क्या पितृ दोष का कारण मंगल हैं ????

क्या हैं पितृ दोष ?  यदि हमारे पूर्वजों ने किसी प्रकार के अशुभ कार्य किये हो एंव अनैतिक रूप से धन एकत्र किया हो तो उसके दुष्परिणाम आने वाली पीढि़यों को भोगने पड़ते हैं, क्योंकि आगे आने वाली पीढि़यों के भी कुछ ऐसे अशुभ कर्म होते हैं कि वे उन्ही पूर्वजों के यहाँ पैदा होते हैं। अतः पूर्वजों के कर्मा के फलस्वरूप आने वाली पीढि़यों पर पड़ने वाले अशुभ प्रभाव को पितृ-दोष कहा जाता है। पितृ-दोष या गुण पीढ़ी दर पीढ़ी संक्रमित होते रहते हैं। हमें अपने पूर्व जन्मों के कर्मो के अनुसार ही उस वेश, उस जाति, उस परिवार एवं उस माता-पिता के यहाँ ही जन्म लेना पड़ता हैं, जिनसे पूर्व जन्मों में हमारे सम्बन्ध रहे हैं, एवं उनके साथ रहकर उनकी स्वीकृति अथवा सहयोग से हमने पाप या पुण्य कर्म किये होते हैं। चूंकि मंगल का संबंध रक्त से होता हेै जो पितृदोष का कारक माना जाता हैं । रक्त कम हो जाना, पितृदोष में आया मंगल रक्त की कमी करके संतान पैदा करने की शक्ति का हनन करता हैं। 
भूतकाल से वर्तमान काल तक आती हुई अनन्त भविष्य तक गतिशील पीढि़यों के स्वभाव तो होते ही हैं पेतृक भी होते हैं। कुछ पैतृक चिन्ह व स्वभाव आश्र्चय जनक होते हैं। जैसे – प्रायः व्यक्ति का चेहरा स्पष्ट हो जाता हैं कि यह व्यक्ति अमुक का पुत्र या भाई हैं। इसी प्रकार कई बार पिता – पुत्र की वाणी बात करने के लहजे में अद्भुत समानता देखने में आती हैं। जब व्यक्ति अपने कर्म फल लेकर मानव योनि में उत्पन्न होता हैं तब परिवार वाले उसकी कुण्डली बनवाते हैं। कुण्डली विवेचन कर ज्योतिषी उसके पूर्व जनम के कर्माे का परिणाम धोषित करता हैं। कुछ ज्योतिषी जातक की कुण्डली में पितृ-दोष की सूचना देनेे में छाया ग्रह राहु – केतु की प्रमुख भुमिका मानते है। राहू – केतु जहाँ पितृ-दोष के सूचक प्रमुख घटक ग्र्रह हैं, तो वहीं यह दोनों ग्रह स्पष्टतया ’’ काल सर्प योग ’’ की भी धोषणा करते हैं, अर्थात राहु-केतु ही ’’पितृ-दोष’’ और ’’काल सर्प ’’ योग के प्रमुख घटक हैं। दोनों ही दोष जातक के पितरों व उसके स्वंय के पूर्व जन्म  व जन्मों में किये गये अशुभ कर्मो का ही परिणाम होते हैं। इनके कारण वंश वृद्धि तक रूक जाती है। इस प्रकार देखें तो पितृ-दोष और काल सर्प योग में कोई अन्तर नहीं हैं। पितृ-दोष को दूर करने के लिए किसी भी प्रकार के उपायों के उपक्रम में पारिवारिक सम्बन्धों को सुधारना प्राथमिक आवश्यकता हैं। यदि कोई यह चाहे कि अपने माता-पिता आदि का तिरस्कार करते हुए या कष्ट देेते हुये इन दोषों को किसी पूजा, टोटके या दान आदि से दूर कर लेगा तो उस जातक के दोष दूर करने के स्थान पर बढ़ते जायेगें। पितृ-दोष के कारण जातक का मन पूजा पाठ में नहीं लगता और जातक को नास्तिक बनाता हैं। ईश्वर के प्रति उनकी आस्था कम हो जाती हैं, स्वभाव चिड़चिड़ा, जिद्दी और क्रोधी हो जाता हैं। धार्मिक कार्यो को मात्र ढकोसला मानते हैं। कुछ लोग किसी ग्रह के शुभ होने से पूजा विधान कराना तो चाहते हैं किन्तु धन के अभाव में उन्हें टालते रहते हैं। 
अकाल मृत्यु ही पितृदोष का मुख्य कारक बनती हैं। अकाल मृत्यु यानी समय से पहले ही किसी दुर्घटना का शिकार हो जाना, ब्रह्मलीन हो जाना हैं। इस अवस्था में मृत आत्मा तब तक तड़फती रहती हैं जब तक की उस की उम्र पूरी नहीं होती हैं। उम्र पूरी होने के बाद भी कई मृत आत्माएँ भूत, प्रेत, नाग आदि बनकर पृथ्वी पर विचरण करती रहती हैं और जो धार्मिक आत्माएँ रहती हैं वो किसी को भी परेशान नहीं करती बल्कि सदैव दूसरों का भला करती हैं। लेकिन दुष्ट आत्माएँ हमेशा दूसरों को दुःख, तकलीफ ही देती रहती हैं। हमारे पूर्वज मृत अवस्था में जो रूप धारण करते है वह तड़पते रहते हैं। और आकाश में विचरण करते रहते हैं। न उन्हें पानी मिलता हैं और ना ही खाने के लिए कुछ मिलता हैं। वह आत्माएँ चाहती हैं कि उनका लडका, पोता, पोती या पत्नी इनमें से कोई भी उस आत्मा का उद्धार करे। इसलिए वे आत्माएँ पुत्र या पोते के जीवन में घनघोर संकट के रूप में सामने दिखाई देने लगती हैं, जो कि पितृ-दोष का मुख्य कारण बन जाती हैं। पितृ-दोष परिवार में एक को ही होता हैं। जो भी उस आत्मा के सबसे निकट होगा, जो उसे ज्यादा चाहता होगा वही उसका मुख्य पात्र बनता हैं। 
जब हम किसी विद्वान पण्डित को कुण्डली या हाथ दिखाते हैं तो वह पितृ-दोष उसमें स्पष्ट आ जाता हैं। हाथ में पितृ-दोष, गुरू पर्वत और मस्तिष्क रेखा के बीच में से एक लाईन निकलकर जाती हैं जो कि गुरू पर्वत को काटती हैं यह पितृ-दोष का मुख्य कारण बनती हैं। पितृ-दोष को ही काल सर्प योग कहते हैं। काल सर्प योग पितृ-दोष का ही छोटा रूप माना जाता हैं। पितृ-दोष को मंगल का कारक भी कहा गया हैं क्योंकि कुण्डली में मंगल को खुन के रिश्ते से जोड़ा गया हैं। इसलिए पितृ-दोष मंगल दोष भी होता हैं जो कि शिव आराधना से दूर होता हैं।
  काल सर्प के बारे में एक कथा प्रचलित हैं कि जब समुद्र मंथन हुआ था तो उसमें से चैदह रत्नों की प्राप्ति हुई, उसमें से एक रत्न अमृत के रूप में भी निकला। जब अमृत निकला तो इसे ग्रहण करने के लिए देवताओं और राक्षसों में युद्ध छिड़ने लगा तब भोलेनाथ ने समझा-बुझाकर दोनों को पंक्ति में बैठने को कहा, विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर अमृत का पात्र अपने पास लेकर सभी को अमृत पान कराना आरम्भ किया। चालाक विष्णु ने पहले देवताओं वाली पंक्ति में अमृत पान कराना आरम्भ किया, उसी समय एक दैत्य देवताओं की इस युक्ति को समझ गया और देवता का रूप बनाकर देवता वाली पंक्ति में बैठकर अमृत पान कर लिया, जब सूर्य और चन्द्र को पता लगा तो उन्होनें विष्णु से इस बात की शिकायत की, विष्णु जी को क्रोध आया और उन्होनें सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। सुदर्शन चक्र ने उस राक्षस के सर को धड़ से अलग कर दिया, क्योंकि वह अमृत पान कर चुका था इसलिए वह मरा नहीं ओर दो हिस्सों में बंट गया। सर राहु और धड़ केतु बन गया लेकिन जब उसका सर कटकर पृथ्वी पर गिरा तब भरणी नक्षत्र था और उसका योग काल होता हैं, जब धड़ पृथ्वी पर गिरा तब अश्लेशा नक्षत्र था जिसका योग सर्प होता हैं। इन दोनों योग के जुड़ने से ही काल सर्प योग की उत्पत्ति हुई। 
पंचमेश और लाभेश भाव में आया राहु, केतु पितृदोष का निर्माण करता हैं एवं शत्रु भाव में आया और व्यय भाव में आया राहु , केतु भी जातक की कुण्डली में पितृ-दोष का कारक माना जाता हैं। यदि इन दोनों भावों में चन्द्र $ केतु और राहु , केतु की युति आती हैं तो उस जातक का भगवान ही मालिक होता हैं। इसके कारण पारिवारिक कलह , व्यवसाय में व्यवधान , पढ़ाई में मन न लगना , सपने आना, सपनों में नाग दिखना, पहाड़ दिखना, पूरे हुए कार्य का बीच में बिगड़ जाना , आकाश में विचरण करना , हमेशा अनादर पाना, मन में अशान्ति रहना , शान्ति में व्यवधान , कौआ बैठना , कौओं का शोरगुल हमेशा अपने घर के आस-पास होना पितृ-दोष (कालसर्प योग) की निशानी होेता हैं। इसका उपाय किसी विद्वान पण्डित से ब्रह्म सरोवर, पुष्कर (राजस्थान) या उज्जैन जाकर शिप्रा किनारे सिद्ध वट पर पूजा अर्चना कर पितृ शान्ति करवानी चाहिए। पितृ-दोष , काल सर्प या नारायण बली का निवारण किसी अच्छे व योग्य पण्डित के द्वारा ही करवाना चाहिए । 
पितृ-दोष निवारण के उपाय: – 
. प्रतिदिन ‘‘सर्प सूक्त‘‘ का पाठ भी कालसर्प योग में राहत देता हैं । 
. ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें , नाग पंचमी का वृत करें, नाग प्रतिमा की अंगुठी पहनें । 
. कालसर्प योग यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नित्य पूजन करें । घर एवं दुकान में मोर पंख लगाये । 
4 ताजी मूली का दान करें । मुठ्ठी भर कोयले के टुकड़े नदी या बहते हुए पानी में बहायें । 
5 महामृत्युंजय जप सवा लाख , राहू केतु के जप, अनुष्ठान आदि योग्य विद्धान से करवाने चाहिए । 
6 नारियल का फल बहते पानी में बहाना चाहिए । बहते पानी में मसूर की दाल डालनी चाहिए। 
7 पक्षियों को जौ के दाने खिलाने चाहिए । 
8 शिव उपासना एवं रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल हो जाता हैं । 
9 सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के दिन सात अनाज से तुला दान करें । 
1. 72000 राहु मंत्र ‘‘ऊँ रां राहवे नमः‘‘ का जप करने से काल सर्प योग शांत होता हैं । 
11 राहु एवं केतु के नित्य 108 बार जप करने से भी यह योग शिथिल होता हैं । राहु माता सरस्वती एवं    केतु श्री गणेश की पूजा से भी प्रसन्न होता हैं । 
12 हर पुष्य नक्षत्र को महादेव पर जल एवं दुग्ध चढाएं तथा रूद्र का जप एवं अभिषेक करें । 
13 हर सोमवार को दही से महादेव का ‘‘ऊँ हर-हर महादेव‘‘ कहते हुए अभिषेक करें । 
14 राहु-केतु की वस्तुओं का दान करें । राहु का रत्न गोमेद पहनें । चांदी का नाग बना कर उंगली में    धारण करें । 
15 शिव लिंग पर तांबे का सर्प अनुष्ठानपूर्वक चढ़ाऐ। पारद के शिवलिंग बनवाकर घर में प्राण प्रतिष्ठित करवाए । 
16 लाल मसुर की दाल और कुछ पैसे प्रातःकाल सफाई करने वाले को दान करे । कुछ कोयले पानी में बहावें । 
17 नारायणबली, नागबली अथवा त्रिपिण्डी श्राद्ध करें इससे कुछ लाभ मिलता हैं । यह अनुष्ठान ब्रह्म सरोवर पुष्कर (राजस्थान), सिद्धवट, उज्जैन (म0प्र0), गया, तक्षकपीठ (इलाहाबाद संगम) , विश्व प्रसिद्ध तिरूपति बाला जी के पास काल हस्ती शिव मंदिर में भी कालसर्प योग शान्ति कराई जाती हैं। त्रयंबकेश्वर में व केदारनाथ में भी शान्ति कराई जाती हैं । गेहूॅ या उड़द के आटे की सर्प मूर्ति बनाकर एक साल तक पूजन करने और बाद में नदी में छोड़ देने तथा तत्पश्चात नाग बलि कराने से काल सर्प योग शान्त होता हैं । 
18 पितरों के मोक्ष का उपाय करें । श्राद्ध पक्ष में पितरों का श्राद्ध श्रृृद्धा पूर्वक करना चाहिए । 
19 कुलदेवता की पूजा अर्चना नित्य करनी चाहिए ।
20 यदि वैवाहिक जीवन में बाधा आ रही हो तो पत्नि के साथ सात शुक्रवार नियमित रूप से किसी देवी मंदिर में सात परिक्रमा लगाकर पान के पत्ते में मक्खन और मिश्री का प्रसाद रखें । पति पत्नि एक -एक सफेद फूल अथवा सफेद फूलों की माला देवी माँ के चरणों में चढाए । 
21 नाग योनी में पड़े पित्रों के उद्धार तथा अपने हित के लिए नागपंचमी के दिन चाॅदी के नाग की पूजा करें। 
22 अपने शयन कक्ष में लाल रंग की चादर, तकिये का कवर, तथा खिड़की दरवाजोे में लाल रंग के ही पर्दो का उपयोग करें । 
23 हानि एवं हीन भावना से बचने हेतु हिंजड़ों को वर्ष में एक या दो बार नवीन वस्त्र, फल, मिष्ठान, सुगंधित तेल आदि का दान करें । 

  पं0 दयानन्द शास्त्री 
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,  
पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार, 
झालरापाटन सिटी (राजस्थान) 326023
मो0 नं0ण्ण्ण् .

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