आइये जानने और समझने का प्रयास करें जन्म कुंडली के सप्तम भाव के परिणाम और प्रभाव तथा उपाय

प्रिय पाठकों, ज्योतिषशास्त्र के अनुसार भाग्य बलवान होने से जीवन में मुश्किलें कम आती हैं, व्यक्ति को अपने कर्मों का फल जल्दी प्राप्त होता है. भाग्य का साथ मिले तो व्यक्ति को जीवन का हर सुख प्राप्त होता. यही कारण है कि लागों में सबसे ज्यादा इसी बात को लेकर उत्सुकता रहती है कि उसका भाग्य कैसा होगा. कुण्डली के भाग्य भाव में सातवें घर का स्वामी बैठा होने पर व्यक्ति का भाग्य कितना साथ देता है, आइये जानने/समझने का प्रयास करें–
जन्मकुंडली में सप्तम स्थान से शादी का विचार किया जाता है | अब आप भी अपनी कुंडली में सप्तम स्थान को देखकर अपने विवाह और जीवन साथी के बारे में जान सकते हैं | नीचे लिखे कुछ साधारण नियम हर व्यक्ति पर लागु होते हैं | कुल १२ राशियों का सप्तम स्थान में होने पर क्या प्रभाव जीवन पर पढता है यह मेरे स्वयं के अनुभवों से संकलित किया ज्ञान है |
शुक्र यहाँ का कारक ग्रह है और शनि सप्तम भाव में बलवान हो जाता है | गुरु यहाँ निर्बल हो जाता है तो सूर्य तलाक की स्थिति उत्पन्न करता है | मंगल यदि सप्तम स्थान में हो तो मांगलिक योग तो होता ही है साथ में घर में क्लेश और नौकरी में समस्याएं उत्पन्न करता है | बुध का बल भी यहाँ क्षीण हो जाता है तथा राहू केतु पत्नी से अलगाव उत्पन्न करते हैं | राहू सप्तम में हो तो जातक अपनी पत्नी से या पत्नी जातक से दूर भागती है | यदि जीवनसाथी की कुंडली में भी राहू या केतु सप्तम स्थान में हो तो तलाक एक वर्ष के भीतर हो जाता है |
केतु के सप्तम स्थान में होने पर संबंधों में अलगाव की स्थिति जीवन भर बनी रहती है | पति पत्नी दोनों एक दुसरे को पसंद नहीं करते |
सप्तम स्थान का स्वामी यदि सप्तम में ही हो तो व्यक्ति विवाह के पश्चात उन्नति करता है और व्यक्ति का दाम्पत्य जीवन अत्यंत मधुर और शुभ फलदायी साबित होता है |
पाठकों, सुखी दाम्पत्य जीवन तभी सही चलता है जब एक-दूसरे में सही तालमेल हो अन्यथा जीवन नश्वर ही समझो। दाम्पत्य की गाडी़ सही चले इसके लिए अपने जीवनसाथी का स्वभाव व व्यवहार के साथ वाणी भी अच्छी होना चाहिए। सुखी दाम्पत्य जीवन हेतु पति को भी अपनी पत्नी के प्रति सजग व वफादार होना चाहिए। 

अनेक दफा  दाम्पत्य जीवन आर्थिक दृष्टिकोण की वजह से, अन्य संबंधों के चलते भी टूट जाता है। शंका भी दाम्पत्य जीवन में दरार का कारण बनती है। कभी-कभी पारिवारिक तालमेल का अभाव भी एक कारण बनता है। 

इन सबके लिए किसी भी जातक की जन्म कुंडली का सप्तम भाव, लग्न, चतुर्थ, पंचम भाव के साथ-साथ शुक्र-शनि-मंगल का संबंध भी महत्वपूर्ण माना गया है। 
यदि चतुर्थ भाव में  शनि सिंह राशि का हो या मंगल की मेष या वृश्चिक राशि का हो या राहु के साथ हो तो पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण रहता है। 

यदि जन्म किुंडली में शनि-मंगल का दृष्टी संबंध हो या युति हो तो भी पारिवारिक जीवन नष्ट होता है। कोई भी नीच का ग्रह हो तब भी पारिवारिक कलह का कारण बनता है। यदि ऐसी स्थिति हो तो उस ग्रह से संबंधित वस्तु को जमीन में गाड़ देवें। 
लग्न का स्वामी नीच का हो या लग्न में कोई नीच ग्रह हो तो वह जातक को बुरी प्रवृति का बना देता है। 

आइये जाने सातवें भाव का अर्थ—-

जन्म कुन्डली का सातंवा भाव विवाह पत्नी ससुराल प्रेम भागीदारी और गुप्त व्यापार के लिये माना जाता है। सातवां भाव अगर पापग्रहों द्वारा देखा जाता है,उसमें अशुभ राशि या योग होता है,तो स्त्री का पति चरित्रहीन होता है,स्त्री जातक की कुंडली के सातवें भाव में पापग्रह विराजमान है,और कोई शुभ ग्रह उसे नही देख रहा है,तो ऐसी स्त्री पति की मृत्यु का कारण बनती है,परंतु ऐसी कुंडली के द्वितीय भाव में शुभ बैठे हों तो पहले स्त्री की मौत होती है,सूर्य और चन्द्रमा की आपस की द्रिष्टि अगर शुभ होती है तो पति पत्नी की आपस की सामजस्य अच्छी बनती है,और अगर सूर्य चन्द्रमा की आपस की १५० डिग्री,१८० डिग्री या ७२ डिग्री के आसपास की युति होती है तो कभी भी किसी भी समय तलाक या अलगाव हो सकता है।केतु और मंगल का सम्बन्ध किसी प्रकार से आपसी युति बना ले तो वैवाहिक जीवन आदर्शहीन होगा,ऐसा जातक कभी भी बलात्कार का शिकार हो सकता है,स्त्री की कुंडली में सूर्य सातवें स्थान पर पाया जाना ठीक नही होता है,ऐसा योग वैवाहिक जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है,केवल गुण मिला देने से या मंगलीक वाली बातों को बताने से इन बातों का फ़ल सही नही मिलता है,इसके लिये कुंडली के सातंवे भाव का योगायोग देखना भी जरूरी होता है।

आइये जाने सातवां भाव और पति पत्नी—-
सातवें भाव को लेकर पुरुष जातक के योगायोग अलग बनते है,स्त्री जातक के योगायोग अलग बनते है,विवाह करने के लिये सबसे पहले शुक्र पुरुष कुंडली के लिए और मंगल स्त्री की कुन्डली के लिये देखना जरूरी होता है,लेकिन इन सबके बाद चन्द्रमा को देखना भी जरूरी होता है,मनस्य जायते चन्द्रमा,के अनुसार चन्द्रमा की स्थिति के बिना मन की स्थिति नही बन पाता है। पुरुष कुंडली में शुक्र के अनुसार पत्नी और स्त्री कुंडली में मंगल के अनुसार पति का स्वभाव सामने आ जाता है।
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आइये जाने कुण्डली में प्रेम विवाह—-

ज्योतिषशास्त्र में “शुक्र ग्रह” को प्रेम का कारक माना गया है । कुण्डली में लग्न, पंचम, सप्तम तथा एकादश भावों से शुक्र का सम्बन्ध होने पर व्यक्ति में प्रेमी स्वभाव का होता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पंचम भाव प्रेम का भाव होता है और सप्तम भाव विवाह का। पंचम भाव का सम्बन्ध जब सप्तम भाव से होता है तब दो प्रेमी वैवाहिक सूत्र में बंधते हैं। नवम भाव से पंचम का शुभ सम्बन्ध होने पर भी दो प्रेमी पति पत्नी बनकर दाम्पत्य जीवन का सुख प्राप्त करते हैं।
पंचम भाव का स्वामी पंचमेश शुक्र अगर सप्तम भाव में स्थित है तब भी प्रेम विवाह की प्रबल संभावना बनती है । शुक्र अगर अपने घर में मौजूद हो तब भी प्रेम विवाह का योग बनता है।

शुक्र अगर लग्न स्थान में स्थित है और चन्द्र कुण्डली में शुक्र पंचम भाव में स्थित है तब भी प्रेम विवाह संभव होता है। अगर कुण्डली में प्रेम विवाह योग नहीं है और नवमांश कुण्डली में सप्तमेश और नवमेश की युति होती है तो प्रेम विवाह की संभावना ..0 प्रतिशत बनती है। शुक्र ग्रह लग्न में मौजूद हो और साथ में लग्नेश हो तो प्रेम विवाह निश्चित समझना चाहिए । शनि और केतु पाप ग्रह कहे जाते हैं लेकिन सप्तम भाव में इनकी युति प्रेमियों के लिए शुभ संकेत होता है।

 राहु अगर लग्न में स्थित है तोनवमांश कुण्डली या जन्म कुण्डली में से किसी में भी सप्तमेश तथा पंचमेश का किसी प्रकार दृष्टि या युति सम्बन्ध होने पर प्रेम विवाह होता है। लग्न भाव में लग्नेश हो साथ में चन्द्रमा की युति हो अथवा सप्तम भाव में सप्तमेश के साथ चन्द्रमा की युति हो तब भी प्रेम विवाह का योग बनता है। सप्तम भाव का स्वामी अगर अपने घर में है तब स्वगृही सप्तमेश प्रेम विवाह करवाता है। एकादश भाव पापी ग्रहों के प्रभाव में होता है तब प्रेमियों का मिलन नहीं होता है और पापी ग्रहों के अशुभ प्रभाव से मुक्त है तो व्यक्ति अपने प्रेमी के साथ सात फेरे लेता है। प्रेम विवाह के लिए सप्तमेश व एकादशेश में परिवर्तन योग के साथ मंगल नवम या त्रिकोण में हो या फिर द्वादशेश तथा पंचमेश के मध्य राशि परिवर्तन हो तब भी शुभ और अनुकूल परिणाम मिलता है।
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आइये जाने सप्तम भाव व भावी पति—-

प्रत्येक कन्या के मन में उसके भावी पति की तस्वीर कुछ इस तरह की होती है कि उसका पति सुंदर, आकर्षक, हृष्ट-पुष्ट, उत्तम चरित्र वाला, पढ़ा-लिखा, डॉक्टर, इंजीनियर या उद्योगपति होगा लेकिन वधू की पत्रिका द्वारा जाना जा सकता है कि उसका वर सपनों का राजा होगा या फिर लड़ाकू, कामुक या शराबी। कन्या की जन्म कुंडली में सप्तम स्थान उसके पति का होता है। यदि पत्रिका सही है तो उसके पति के संबंध में जाना जा सकता है।
यहाँ पर कुछ महत्वपूर्ण सूत्र देकर कुछ भावी पति के बारे में बताया जा रहा है लेकिन इन्हीं सूत्रों को ब्रह्म वाक्य नहीं माना जा सकता क्योंकि पुरुष की यानी वर की जन्म कुंडली को भी महत्व देना चाहिए। जन्म कुंडली का सप्तम भाव भावी पति के बारे में दर्शाता है। वहीं नवांश कुंडली भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है और नवांश प्रत्येक तीन मिनट में बदलती रहती है।
– सप्तम भाव में शुक्र स्वराशि वृषभ का हुआ तो पति अति सुन्दर होगा। सुन्दर से तात्पर्य गोरा नहीं, बल्कि नाक-नक्श उत्तम व चेहरा आकर्षक होगा। वृषभ का शुक्र कामुक भी बनाता है अतः वह कामुक भी होगा।
– सप्तम भाव में तुला का शुक्र हुआ तो वह वर कामुक न होकर सरल स्वभाव वाला सुन्दर आकर्षक व्यक्तित्व का व नपी-तुली बात करने वाला अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करने वाला होगा। कलाकार, संगीतप्रेमी, सौन्दर्य प्रिय, इंजीनियर या डॉक्टर भी हो सकता है।
– सप्तम भाव में कन्या की कुंडली में मीन राशि का शुक्र हुआ तो वह उच्च का होगा अतः उसका भावी जीवनसाथी काफी पैसे वाला होगा तथा भाग्यवान होकर धनी होगा।
– सप्तम भाव में यदि नीच राशि का शुक्र होता है तो उसका भावी पति अर्थहीन व स्त्री के धन का प्रयोग करने वाला होगा।
– सप्तम भाव में सूर्य सिंह दिशा में हो या नवांश में सिंह राशि हो तो वह कामुक होगा एवं दाम्पत्य जीवन सुखद कम ही रहेगा।
– सप्तम भाव में मेष का मंगल हुआ तो उसका पति पुलिस, सैनिक या संगठनकर्ता होगा, उसका स्वभाव उग्र भी हो सकता है एवं कामुक भी रहेगा।
– सप्तम भाव में वृश्चिक राशि का मंगल हुआ तो वह तुनकमिजाज होगा, कुछ व्यसनी भी हो सकता है या लड़ाकू प्रवृत्ति का भी हो सकता है। उसका चरित्र संदेहास्पद भी हो सकता है।
– सप्तम भाव में मंगल उच्च राशि का हुआ तो वह अत्यंत प्रभावशाली, महत्वाकांक्षी, उच्चपदस्थ अधिकारी या डॉक्टर, सेना या पुलिस विभाग में भी हो सकता है।
– सप्तम भाव में कर्क का चंद्रमा हुआ तो वह भावुक, सहनशील, स्नेही स्वभाव वाला, मधुरभाषी, पत्नी से अधिक प्रेम करने वाला, गौरवर्ण का सुन्दर होगा।
– सप्तम भाव में उच्च का चंद्रमा हुआ तो वह अत्यंत सुंदर, अनेक स्त्री मित्रों वाला, सौंदर्यप्रेमी, कामुक भी होगा।
– सप्तम भाव में मकर या कुंभ का शनि हो तो उसका पति उसकी उम्र से अधिक होगा।
– सप्तम भाव में शुक्र-चंद्र की युति हुई तो वह अत्यंत मनोविनोदी, सुंदर और अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करने वाला होगा।
– सप्तम भाव में बुध मिथुन राशि का हुआ तो उसका पति व्यापारिक या बैंककर्मी, लेखक, पत्रकार या विद्वान होगा।
– सप्तम भाव में उच्च का बुध हुआ तो उसका पति सुन्दर होने के साथ-साथ उच्च व्यापारी या बौद्धिक गुणों से भरपूर, उच्च पदस्थ अधिकारी भी हो सकता है।
– सप्तम भाव में धनु राशि का गुरु हुआ तो उसका भावी पति विद्वान, सुन्दर, गोल चेहरे वाला, प्रोफेसर या न्यायविद, अधिवक्ता या राजपत्रित अधिकारी, पत्नी से प्रेम करने वाला सद्चरित्र व ईमानदार होगा।
– सप्तम भाव में बुध-शनि की युति हो और उस पर मंगल की दृष्टि हो एवं उसे कोई भी शुभ ग्रह न देखता हो ना ही शुभ ग्रहों से मध्यस्थ हो तो उसका पति नपुंसक होता है।
– सप्तम भाव में उच्च का राहू या केतु हो तो उसका पति आधुनिक विचारों वाला व दार्शनिक भी हो सकता है।
– सप्तम भाव में चर राशि हो एवं चर ग्रह हो या चर ग्रहों से दृष्टिपात हो तो उसका पति सदैव बाहर रहने वाला होता है।
– सप्तम भाव पर नीच दृष्टि किसी भी ग्रह की पड़ रही हो तो उसका पति मध्यम स्तर वाला होगा।
– सप्तम भाव में सूर्य-चंद्र की युति हो तो उसका पति सदैव भ्रमणशील व परेशान रहकर गृहस्थ जीवन में बाधक होगा।
– सप्तम भाव पर गुरु-चंद्र की युति हो तो उसका पति विद्वान, गुणवान, चरित्रवान, सुन्दर, यशस्वी, मधुरभाषी, ईमानदार, उच्च पदस्थ अधिकारी, डॉक्टर या प्रोफेसर या न्यायाधीश भी हो सकता है।
– सप्तम भाव में मंगल-चंद्र की युति हो तो उसका पति सुंदर या उद्यमी हो सकता है। वहीं स्वभाव में मिला-जुला रुख रहेगा व भावुक भी होगा।
– सप्तम भाव में मंगल-चंद्र-शुक्र की युति वाली कन्या का पति अत्यंत सेक्सी स्वभाव वाला व चरित्र का कमजोर भी हो सकता है। गुरु की दृष्टि पड़ने पर चरित्रहीन नहीं होगा।
– शनि-चंद्र की युति सप्तम भाव में होने से उसका वर इंजीनियर या अस्थिरोग का या दाँतों का डॉक्टर भी हो सकता है।
– गुरु या राहू की युति वाली कन्या का पति गुप्त विधाओं का जानकार लेकिन चिन्ताग्रस्त चरित्र वाला रहेगा।
– यदि कन्या के जन्म लग्न में नीच का गुरु व चंद्रमा हो तो उसका पति गुणी व सुन्दर होगा।
– यदि कन्या की जन्म कुंडली में शनि की उच्च दृष्टि सप्तम भाव पर पड़ रही हो तो उसका पति प्रशासनिक अधिकारी या शासकीय सर्विस में उच्च पदस्थ या लोहे का व्यापारी या ट्रेवल्स एजेंसी का मालिक होगा।
उपरोक्त सूत्र कन्या की पत्रिका से ही संबंधित है अतः वर की जानकरी उक्त सूत्रों से जानी जा सकती है।
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कब होगा विवाह? प्रश्न: कैसे जानें विवाह कब होगा एवं वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा? 
सुखी वैवाहिक जीवन एवं संबंध विच्छेद होने वाले ज्योतिशीय योग कौन-कौन से हैं? 

वैवाहिक जीवन को सुखी बनाने हेतु क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं ? 

लग्न चक्र के आधार पर किसी का विवाह कब होगा, यह जानने के लिए भारतीय ज्योतिष के अनुसार जन्म कुंडली के प्रथम, द्वितीय, सप्तम और नवम भावों का विचार किया जाता है। मतांतर से इन भावों के अतिरिक्त चतुर्थ, पंचम और द्वादश भावों का विचार भी किया जाता है। 

सप्तम भाव इन सब में प्रधान माना गया है। सप्तम भाव, उसमें स्थित ग्रह, सप्तम भाव पर पड़ने वाली शुभाशुभ ग्रहों की दृष्टि आदि का विचार विवाह काल जानने के लिए किया जाता है। विवाह के समय का आकलन करने के लिए विंशोत्तरी दशा, गोचर, गणितीय पद्धति आदि का विचार किया जाता है। विंशोत्तरी दशा के आधार पर: सप्तमेश की या सप्तम स्थान में विराजमान ग्रह की अथवा सप्तम भाव पर दृष्टि रखने वाले ग्रह या ग्रहों की दशा भुक्ति काल में विवाह होने की आशा रहती है। चंद्र, गुरु अथवा शुक्र की दशाओं में भी विवाह हो सकता है। सप्तमेश जिस राशि में बैठा हो उसके स्वामी ग्रह की दशा में विवाह हो सकता है। द्वितीयेश की दशा में अथवा द्वितीयेश जिस राशि में स्थित हो उसके स्वामी की दशा में विवाह होता है। सप्तमेश राहु या केतु से युत हो तो इनकी दशा भुक्ति में विवाह होता है। नवमेश और दशमेश की दशा में विवाह होता है। 

विवाह का समय गोचर के आधार पर: विवाह के समय का अनुमान लगाने के लिए अर्थात् विवाह काल जानने के लिए विवाह की आयु होने पर उस समय की गोचर ग्रहों की स्थिति के आधार पर लग्नेश, सप्तमेश, बृहस्पति और शुक्र का विचार किया जाता है। जब गुरु गोचरवश सप्तम भाव वाली राशि अथवा उस राशि से पांचवीं या नौवीं राशि अथवा जन्मकालिक शुक्र जिस राशि में स्थित हो उस राशि में भ्रमण कर रहा हो, तब विवाह होता है। 

विवाह योग्य आयु होने पर उस समय गोचरस्थ शनि और गुरु जन्म लग्न और लग्नेश, सप्तम भाव और सप्तमेश को निम्न स्थितियों में से किसी एक को देख रहे हों तो विवाह होता है- 

सप्तम (जाया) स्थान और जन्म लग्न को। सप्तमेश और लग्नेश को। सप्तम स्थान और लग्नेश को। सप्तमेश और जन्म लग्न को। शनि का गोचर लगभग .0 मास या ढाई वर्ष एक राशि पर रहता है। शनि की ऐसी 30 मासीय प्रति राशि की गोचर अवधि में 1. या 13 माह के लगभग का समय ऐसा आता है जब शनि-गुरु पूर्वोक्त चार बिंदुओं में से किसी एक बिंदु में दर्शाए गए भाव एवं भावेश पर दृष्टि रखकर उन्हें बल प्रदान करते हैं। इस तरह स्थूल रूप में लगभग एक वर्ष या इससे भी कम अवधि में विवाह होने की संभावना रहती है। गुरु का गोचर काल तेरह मास का होता है जो मध्य के दो महीनों में अपना शुभाशुभ फल प्रदान करने में समर्थ होता है। 

इस तरह गुरु का गोचर काल 390 दिनों का (30ग13=390) हुआ जिसके मध्य वाले 60 दिन अर्थात् 166वें दिन से लेकर 225 वें दिन तक (165$60$165=390) गुरु शुभ फल देने में समर्थ होता है। इस अवधि में विवाह हो सकता है, बशर्ते गुरु के गोचर वाले मध्य के ये 60 दिन विवाह विहित मास में पड़ते हों। गुरु के गोचर की विवाह हेतु सूक्ष्म गणना: त्रयोदश मासिक गुरु के गोचर काल की उक्त अवधि जिसमें गुरु निम्न बिंदुओं में दर्शाए गए जन्म कालिक ग्रह विशेष और भाव विशेष दोनों के साथ युति करे अथवा दृष्टि उन पर डाले तब जातक के विवाह होने की पूर्ण संभावना रहती है- जन्म कंुडली का पंचम भाव और पंचमेश। 

जन्म कुंडली में विराजमान शुक्र और पंचमेश। जन्म कुंडली का नवम एवं नवमेश। जन्म कुंडली का पंचम एवं नवम भाव और पंचमेश एवं नवमेश। विवाह विषयक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए जन्मपत्रिका के प्रथम, पंचम, नवम, एकादश एवं तृतीय भावों से विचार करते हैं। सप्तम भाव से सप्तम भाव प्रथम भाव या लग्न होता है। सप्तम भाव से पंचम भाव एकादश और सप्तम भाव तृतीय होता है। अतः ये तीनों स्थान वर-कन्या के लिए त्रिकोण तुल्य होते हैं। जब लग्नेश, सप्तमेश और कलत्र कारक शुक्र का गोचर ऊपर वर्णित किसी भी एक भाव पर हो तब विवाह होता है। लग्नेश आदि के स्पष्ट राशि अंशों के जोड़ के आधार पर: अंक गणितीय सूत्र से विवाह काल का आकलन, गुरु ग्रह के गोचर पर से लग्नेश, सप्तमेश, चंद्र और शुक्र के राशि अंशों के जोड़ से प्राप्त राशि से 5 वीं या 9 वीं राशि पर गुरु के गोचर में आने पर निम्न रूप में किया जा सकता है- 

शुक्र, जन्म लग्नेश और सप्तमेश-इन तीनों ग्रहों के स्पष्ट राशि अंशों को परस्पर जोड़ें। जोड़ने पर यदि योग 12 से ज्यादा हो तो उसमें 12 राशियां घटा देनी चाहिए। शेष राशियों और अंशों के आधार पर जो राशि प्राप्त हो उससे पांचवीं या नौवीं राशि में जब गुरु गोचर करे तब विवाह होगा। लग्नेश एवं सप्तमेश या सप्तमेश और चंद्र के स्पष्ट राशि अंशों के योग द्वारा पूर्वोक्त बिंदु क्रमांक एक में दर्शाई गई विधि से गुरु के गोचर के अनुसार विवाह का समय ज्ञात किया जा सकता है। 

प्रश्न कुंडली के आधार पर:— 

यदि प्रश्न काल में चंद्र, प्रश्न-कुंडली के तीसरे, पांचवें, सातवें, दसवें या ग्यारहवें स्थान में विराजमान हो तथा उसे गुरु पूर्ण दृष्टि देख रहा हो तो विवाह जल्दी होगा, ऐसा जानना चाहिए। प्रश्न कुंडली में सप्तम स्थान के स्वामी ग्रह का शुक्र से युति या दृष्टि संबंध हो तो विवाह शीघ्र होता है। प्रश्नकालीन लग्नेश और चंद्र प्रश्न कुंडली के सप्तम स्थान में विराजमान हो तो शीघ्र विवाह का योग समझना चाहिए। प्रश्नकालिक सप्तमेश और चंद्र की प्रश्न लग्न में स्थिति शीघ्र विवाह का द्योतक है। प्रश्नकालीन लग्न से सम स्थान में शनि होने पर विवाह शीघ्र होता है। शनि प्रश्नकालिक लग्न से किसी विषम भाव में स्थित हो तो विवाह शीघ्र होता है। प्रश्न-काल में प्रश्न-कुंडली में लग्न से चैथे स्थान का स्वामी बली हो तो प्रेम-विवाह हो सकता है, क्योंकि चैथा स्थान मित्र और मित्रता का स्थान है। चैथे स्थान और उसके स्वामी का लग्न, सप्तम भाव और इनके स्वामियों से अथवा शुक्र ग्रह से शुभ संबंध होना स्वयं वरण का बोधक होता है। यदि प्रश्नकालिक लग्न से सप्तम भाव का स्वामी बली हो तो समाज और कुल की रीति-रिवाजों के अनुरूप सर्वमान्य पारंपरिक विवाह होता है। प्रश्नकालीन लग्न से सप्तम भाव में विराजमान योगकारक बली ग्रह अथवा सप्तम भाव पर अपनी दृष्टि रखने वाला योगकारक बली ग्रह भी अपने योग काल में विवाह कराने में समर्थ होता है। 


शनि के योगकारक होने पर विवाह संवत् (षठमास) में, बुध के योगकारक होने पर ऋतु (दो मास में), गुरु के योगकारक होने पर मास में, शुक्र के योगकारक होने पर पखवाड़े में, मंगल के योग कारक होने पर मात्र कुछ दिवसों में और चंद्र के योगकारक होने पर तत्काल होता है। वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा: वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा, यह जानने के लिए लग्न और चंद्र दोनों कुंडलियों के आधार पर सप्तमेश, शुक्र, स्त्रीकारक ग्रह आदि की स्थिति का विचार किया जाता है। साथ ही सप्तम स्थान और सप्तमेश पर दृष्टि रखने और युति करने वाले ग्रहों का अध्ययन करना भी आवश्यक होता है। इन सभी की अच्छी स्थिति होने पर वैवाहिक जीवन सुखमय होता है। 

यदि सप्तम भाव में षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव का स्वामी स्थित हो अथवा सप्तम भाव पापयुत प्रभाव वाला हो, सप्तम स्थान में कोई पापी ग्रह हो अथवा उस पर पापी ग्रह की दृष्टि हो तो वैवाहिक जीवन दुखमय होता है। यदि सप्तम स्थान से पापग्रहों का युति या दृष्टि संबंध न हो और सप्तम भाव का स्वामी भाव 1,4,7,10 अथवा त्रिकोण 5,9 अथवा भाव 11 में हो तो दाम्पत्य जीवन मधुर होता है। यदि लग्न और सप्तम भाव के स्वामी परस्पर मित्र हों तो पति-पत्नी में प्रेम प्रगाढ़ रहता है। सम होने पर तकरार हो सकती है। शत्रु हों तो तनाव, वैचारिक मतभेद और कटुता रहेगी।

यदि सप्तम स्थान का स्वामी लग्नस्थ और लग्न का स्वामी सप्तमस्थ हो अथवा लग्नेश एवं सप्तमेश का केंद्र स्थान, मूल त्रिकोण या लाभ स्थान से संबंध युति या दृष्टि हो तो दोनों में अटूट प्रेम रहता है और जीवन सुखदायक होता है। सप्तमेश और सप्तम भाव के बली होने पर दाम्पत्य जीवन सुखद होता है। वैवाहिक संबंध विच्छेद वाली ज्योतिषीय ग्रह स्थितियां: विवाहोपरांत जब दम्पति के जीवन में ऐसी विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो जाएं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग होकर जीवन निर्वाह करने को विवश होना पड़े तो ऐसी स्थिति के संबंध-विच्छेद की स्थिति माना जाता है। वैधानिक दृष्टि से ऐसे अलगाव को तलाक कहते हैं। 

तलाक या संबंध-विच्छेद वाली परिस्थिति उत्पन्न होने के कई कारण हो सकते हैं, जैसे चारित्रिक दोष, संतानाभाव, वैचारिक मतभेद, शारीरिक अपंगता, नशे की लत, आपसी तकरार, घमंडवश एक-दूसरे को तुच्छ समझने की कोशिशें, रुचियों और आदतों में अकल्पित असमानताएं, विदेश वास, संन्यास आदि। भारतीय ज्योतिष के आधार पर जन्मांग चक्र में ग्रहों की निम्न स्थितियां संबंध विच्छेद का कारण बन सकती हैं- सप्तम भाव और उसके स्वामी एवं स्त्री-पुत्र कारक ग्रह शुक्र पर विच्छेदात्मक ग्रहों शनि-राहु, सूर्य-राहु का दुषप्रभाव होना पति-पत्नी के रिश्ते पर पृथकतावादी असर छोड़ता है। यदि ये विच्छेदात्मक ग्रह द्वितीय और चतुर्थ भावों पर भी प्रभाव डालें तो तलाक हो सकता है। 

कुंडली का षष्ठ भाव वैमनस्यता का भाव है। षष्ठेश भी संबंध-विच्छेद का कारक ग्रह बन जाता है, क्योंकि सप्तम स्थान से द्वादश भाव, षष्ठम स्थान ही होता है। यही कारण है कि कुंडली मिलान करते समय इस बात का विचार किया जाता है कि षष्ठ भाव की राशियां परस्पर वर-कन्या की राशियां न हों अर्थात वर की राशि से कन्या की अथवा कन्या की राशि से वर की राशि छठी नहीं हो। 

विवाह-विच्छेद के योग:— 

सप्तमेश का लग्न से द्वितीयस्थ, द्वितीयेश का सप्तमस्थ और राहु या केतु का द्वितीयस्थ या सप्तमस्थ होना। सप्तमस्थ राहु पर किसी पापग्रह की दृष्टि होना या दोनों की युति होना। स्त्री जातक की कुंडली के सप्तम भाव में राहु, मंगल और सूर्य में से एक, दो अथवा तीनों ग्रहों का विराजमान होना। स्त्री जातक की कुंडली में राहु अथवा शनि से दृष्ट सप्तमस्थ सूर्य का होना। स्त्री जातक की कुंडली में सूर्य का जन्म लग्न से सप्तमस्थ होना और सप्तमेश का नीचस्थ, शत्रु राशिस्थ या त्रिक भावस्थ होना। सप्तमेश और द्वादशेश का परस्पर राशि विनिमय होना तथा सप्तम भाव में मंगल, राहु या शनि का स्थित होना। षष्ठेश से दृष्ट किसी पाप ग्रह का सप्तम भाव में तथा सप्तमेश का द्वादश भाव में होना। सूर्य, शनि, राहु या केतु का सप्तम भाव में तथा सप्तमेश और व्ययेश का त्रिक भाव में होना। 

सुखी वैवाहिक जीवन के योग:— 

वर और वधू दोनों पक्षों के प्रत्येक व्यक्ति की यही कामना होती है कि दोनों का वैवाहिक जीवन सुखमय, समृद्ध और सफल रहे। इस हेतु लोग श्रेष्ठ वर और कन्या का चयन करने का प्रयास करते हैं। वर और कन्या की भी यही कामना रहती है कि उनका वैवाहिक जीवन और सफल हो। 

सुखी वैवाहिक जीवन के संकेत जिन योगों में प्राप्त होते हैं, उनका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है। प्रथम और सप्तम भाव में स्थित राशियां और उनके स्वामी एक-दूसरे के मित्र नहीं हो सकते। हां इतना अवश्य है कि लग्नेश एवं सप्तमेश की शुभ स्थिति से वर और कन्या के वैवाहिक जीवन के सुखमय होने की अत्यधिक संभावना रहती है। अगर लग्न और सप्तम स्थान के स्वामी एक साथ स्थित हों तो वैवाहिक जीवन में सामंजस्य बना रहता है। यदि लग्न में सप्तम भाव का स्वामी स्थित हो तो पत्नी पति के अनुकूल चलने वाली होती है और उनका गृहस्थ जीवन सुखमय रहता है। 

यदि लग्नेश सप्तम भाव में स्थित हो तो व्यक्ति पत्नी का अनुगमन करने वाला होता है। फलतः उनमें सामंजस्य बना रहता है। पति-पत्नी में से किसी भी एक की जन्म-कुंडली में यदि प्रथम एवं सप्तम भाव के स्वामियों में परस्पर दृष्टि विनिमय हो अथवा प्रथम भाव का स्वामी सप्तम भाव में और सप्तम भाव का स्वामी प्रथम भाव में स्थित हो तो वैवाहिक जीवन सुखमय रहता है। 

यदि किसी स्त्री जातक की जन्म पत्रिका के सप्तम, अष्टम और नवम भावों में शुभ ग्रह स्थित हों तो वह सौभाग्यवती, पुत्रवती, धनी और दीर्घायु होती है। स्त्री जातक की जन्म-कुंडली के प्रथम भाव में यदि चंद्र और बुध, बुध और शुक्र, चंद्र-बुध-शुक्र अथवा बुध-बृहस्पति-शुक्र स्थित हों तो वह रूपसी, गुणी, धनी, विदुषी, पुत्रवती, कुलवंती, पतिव्रता और सौभाग्यवती होती है। उसका जीवन सदा सुखमय रहता है। जिस स्त्री के जन्म काल में स्वगृही या उच्चस्थ बृहस्पति केंद्र या त्रिकोण में होता है उसका पति गुणज्ञ और संतान सद्गुणी होती हैं। वह संपन्न ससुराल की पुत्रवधू होती है और दोनों कुलों का कल्याण करती है। उसका वैवाहिक जीवन सफल होता है। 

यदि किसी स्त्री की जन्म पत्रिका के दशम भाव में स्वगृही शुक्र, प्रथम भाव में गुरु और सप्तम भाव में चंद्र हो तो वह साम्राज्ञी सदृश सुखोपभोग करने वाली होती है। उसका वैवाहिक जीवन उत्तम होता है। लाभ भाव में स्थित उच्चस्थ गुरु और लग्न में स्थित उच्चस्थ बुध स्त्री जातक को रानी जैसा सुख-वैभव देता है। सभी शुभ ग्रहों की लग्न पर दृष्टि होने से वैवाहिक जीवन सुखी रहता है। 

किसी के वैवाहिक जीवन को सुखी बनाने के कुछ उपाय:— 

वर और कन्या के भावी वैवाहिक जीवन की सफलता हेतु जन्म-कुंडली का मिलान कराएं। 18 से कम गुण मिलने पर विवाह न करें। लगभग समान आयु वर्ग के वर और कन्या का चयन करें। वर और कन्या की आयु में अधिक अंतर न हो। मौलिया मंगल वाले वर का विवाह चुनरी मंगल वाली कन्या से करना उनके सुखी वैवाहिक जीवन के लिए ज्योतिष शास्त्र सम्मत माना गया है। कुंडलियों का मिलान करवाने के पूर्व उनकी शुद्धता की जांच कराएं। कुंडली मिलान के समय नाड़ी दोष का विचार अवश्य करें। दाम्पत्य-प्रेम और सुखी जीवन के लिए वर व कन्या दोनों की गण-मैत्री का ध्यान रखना चाहिए। वर की राशि से कन्या की राशि का 9वीं और कन्या की राशि से वर की राशि का 5वीं होना सुखी वैवाहिक जीवन के लिए अशुभ माना गया है। वर व कन्या दोनों की राशि समान होने पर विवाहोपरांत दोनों में सदैव स्नेह बना रहता है।

 परस्पर सप्तम राशियां होने पर उत्तम संतति सुख, चतुर्थ-दशम होने पर सुखमय जीवन और तृतीय-एकादश होने पर धन का प्राचुर्य रहता है, जो सुखी वैवाहिक जीवन के लिए आवश्यक होता है। यदि वर और कन्या के नामाक्षर एक ही वर्ग के हों तो दोनों में बढ़िया प्रीति रहती है। अग्नि एवं वायु तत्व तथा भूमि एवं जल तत्व वाली राशियों के वर और कन्या के वैवाहिक जीवन में सामंजस्य बना रहता है, अत एव कुंडली मिलाते समय राशि का मिलान हंसानुसार (तत्वानुसार) कर लेना चाहिए।

 विभिन्न तत्वों की राशियों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है- अग्नि तत्व राशियां- मेष, सिंह, धनु वायु तत्व राशियां- मिथुन, तुला, कुंभ भूमि तत्व राशियां- वृष, कन्या, मकर जल तत्व राशियां- कर्क, वृश्चिक, मीन कुंडली मिलान के समय ग्रह मैत्री के साथ-साथ युंजा (नाड़ी) का विचार भी अवश्य करना चाहिए। यदि वर और कन्या दोनों का राशि स्वामी एक ही हो तो विवाहोपरांत दोनों में परस्पर मैत्री भाव बना रहता है। यदि दोनों की यंुजा (नाड़ी) आदि-आदि, मध्य-मध्य या अन्त्य-अन्त्य होगी तो दोनों में हार्दिक स्नेह आजीवन बना रहेगा। वर और कन्या के षष्ठ, अष्टम और द्वादश भावों की राशियां समान नहीं होनी चाहिए। 

यदि वर व कन्या दोनों की राशि अथवा लग्न एक ही हों तो उनका वैवाहिक जीवन सुखमय होता है, किंतु एक राशि होने पर नक्षत्र भेद और एक ही नक्षत्र होने पर चरण भेद आवश्यक होता है। वर और कन्या दोनों की लग्न राशि परस्पर सप्तम होने पर जीवन सुखमय रहता है। सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए कन्या के चयन के पूर्व यह अवश्य देखें कि उसकी कुंडली में ये पंच महादोष योग न हों- दारिद्र् योग, मृत्यु योग, वैधव्य योग, व्यभिचार योग और संतानाभाव योग। इसी तरह यह भी आवश्यक कि वर की कुंडली में निम्न योग न हों- भार्यानाश योग, अल्पायु योग, व्यभिचार योग, उन्माद योग, नपुंसकत्व योग। विष-कन्या योग वाली कन्या से विवाह वर्जित माना गया है। 
उक्त सभी उपाय सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए विवाह पूर्व के हैं। 

विवाह के पश्चात् निम्न उपाय करने चाहिए- 

पति-पत्नी दोनों को भगवान गणेश का पूजन नवीन दूर्वांकुरों से श्रद्धा और भक्ति भावना के साथ नियमित रूप से करते रहना चाहिए। परिवार में आपस में प्रेम बना रहे, इसके लिए आदि शंकराचार्य विरचित गणपति-स्तोत्र का पाठ नियमित रूप से करना चाहिए। वर्ष में कम से कम एक बार सत्यनारायण व्रत-कथा करनी चाहिए। समय-समय पर अपने कुल देवता और कुल देवी का पूजन करना चाहिए। दुर्गा-पाठ और रुद्राभिषेक क्रमशः नवरात्रिकाल एवं श्रावण मास में करते रहना चाहिए। वर और कन्या दोनों को सुख-समृद्धि हेतु भाग्यदायी रत्न धारण करना चाहिए। 

वैवाहिक जीवन में सामंजस्य बनाए रखने लिए प्रेम वृद्धि यंत्र एवं आकर्षण यंत्र की स्थापना शुभ मुहूर्त में करनी चाहिए। सुख-समृद्धि और धन की प्राप्ति तथा वैवाहिक जीवन में खुशहाली लाने के लिए फेंगशुई की वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। विशेष पर्वों पर तीर्थ स्थलों का भ्रमण तथा गंगा, नर्मदा आदि पवित्र नदियों में स्नान-दान करना चाहिए। माता-पिता और गुरुजनों की सदा सेवा करनी चाहिए। 

गौ-माता, विप्रजन, कुमारी कन्याओं का आदर सत्कार करते हुए उन्हें अन्न्ा, वस्त्र, भोजनादि से संतुष्ट करना चाहिए। संतानों को सद्गुणी, उदार, विद्यावान, धनवान और कर्मशील बनाने के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए।
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आइये जाने जन्म कुंडली के दूषित/ख़राब सप्तम भाव के कुछ उपयोगी टोटके/उपाय–
आज दांपत्य जीवन की सबसे बड़ी समस्या हैं पति-पत्नी के बीच छोटे-छोटे विवाद। कभी-कभी यही छोटे-छोटे विवाद तलाक का कारण बनते हैं। तलाक के कारण क्या-क्या हैं? ऐसा क्यों होता है? क्यों कुछ दंपत्ति अपना दांपत्य जीवन का निर्वाह ठीक ढंग से कर नहीं पाते? ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इसका कारण जन्म पत्रिका का सप्तम स्थान होता है। कुण्डली के इस स्थान में यदि सूर्य, गुरु, राहु, मंगल, शनि जैसे ग्रह हो या इस स्थान पर इनकी दृष्टि हो तो जातक का वैवाहिक जीवन परेशानियों से भरा होता है। सप्तम स्थान पर सूर्य का होना निश्चित ही तलाक का कारण है। गुरु के सप्तम होने पर विवाह तीस वर्ष की आयु के पश्चात करना उत्तम होता है। इसके पहले विवाह करने पर विवाह विच्छेद होता हैं या तलाक का भय बना रहता है। मंगल तथा शनि सप्तम होने पर पति-पत्नी के मध्य अवांछित विवाद होते हैं। राहु सप्तम होने पर जीवन साथी व्यभिचारी होता है। इस कारण उनके मध्य विवाद उत्पन्न होते हैं, जिनसे तलाक होने की संभावना बढ़ जाती है।एक परिवार में पति-पत्नी में अथाह प्रेम है। दोनों एक दूसरे के लिए पूर्ण समर्पित हैं। आपस में एक दूसरे का सम्मान करते हैं। अचानक उनमें कटुता व तनाव उत्पन्न हो जाता है। जो पति-पत्नी कल तक एक दूसरे के लिए पूर्ण सम्मान रखते थे, आज उनमें झगड़ा हो गया है। स्थिति तलाक की आ गई है। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
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घर-परिवार में बाधा के लक्षण—-

परिवार में अशांति और कलह।
बनते काम का ऐन वक्त पर बिगड़ना।
आर्थिक परेशानियां।
योग्य और होनहार बच्चों के रिश्तों में अनावश्यक अड़चन।
विषय विशेष पर परिवार के सदस्यों का एकमत न होकर अन्य मुद्दों पर कुतर्क करके आपस में कलह कर विषय से भटक जाना।
परिवार का कोई न कोई सदस्य शारीरिक दर्द, अवसाद, चिड़चिड़ेपन एवं निराशा का शिकार रहता हो।
घर के मुख्य द्वार पर अनावश्यक गंदगी रहना।
इष्ट की अगरबत्तियां बीच में ही बुझ जाना।
भरपूर घी, तेल, बत्ती रहने के बाद भी इष्ट का दीपक बुझना या खंडित होना।
पूजा या खाने के समय घर में कलह की स्थिति बनना।
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व्यक्ति विशेष का बंधन—

हर कार्य में विफलता।
हर कदम पर अपमान।
दिल और दिमाग का काम नहीं करना।
घर में रहे तो बाहर की और बाहर रहे तो घर की सोचना।
शरीर में दर्द होना और दर्द खत्म होने के बाद गला सूखना।
इष्ट पर आस्था और विश्वास रखें।
हमें मानना होगा कि भगवान दयालु है। हम सोते हैं पर हमारा भगवान जागता रहता है। वह हमारी रक्षा करता है। जाग्रत अवस्था में तो वह उपर्युक्त लक्षणों द्वारा हमें बाधाओं आदि का ज्ञान करवाता ही है, निद्रावस्था में भी स्वप्न के माध्यम से संकेत प्रदान कर हमारी मदद करता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम होश व मानसिक संतुलन बनाए रखें। हम किसी भी प्रतिकूल स्थिति में अपने विवेक व अपने इष्ट की आस्था को न खोएं, क्योंकि विवेक से बड़ा कोई साथी और भगवान से बड़ा कोई मददगार नहीं है। इन बाधाओं के निवारण हेतु हम निम्नांकित उपाय कर सकते हैं।
उपाय : पूजा एवं भोजन के समय कलह की स्थिति बनने पर घर के पूजा स्थल की नियमित सफाई करें और मंदिर में नियमित दीप जलाकर पूजा करें। एक मुट्ठी नमक पूजा स्थल से वार कर बाहर फेंकें, पूजा नियमित होनी चाहिए।
स्वयं की साधना पर ज्यादा ध्यान दें।
गलतियों के लिये इष्ट से क्षमा मांगें।
इष्ट को जल अर्पित करके घर में उसका नित्य छिड़काव करें।
जिस पानी से घर में पोछा लगता है, उसमें थोड़ा नमक डालें।
कार्य क्षेत्र पर नित्य शाम को नमक छिड़क कर प्रातः झाडू से साफ करें।
घर और कार्यक्षेत्र के मुख्य द्वार को साफ रखें।
हिंदू धर्मावलंबी हैं, तो गुग्गुल की और मुस्लिम धर्मावलम्बी हैं, तो लोबान की धूप दें।
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व्यक्तिगत बाधा निवारण के लिए उपाय —-

व्यक्तिगत बाधा के लिए एक मुट्ठी पिसा हुआ नमक लेकर शाम को अपने सिर के ऊपर से तीन बार उतार लें औरउसे दरवाजे के बाहर फेंकें। ऐसा तीन दिन लगातार करें। यदि आराम न मिले तो नमक को सिर के ऊपर वार कर शौचालय में डालकर फ्लश चला दें। निश्चित रूप से लाभ मिलेगा।
हमारी या हमारे परिवार के किसी भी सदस्य की ग्रह स्थिति थोड़ी सी भी अनुकूल होगी तो हमें निश्चय ही इन उपायों से भरपूर लाभ मिलेगा।
अपने पूर्वजों की नियमित पूजा करें। प्रति माह अमावस्या को प्रातःकाल ५ गायों को फल खिलाएं।
गृह बाधा की शांति के लिए पश्चिमाभिमुख होकर क्क नमः शिवाय मंत्र का २१ बार या २१ माला श्रद्धापूर्वक जप करें।
यदि बीमारी का पता नहीं चल पा रहा हो और व्यक्ति स्वस्थ भी नहीं हो पा रहा हो, तो सात प्रकार के अनाज एक-एक मुट्ठी लेकर पानी में उबाल कर छान लें। छने व उबले अनाज (बाकले) में एक तोला सिंदूर की पुड़िया और ५० ग्राम तिल का तेल डाल कर कीकर (देसी बबूल) की जड़ में डालें या किसी भी रविवार को दोपहर १२ बजे भैरव स्थल पर चढ़ा दें।
बदन दर्द हो, तो मंगलवार को हनुमान जी के चरणों में सिक्का चढ़ाकर उसमें लगी सिंदूर का तिलक करें।
पानी पीते समय यदि गिलास में पानी बच जाए, तो उसे अनादर के साथ फेंकें नहीं, गिलास में ही रहने दें। फेंकने से मानसिक अशांति होगी क्योंकि पानी चंद्रमा का कारक है।
शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के जीवन के 16 महत्वपूर्ण संस्कार बताए गए हैं, इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार में से एक है विवाह संस्कार। सामान्यत: बहुत कम लोगों को छोड़कर सभी लोगों का विवाह अवश्य ही होता है। शादी के बाद सामान्य वाद-विवाद तो आम बात है लेकिन कई बार छोटे झगड़े भी तलाक तक पहुंच जाते हैं। इस प्रकार की परिस्थितियों को दूर रखने के लिए ज्योतिषियों और घर के बुजूर्गों द्वारा एक उपाय बताया जाता है।
अक्सर परिवार से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए मां पार्वती की आराधना की बात कही जाती है। शास्त्रों के अनुसार परिवार से जुड़ी किसी भी प्रकार की समस्या के लिए मां पार्वती भक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। मां पार्वती की प्रसन्नता के साथ ही शिवजी, गणेशजी आदि सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है। अत: सभी प्रकार के ग्रह दोष भी समाप्त हो जाते हैं।
ज्योतिष के अनुसार कुंडली में कुछ विशेष ग्रह दोषों के प्रभाव से वैवाहिक जीवन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में उन ग्रहों के उचित ज्योतिषीय उपचार के साथ ही मां पार्वती को प्रतिदिन सिंदूर अर्पित करना चाहिए। सिंदूर को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। जो भी व्यक्ति नियमित रूप से देवी मां की पूजा करता है उसके जीवन में कभी भी पारिवारिक क्लेश, झगड़े, मानसिक तनाव की स्थिति निर्मित नहीं होती है।
– सप्तम स्थान में स्थित क्रूर ग्रह का उपाय कराएं।
– मंगल का दान करें ।
– गुरुवार का व्रत करें।
– माता पार्वती का पूजन करें।
– सोमवार का व्रत करें।
– प्रतिदिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं और पीपल की परिक्रमा करें।

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