संगीतमय मधुराष्टकं—-

पद्मपुराण में भगवान् कहते हैं, हे नारद! ना तो मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ और ना ही योगियों के हृदय में। मैं तो वहीं रहता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं।
प्रस्तुत है, मधुराष्टकं का संगीतमय रूप। इसे मधुर गायक येसुदासजी ने गाया है।

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मधुराष्टकं—-

मधुराष्टकं की रचना महान वैश्न्वाचार्य श्री वल्लभाचार्यजी ने की थी। यह एक अत्यन्त सुंदर स्तोत्र है जिसमें मधुरापति भगवान् कृष्ण के सरस और सर्वांग सुंदर रूप और भावों का वर्णन है। मधुराष्टकं मूल रूप से संस्कृत में रचित है।
मधुराष्टकं में आठ पद हैं और हर पद में मधुरं शब्द का सात बार प्रयोग किया गया है। ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि कृष्ण साक्षात् माधुर्य और मधुरापति हैं। किसी भक्त ने कहा है कि यदि मेरे समक्ष अमृत और श्रीकृष्ण का माधुर्य रूप हो तो मैं श्रीकृष्ण का माधुर्य रूप ही चाहूँगा क्योंकि अमृत तो एक बार पान करने से समाप्त हो जाएगा लेकिन भगवान् का माधुर्य रूप तो निरंतर बढ़ता ही जाएगा। भगवान् के माधुर्य रूप की ऐसी महिमा है। 
प्रस्तुत है, श्री वल्लभाचार्यजी कृत  मधुराष्टकं—-


अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरं।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥१॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरं ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥२॥
वेणुर्मधुरो रेनुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥३॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥४॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं, हरणं मधुरं रमणं मधुरं ।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥५॥
गुंजा मधुरा माला मधुरा, यमुना मधुरा वीचीर्मधुरा ।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥६॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा, युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं।
दृष्टं मधुरं सृष्टं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥७॥

गोपा मधुरा गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।
दलितं मधुरं फ़लितं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥८॥ 

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