कब और केसे मनाएं होली …4 …????


इस वर्ष 17 मार्च 2014  (सोमवार) के दिन होली / धुलैण्डी /रंगोत्सव मनाया जाएगा. होली का त्योहर प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. होली से ठीक एक दिन पहले रात्रि को होलिका दहन होता है. उसके अगले दिन प्रात: से ही लोग रंग खेलना प्रारम्भ कर देते हैं. होली को धुलैण्डी के नाम से भी जाना जाता है.


पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री (मोब.–09669290067 ) के अनुसार  16 मार्च 2014  (रविवार ) को  पूर्वाफाल्गुणी नक्षत्र में इस वर्ष की होलिका दहन किया जायेगा. प्रदोष व्यापिनी फाल्गुन पूर्णिमा के दिन भ्रद्रारहित काल में होलिका दहन किया जाता हैं. 


इस दिन भद्रा 08:55 तक ही होने के कारण सूर्यास्त के बाद 16 मार्च, 2014 को गोधूलि बेला में होलिका-दहन किया जा सकता है. इसलिए होलिका-दहन से पूर्व और भद्रा समय के पश्चात् होली का पूजन किया जाना चाहिए.भद्रा के मुख का त्याग करके निशा मुख में होली का पूजन करना शुभफलदायक सिद्ध होता है,ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी पर्व-त्योहारों को मुहूर्त शुद्धि के अनुसार मनाना शुभ एवं कल्याणकारी है.


होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।
कहा जाता है कि फागुन पूर्णिमा – होली के दिन जो लोग चित्त को एकाग्र करके हिंडोले (झूला) में झूलते हु‌ए भगवान विष्णु के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही वैकुंठ को जाते हैं।


भारत में मनाये जाने वाले त्योहारों एवं उत्सवों में सभी धर्मों के लोग आदर के साथ मिलजुल कर मनाते हैं। होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसकी लोग बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं। 
होली भारत के सबसे पुराने पर्वों में से एक है। होली की हर कथा में एक समानता है कि उसमें ‘असत्य पर सत्य की विजय’ और ‘दुराचार पर सदाचार की विजय’ का उत्सव मनाने की बात कही गई है। 


इस प्रकार होली मुख्यतः आनंदोल्लास तथा भाई–चारे का त्यौहार है। यह लोक पर्व होने के साथ ही अच्छाई की बुराई पर जीत, सदाचार की दुराचार पर जीत व समाज में व्याप्त समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता व दुश्मनी को भूलकर एक–दूसरे के गले मिलते हैं और फिर ये दोस्त बन जाते हैं। राग–रंग का यह लोकप्रिय पर्व बसंत का संदेशवाहक भी है। किसी कवि ने होली के सम्बन्ध में कहा है—-


“नफ़रतों के जल जाएं सब अंबार होली में,
गिर जाये मतभेद की हर दीवार होली में।
बिछुड़ गये जो बरसों से प्राण से अधिक प्यारे, 
गले मिलने आ जाएं वे इस बार होली में।” 


होलिका दहन—–
इस वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा 16 मार्च 2014 (रविवार) को होलिका दहन किया जाएगा. प्रदोष व्यापिनी फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका दहन किया जाता है. होलिका दहन भद्रा रहित काल में संपन्न होता है. धर्म ग्रंथों के अनुसार प्रदोष काल के समय भद्रा हो तथा भद्रा आधी रात से पूर्व ही समाप्त हो रही हो तो भद्रा के बाद और अर्द्धरात्रि से पहले होलिका दहन करना चाहिए. परंतु यदि भद्रा आधी रात से पहले समाप्त न हो और अगले दिन प्रात:काल तक रहे और अगले दिन पूर्णिमा प्रदोषयुक्त भी न हो तब पहले दिन ही भद्रा का मुख छोड़कर प्रदोष काल में होलिका पूजन कर देना चाहिए.




होलाष्टक—–


पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री (मोब.–09669290067 ) के अनुसार  होलाष्टक के शुरुआती दिन में ही होलिका दहन के लिए २ डंडे स्थापित किये जते है। जिसमें से एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए डंडा स्थापित हो जाता है, उस क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। अन्यथा अमंगल फल मिलते हैं। क्योंकि होलिका दहन की परम्परा को सनातन धर्म को मानने वाले सभी मानते हैं इसलिए होलाष्टक की अवधि में हिंदू संस्कृति के कुछ संस्कार और शुभ कार्यों की शुरुआत वर्जित है। लेकिन किसी के जन्म और और मृत्यु के पश्चात किए जाने वाले कृत्यों की मनाही नहीं की गई है। तभी को कई स्थानों पर धुलेंडी वाले दिन ही अन्नप्राशन संस्कार की परम्परा है। अत: प्रसूतिका सूतक निवारण, जातकर्म, अंतेष्ठि आदि संस्कारों की मनाही नहीं की गई है।
होली के त्यौहार का आरंभ होलाष्टक से होता है, होलाष्टक को होली पर्व की सूचना लेकर आने वाला एक हरकारा कहा जाता सकता है. 
“होलाष्टक” के शाब्दिक अर्थ पर जायें, तो होला+ अष्टक अर्थात होली से पूर्व के आठ दिन, जो दिन होता है, वह होलाष्टक कहलाता है. सामान्य रुप से होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे आठ दिनों का त्यौहार है. धुलेंडी  के दिन रंग और गुलाल के साथ इस पर्व का समापन होता है.


पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री (मोब.–09669290067 ) के अनुसार  फागुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है । इसी के साथ होली उत्सव मनाने की शुरु‌आत होती है। होलिका दहन की तैयारी भी यहाँ से आरंभ हो जाती है। इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा वसंतागम के उपलक्ष्य में किया हु‌आ यज्ञ भी माना जाता है। वैदिक काल में इस होली के पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था।


होली की शुरुआत होली पर्व होलाष्टक से प्रारम्भ होकर धुलैंण्डी तक रहती है. इसके कारण प्रकृ्ति में खुशी और उत्सव का माहौल रहता है.  होलाष्टक से होली के आने की दस्तक मिलती है, साथ ही इस दिन से होली उत्सव के साथ-साथ होलिका दहन की तैयारियाँ भी शुरु हो जाती है.
पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री (मोब.–09669290067 ) के अनुसार  देश के कई हिस्सों में होलाष्टक नहीं मानते। लोक मान्यता के अनुसार कुछ तीर्थस्थान जेसे शतरुद्रा, विपाशा, इरावती एवं पुष्कर सरोवर के अलावा बाकी सब स्थानो पर होलाष्टक का अशुभ प्रभाव नहीं होता है इसलिए अन्य स्थानों में विवाह इत्यादि शुभ कार्य बिना परेशानी हो सकते हैं। फिर भी शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार होलाष्टक की अवधि में शुभ कार्य वर्जित हैं। अत: हमें भी इनसे बचना चाहिए।


होलिका पूजन——
होलिका-दहन से पूर्व और भद्रा समय के पश्चात होली का पूजन किया जाना चाहिए. भद्रा के मुख का त्याग करके निशा मुख में होली का पूजन करना शुभफलदायक सिद्ध होता है. विधिवत रुप से होलिका का पूजन करने के बाद होलिका का दहन किया जाता है.


होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहि‌ए :-


अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌ ॥


पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री (मोब.–09669290067 ) के अनुसार होली पूजन के पश्चात होलिका का दहन किया जाता है। यह दहन सदैव उस समय करना चाहि‌ए जब भद्रा लग्न न हो। ऐसी मान्यता है कि भद्रा लग्न में होलिका दहन करने से अशुभ परिणाम आते हैं, देश में विद्रोह, अराजकता आदि का माहौल पैदा होता है। इसी प्रकार चतुर्दशी, प्रतिपदा अथवा दिन में भी होलिका दहन करने का विधान नहीं है। होलिका दहन के दौरान गेहूँ की बाल को इसमें सेंकना चाहि‌ए। ऐसा माना जाता है कि होलिका दहन के समय बाली सेंककर घर में फैलाने से धन-धान्य में वृद्धि होती है। दूसरी ओर होलिया का यह त्योहार न‌ई फसल के उल्लास में भी मनाया जाता है।


होलिका दहन के पश्चात उसकी जो राख निकलती है, जिसे होली – भस्म कहा जाता है, उसे शरीर पर लगाना चाहि‌ए। होली की राख लगाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहि‌ए :-


वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रम्हणा शंकरेण च ।
अतस्त्वं पाहि माँ देवी! भूति भूतिप्रदा भव ॥


ऐसी मान्यता है कि जली हु‌ई होली की गर्म राख घर में समृद्धि लाती है। साथ ही ऐसा करने से घर में शांति और प्रेम का वातावरण निर्मित होता है।


होली का पौराणिक महत्व——-
पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री (मोब.–09669290067 ) के अनुसार होली से संबन्धित कई कथाएं जुडी हुई है. होली की एक कथा जो सबसे अधिक प्रचलन में है, वह हिर्ण्यकश्यप व उसके पुत्र प्रह्लाद की है.जिसके अनुसार राजा हिर्ण्यकश्यप अहंकारवश और भगवान विष्णु से वैर द्वेष के कारण अपने पुत्र प्रह्लाद को जो भगवान विष्णु का परम भक्त था. उसे दण्ड स्वरुप आग में जलाने का आदेश दे देता है इसके लिये राजा नें अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को जलती हुई आग में लेकर बैठ जाये. क्योंकि होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी.


होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ जाती है. लेकिन आश्चर्य की बात थी की होलिका जल गई, और प्रह्लाद नारायण कृपा से बच जाता है. इस तरह बुराई की हार हुई और अच्छाई की विजय. इसलिए भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है


पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री (मोब.–09669290067 ) के अनुसार  एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय की बात है कि हिमालय पुत्री पार्वती की यह मनोइच्छा थी, कि उनका विवाह केवल भगवान शिव से हो. परन्तु श्री भोले नाथ थे की सदैव गहरी समाधी में लीन रहते थे, ऎसे में भगवान शिव के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखना कठिन था. तब इस कार्य में कामदेव भगवान भोले नाथ की तपस्या को भंग करने का प्रयास करते हैं. अपनी तपस्या के भंग होने से शिवजी क्रोध में आ कर कामदेव को भस्म कर देते हैं. परंतु भाब में शांत होने पर और देवों के आग्रह पर वह कामदेव को क्षमा कर देते हैं.


वैदिक काल में इस होली के पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। पुराणों के अनुसार ऐसी भी मान्यता है कि जब भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से होली का प्रचलन हु‌आ।


भविष्य पुराण के अनुसार नारदजी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा था कि हे राजन! फागुन पूर्णिमा – होली के दिन सभी लोगों को अभयदान देना चाहि‌ए, ताकि सारी प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे और अट्टहास करते हु‌ए यह होली का त्योहार मना‌ए। इस दिन अट्टहास करने, किलकारियाँ भरने तथा मंत्रोच्चारण से पापात्मा राक्षसों का नाश होता है।


अशुभ क्यों हैं होलाष्टक..???


पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री (मोब.–09669290067 ) के अनुसार  होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य प्रतिबंधित रहने के पीछे धार्मिक मान्यता के अलावा ज्योतिषीय मान्यता भी है। ज्योतिष के अनुसार अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए हुए रहते हैं। 
इससे पूर्णिमा से आठ दिन पूर्व मनुष्य का मस्तिष्क अनेक सुखद व दुःखद आशंकाओं से ग्रसित हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को अष्ट ग्रहों की नकारात्मक शक्ति के क्षीण होने पर सहज मनोभावों की अभिव्यक्ति रंग, गुलाल आदि द्वारा प्रदर्शित की जाती है। 


होली का आधुनिक रूप—–


होली रंगों का त्योहार है, हँसी–ख़ुशी का त्यौहार है लेकिन आज होली के भी अनेक रूप देखने  को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भंग–ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक–संगीत की जगह फिल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप है। 


पहले जमाने में लोग टेसू और प्राकृतिक रंगों से होली खेलते थे। वर्तमान में अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ में लोगों ने बाज़ार को रासायनिक रंगों से भर दिया है। वास्तव में रासायनिक रंग हमारी त्वचा के लिए काफी नुकसानदायक होते हैं। इन रासायनिक रंगों में मिले हुए सफेदा, वार्निश, पेंट, ग्रीस, तारकोल आदि की वजह से खुजली और एलर्जी होने की आशंका बढ़ जाती है इसलिए होली खेलने से पूर्व हमें बहुत सावधानियाँ बरतनी चाहिए। 


हमें चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाये रखते हुए प्राकृतिक रंगों की ओर लौटना चाहिए। 

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