॥ गुरुष्टकम् ॥—–


शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (.)
भावार्थ : जिस व्यक्ति का शरीर सुन्दर हो, पत्नी भी खूबसूरत हो, कीर्ति का चारों दिशाओं में विस्तार हो, मेरु पर्वत के समान अनन्त धन हो, लेकिन गुरु के श्रीचरणों में यदि मन की लगन न हो तो इन सभी उपलब्धियों का कोई महत्व नहीं होता है।


कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (.)
भावार्थ : पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि पूर्व जन्म के फल स्वरूप सहज-सुलभ हो लेकिन गुरु के श्रीचरणों में मन की लगन न हो तो इन सभी प्रारब्ध-सुख का कोई महत्व नहीं होता है।


षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (.)
भावार्थ : सभी वेद एवं सभी शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, अति सुन्दर कविता स्वरूप निर्माण की प्रतिभा हो, लेकिन गुरु के श्रीचरणों में लगन न हो तो इन सभी सदगुणों का कोई महत्व नहीं होता है।


विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (4)
भावार्थ : देश विदेश में सम्मान मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उसका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्ति न हो तो इन सभी सदगुणों का कोई महत्व नहीं होता है।


क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (5)
भावार्थ : जिन महानुभाव के चरण-कमल पृथ्वी-मण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित होते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इन सभी सदभाग्य का कोई महत्व नहीं होता है।


यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्ज गद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (6)
भावार्थ : दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिग-दिगान्तरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपा दृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य प्राप्त हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्ति भाव न रखता हो तो इन सभी ऎश्वर्यों का कोई महत्व नहीं होता है।


न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (7)
भावार्थ : जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्री सुख से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की दृड़ता कोई महत्व नहीं होता है।


अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (8)
भावार्थ : जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भंडार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये तो उसकी सारी अनासक्तियों का कोई महत्व नहीं होता है।


अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक्स मालिंगिता कामिनी यामिनीषु।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥ (9)
भावार्थ : अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों का कोई महत्व नहीं होता है।


गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लभेत् वांछितार्थ पदं ब्रह्मसंज्ञं गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्॥ (1.)
भावार्थ : जो यती, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी निश्चित रूप से अपने सभी इच्छायें और ब्रह्मपद दोनों को समान रूप से प्राप्त कर लेता है।


॥ हरि ॐ तत सत ॥

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