प्रिय पाठकों/मित्रों/दर्शकों, हम सभी जानते हैं कि यज्ञ – हवन आदि में आहुति देते समय मंत्र के अंत में स्वाहा का उच्चारण किया जाता है। स्वाहा की उत्पत्ति भगवान ने देवताओं को आहार प्रदान करने के लिए की थी।
पितृपक्ष के शुरू होने से पहले मैंने आपको पितृ तर्पण का एक मंत्र बताया था जिसमें स्वधा शब्द आया। स्वधा कौन हैं, इसे भी जानने चाहिए। सृष्टि के आरंभ में ब्रह्माजी ने मनुष्यों के कल्याण के लिए सात पितरों की उत्पत्ति की। उनमें से चार मूर्तिमान हो गए, तीन तेज के रूप में स्थापित हो गए। सातों पितरों के आहार की व्यवस्था की करनी थी। ब्रह्मा ने व्यवस्था दी कि श्राद्ध और तर्पण के माध्यम से मिलने वाली भेंट ही उनका आहार होगी। लेकिन मनुष्यों द्वारा श्राद्ध और तर्पण का अंश पितरों तक नहीं पहुंचा तो उन्हें परेशानी होने लगी। वे अपनी समस्या लेकर ब्रह्मदेव के पास पहुंचे। उन्होंने कहा- आपने मनुष्यों के कल्याण के लिए हमारी रचना की। उनके द्वारा दिया श्राद्ध और तर्पण का अंश हमारे लिए तय किया लेकिन मनुष्यों द्वारा भेजा हमारा अंश हमें नहीं मिल रहा है।
देवों को जब हवन आदि में से उनका अंश नहीं मिल रहा था तो आपने उनके लिए भगवती का अंश स्वाहा की उत्पत्ति कर उन पर कृपा की, हमारी भूख शांत करने का उपाय करें। यज्ञ में से देवताओं का भाग उन तक पहुंचाने के लेने के लिए अग्नि की भस्म शक्ति स्वाहा की उत्पत्ति भगवती से हुई थी इसलिए ब्रह्मा ने देवी का ध्यान कर उनसे पितरों के संकट समाधान की विनती की।
भगवती ब्रह्मा के शरीर से उनकी मानसी कन्या के रूप में प्रकट हुई। सैकड़ों चंद्रमा की तरह चमकते उनके अंश रूप में विद्या, गुण और बुद्धि विद्यमान थे। तेजस्वी देवी का स्वधा नामकरण करके ब्रह्मा ने पितरों को सौंप दिया। ब्रह्मा ने स्वधा को वरदान देते हुए कहा- जो मनुष्य मंत्रों के अंत में स्वधा जोड़कर पितरों के लिए भोजन आदि अर्पण करेगा, वह सहर्ष स्वीकार होगा। पितरों को अपर्ण किए बिना कोई भी दान-यज्ञ आदि पूर्ण नहीं होंगे और पितरों को उनका अंश बिना तुम्हारा आह्वान किए पूरा न होगा। तभी से पितरों के लिए किए जाने वाले दान में स्वधा का उच्चारण किया जाता है। भगवती के इस रूप का स्मरण दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा नमोस्तुते मंत्र के साथ करते हैं।
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