जानिए भवन निर्माण के कुछ सामान्य वास्तु नियम/वास्तु सूत्र/वास्तु सम्मत उपाय —-
वास्तु शास्त्र भारत की एक प्राचीन गूढ विद्या है परंतु सामान्य जन की पहुंच से परे रहने के कारण आज भी बहुत व्यक्ति इसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं वास्तव में हमारा शरीर जिन पांच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, अकाश) से मिलकर बना है उन्हीं पांच तत्वों तथा सभी प्राकृतिक ऊर्जाओं का घर में अच्छा संतुलन बनाना तथा प्राकृतिक ऊर्जाओं का अधिक से अधिक लाभ उठाना ही वास्तु शास्त्र का आधार है।
विलक्षण भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने से घर में स्वास्थय, खुशहाली एवं समृद्धि को पूर्णत: सुनिश्चित किया जा सकता है. एक इन्जीनियर आपके लिए सुन्दर तथा मजबूत भवन का निर्माण तो कर सकता है, परन्तु उसमें निवास करने वालों के सुख और समृद्धि की गारंटी नहीं दे सकता. लेकिन भारतीय वास्तुशास्त्र आपको इसकी पूरी गारंटी देता है.
वास्तुशास्त्र- अर्थात गृहनिर्माण की वह कला जो भवन में निवास कर्ताओं की विघ्नों प्राकृतिक उत्पातों एवं उपद्रवों से रक्षा करती है. देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित इस भारतीय वास्तु शास्त्र का एकमात्र उदेश्य यही है कि गृहस्वामी को भवन शुभफल दे, उसे पुत्र-पौत्रादि, सुख-समृद्धि प्रदान कर लक्ष्मी एवं वैभव को बढाने वाला हो.
विशेष रूप से वास्तु के नियम सूर्य रश्मि, दिशाओं के तत्व पृथ्वी का झुकाव, वास्तु पुरूष की आकृति आदि पर आधारित हैं जो पूर्णतया वैज्ञानिक भी हैं। पृथ्वी अपनी चुंबकीय व गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण अपनी धुरी पर पूर्वोत्तर की ओर साढ़े .. डिग्री झुकी हुई है जिससे उत्तर से विशेष चुंबकीय तरंगे आती हैं।
वास्तु पुरुष की आकृति पृथ्वी पर इस प्रकार मानी गयी है कि उसका सिर ईशान कोण में नीचे की ओर मुख करके है पैर सिकुड़े हुए पंजे र्नैत्य कोण में है दोनों भुजायें आग्नेय व वायव्य कोण में है।
शाब्दिक तौर पर वास्तु ‘‘वस्तु’’ से उत्पन्न हुआ एक शब्द है, अर्थात वह वस्तु जिसकी सत्ता सर्वदा स्थापित हो। अन्य मतों में वास्तु ‘‘वस’’ अर्थात वास से उत्पन्न हुआ एक शब्द भी माना गया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत भाषा के शाब्दिक अर्थों में ‘‘वास्तु’’ शब्द की संज्ञा उस निवास के रूप में की गई है। जहां मनुष्य व देवता का वास होता हो। वास्तुशास्त्र में भवन या गृह को प्राण या जीवात्मा के रूप में स्वीकारा गया है।
वस्तुतः वास्तु भवन-निर्माण की कला का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं बल्कि इस में छुपी ज्ञान की सीमाएं अत्यंत विस्तृत व विशाल हैं, जिसकी एतिहासिकताएं वेद व मत्स्य पुराण जैसे ग्रंथों के विवरणों में देखी जा सकती है।
इसके अतिरिक्त तिरूपति में बेंकटेश्वर, मदुरई में मीनाक्षी, उज्जैन में महाकालेश्वर आदि मंदिरों की निर्माण कला भी वास्तु विद्या के जीते जागते उदाहरण हैं। ऐसा माना जाता है कि महाराजा सवाई जय सिंह ने भी जयपुर शहर के निर्माण में वास्तु शास्त्र के विधिवत् सिद्धांत का अनुसरण किया था।
वास्तु एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ आवास या निवास-स्थान की नींव से है। वास्तु,प्लेसमेंट का एक विज्ञान है जो प्रकृति के सभी पांच तत्वों को जोड़ता है तथा व्यक्ति और भौतिकता का आपस में सामंजस्य बिठाता है। वास्तु का अर्थ है मनुष्य और देवताओं का निवास है। वास्तु शास्त्र एक प्राचीन विज्ञान है। वास्तु शास्त्र प्रकृति के आकाश, पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु बुनियादी पांच तत्वों के साथ सद्भाव में रखकर लागू किया जा सकता है। बहुत से वास्तु नियम ‘वास्तु पुरुष मंडल’ से निकाले गए हैं। अलग-अलग दिशाओं और क्षेत्रों के विभिन्न देवता और रखवाले हैं।
किसी भी स्थान विशेष का वास्तु देखने का मूल अर्थ यह है कि वह स्थान किसी व्यक्ति या संस्था के लिए कितना उपयुक्त या अनुपयुक्त है। वास्तु के नियम भी कमोबेश इसी आधार पर बताए गए हैं। किसी घर में वास्तु के अनुरूप निर्माण या वस्तुओं को किसी स्थान विशेष पर रखना या किसी दफ्तर निर्माण में मूल रूप से अंतर होता है। भविष्य पुराण कहता है कि गृहस्थों को ऐसे स्थान पर घर बसाना चाहिए जहां बुद्घिजीवी और विद्वान लोग रहते हों।
किसी भी जगह, घर, काम के स्थान पर,निर्माण,कारखाने,भूमि या प्लाट के वास्तु करने में हम वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी और अंतरिक्ष को पाँच मूल तत्वों के संबंध में जगह अनुरूप करने का प्रयास करते हैं। इन तत्वों में से प्रत्येक के महत्व के बारे में और कितनी अच्छी तरह हम शांति, सुरक्षा, जीवन में समृद्धि लाने,एक तनावपूर्ण जीवन को राहत देने के लिए उन्हें कैसे अनुरूप कर सकते हैं। इसका ज्ञात वास्तु शास्त्र से होता है।
वास्तु अनुसार भवन निर्माण के शास्त्रीय नियम—–
प्राचीन एवम सर्वमान्य संहिता व वास्तु ग्रंथो में प्रतिपादित कुछ शास्त्रीय वास्तु नियमों का उल्लेख किया जाता है | वास्तु निर्माण में इनका प्रयोग करने पर वास्तु व्यक्ति के लिए सब प्रकार से शुभ ,समृद्धि कारक एवम मंगलदायक होता है |आजकल के तथाकथित वास्तु शास्त्रियों द्वारा जनसाधारण को व्यर्थ के बहम में डालने वाले तथा अपने ही गढे हुए नियमों पचडे में न पड़ कर केवल इन्हीं शास्त्रीय नियमों का पालन करने पर वास्तु सब प्रकार से शुभ होता है।
मानव शरीर और ब्रम्हाण्ड पंचतत्वों से बना हुआ है, भवन भी पांच तत्वों का ही सम्मिश्रित स्वरूप है। ब्रम्हाण्ड, मानव शरीर, एंव भवन इन तीनों में स्थित पांच तत्वों का सामंजस्य स्थापित करके खुशहाल जीवन व्यतीत किया जा सकता है।
भूमि—–
पूर्व ,उत्तर ,ईशान दिशाओं में झुकी भूमि शुभ होती है |
नदी के समीप ,बाम्बी वाली ,फटी , मन्दिर या चौराहे के निकट की भूमि आवास के लिए शुभ नहीं होती |
निर्माणाधीन भूखंड में से कोयला,अस्थि ,केश ,भस्म, भूसा ,कपास एवम चमड़ा आदि शल्य निकाल देने चाहियेंअन्यथा गृह वासिओं को कष्ट प्रदान करते हैं |
गृह निर्माण में वास्तु शास्त्र में वर्णित किसी एक ही वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग हो तो शल्य दोष नहीं होता |
गृह निर्माण में शीशम ,खैर ,देवदार ,सागवान ,चंदन आदि वृक्षों की लकड़ी का प्रयोग करें ।
नवीन गृह में पुराने घर की लकड़ी का प्रयोग अशुभ फल दायक है |
वास्तु का आकार——-
वर्गाकार तथा आयताकार भूखंड जिनके चारों कोण ९०-९० अंश के हों वास्तु के लिए शुभ होते हैं |
जितने भूखंड पर निर्माण किया जाना है ,उसकी लम्बाई ,चौडाई से दुगनी या अधिक नहीं होनी चाहिए |
भूखंड असमान भुजाओं या कोण का हो तो आस-पास जगह छोड़ कर गृह निर्माण वर्ग या आयत में ही करें | खालीजगह पर उद्यान -वनस्पति लगायें |
निर्माणाधीन भूखंड को दिक् शुद्ध अवश्य कर लें ,तभी वास्तु पुरूष के पूर्ण अंग वास्तु में आयेंगे तथा गृहस्वामी कोसुख,धन धान्य यश एवम समृद्धि प्राप्त होगी |
किस स्थान पर क्या बनायें..????
गृह के पूर्वी भाग में या उत्तरी भाग में जल का स्थान रखें |
आग्नेय कोण में रसोई घर बनवाएं |
शयन कक्ष को गृह के दक्षिणी भाग में निश्चित करें |
भोजन करने का स्थान पश्चिम दिशा में होना चाहिए |
पूजा गृह ईशान कोण में अधिक शुभ रहता है |
शौचालय नै ऋ त्य दिशा में बनवाएं |
नैऋत्य एवम पश्चिम दिशा के मध्य अध्ययन कक्ष शुभ रहता है |
सीढ़ी उत्तर या पश्चिम में शुभ हैं ,विषम संख्या में हों तथा सदैव दा ऍ ओर मुडती हों |ऊपर पूर्व या दक्षिण की ओरखुलती हों
गृह के प्रथम खंड में सूर्य किरण तथा वायु का आना बहुत शुभ होता है |
कहाँ और केसा हो मुख्य द्वार..????
१५हाथ ऊँचा ,८ हाथ चौडा उत्तम एवम १३ हाथ ऊँचा ७ हाथ चौडा मध्यम कहा गया है |
मुख्य द्वार के सामने कोई वृक्ष ,स्तंभ ,मन्दिर ,दिवार का कोना ,पानी का नल ,नाली ,दूसरे घर का द्वार तथा कीच हो तो वेध करता है |
गृह की ऊंचाई से दुगनी दूरी पर वेध हो या गृह राजमार्ग पर स्थित हो तो वेध नहीं होता |
वास्तुराज वल्लभ के अनुसार सिंह -वृश्चिक -मीन राशिः वालों के लिए पूर्व दिशा में ,कर्क -कन्या -मकर राशिःवालों के लिए दक्षिण ,मिथुन -तुला -धनु राशिः वालों के लिए पश्चिम एवम मेष -वृष – कुम्भ राशिः वालों के लिएउत्तर दिशा में मुख्य द्वार बनवाना शुभ होता है |
वराह मिहिर के अनुसार जिस दिशा में मुख्य द्वार रखना है भूखंड की उस भुजा के बराबर आठ भाग करें ,पूर्वीदिशा में बांयें से तीसरा व चौथा भाग ,दक्षिण दिशा में केवल चौथा भाग ,पश्चिमी दिशा व उत्तरी दिशा में तीसराचौथा -पांचवां भाग मुख्य द्वार के निर्माण के लिए शुभ होता है |
– कुछ अन्य वास्तु नियम/वास्तु सूत्र/वास्तु सम्मत उपाय—
—गृह में प्रवेश करते समय गृह का पृष्ठ भाग दिखना शुभ नहीं होता |
—-उत्तर एवम पश्चिम दिशा में रोशनदान शुभ नहीं होते |
—पंचक नक्षत्रों में घर के लिए लकड़ी मत खरीदें |
—–घर के सभी द्वार एक सूत्र में होने चाहियें ,ऊपर की मंजिल के द्वारों किउंचाई नीचे के द्वारों से द्वादशांश छोटी होनी चाहिये |
—-गृह के द्वार अपने आप ही खुलते या बंद होते हो तो अशुभ है । गृह क द्वार प्रमाण से अधिक लम्बे हो तोरोग कारक तथा छोटे हो तो धन नाशक होते है ।
—-गृह द्वार पर मधु का छत्ता लगे या चौखट, दरवाजा गिर जाये तोगृह पति को कष्ट होता है । घर में चौरस स्तम्भ बनवाना शुभ होता है तथा गोल स्तम्भ बनवाना अशुभ ।
—–गृह वृद्धि चारो दिशाओ में समान होनी चाहिये । केवल पूर्वी दिशा में वृद्धि करने पर मित्र से वैर ,उत्तर में चिंता , पश्चिम में धन नाश तथा दक्षिण में क्षत्रु भय होता है ।
—-द्वार उपर के भाग मई आगे घुका हो तो संतान नाशक होता है ।
—–घर में कबूतर, गिद्ध , वानर , काक तथा भयानक चित्र शुभ नही होते ।
—–घर के उद्यान में अशोक, निम्बू ,अनार ,चम्पक , अंगूर , पाटल , नारियल ,केतकी ,शमी आदि वृक्षो का लगाना शुभहै।
—-घर के उद्यान में हल्दी , केला , नीम , बेहडा ,अरंड तथा सभी कांटे दार एवं दूध वाले वृक्ष लगाने का निषेध है ।
—-मुख्य द्वार पर स्वास्तिक , गणेश , कलश, नारियल ,शंख ,कमल आदि मंगलकारी चिह्नों को अंकित करने से गृह के दोषों का निवारण होता है ।
—-नवीन गृह में प्रवेश से पूर्व वास्तु पूजा तथा श्री रामचरितमानस का पाठ करने से समस्त वास्तुजनित दोष दूर हो जाते है ।
जानिए वास्तु निर्माण के कुछ सामान्य नियम—–
——घर के किसी भी तरफ सड़क हो, मकान निर्माण के कुछ सामान्य नियम अपनाकर मकान का वास्तु-शास्त्र के अनुसार निर्माण किया जा सकता है और इस प्रकार के निर्माण से लाभ उठाया जा सकता है । मकान निर्माण के कुछ नियम नीचे दिये गये हैं—-
सामान्य नियम:—–
., घर के उत्तर और पूर्व में ज्यादा खाली जगह तथा दक्षिण और पशिचम में कम खाली जगह छोड़ें ।
2. घर में कुऑं या बोरिंग उत्तर पूर्व में ही होनी चाहिये । जमीन के अंदर पानी की टंकी होने पर यह भी इस तरफ ही हो ।
3. सेप्टिक टैंक सिर्फ उत्तर पूर्व के ठीक बीच में ही हो । अन्य किसी दिशा में होने पर दुष्परिणाम होंगे ।
4. पानी की टंकी जमीन के ऊपर होने पर यह दक्षिण पशिचम में मकान के ऊपर ही रखें । मकान में सबसे ऊँचा निर्माण दक्षिण पशिचम में ही होना चहिए ।
5. ढाल बरामदा रखने पर यह ईस्ट या नार्थ की तरफ ही हो किसी भी हालत में वेस्ट और साउथ में नहीं होने चहिए ।
6. चबूतरा बनवाना हो तो यह सिर्फ साउथ और वेस्ट दिशाओं में ही हो क्योंकि यह निर्माण मकान के फर्श से उँचा होगा ।
7. चारदीवारी होन पर उसकी उंचाई ईस्ट और नार्थ में कम तथा वेस्ट और साउथ में ज्यादा हो ।
8. मकान की दीवारें सदैव सीधी होनी चाहिऐ ।
9. घर में इस्तेमाल किया हुआ और बरसात का पानी नार्थ-ईस्ट से ही बाहर जाना चाहिये । ऐसा न हो सकने पर सारा पानी नार्थ-ईस्ट में जमा करके फिर किसी भी दिशा (साउथ-वेस्ट को छोड़कर) से बाहर निकाल सकते हैं ।
1.. ईस्ट और नार्थ की ओर बड़े पेड़, बड़ी इमारतें या पहाड़ नहीं होने चाहिये, यह सिर्फ वेस्ट और साउथ में ही होने चाहिए ।
11. इस्ट और नार्थ में सड़क होने पर यह मकान के नीचे तल में ही हो ।
12. जगह के ईस्ट तथा नार्थ में तालाब, नाला आदि का होना शुभ है ।
13. मकान की दीवारें हमेशा सीधी हों ।
14. रसोई सदैव साउथ-ईस्ट या नर्थ-वेस्ट में ही रखें ।
15. घर का भारी सामान जैसे अलमारी, स्टोर रूम, पानी की टंकी सदैव साउथ-वेस्ट में ही रखनी चाहिऐ ।
16. घर के नार्थ-ईस्ट में कम वजन व हल्का सामान रखें ।
17. घर की छत पर दूसरी मंजिल बनाने पर वह सिर्फ साउथ और वेस्ट की तरफ ही बनाएें या पूरी छत पर निर्माण होना चाहिये ।
18. घर व छत के फर्श का ढाल साउथ से नार्थ या वेस्ट से ईस्ट की तरफ हो तो निवासी सुखी रहेंगे ।
19. मकान मालिक के सोने का कमरा साउथ-वेस्ट में तथा बच्चों का कमरा नार्थ-वेस्ट में शुभ है ।
20. चारदीवारी होने पर, इससे जुड़ते हुए किसी भी तरह का निर्माण न करें । चारदीवारी के अन्दर चारों तरफ खाली जगह छोड़कर ही मकान का निर्माण करें ।
21. घर की चारदीवारी के किसी कोने पर निर्माण करना अनिवार्य हो तो पूरी चारदीवारी पर ही निर्माण करें । साथ ही घर की दीवार से हटकर कमरों का निर्माण करें ।
22. घर के मुख्य द्वार के सामने नार्थ और ईस्ट में पेड़ नहीं होने चाहिए।
23. घर का कोई कोना या बॉलकॉनी गोल न बनायें । उसे सीधा रखें तो वास्तु दोष नहीं लगेगा ।
24. किसी प्लॉट में दिशायें कोनों पर आयें तो ऐसे प्लॉट को विदिशा प्लाट कहा जाता है इस दशा में मकान निर्माण में ऊपर दिये गये सामान्य नियम ही प्रभावी होंगे ।
25. विदिशा प्लॉट होने पर नार्थ-ईस्ट को छोड़कर और किसी भी तरफ ढाल बरामदा नहीं होना चाहिए ।
26. घर के मध्य भाग को ब्रह्मस्थान कहते हैं । इस स्थान पर किसी तरह का निर्माण जैसे दीवार, सीढ़ी, गड्ढा नहीं होना चाहिए ।
27. ईस्ट, नार्थ, नार्थ-ईस्ट की तरफ मलवा व कूड़ा-करकट इत्यादि न डालें
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1. वास्तु सिद्धांत के मूल सिद्धांत के अनुसार घर या भूखंड का पूर्व, ईशान व उत्तरी क्षेत्र सदैव नीचा, हल्का तथा खाली रखना चाहिए तथा दक्षिण व र्नैत्य कोण ऊंचा भारी व भरा हुआ होना चाहिये। क्योंकि भारतीय संस्कृति सूर्य रश्मियों व दर्शन का बड़ा महत्व है और यह वैज्ञानिक भी है। क्योंकि सूर्य की प्रातः काल की किरणें बहुत ही लाभदायक व शुभ होती है तथा दोपहर की किरणें हानि कारक होती है तो यदि हमारे घर का पूर्वी हिस्सा नीचा व खुला होगा तो सूर्योदय होते ही प्रातःकालीन किरणें घर में प्रवेश करेंगी जो घर में सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ायेंगी तथा दक्षिण, पश्चिम व र्नैत्य कोण ऊंचे होंगे तो दोपहर या उसके बाद वाली हानिकारक रश्मियां घर में प्रवेश नहीं कर पायेंगी तथा उत्तर से ही विशेष चुंबकीय तरंगे घर में प्रवेश करती है व शुद्ध वायु, पूर्व, उत्तर से आती हैं अतः यह स्थान नीचा, खुला होना तर्क संगत है।
दूसरे दृष्टिकोण में ईशान कोण में वास्तु पुरुष का सिर पड़ता है तथा र्नैत्य कोण में पंजे क्योंकि मष्तिष्क पर भार कम होना चाहिये व पंजे पूरे शरीर का भार उठाते हैं इसलिये भी ईशान हल्का व र्नैत्य कोण भारी रखा जाता है। ईशान कोण और उत्तर दिशा में ही जलस्रोत बनाया जाता है बोरिंग, कुंआ, हैंडपंप आदि यहीं लगाया जाता है क्योंकि सर्वप्रथम तो ईशानकोण व उत्तर-दिशा को जल तत्व की दिशा होती है तथा जल स्रोत होने से नीचे भी हो जायेगी। इसका एक कारण यह भी है कि सूर्य उदय से ही यहां किरणे पड़ने लगती हैं तथा अधिकतम समय तक रहती हैं। जिससे जल स्वच्छ रहता है। ईशान कोण में पूजाघर, ध्यान कक्ष, अध्ययन कक्ष बनाया जाता है क्योंकि यहां सूर्य की प्रातःकालीन रश्मियों की अधिकता है यहीं से सकारात्मक चुंबकीय तरंगंे घर मंे प्रवेश करती हैं तथा इस दिशा का स्वामित्व ग्रहों में बृहस्पति को प्राप्त है जो धर्म के कारक ग्रह हैं।
मकान मालिक का शयन कक्ष र्नैत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में बनाया जाता है क्योंकि एक तो यह स्थायित्व की दिशा, आराम व स्वामित्व की दिशा मानी जाती है अतः यहां गृहस्वामी को स्थायित्व मिलेगा तथा पूरे घर पर उसका स्वामित्व बना रहेगा दूसरी ओर ईशान से सूर्य रश्मियों तथा चुंबकीय तरंगो के रूप में जो ऊर्जा घर में प्रवेश करती है वह अन्य दिशाओं से होती हुई र्नैत्य कोण में समावेशित होती है और गृहस्वामी जो पूरे घर का बोझ उठाता है उसे यहां सारी ऊर्जा प्राप्त होती रहती है।
रसोई आग्नेय कोण में बनाई जाती है क्योंकि यह अग्नि तत्व प्रधान दिशा है तथा रसोई में हमें अग्नि की आवश्यकता होती है और वह ऊर्जा इस दिशा में स्वतः ही अधिक मात्रा में होती है।
मेहमान कक्ष, स्वागत कक्ष या किरायेदार के लिये कमरा वायव्य कोण में बनाया जाता है क्योंकि यह दिशा चलायमानता की कारक है यहां रहने वाला व्यक्ति अस्थिर होता है अतः मेहमान या किरायेदार घर पर हावी न हो तथा गतिशील रहे इसलिये यह दिशा स्वागत कक्ष के लिये चुनी जाती है।
सोते समय वास्तु के अनुसार सिर सदैव दक्षिण में व पैर उत्तर दिशा में होने चाहिये अगर ऐसा किसी कारण वश यह संभव न हो तो यह स्मरण रहे कि इसका विपरीत कभी न करें अर्थात उत्तर दिशा में सिर व दक्षिण में पैर कदापि न करें। क्योंकि जिस प्रकार पृथ्वी की उत्तर दिशा उत्तरी ध्रुव व दक्षिण दिशा दक्षिणी ध्रुव है और पृथ्वी में चुंबकीय शक्ति है वैसे ही हमारे शरीर में सिर हमारा उत्तरी ध्रुव व पैर दक्षिणी ध्रुव है और समान ध्रुव परस्पर विकर्षण उत्पन्न करते है। अतः यदि हम सिर उत्तर व पैर दक्षिण में करेंगे तो पृथ्वी उत्तरी ध्रुव पर हमारा उत्तरी ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव पर हमारा दक्षिणी ध्रुव होगा और हमारे शरीर में पृथ्वी से विकर्षण उत्पन्न होगा और नींद अच्छी नहीं आयेगी व शारीरिक व्याधियां भी उत्पन्न हो सकती हैं।
अतः वास्तु शास्त्र के नियम बहुत गूढ़ व वैज्ञानिक हैं। इन्हें अपनाकर हम प्राकृतिक ऊर्जाओं का अधिकाधिक उपयोग कर सकते हैं।
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वास्तु शास्त्र की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि —-
वस्तुतः वास्तु शास्त्र ब्रह्मांड की प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष व्यवस्थाओं के अंतर्गत पृथ्वी के चुंबकीय बल, घूर्णन व धु्रवों, शीत व ताप अर्थात जल व अग्नि तथा प्रकाश व वायु की प्रकृति व संतुलन ऊर्जा की पृष्ठभूमि में भवन या गृह निर्माण की एक सैद्धांतिक प्रक्रिया है, जिसका तात्पर्य आकाश को छूती वैसी भव्य बहुमंजिली इमारतों से नहीं, जहा सुख-सुविधा के सारे आधुनिक संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद भी वहां रह रहे प्राणियों का जीवन सर्वदा तनाव ग्रस्त या मानसिक रूप से अशांत रहता हो, बल्कि तात्पर्य उस प्रकृतिवादी व्यवस्था के निर्माण से है जहां रह रहे प्राणियों को उत्तम स्वास्थ्य, आपसी स्नेह, एकता, प्रेम, स्फूर्ति, समृद्धि व सुख-शांति की अनुभूतियां प्राप्त होती हों।
वास्तु शास्त्र की विधिवत रूप रेखा—–
इस शास्त्र की सारी विधिवत रूप रेखाएं प्रकृति प्रदत्त पंच महाभूत वायु, जल भू अग्नि व आकाश तत्वों तथा इन तत्वों को संतुलित व व्यवस्थित या एक समान धुरी पर कायम रखने वाले षष्ठ तत्व अर्थात चुंबकीय शक्ति या उनके गुरुत्वाकर्षण बलों के अंतर्गत निहित है, जिसके सार्थक निर्माण या सकारात्म्क निर्माण हेतु पृथ्वी की चारो दिशाओं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि तथा इन दिशाओं के चारो चतुर्भुजाकार कोणों अर्थात ईशान, आग्नेय, र्नैत्य वायव्य आदि कोनों की व्यवहारिक प्रकृति व उनके गुण – विशेषों का अवलोकन करना अत्यंत अनिवार्य है।
पूर्व दिशा——
इस दिशा के सूर्य के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आने के कारण इस क्षेत्र को प्रकाश ऊर्जा के प्रतीक के रूप में माना गया है। इसलिए सूर्य ग्रह से संबंधित मान-सम्मान, पितृ-सुख, वंश-वृद्धि, उत्तम स्वास्थ्य, आर्थिक समृद्धि आदि जैसी मौलिक उपलब्धियों के हेतु इस क्षेत्र को दोष रहित होना अत्यंत अनिवार्य है।
वास्तु-शास्त्र में पूर्व के मुख की ओर खुलने वाले भवन या ग्रह के मुख्य प्रवेश द्वार को शारीरिक व आत्मिक सबला के लिए अत्यंत लाभप्रद माना गया है।
पश्चिम दिशा—–
यह दिशा शनि ग्रह के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आती है। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र को वायु तत्व अर्थात चंचलता का सूचक भी माना गया है। अतः भवन या गृह के इस दिशा को दोष रहित होना परम आवश्यक है, अन्यथा इस ओर उत्पन्न दोष के कारण कार्यों में बाधा, अधिक व्यय, बच्चों के भाग्य व शिक्षण कार्यों में बाधा, उदासीनता, मानसिक दबाव आदि जैसी स्थितियां अत्यंत प्रबल हो जाती है।
उत्तर दिशा—–
इस दिशा को मातृ भाव अर्थात ऋण-ध्रुव का सूचक माना गया है। जल तत्व अर्थात शीतोष्ण क्षेत्र होने के कारण विद्या अध्ययन, चिंतन-मनन आदि जैसे कार्यों के हेतु इस ओर मुख करके बैठने की क्रिया को अत्यंत लाभप्रद माना गया है। इस दिशा में किसी भी प्रकार के दोष उत्पन्न होने के कारण धनधान्य, सुख संपत्ति आदि में हानि जैसी अवस्थाएं प्रारंभ हो जाती है।
दक्षिण दिशा—–
मंगल ग्रह प्रधान इस दिशा को धैर्य व स्थिरता के सूचक के रूप में जाना जाता है। परंतु दूसरी तरफ मृत्यु देवता, यम, शत्रु रोग आदि के प्रवेश क्षेत्र भी इसी दिशा के अंतर्गत आते हैं, इसलिए भवन या गृह के इस दिशा के ओर की खिड़कियों या दरवाजे आदि को बंद करकर रखा जाए तो ज्यादा उत्तम होगा।
ईशान कोण—–
उत्तर-पूर्व का यह कोण गुरु ग्रह के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आता है जिस स्थान को भवन या गृह के शिखर या मुख की भी संज्ञा दी जाती है। इसलिए इस स्थान को शीतल व पवित्र रखने का विशेष निर्देश दिया गया है।
जल तत्व प्रभावित क्षेत्र होने के कारण इस स्थान को कुएं, बोरिंग, भूमिगत टंकी आदि के निर्माण या उससे संबंधित कार्यों हेतु उपयुक्त बताया गया है।
कूड़े-कचरे के ढेर, अग्नि-संबंधित कार्यों, शौचालय आदि के निर्माण के लिए इस स्थान को वर्जित बताया गया है। इस स्थान पर बालकनी, पूजा स्थान व प्रवेश द्वार का होना शुभ माना गया है।
आग्नेय कोण—–
दक्षिण-पूर्व दिशा के इस कोण को अग्नि तत्व अर्थात ऊर्जा या अग्नि के श्रोतों के रूप में जाना जाता है अग्नि प्रधान क्षेत्र होने के कारण इस स्थान को रसोई घर के निर्माण तथा बिजली मीटर या ऊर्जा से संबंधित कार्यों हेतु उपयुक्त माना गया है। इस कोण के दूषित होने से गृह के व्याधिग्रस्थ होने या अग्नि-भय आदि जैसी समस्याओं की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
नेरित्य कोण—–
दक्षिण-पश्चिम का यह कोण राहु या केतु ग्रह के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आता है। अत्यंत संवेदशील समझा जाने वाला यह क्षेत्र दुर्घटना, अपघात, शत्रुभय, भूत-प्रेत आदि शंकाओं के हेतु भी विचारणीय माना गया। घर में रह रहे मनुष्यों की वाणी, आचार-विचार, व्यवहारिकता आदि के गुण भी इसी कोण से प्रभावित होते हैं तथा इस स्थान के विकृत होने पर यहां रह रहे निवासियों के विचार कलुषित हो जाते हैं। इस ओर प्रवेश द्वार को वर्जित बताया गया है। क्योंकि यह कोण पृथ्वी तत्व है, जो स्थिरता का सूचक भी है। इसलिए शयन कक्ष के निर्माण हेतु इस जगह को अत्यंत उपयुक्त माना गया है।
वायव्य कोण—–
उत्तर-पश्चिम दिशा का यह कोण वायु स्थान का सूचक है तथा व्यवहारों में परिवर्तन, पारिवारिक, सामाजिक आदि संबंधों के हेतु भी इसे विचारणीय कहा गया है। लंबी आयु व उत्तम स्वास्थ्य शक्ति के लिए इस स्थान का विकृत रहित होना अत्यंत अनिवार्य है। राशन-भंडार, मेहमानों के रहने, मनोरंजन से संबंधित आदि कार्यों के हेतु यह जगह उपयुक्त मानी गई है।
दक्षिण-पश्चिम का यह कोण राहु या केतु ग्रह के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आता है। अत्यंत संवेदशील समझा जाने वाला यह क्षेत्र दुर्घटना, अपघात, शत्रुभय, भूत-प्रेत आदि शंकाओं के हेतु भी विचारणीय माना गया।
घर में रह रहे मनुष्यों की वाणी, आचार-विचार, व्यवहारिकता आदि के गुण भी इसी कोण से प्रभावित होते हैं तथा इस स्थान के विकृत होने पर यहां रह रहे निवासियों के विचार कलुषित हो जाते हैं।
—–गृह या भवन के सम्मुख दूध व काटों वाले पेड़-पौधे या झाड़ी आदि न हों। .
—-जल प्रवाह सर्वदा उत्तर-पूर्व दिशा की ओर होनी चाहिए। .दुकान, फैक्ट्री, भवन या गृह के सम्मुख किसी भी प्रकार का द्वार वेध न हो। .
—-ईशान कोण की दिशा से सटाकर मच्छरदानी की डंडियां झाडू या गंदी वस्तु आदि न रखें। .गृह या भवन के पूर्व दिशा की ओर ऊंचे वृक्ष आदि न हों। .
—–सीढ़ियों के नीचे शौचालय का निर्माण न करें। .
—-तीन द्वार एक सीध में न हो तथा मुख्य द्वार अन्य द्वारों से बड़ा हो। .
——उत्तर दिशा की ओर सिर रखकर सोने को अत्यंत हानिकारक माना गया है। अतः सोते समय सिर को पृथ्वी पर इस प्रकार मानी गयी है कि उसका सिर ईशान कोण में नीचे की ओर मुख करके है पैर सिकुड़े हुए पंजे र्नैत्य कोण में है दोनों भुजायें आग्नेय व वायव्य कोण में है।
क्या उपाय करें जब हो वास्तु-दोष—–
—-पूर्व दिशा में यदि कोई दोष उत्पन्न हो रहा हो तो इस दिशा की ओर अभिमंत्रित सूर्य यंत्र को स्थापित करें। .
—-पश्चिम दिशा की ओर यदि किसी भी प्रकार का वास्तु-दोष उत्पन्न हो रहा हो तो इस ओर शनि यंत्र को स्थापित करें। .
—–उत्तर दिशा की ओर यदि वास्तु दोष उत्पन्न हो रहा हो तो इस ओर बुध व कुबेर यंत्र को स्थापित करना अत्यंत लाभप्रद होता है। .
—–दक्षिण दिशा की सकारात्मकता को बरकरार रखने हेतु मंगल यंत्र अत्यंत लाभप्रद माना गया है। .
—-ईशान कोण में जल से संबंधित कार्य यदि न हो रहे हों तो पीले धातु या वस्तु के पात्र में जल भर कर सर्वदा इस स्थान पर रखें तथा इस कोण की दीवार पर गुरु यंत्र को स्थापित करें। .
——आग्नेय कोण में उत्पन्न दोष को दूर करने हेतु इस कोण पर लाल बल्ब को सर्वदा जला कर रखें तथा इस स्थान की दीवार पर शुक्र यंत्र को स्थापित करें। .
——वायव्य कोण में उत्पन्न दोष को कम करने हेतु इस कोण की दीवार पर चंद्र यंत्र को स्थापित करें। .
—-नेरित्य कोण को दोषमुक्त रखने के लिए इस कोण की दीवार पर संयुक्त राहु-केतु तथा महामृत्युंजय यंत्र को स्थापित करें।

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  1. मकान बनाने के लिए प्लाट पर पिलर के लिए पहला गढ्ढा कौन सा खोदना चाहिए ?

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