षक (Biofeed back energy Tester) लेचर एंटीना, रेड-अलर्ट, उच्च व नीची आवृत्ति (Low and high frequency) की तरंगों व रेडियो धर्मी तरंगों के मापक यंत्र आदि का उपयोग भी वास्तु सुधार में उल्लेखनीय पाया गया है जो परम्परागत वास्तु के आधुनिक प्रगति के दुष्परिणामों से बचाव के लिए हमें सावधान कर सकता है।
वास्तु सिद्धान्तों का प्रयोग अब नये क्षेत्रों जैसे इन्टरनेट में वेब डिजाइन, लेटरपेड, विजिटिंग कार्ड डिज़ाइन, ‘खेती में वास्तु’ में भी सफलतापूर्वक किया गया है। पुरातन काल में भी फर्नीचर, शयन, विमान (वाहन) में वास्तु के उपयोग का वर्णन शास्त्रों में है। नयी खोजों व प्रयोगों से वास्तु सुधार में गौमूत्र की उपयोगिता पर भी प्रयोग किये गये हैं व पुरातन ज्ञान की पुष्टि हुई है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक आज भी वैज्ञानिक मानते हैं कि सूर्य की अल्ट्रावायलेट रश्मियों में विटामिन डी प्रचूर मात्रा में पाया जाता है, जिनके प्रभाव से मानव जीवों तथा पेड-पौधों में उर्जा का विकास होता है. इस प्रभाव का मानव के शारीरिक एवं मानसिक दृ्ष्टि से अनेक लाभ हैं. मध्यांह एवं सूर्यास्त के समय उसकी किरणों में रेडियोधर्मिता अधिक होती है, जो मानव शरीर, उसके स्वास्थय पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. अत: आज भी वास्तु विज्ञान में भवन निर्माण के तहत, पूर्व दिशा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. जिससे सूर्य की प्रात:कालीन किरणें भवन के अन्दर अधिक से अधिक मात्रा में प्रवेश कर सकें और उसमें रहने वाला मानव स्वास्थय तथा मानसिक दृष्टिकोण से उन्नत रहे |
वास्तु नियम के अनुसार पूर्व एवं उत्तर दिशा में अधिक से अधिक दरवाजें, खिडकियाँ रखी जानी चाहिए. ये भाग अधिक खुले होने से हवा और रोशनी अधिक मात्रा में प्रवेश करती है. प्रवेश करने वाली हवा दक्षिण-पश्चिम के कम दरवाजों-खिडकियों से धीरे धीरे बाहर निकलती है, जिससे कि भवन का वातावरण स्वच्छ, साफ एवं प्रदूषण मुक्त होता है |
आजकल परम्परागत भारतीय वास्तु विद्या की धूम आयुर्वेद की तरह मची हुई है। लोग रहस्यमय कौतुहल के साथ इसे जानना-समझना चाहते हैं। अनेक लोग प्रश्न करते है कि क्या सचमुच इसका प्रभाव जीवन पर पड़ता है? पड़ता है, तो क्यों? इसका वैज्ञानिक आधार क्या है? यहाँ हम इन्ही प्रश्नों एवं रहस्यों का उत्तर दे रहे है;जो अब तक वास्तु विद्या के सम्बन्ध में विश्व में कहीं भी, किसी भी भाषा में उपलब्ध नहीं है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की दक्षिण दिशा में सिरहाना करने का महत्व प्रतिपादित है, जिसका मूल कारण पृ्थ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में पडने वाला प्रभाव है, क्यों कि सर्वविदित है कि चुम्बकीय प्रभाव उत्तर से दक्षिण की ओर रहता है. मानवीय जैव चुम्बकत्व भी सिर से पैर की ओर होता है. अत: सिर को उतरायण एवं पैरों को दक्षिणायण कहा गया है. यदि सिर उत्तर दिशा में रखा जाए तो पृ्थ्वी का उत्तरी ध्रुव मानव सिर के ध्रुव चुम्बकीय प्रभाव को अस्वीकार करेगा. इससे शरीर के रक्त संचार के लिए अनुकूल चुम्बकीय लाभ नहीं होगा.
इसको आधुनिक मस्तिष्क वैज्ञानिकों नें भी माना है कि मस्तिष्कीय क्रिया क्षमता का मूलभूत स्त्रोत अल्फा तरंगों का पृ्थ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन का संबंध आकाशीय पिंडों से है और यही वजह है कि वास्तु कला शास्त्र हो या ज्योतिष शास्त्र, सभी अपने अपने ढंग से सूर्य से मानवीय सूत्र सम्बंधों की व्याख्या प्रतिपादित करते हैं. अत: वास्तु के नियमों को, भारतीय भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रख कर, भूपंचात्मक तत्वों के ज्ञान से प्रतिपादित किया गया है. इसके नियमों में विज्ञान के समस्त पहलुओं का ध्यान रखा गया है, जिनसे सूर्य उर्जा, वायु, चन्द्रमा एवं अन्य ग्रहों का पृ्थ्वी पर प्रभाव प्रमुख है तथा उर्जा का सदुपयोग, वायु मंडल में व्याप्त सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों का आंकलन कर, उन्हे इस वास्तु शास्त्र के नियमों में निहित किया गया है |
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लेकिन यह वास्तु पुरुष देवता है क्या?
क्या ऐसे किसी पुरुष देवता का अस्तित्त्व सचमुच इनमें है?
हम पहले ही कह आये हैं कि यह रूपक है और हमारी परम्परा रही है कि ब्रह्माण्ड की तमाम ऊर्जात्मक शक्तियों को हमने भाव रूप देकर एक देवता या देवी के रूप में ही व्यक्त किया है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की इसे समझने के लिए प्रयोग शाला में एक 6” का एक आधा इंच चौड़ा चुम्बक बार लीजिये। इसे टेबल पर रखकर चारों ओर समान टेक देकर इसके ऊपर एक पतला शीशा डाल दीजिये। इस पर लोहे का महीन बुरादा छिड़क कर टेबल को धीरे-धीरे ठोकिये। ये कण एक आकृति बनायेंगे। इस आकृति को देखिये और वास्तु पुरुष के हाथ-पाँव सिर की स्थिति मध्य का भाग देखिये। पता चल जाएगा कि यह वास्तव में क्या है। यह वह चुम्बकीय बल है, जो इस भौतिक जगत के कण-कण में , पृथ्वी में, सूर्य में, तारों में, सौर मंडल में, ब्रह्माण्ड में, यहाँ तक कि यह परमाणुओं में और ‘आत्मा’ नामक सुपर एटम में भी विद्यमान है।
जब हम अपनी एक और पौराणिक कथा पर ध्यान देंगे, तो यह और स्पष्ट होगा। जब धरती पानी में डूबती जा रही थी, तो विष्णु ने मत्स्यावतार का रूप धारण करके उसे बचाया। ये चुम्बकीय रेखायें, सूंढ़-पूँछ वाली एक मछली की ही आकृति बनाती है और किसी पौधे या वृक्ष को देखिये, तो उसमें भी यह मछली नजर आएगी। इसका बल बड़ी इकाई के अंदर की ओर उल्टा होता है; और यहाँ यह स्पष्ट नजर आएगा।
जब हम 6” के बार को दो टुकड़ों में विभक्त कर देते है, तो उनमें अलग-अलग यह मछली बन जाती है। इसी प्रकार पृथ्वी के भूखंडों को हम जितने भाग में ढाई हाथ की गहराई में काटते हैं; वहाँ यह वास्तु बली पुरुष सम्पूर्ण रूप में अवतरित हो जाता है।
यह तो एक विज्ञान सम्मत निष्कर्ष है कि इस चुम्बकीय क्षेत्र का तमाम स्थान एक जैसे ऊर्जा-बल से युक्त नहीं होता।हर जगह बल की स्थिति अलग होती है और वहाँ का प्रभाव भी अलग होता है। इन्ही बलों और भौगोलिक स्थितियों की आनुपातिक गणना पर भूमि में देवी-देवताओं की स्थिति को माना गया है। पर ये सभी पदार्थों में ऐसे ही व्याप्त होते है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक हम-आप जिस मकान में रहते है; वास्तु विद्या में वहाँ का एक ग्रह-मैप होता है। प्रत्येक स्थान, कमरे आदि की स्थिति का आकलन इस मैप के अनुसार होता है। प्रत्येक वस्तु एवं काम का भी ग्रह-वर्गीकरण है। अब यदि सारा नक्शा सही है; पर काम और वास्तु का स्थान विपरीत ग्रह है, तो परेशानियां बढेंगी, कम नहीं होगी। इसलिए यह भी आवश्यक है कि ग्रहों के स्थान के अनुसार वस्तुओं की सेटिंग और काम की सेटिंग हो। इस ज्योतिषीय गणना में भी एक और गणना जुड़ जाती है, सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति की गणना। इससे यह और जटिल हो जाती है। आजकल मकानों में आसमान नहीं होता। यह राहु दोष है। ऐसे ही जैसे खोपड़ी में चाँद गायब हो जाए। इससे प्रकृति का नैसर्गिक अमृत हमें प्राप्त नहीं होता। यह आयु और विचारों को प्रभावित करता है। इसे मकानों में कृत्रिम तौर पर उत्पन्न करने या लाने के लिए इसमें सूर्य और चन्द्रमा को स्थापित करना आवश्यक है, और इसके लिए स्थान मुकर्रर करना भी एक गणनात्मक विषय है।
यह सबके लिए अलग-अलग होता है। प्राचीन काल में छत बुध और शनि के होते थे,फर्श शुक्र के। छत पर पकी ईंटे, खपड़े, या घास होते थे, जो शनि है और बाँस या लकड़ी भी बुध-शनि ही होते थे। फर्श कच्ची हुआ करती थी। पर आज की छते रॉड की जाली पर बालू-सीमेंट से बनती है। यानी राहु-बुध और शनि। फर्श शुक्र की जगह श्स्नी-बुध की होती है। इन दोनों में बुध भी शनि के रूप में ढल जाता है। अब प्राचीन –सूत्रों के अनुसार इसका शुभाशुभ कैसे निकाल सकते है? इसलिए वर्त्तमान आधुनिक परिवर्त्तन भी गणना का एक फैक्टर बन जाता है। जल स्रोत ईशान में होना चाहिए, पर पानी टंकी ईशान में लगायेंगे, तो जिंदगी की गाड़ी ही आगे झुक कर रफ़्तार को दबा देगी। वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक जन्मकुंडली का महत्त्व केवल प्लाट, मकान और वस्तु पर ही नहीं; दीवार और छत के रंगों, फर्श की डिज़ाइनिंग पर भी पड़ता है। आप जो कपडे पहनते हैं , जूते प्रयोग करते है, गाड़ी प्रयोग करते है, जिस बर्त्तन में खाना खाते है, जिससे पानी , चाय , दूध, कॉफ़ी पीते है। वे सभी आप पर प्रभाव डालते है। वास्तु विद्या में इंटीरियर डिज़ाइनिंग का भी प्रभाव है। अब यदि आप चाहते है कि अपने मकान का वास्तु दोष निवारण करें , तो आपको प्रत्येक क्षेत्र को देखना होगा। मोटे तौर पर किये गये उपाय भारी पड़ सकते है। नक्शा बनाना है, तो इन सबका ध्यान रखना होगा।
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वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक संक्षिप्त में हमें वातावरण में व्याप्त आधुनिक प्रगति से बचने के लिए निम्न सावधानियाँ रखनी चाहिए—
—-नयी जमीन खरीदते समय ध्यान रखें कि जमीन उच्च दाब की विद्युत लाइन से कम-से-कम 60 मीटर (200 फीट) दूर हो ताकि विद्युत तरंगों के मानव शरीर पर सतत दुष्प्रभाव से बचाव हो सके।
कम्प्यूटर के सामने से कम से कम ढाई फीट दूर व पीछे से 3 फीट दूर रहे तथा मानीटर से साढ़े तीन फीट दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
—- शयन कक्ष में विद्युत उपकरणों को सोने से पहले बन्द कर उनके प्लग साकेट से बाहर निकाल देना चाहिए। शयन स्थल व कार्य स्थल से सात फीट के अन्दर किसी तरह का विद्युत स्विच व लैम्प आदि न लगायें।
मोबाइल फोन का उपयोग हैन्ड फ्री सेट∕इय़रफोन से ही करें तथा मोबाइल फोन हृदय के पास न रखें।
—-शेविंग मशीन, हेयर ड्रायर, माइक्रोवेव ओवन आदि शक्तिशाली तरंगे उत्पन्न करते हैं इनका उपयोग कम-से-कम होना चाहिए।
इलेक्ट्रानिक घड़ी आदि शरीर से 2.5 फीट दूर रखें। सर के पास रखकर न सोयें।
—-नई जमीन खरीदते समय विकिरण तरंगों (अल्फा, बीटा, गामा आदि) की जाँच करवा लें ताकि यदि यह सहनीय स्तर से अधिक हो तो बचाव हो सके। प्रारम्भिक प्रयोगों से पता चला है कि गौमूत्र से उत्पादित (फिनाइल आदि) के पौंछे से विकिरण की तरंगों से बचाव हो जाता है। इसी उद्देश्य से तहत संभवतः हमारे ऋषि-मुनियों ने गौमूत्र व गोबर से पोछा लगाने की प्रथा प्रचलित की थी जो अब धार्मिक कार्यों के अलावा लुप्त प्रायः हो गई है।
—–नये भवन के निर्माण में विद्युत संबंधित लाइनें व उपकरण इस तरह लगायें जायें जिससे मान शरीर पर उनका प्रभाव न पड़े अथवा कम से कम पड़े।
—– आप अपने घर में किसी भी प्रकार की बंद पड़ी घड़ी, टी.वी., टेप रिर्काडर, रेडियो, इत्यादि न रखें। यह बंद पड़ी चीजें आपकी तरक्की में रूकावट पैदा करती हैं। घर में अनावश्यक पड़ा बेकार सामान, कबाड़, टूटा फूटा फर्निचर, मकड़ी के जाले आदि नकारात्मक ऊर्जा बढ़ाते हैं और सकारात्मक ऊर्जा को अंदर आने से रोकते हैं।
—–घर को साफ-सुथरा एवं सुव्यवस्थित रखने के लिए झाड़ू और पोंछे का इस्तेमाल किया जाता है। यो दोनों कार्य घर में प्रवेश करने वाली बुरी और नकारात्मक ऊर्जाओं को नष्ट करते हैं। कभी-कभी पोंछे के पानी में नमक मिला लें शुभता का संचार होगा।
—–कुछ मकान बहुत सुंदर नजर आते हैं एक ही नजर में किसी का भी मन मोह लेते हैं लेकिन कमपाऊण्ड वॉल, सिक्यूरिटी का कमरा, रंग रोगन या घर का कोई कोना टूटा फूटा हो और वहां कबाड़ रखा हो तो ऐसे घरों में रहने वालों को शत्रु परेशान करते रहते हैं।
प्लॉट खरीदते समय उस पर खड़े अनुभव करें। यदि आपको सकारात्मक अनुभूति हो तो ही वह प्लॉट खरीदें अन्यथा न खरीदें।
—–अगर आप बना हुआ मकान खरीद रहें हैं तो पता लगा लें कि वहाँ पहले रह चुका परिवार खुशहाल परिवार है या नहीं।
—दरिद्रता या किसी मजबूरी के चलते बेचे जाने वाले मकान या प्लॉट को ना ही खरीदें तो बेहतर है। और अगर लेना ही है तो उसमें सावधानी बरतें।
—–जीर्ण-शीर्ण अवस्था वाले भवन न खरीदें।
—-मकान या प्लॉट को खरीदने से पहले जान लें कि वहाँ की भूमि उपजाऊ है या नहीं। अनुपजाऊ भूमि पर भवन बनाना वास्तु शास्त्र में उचित नहीं माना जाता है।
—-.भवन के लिए चयन किए जाने वाले प्लॉट की चारों भुजा राइट एगिंल (90 डिग्री अंश कोण) में हों। कम ज्यादा भुजा वाले प्लॉट अच्छे नहीं होते।
—- प्लाट जहाँ तक संभव हो उत्तरमुखी या पूर्वमुखी ही लें। ये दिशाएँ शुभ होती हैं और यदि किसी प्लॉट पर ये दोनों दिशा (उत्तर और पूर्व) खुली हुई हों तो वह प्लॉट दिशा के हिसाब से सर्वोत्तम होता है।
—प्लाट के एकदम लगे हुए, नजदीक मंदिर, मस्जिद, चौराह, पीपल, वटवृक्ष, सचिव और धूर्त का निवास कष्टप्रद होता है।
—पूर्व से पश्चिम की ओर लंबा प्लॉट सूर्यवेधी होता है जो कि शुभ होता है। उत्तर से दक्षिण की ओर लंबा प्लॉट चंद्र भेदी होता है जो ज्यादा शुभ होता है ओर धन वृद्धि करने वाला होता है।
—-प्लॉट के दक्षिण दिशा की ओर जल स्रोत हो तो अशुभ माना गया है। इसी के विपरीत जिस प्लॉट के उत्तर दिशा की ओर जल स्रोत (नदी, तालाब, कुआँ, जलकुंड) हो तो शुभ होता है।
— प्लॉट के पूर्व व उत्तर की ओर नीचा और पश्चिम तथा दक्षिण की ओर ऊँचा होना शुभ होता है।
— भवन का ब्रह्म स्थान रिक्त होना चाहिए अर्थात भवन के मध्य कोई निर्माण कार्य नहीं करें।
— बीम के नीचे न तो बैठें और न ही शयन करें। शयन कक्ष, रसोई एवं भोजन कक्ष बीम रहित होने चाहिए।
— वाहनों हेतु पार्किंग स्थल आग्नेय दिशा में उत्तम रहता हैं क्योंकि ये सभी उष्मीय ऊर्जा (ईधन) द्वारा चलते हैं।
— भवन के दरवाजें व खिड़कियां न तो आवाज करें और न ही स्वतः खुले तथा बन्द हो।
—व्यर्थ की सामग्री (कबाड़) को एकत्र न होने दें। घर में समान को अस्त व्यस्त न रखें। अनुपयोगी वस्तुओं को घर से निकालते रहें।
—भवन के प्रत्येक कोने में प्रकाश व वायु का सुगमता से प्रवेश होना चाहिए। शुद्ध वायु आने व अशुद्ध वायु बाहर निकलने की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसा होने से छोटे मोटे वास्तु दोष स्वतः समाप्त हो जाते हैं।
—दूकान में वायव्य दिशा का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अपना सेल काउंटर वायव्य दिशा में रखें, किन्तु तिजौरी एवं स्वयं के बैठने का स्थान नैऋत्य दिशा में रखें, मुख उत्तर या ईशान की ओर होना चाहिए।
—- भवन के वायव्य कोण में कुलर या ए.सी. को रखना चाहिए जबकि नैऋत्य कोण में भारी अलमारी को रखना चाहिए। वायव्य दिशा में स्थायी महत्व की वस्तुओं को कभी भी नहीं रखना चाहिए।
— घर एवं कमरे की छत सफेद होनी चाहिए, इससे वातावरण ऊर्जावान बना रहता है।
—- भवन में सीढियॉ पूर्व से पश्चिम या दक्षिण अथवा दक्षिण पश्चिम दिशा में उत्तर रहती है। सीढिया कभी भी घूमावदार नहीं होनी चाहिए। सीढियों के नीचे पूजा घर और शौचालय अशुभ होता है। सीढियों के नीचे का स्थान हमेशा खुला रखें तथा वहॉ बैठकर कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं करना चाहिए।
—-पानी का टेंक पश्चिम में उपयुक्त रहता हैं । भूमिगत टंकी, हैण्डपम्प या बोरिंग ईशान (उत्तर पूर्व) दिशा में होने चाहिए। ओवर हेड टेंक के लिए उत्तर और वायण्य कोण (दिशा) के बीच का स्थान ठीक रहता है। टेंक का ऊपरी हिस्सा गोल होना चाहिए।
—शौचालय की दिशा उत्तर दक्षिण में होनी चाहिए अर्थात इसे प्रयुक्त करने वाले का मुँह दक्षिण में व पीठ उत्तर दिशा में होनी चाहिए। मुख्य द्वार के बिल्कुल समीप शौचालय न बनावें। सीढियों के नीचे शौचालय का निर्माण कभी नहीं करवायें यह लक्ष्मी का मार्ग अवरूद्ध करती है। शौचालय का द्वार हमेशा बंद रखे। उत्तर दिशा, ईशान, पूर्व दिशा एवं आग्नेय कोण में शौचालय या टेंक निर्माण कदापि न करें।
—भवन की दीवारों पर आई सीलन व दरारें आदि जल्दी ठीक करवा लेनी चाहिए क्योकि यह घर के सदस्यों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं रहती।
— घर के सभी उपकरण जैसे टीवी, फ्रिज, घड़ियां, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर आदि चलते रहने चाहिए। खराब होने पर इन्हें तुरन्त ठीक करवां लें क्योकि बन्द (खराब) उपकरण घर में होना अशुभ होता है।
—-दक्षिण दिशा में रोशनदान खिड़की व शाट भी नहीं होना चाहिए। दक्षिण व पश्चिम में पड़ोस में भारी निर्माण से तरक्की अपने आप होगी व उत्तर पूर्व में सड़क पार्क होने पर भी तरक्की खुशहाली के योग अपने आप बनते रहेगें।
—मुख्य द्वार उत्तर पूर्व में हो तो सबसे बढ़िया हैं। दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम में हो तो अगर उसके सामने ऊँचे व भारी निर्माण होगा तो भी भारी तरक्की के आसार बनेगें, पर शर्त यह हैं कि उत्तर पूर्व में कम ऊँचे व हल्के निर्माण तरक्की देगें।
— यदि सम्भव हो तो घर के बीच में चौक (बरामदा ) अवश्य छोड़े एवं उसे बिल्कूल साफ-स्वच्छ रखें। इससे घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है।
—घर का प्रवेश द्वार यथासम्भव पूर्व या उत्तर दिशा में होना चाहिए। प्रवेश द्वार के समक्ष सीढियॉ व रसोई नहीं होनी चाहिए। प्रवेश द्वार भवन के ठीक बीच में नहीं होना चाहिए। भवन में तीन दरवाजे एक सीध में न हो।
—भवन में कांटेदार वृक्ष व पेड़ नहीं होने चाहिए ना ही दूध वाले पोधे -कनेर, ऑकड़ा केक्टस आदि। इनके स्थान पर सुगन्धित एवं खूबसूरत फूलों के पौधे लगाये।
—-घर में युद्ध के चित्र, बन्द घड़ी, टूटे हुए कॉच, तथा शयन कक्ष में पलंग के सामने दर्पण या ड्रेसिंग टेबल नहीं होनी चाहिए।
— भवन में खिड़कियों की संख्या सम तथा सीढ़ियों की संख्या विषम होनी चाहिए ।
— भवन के मुख्य द्वार में दोनों तरफ हरियाली वाले पौधे जैसे तुलसी और मनीप्लान्ट आदि रखने चाहिए। फूलों वाले पोधे घर के सामने वाले आंगन में ही लगाए। घर के पीछे लेगे होने से मानसिक कमजोरी को बढावा मिलता है।
—मुख्य द्वार पर मांगलिक चिन्ह जैसे स्वास्तिक, ऊँ आदि अंकित करने के साथ साथ गणपति लक्ष्मी या कुबेर की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए।
—मुख्य द्वार के सामने मन्दिर नहीं होना चाहिए। मुख्य द्वार की चौड़ाई हमेशा ऊँचाई की आधी होनी चाहिए।
—-मुख्य द्वार के समक्ष वृक्ष, स्तम्भ, कुआं तथा जल भण्डारण नहीं होना चाहिए। द्वार के सामने कूड़ा कर्कट और गंदगी एकत्र न होने दे यह अशुभ और दरिद्रता का प्रतिक है।
—रसोई घर आग्नेय कोण अर्थात दक्षिण पूर्व दिशा में होना चाहिए। गैस सिलेण्डर व अन्य अग्नि के स्त्रोतों तथा भोजन बनाते समय गृहणी की पीठ रसोई के दरवाजे की तरफ नहीं होनी चाहिए। रसोईघर हवादार एवं रोशनीयुक्त होना चाहिए। रेफ्रिजरेटर के ऊपर टोस्टर या माइक्रोवेव ओवन ना रखे। रसोई में चाकू स्टैण्ड पर खड़ा नहीं होना चाहिए। झूठें बर्तन रसोई में न रखे।
—-ड्राइंग रूम के लिए उत्तर दिशा उत्तम होती है। टी.वी., टेलिफोन व अन्य इलेक्ट्रोनिक उपकरण दक्षिण दिशा में रखें। दीवारों पर कम से कम कीलें प्रयुक्त करें। भवन में प्रयुक्त फर्नीचर पीपल, बड़ अथवा बेहडे के वृक्ष की लकड़ी का नहीं होना चाहिए।
—किसी कौने में अधिक पेड़-पौधें ना लगाए इसका दुष्प्रभाव माता-पिता पर भी होता हैं वैसे भी वृक्ष मिट्टी को क्षति पहुंचाते हैं।
—घर का मुख्य द्वार छोटा हो तथा पीछे का दरवाजा बड़ा हो तो वहॉ के निवासी गंभीर आर्थिक संकट से गुजर सकते हैं।
—घर का प्लास्टर उखड़ा हुआ नहीं होना चाहिए चाहे वह आंगन का हो, दीवारों का या रसोई अथवा शयनकक्ष का। दरवाजे एवं खिड़किया भी क्षतिग्रस्त नहीं होनी चाहिए। मुख्य द्वार का रंग काला नहीं होना चाहिए। अन्य दरवाजों एवं खिडकी पर भी काले रंग के इस्तेमाल से बचे।
—मुख्य द्वार पर कभी दर्पण न लगायें। सूर्य के प्रकाश की और कभी भी कॉच ना रखे। इस कॉच का परिवर्तित प्रकाश आपका वैभव एवं ऐश्वर्य नष्ट कर सकता है।
वास्तु के इन मुख्य नियमों का पालन कर हम सुख एवं समृद्धि में वृद्धि कर खुशहाल रह सकते हैं। यदि दिशाओं का ध्यान रखकर भवन का निर्माण एवं भूखण्ड की व्यवस्था की जाए तो समाज में मान सम्मान बढ़ता हैं। इस प्रकार भारतीय वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों का पालन कर हम सुख एवं वैभव की प्राप्ति कर सकते हैं।
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कैसे करें वास्तु पर पड़े रहे प्रभावों का मापनः—-
आधुनिक यंत्रों की सहायता से परिसर व भवन में व्याप्त प्राकृतिक व मानव निर्मित कृत्रिम वातावरण से उत्पन्न विद्युतीय एवं अन्य तरंगों के प्रभावों का अध्ययन (एन्टिना तथा अन्य वैज्ञानिक यंत्रों, गास मीटर, विद्युत दाब (E.M.F.) का मापन द्वार निर्मित वास्तु∕भूमि पर पड़ रहे विभिन्न प्राकृतिक व कृत्रिम प्रभावों का मापन न निष्कर्ष)।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक वास्तु क्षेत्र एवं वहाँ के रहवासियों के आभामंडल(Aura) का फोटो चित्रण तथा रहवासियों के हाथ के एक्यूप्रेशर बिन्दुओं का अध्ययन आधुनिक विज्ञान ने परम्परागत वास्तु के नियमों को न केवल सही पाया बल्कि मानव निर्मित उच्च दाब की विद्युत लाइनों व अन्य कारणों, मकानों-परिसर व मानव शरीर पर इसके दुष्प्रभावों की जानकारी देकर इसे और व्यापक बनाया है।
हाल ही में वास्तु के आभामंडल के चित्रण एवं एक्यूप्रेशर के यंत्रों द्वारा मानव शरीर पर वास्तु के प्रभावों के अध्ययन ने तो इसको और भी ज्यादा स्पष्ट कर प्रभावी विज्ञान का दर्जा दिया है। वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तों का पालन करने से उनमें रहने वालों की भौतिक आवश्यकता के साथ-साथ मानसिक एवं आत्मिक शांति की प्राप्ति भी होती है। वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक भवन कितना भी सुविधाजनक और सुन्दर हो यदि उसमें रहने वाले अस्वस्थ, अशांत अथवा अनचाही परिस्थितियों में घिर जाते हों और ऐच्छिक लक्ष्य की प्राप्ति न होकर अन्य नुकसान होता हो तो ऐसा भवन∕वास्तु को त्यागना अथवा संभव हो तो उसमें वास्तु अनुकूल बदलाव करना ही श्रेयस्कर होता है। वास्तु से प्रारब्ध तो नहीं बदलता परंतु जीवन में सहजता आती है। वास्तु सिद्धान्तों को मानने से जीवन के कठिन काल के अनुभवों में कठिनाइयों कम होती हैं और सुखद काल और भी सुखद हो जाता है।
वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के मुताबिक आजकल नगर व शहरी क्षेत्रों के असीमित विकास, बढ़ती जनसंख्या व आवश्यकताओं के कारण भवनों का निर्माण एक जरूरत हो गया है। अतः इन बहुमंजिला भवनों के निर्माण में आत्मीयता व शांति के सुरम्य वातावरण को उत्पन्न करने एवं बनाये रखने के लिए उचित तकनीक की आवश्यकता है। इसको अनदेखा नहीं किया जा सकता। वर्तमान में की गयी लापरवाही अनचाहे कष्टों, रोगों एवं अर्थहानि का कारण तथा भावी विकास में बाधक हो सकती है, ऐसा अनेक उदाहरणों से सिद्ध हुआ है। किसी गलती को भविष्य में सुधारने की अपेक्षा वर्तमान में ही उसे न करना बुद्धिमानी है। वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के अनुसार वास्तु नियमों के पालन से प्रकृति हमें संबल प्रदान कर हमारे लक्ष्यों को सरल, व अल्प प्रयास से शीघ्र पूरा कर देती है। आधुनिक आर्किटैक्ट एक वैभवपूर्ण मकान बना सकते हैं परंतु उस मकान में रहने वालों के सुखद जीवन की गारंटी नहीं दे सकते जबकि वास्तु-विज्ञान वास्तु अनुरूप बने मकान के रहवासियों व मालिक के शांति पूर्ण, समृद्धिशाली एवं विकासपूर्ण जीवन की गारंटी देता है।
|| शुभम भवतु || कल्याण हो ||