पंचांग सिखने के लिये आवश्यक जानकारी १. आयन —सूर्य का सायन, मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृष, मिथुन में स्थिति काल को उत्तरायण और शेष सायन राशि कर्वक़, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक व धन में सूर्य स्थिति दक्षिणायन होता है। यद्यपि लगभग सभी शुभ कृत्य उत्तरायण में किए जाते हैं। कुछ कार्य दक्षिणायन में भी होते हैं। जिन की चर्चा विषय अनुसार ही होगी। २. अथिक मास —सूर्य संक्रांति—रहित शुक्लादि चन्द्रमास। ३. क्षय मास —दो सूर्य संक्रांतियों वाला शुक्लादि चन्द्रमास। ४. धनु:स्थ सूर्य—जब सूर्य धन राशि में भ्रमण कर रहा हो। ५. मीनस्थ सूर्य —जब सूर्य मीन राशि में भ्रमण कर रहा हो। ६. ज्येष्ठ मास —प्रथम गर्भ से जातक का, कोई भी मंगल कृत्य ज्येष्ठ मास में नहीं करना चाहिए। कुछ विद्वान इस दोष को सामान्य मानते हैं। वहा ‘ज्येष्ठ मास’ चन्द्र मास वाला है। ७. बृहस्पति का अस्त एवं वार्घक्य —वाल्य काल। यद्यपि बृहस्पति के वार्घक्य और बाल्य काल के बारे में ज्योतिषग्रंथों में अनेक मत है। लेकिन परम्परया बृहस्पति अस्त में तीन दिन पहले उसका वार्घक्य काल और उदय के तीन दिन बाद तक बाल्य काल पर अधिक विद्वानों द्वारा मान्य है। ८. शुक्र का अस्त एवं वार्घक्य —बाल्य काल। यहाँ भी उपरोक्त वृहस्पति के अनुसार ही शुक्र के वार्घक्य एवं बाल्य काल के तीन तीन दिन ही मान्य हैं। ९. प्रोष्ठपदी श्राद्ध पूर्णिमा —भाद्रपद, पूर्णिमा प्रोष्ठपदी पूर्णिमा कहलाती है। इस तिथि में पूर्णिमा का महालय श्राद्ध होता है, अत: यह दिन मांगलिक कार्यों के लिए वर्जित हैं। १०. श्राद्ध दिवस —आश्विन कृष्ण पक्ष के सभी दिन। ११. त्रयोदश दिन पक्ष —जिस पक्ष में दो तिथियों का क्षय हो, वह त्रयोदश दिन पक्ष कहलाता है। शास्त्रों में इसे अत्यनिष्ठ प्रद कहा गया है। १२. सिंहस्थ गुरु —सामान्यत: सिहंस्थ गुरु के पूर्ण काल को शुभ कार्यों में वर्जित किया गया है। परन्तु सिहांशकस्थ (मघा व पू. फा. प्रथम चरणस्थ) काल को वर्जित अनेकों शास्त्र वाक्य से सभी पंचागकार परम्परया करते चले आ रहे हैं। १३. मकरस्थ गुरु —सामान्यत: मकरस्थ (नीच) गुरु के पूरे काल को शुभ कृत्यों के लिए वर्जित कहा है लेकिन इसके (मकरस्थ गुरु के) केवल उसी काल को जहाँ गुरु नीचांशक (मकर—मकरांशक) में स्थित हो। १४. लुप्त संवत्सर —यद्यपि लुप्त संवत्सर को पूर्णत: मांगलिक कार्यों में वज्र्य लिखा है, लेकिन सुदीर्घ पंचाग कार इसे स्वीकार नहीं करते। १५.होलाष्टक —फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमा तक काल (होलाष्टक) कहलाता है। कुछ स्थान विशेष में ही इसे वर्जित मानते हैं। १६. तिथि, वर एवं नक्षत्रों की विष घटियॉं—सभी शुभ कार्यों में तिथि आदि की विष घटिया अशुभ मानी गई है। पर लग्न शुद्धि एवं गोचर ग्रह शुद्धि से इनका परिहार हो जाता है। १७. शून्य तिथि, नक्षत्र एवं राशियाँ—यह केवल मध्य देश में ही वर्जित है। १८. पक्षरन्ध्र तिथियाँ —दोनों (शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष) की ४, ६, ८, ९, १२, १४ तिथियाँ पक्षरन्ध्र तिथियाँ कहलाती हैं। इन की आरम्भ की कुछ घडिया शुभकार्यों के लिए वर्जित मानी है। पर लग्न शुद्धि व गोचर ग्रह शुद्धि से भी इन दोष समाप्त हो जाता है। १९. भद्रा (विष्टी करण) —सभी शुभ कार्यों में भद्रा का बहुत ही अशुभफल लिखा है। तथापि भद्रा का परिहार अनेकों मुहूर्तों ग्रंथों में मिलता है। लेकिन इस का प्रयोग अतयन्त विवशता की स्थिति में करना चाहिए—ऐसा मेरा मानना है। २०. दग्धातिथि —मेषादि १२ राशियों में सूर्य की स्थिति के समय क्रमश: ४, ६, ८, ६, १०, ८, १२, १०, २, १२, १४ और २ तिथियाँ (दोनों पक्षों की) दग्धा कहलाती है। इन तिथियों में शुभ कार्य करने का निषेध है। लेकिन केन्द्र—त्रिकोण में गुरु, शुक्र या बुध ग्रहों की स्थिति मुहूर्त लग्न में हो तो दूर करती है। २१. रिक्ता तिथि —दोनों पक्षों (शुक्ल एवं कृष्ण) की ४—९—१४ तिथियाँ रिक्ता मानी गई है। शुभ कार्यों के लिए इन्हें वर्जित माना है। लेकिन विवाहादि कुछ कार्यों में इन्हें परम्परानुसार केन्द्र त्रिकोण गत गुरु, शुक्र या बुध की स्थिति और शनिवार के संयोग से, तिथि दोष भी समाप्त हो जाता है। २२. अमावस्या —प्रत्येक मास की अमावस को चन्द्र के अदर्शन के कारण सभी शुभ कार्यों में वर्जित माना है। २३. माता—पिता का श्राद्ध दिन —सभी शुभ कार्यों में वर्जित हैं। २४. जन्म मास, तिथि —नाक्षत्र—प्रथम गर्भ से उत्पन्न जातक से सम्बंद्ध कोई भी मुहूर्त (मंगल कार्य) उसके (जातक के) जन्म मास, तिथियाँ नक्षत्र में शुभ नहीं माना जाता है। इसे केवल चन्द्र मास ही माने। २५. क्षीण तिथि (तिथि क्षय) —सूर्योदय का स्पर्श न करने वाली तिथि क्षीण कहलाती है। यह भी शुभ कार्यों में वर्जित है। लेकिन गुरु शुक्र या बुध की केन्द्र या त्रिकोण में स्थिति होने से इस दोष का परिहार माना गया है। २६. तिथि वृद्धि —यह दो सूर्योदयों का स्पर्श करने वाली होती है। इसे भी शुभ कार्यों में वर्जित माना है। लेकिन गुरु शुक्र या बुध की केन्द्र या त्रिकोण में स्थिति होने से इसे भी दोष रहित माना गया है। २७. व्रूर वार —सामान्यत: व्रूक़र (रवि—मंगल और शनिवारों में शुभ कृत्य न करने का उल्लेख है।) लेकिन परम्परया विवाहादि मुहूर्तों में व्रूरवारों का सभी लोग प्रयोग करते चले आ रहे हैं। और कई मुहूर्तों में तो व्रक़रवारों को विशेष रूप से ग्राहब भी माना है। कुछ में वर्जित भी किया है। यह मुहूर्तों में विशेष आयेगा। २८. नक्षत्रान्त —सभी नक्षत्रों के अन्त की तीन —तीन घडियाँ (१ घं. १२ मिनट) शुभ कार्यों में वर्जित मानी है।
लग्न शुद्धि से यद्यपि दोष का परिहार तर्वक़ सकते हैं, परन्तु बहुत से विद्वान इसकी उपेक्षा करते हैं। लग्न शुद्धि से हो इस का परिहार हो जाता है। ३१ गण्डात—यह तीन प्रकार से होता है—१ तिथि गण्डात, २ नक्षत्र गण्डात और ३ लग्न गण्डात १ तिथि गण्डात—पूर्णा (५—१०—१५—३०) तिथियों के अन्त की और नन्दा (१—६—११) तिथियों के प्रारम्भ की १ एक घटी (२४ मिनट) तिथि गण्डात होती है। (११) नक्षत्र गण्डात—अश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती नक्षत्र के अन्त की और मघा, मूल और अश्विनी नक्षत्रों की प्रारम्भ की २—२ घडियां (४८—४८) मिनट नक्षत्र गण्डात कहलाती हैं। (१११) लग्न गण्डात—कर्वक़, वृश्चिक, मीन लग्न के अन्त की और सिंह, धन, तथा मेष लग्नों की प्रारम्भ की आधी—आधी घड़ी (१२—१२ मिनट) ‘लग्न गण्डात’ मानी गई हैं। ये तीनों गण्डात समय शुभ कार्यों में वर्जित माने गये हैं।
ध्यान दें—नाक्षत्र गण्डात में जातक का जन्म शुभ नहीं माना जाता। शिशु का जन्म होने पर हर स्थिति में गण्डात शान्ति करानी चाहिए। ३२ दग्धा लग्न—दोनों (कृष्ण—शुक्ल) पक्षों की प्रतिपदा में तुला—मकर, तृतीया में सिंह—मकर, पंचमी में मिथुन—कन्या, सप्तमी में धन—कर्वक़, नवमी में कर्क़—सिंह, एकादशी में धन—मीन और त्रयोदशी में वृष मीन लग्न दग्धा कहलाते हैं। शुभ कार्यों में इन्हें वर्जित लिखा है। सभी विद्वान इस दोष को मान्यता नहीं देते। लग्न शुद्धि भी इस दोष को समाप्त करती हैं। ३३ दिन—रात्रि, सन्धि—दिन मध्य एवं रात्रि मध्य के १०—१० पल (४—४ मिनट) भी अमंगल कारी माने गये हैं। बलवान् लग्न एवं केन्द्र—त्रकोण गत शुभ ग्रहों से यह दोष भी समाप्त हो जाता है। ३४ क्रांति साम्य—सूर्य चन्द्र की क्रांति समय की अविध को सभी मांगलिक कार्यों में अत्यन्त भयावह माना है। इसे अवश्य छोडें। ३५ क्षीण चन्द्रमा—कुछ विद्वान कृष्ण त्रयोदशी से शुक्ल प्रतिपदान्त (चार दिन) तक। अधिकतर विद्वान कृष्ण चतुर्दशी से प्रतिपदान्त (तीन दिन) तक के लिए क्षीण चन्द्र माना गया है। इन दिनों में कोई भी मंगल कार्य नहीं किया जाता। ३६ सूर्य संक्रान्ति—सूर्य संक्रान्ति वाले दिन भी शुभ कार्य नहीं होते। कुछ विद्वानों का मत है कि संक्रान्ति से पूर्वापरवर्ती १६—१६ घडियां (६ घं २४ मिनट) ही अशुभ मानी जाए। अधिक मान्यता में दिन में कार्य नहीं करने की ही है। ३७ मासान्त—सूर्य संक्रान्ति के पूर्व, परवर्ती (उपरोक्त) वाले समय १६—१६ घड़ियों को त्याज्य मानते हैं, मासान्त दिन को शुभकार्यों में वज्र्य नहीं मानते। ३८ ग्रहण :—सूर्य चन्द्र ग्रहण घटित हो व दिन साथ ही ग्रहण से पूर्व १ दिन और परवर्ती ३ दिन कुल ५ दिन सभी शुभ कार्यों में वर्जित मानते गये हैं। ३९ ग्रहण दूषित नक्षत्र—जस नक्षत्र में सूर्य—चन्द्र ग्रहण घटित हो उस नक्षत्र के ग्रहण ग्रास की मात्रा के अनुसार निम्नांकित मासों के लिए शुभ कार्यों में वर्जित माना है।
१०० प्रतिशत ग्रास होने पर ६ मास के लिए ग्रहण नक्षत्र वर्जित। ८३ प्रतिशत ग्रास होने पर ५ मास के लिए ग्रहण नक्षत्र वर्जित। ६६ प्रतिशत ग्रास होने पर ४ मास के लिए ग्रहण नक्षत्र वर्जित। ५० प्रतिशत ग्रास होने पर ३ मास के लिए ग्रहण नक्षत्र वर्जित। ३३ प्रतिशत ग्रास होने पर २ मास के लिए ग्रहण नक्षत्र वर्जित। १६ प्रतिशत ग्रास होने पर १ मास के लिए ग्रहण नक्षत्र वर्जित। ध्यान रखें—कभी कभी ग्रहण दो नक्षत्रों में घटित होता है, तो वह दोनों नक्षत्रों को दूषित करता है। अत: उन दोनों नक्षत्रों को ग्रास की मात्रा के अनुसार उपरोक्त महीनों के लिए शुभ कार्यों में वर्जित माने। ४० दोष पूर्ण विष्कुम्भादि योग—विष्कुम्भ और वङ्का की प्रारम्भ की ३–३ अतिगण्ड और गण्ड की ६—६, शूल की ५ और व्याघात ९ घडियां शुभ कार्यों में अशुभ मानी गई है। परिघ का पूर्वाघ, और व्यातिपात एवं वैघृति दोनों का पूरा काल भी सभी कार्यों के लिए वर्जित माना जाता है। ४१ जन्म राशि / जन्म लग्न से अष्टम लग्न राशि / लग्न नवांश जिस के लिए मांगलिक कार्य किया जा रहा है, उस जातक की जन्म राशि या जन्म लग्न से अष्टम राशि का लग्न एवं अष्टम राशि का लग्न नवांश भी शुभ होता है। यदि लग्नेश या नवांशेश से जन्म राशिश या जन्म लग्नेश की मित्रता आदि हो तो यह दोष दूर हो जाता है। विशेष :—जिस की जन्म राशि आदि ज्ञात न हो उसे बोलते नाम अनुसार मानें। ४२ पापयुक्त लग्न एवं लग्न नवांश लग्न व लग्न के नवांश में पापी (व्रूर) ग्रह हो तो भी उस लग्न से शुभ कार्ये नहीं करें। ४३ चन्द्र युक्त लग्न—लग्न में चन्द्रमा की स्थिति होने से भी कोई शुभ कार्य नहीं करें। भले ही वह चन्द्रमा स्वराशि, मित्र राशि या स्वोच्चस्थ राशि में क्यों न हो। ४४ लग्न मे क्रूर ग्रह का नवांश भी शुभ कार्यों में मान्य नहीं। लेकिन यदि केन्द्र या त्रिकोण में गुरु, शुक्र या हो तो दोष कारक नहीं। एकादश भाव में सूर्य या चन्द्रमा होने से दोष दूर हो जाता है। केन्द्र एवं एकादशगत लग्नेश तथा लग्न नवांशेश भी इस दोष के निवारणर्थ मान्य है। लग्न एवं चन्द्र की वर्गोतम स्थिति भी इस दोष का निवारण करती है।
४५ लग्नगत अन्ति नवांश—लग्न में किसी भी राशि का अन्तिम नावांश भी शुभ कार्यों नहीं लिया गया है। बशर्ते वह वर्गोतम नहीं हों। ४६ लग्न एवं चन्द्र कत्र्तरी—लग्न या चन्द्रमा से द्वितीय भाव में वक्री क्रूर ग्रह और इनके द्वादश भाव में मार्गी व्रर ग्रह कत्र्तरी दोष माना है। यह भी कार्यो में वर्जित हैं। परिहार—यदि बुध, गुरु, शुक्र में कोई भी ग्रह केन्द्र / त्रिकोण में बैठा हो तो कत्र्तरी दोष समाप्त हो जाता है। कत्र्तरी बनाना वाले पापी ग्रह शत्रु या नीच राशि में हो अथवा अस्त हो तो भी दोष शून्य हो जाता है। ध्यान रखें—द्वितीय एवं द्वादश भाव में स्थित दोनों ग्रह मार्गी या दोनों वक्री पापी ग्रहों से भी कत्र्तरी योग बनता है, जो कि सामान्य माना है।
४७ व्रूर युत नक्षत्र—यदि मुहूत्र्त का नक्षत्र व्रूर ग्रह से युत हो तो वह अशुभ माना है। यदि चन्द्रमा वर्गोतम अथवा अपनी उच्च या मित्र राशि में स्थित हो तो यह दोष समाप्त होगा। ४८ विद्व नक्षत्र—वेघ दो प्रकार का है—सप्तश्लाका और पंचशलाका वेघ। पंचशलाका वेघ का विचार केवल विवाहिक कार्य में देखें और सप्तशलाका वेघ का विचार सभी शुभ कार्यों में किया जाता है। इन दोनों ग्रहों से वेघ नक्षत्र जानने के लिए हमारा पं. जैनी जीयालाल चौधरी जी कृत पंचाग को देखे पढ़ें। व्रूर ग्रह के विद्ध नक्षत्र में कोई भी शुभ कार्य नहीं होता। व्रूâर ग्रह का वेघ विद्व नक्षत्र के सम्पूर्ण काल को दूषित करता है, जब कि शुभ ग्रह का वेघ नक्षत्र के एक ही चरण को दूषित करता है यदि बेधक शुभ ग्रह नक्षत्र के प्रथम चरण में हो तो वह वेघ्य नक्षत्र के चतुर्थ चरण को और यदि द्वितीय चरण में हो तो व तृतीय चरण को, तृतीय चरण होने से दूसरे चरण को, और चतुर्थ चरण हो तो प्रथम चरण को वेधता है। इस प्रकार क्रूर ग्रह द्वारा विद्व नक्षत्र सम्पूर्ण काल को और शुभ ग्रह द्वारा विद्व नक्षत्र के एक चरण का काल ही शुभ कार्यों में वे वर्जित माना जाता है।
४९ कुलिक, काल वेला, यमघण्ट, कुण्टक :— यह चारों कुयोग, जिन्हें मुहूर्त कारों ने ‘मुहूर्त’ भी कहा है। दिनमान् षोडशांशों (सोलहवां भाग) से बनते हैं। भिन्न भिन्न वारों में इनक का काल भिन्न होता है। इन कुलिक आदि चारों कुयोगों को शुभ कार्यों में वर्जित माना है। कुछ विद्वान देश के कुछ भागों के वर्जित मानते हैं। कुलिकादि मुहूत्र्त बोधक चक्र बार / योग रविवार सोमवार मंगलवार बुधवार गुरुवार शुक्रवार शनिवार कुलिक१४१२१०८६४२ काल बेला८६४२१४१२१० यमघण्ट१०८६४२१४१२ कण्टक६४२१४१२१०८ कुलिकादि योग दिनमान के सोहलवा भाग से बनते हैं। उत्तर के कोष्टक में कुलिकादि के आगे लिखी संख्या १४, ८, १०, आदि दिनमान का सोलहवा भाग है। इसी लिए इसे षोडशांश को यहाँ मुहूर्त कहा गया है। रविवार को १४ वां षोडशांश ‘कुलिक’ मुहूर्त है। इसी प्रकार शनिवार को ८ वां कण्टक’ नाम मुहूत्र्त हैं। ठीक इसी भान्ति अन्य वारों में भी जानें। ५० अद्र्धयाम—रविवार को चतुर्थ, सोमवार को सप्तम् मंगलवार को द्वितीय, बुधवार को पंचम, गुरुवार को अष्टम, शुक्रवार को तृतीय और शनिवार को छठा अद्र्धयाम (यामाद्र्ध) इस में भी शुभ कार्यों नहीं होते। नोट—यह मुहूर्त दिनमान का आठवां भाग है। विशेष—लग्न शुद्धि इस के दोष को समाप्त करती हैं। ५१ दुष्ट मुहूर्त—दन और रात्रि को १५—१५ मुहूर्तों में बांटा गया है। इन मुहूर्तो में से आर्यमा रविवार को, ब्रह्मा और राक्षस सोम को पितृ और अग्नि मंगल को, अभिजित बुधवार को, राक्षस और जल गुरु को, पितृ और ब्रह्मा शुक्रवार को तथा शिव व सर्प शनिवार को शुभ कार्यों में अशुभ माने गये हैं।
५२ तिथि—वार—नाक्षत्र—संयोगोत्पन्न कुयोग। वर एवं नक्षत्रों के योग से उत्पन्न काल दण्ड, धूम्र, उत्पात, मृत्यु, काण, राक्षस आदि कुयोग एवं तिथिवारों के योग से उत्पन्न क्रकच, संवत्र्त, दग्ध, विष आदि कुयोग तथा द्वादशी—अश्लेषा, प्रतिपदा, उ. पा. द्वितीया—अनुराधा आदि तिथि—नाक्षत्र के योग से उत्पन्न कुयोग शुभ कार्यों के लिए शुभ नहीं माने। रवि योग, सिद्धि योग, अमृत आदि सिद्धि योग से इन कुयोगों का कुफल निष्फल हो जाता है। अधिक जानकारी के पं. जैनी जीयालाल जी के पंचाग व जन्त्री का अवलोकन करें। मुहूत्र्त क्रम१२३४५६७८९१०१११२ १३१४१५ दिवा मुहूर्तशिवसर्पमित्रपित्तवसु जलविशेष अभिजीतब्रह्मा इन्द्र इन्द्राणी राक्षस वरुण अर्धसा भग रात्रि मुहूर्तशिवटजपदआहिर्बुहय पूजाअशिथीकुमार राम अग्नि ब्रह्मा चन्द्र अक्षिति ब्रहस्पति विष्णु सूर्य विश्वकर्मा दिनमान को १५ से भाग देने पर, दिन के और राित्र नाम मान को १५ को १५ से भाग देने पर, रात्रि के एक मुहूत्र्त का नाम प्राप्त होता है।
गोचर चन्द्र बल—
जन्म राशि, जन्म राशि ज्ञान न हो तो नाम राशि से ४—८—१२ स्थानों में गोचर चन्द्र होने पर शुभ कार्यारम्भ करना सुफल दायान नहीं होते। कुछ विद्वान अभिषेक, गर्भाधान, उपनयन, विवाह एवं यात्रा में तो १२ वें चन्द्र को दोष कारक नहीं मानतें। ५४ धूम केतु दर्शन, उल्कापात आदि दिव्य उत्पात, गंधर्वनगर आदि अंतरिक्ष उत्पात और भूकम्पादि भौम उत्पात सभी शुभ कार्यों में वर्जित माने हैं। ऐसे अप्रत्यशित उत्पातों का पूर्व ज्ञान देने वाली कोई पद्धति का भी स्पष्ट ज्ञान भी नहीं है। परम्परा मुहूत्र्त शास्त्री भी इन उत्पातों को नहीं विचारतें। ५५ मंगलभिलाषी के परिवार में किसी निकटतम सगोत्र सम्बन्धी की मृत्यु से उत्पन्न मृता शौच (प्रतिवूâलता दोष) में शुभ कार्य न करना का धर्म शास्त्र आदेश देते हैं। इन की शुद्धि के अन्तर ही मंगल कृत्य करना चाहिए। यदि आपात स्थितिवश ऐसा करना सम्भव न हो तो अपने स्थानय समाज से विचार करें जैसे कहें वैसा करे या श्री पूजा विनायक शान्ति आदि करके मांगलिक कार्य सम्पन्न किया जा सकता है। उपरोक्त सर्वत्र वज्र्य दोष के अन्तर्गत दोषों का कुछ विस्तार सहित वर्णन किया। उपरोक्त दोष ऐसे हैं—जिनका विचार सभी मुहूर्तों के निर्णय में विद्वानाचार्यों को अनिवारर्यरूप से करना चाहिए। अगले अंकों में हम आपको कभी छोटे कभी बडे मुहूर्तों में जो वज्र्य विशेष दोष है। (जिनकी चर्चा उपरोक्त दोषों में नहीं है) उनका मुहूर्तों के साथ साथ वर्णन करेंगे। उपरोक्त दोषों में अनेक ऐसे दोष भी है जिन्हें किसी मुहूर्त विशेष में निश्चित कालावधि या अन्य किसी कारण से विचारना सम्भव नहीं होता। इन दोषों की उपेक्षा करनी पड़ती है। ऐसा मुहूर्त शास्त्र का निर्देश भी है। उदाहरणार्थ :— बीगर्भाधान, पुसवन आदि गर्भाधान संस्कार सीमित ऋतुकाल से सम्बद्ध हैं। अत: यहाँ गुरु—शुक्रास्त, अधिक मास आदि दोषों का विचार सम्भव नहीं। पुनवस संस्कार गर्भ के तीसरे मास में किया जाता है गुरु—शुकास्त आदि हो तो भी इस संस्कार को करना ही पड़ता है।