भोजन मोन रहकर क्यों करें..????
खाते समय न बोलना इसलिए अच्छा है कि मुंह की जूठन दूसरे पर नहीं पड़ती। बातचीत करने में प्रायः ऐसा
होता ही है। स्वच्छता में कमी आती है। बात तो ठीक है कि भोजन काल में मौन रहना चाहिये। पर सवाल है कि मौन रहें कैसे?
श्रीमती जी को वही तो मौका मिलता है बोलने का।
घर भर की दास्तान सुनाने का। शिकायतों का दफ्तर खोलने का इससे उत्तम अवसर और कब मिलेगा? कभी
कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि खाने वाला भोजन करता तो जाता है, पर मूड उल्टे अनेक आवेशों से भर उठता है।
ऐसे आवेशों की बड़ी बुरी प्रतिक्रियाएँ हो सकती है। माता यदि क्रोधावेश में शिशु को दूध पिलाये तो शिशु को कभी-कभी भारी शारीरिक हानि उठानी पड़ती है और लीजिये आदमी ही तो है, खाना बनाने वाला या बनाने वाली। कभी गलत अंदाज हो गया। कभी दाल में नमक तेज, कभी रोटी जल गई, कभी गैस तेज होने से जलकर कड़वी हो गई। खाने वाले की रूचि कुछ है, खाने के लिए थाली में आ गया है कुछ और! वास्तव में यह निर्भर करता है रसोई बनाने वाले या बनाने वाली पर कि उसने कितनी मेहनत और मनोयोग
से खाना बनाया है, इसका उपकार मानना तो दूर, हम ऐसे मौंकों पर अपना मानसिक संतुलन तक खो बैठते हैं।
मौन रहकर भोजन करो, शांतिपूर्वक भोजन करो और अन्न का ठीक ढंग से परिपाक होगा। अन्न अंग लगेगा। स्वास्थ्य सुधरेगा। प्रत्येक कौर के साथ ऐसी भावना रखने का भी विधान है कि इस अन्न-जल द्वारा, इसके कण-कण द्वारा मेरे शरीर का कण-कण स्वस्थ, पुष्ट व पवित्र बनता चल रहा है। प्रभु का यह प्रसाद परम आनन्दमय है। संत बिनोबा कहते थे- ‘भोजन करते समय बात करना आरोग्य, स्वच्छता, सभ्यता आदि की दृष्टि से ठीक नहीं। भोजन भोग का विषय है ही नहीं। भोजन के हर ग्रास के साथ नामस्मरण होना चाहिए। यह एक यज्ञकर्म है। इसके रोकने का एक उत्तम उपाय है-
‘‘भोजन काल में मौन!’’
पर ऐसा मौन नहीं, जिसका एक संस्मरण यों है- ‘‘एक मित्र भोजन के समय
मौन का रहस्य खोलते हुए बोले- हम भोजन के समय झूठ बोलना या गाली गुफता करना नहीं चाहते। इसलिए चुप्पी साधकर बैठ जाते हैं।’’ मैने कहा गाली गलौज करने के लिए कौन कहता है? और झूठ बोलने का भी क्या प्रयोजन है? वे बोले भाई हमसे रहा नही जाता। मुंह से बरबस क्रोध भरे शब्द निकल ही जाते हैं और झूठ बालने की तो कुछ आदत ही हो गई है।’
भोजनकाल में मौन का अर्थ है- खाने के लिए जो मिल जाय, जितना मिल जाय उसे आदरपूर्वक, प्रेमपूर्वक, शांतिपूर्वक, प्रभु का प्रसाद मानकर ‘पा’ लिया जाय। शांतचित्त से भोजन किया जाय। न किसी प्रकार का क्षोभ पनपने दें, न चिंता।
प्रभु ने जैसा भी प्रसाद आज भेजा है, मेरे सिर माथे। और प्रसाद में-‘मीठा और सलोना क्या रे!’ इसका तो कण-कण पवित्र है, रससिक्त है अमृत है। त्रिलोक का स्वाद भरा पड़ा है इसमें! जिस ने भोजन बनाया और जिसने परोसा है मेरे लिए इतना कष्ट उठाया है, वह उपकारी है, उसका मैं आभारी हूँ, परम आभारी हूँ। यह है भोजनकाल में मौन की रीति-नीति। यही है भोजन को ‘यज्ञकर्म’ बनाने की पद्धति। भोजनकाल में मौन धारण करना कठिन भी है, सरल भी। परंतु अभ्यास से कठिनता जाती रहती है और तितिक्षा का अभ्यास हो जाता है। थोडे़ से समय की इस साधना में …
निम्नलिखित नियमों से सहायता मिल सकती है-
## परोसने वाले को तथा आसपास बैठने वालों को बता देना चाहिए कि मैं भोजन काल में मौन रहता हूँ। आग्रह करके मेरे लिए अधिक न परोसा जाय।
## अपनी रूचि की वस्तु कम मिले या न मिले तो उसका लालच छोड़ दें।
## सात्विक भोजन को भगवान को समर्पित कर भोजन प्रारंभ करें।
## परोसने वाले की बातों में या आसपास वालों की बातों में रस लेकर अपने चित्त पर उसका असर न ने दें।
## थाली साफ करने के चक्कर में न पड़ें अपनी आवश्यकता पूरी होते ही भोजन बंद कर दें। भोजन काल में
मौन के अभ्यास से शारीरिक स्वास्थ्य तो सुधरेगा ही, मानसिक शांति भी मिलेगी बशर्ते हम भोजन को ‘भोग’ न मानकर ‘प्रभु-प्रसाद’ मानें।
## जो, जैसा, जितना भोजन मिल जाय, उसी में संतोष मानें। उसकी मन में भी आलोचना न करें। शांत और प्रसन्न भाव रखकर भोजन करें।
## नमक पानी आदि जिन पदार्थों की अपने को प्रायः आवश्यकता पड़ती हो, उन्हे भोजन के समय अपने
निकट रख लें।
पं. दयानन्द शास्त्री
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,
पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार,
झालरापाटन सिटी (राजस्थान) ..6023
मो0 नं0 … .

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