वास्तु शास्त्र में ईशान  कोण के शुभ -अशुभ लक्षण
ईशान दिशा के अनुरूप भवन

वास्तु का अर्थ है वास करने का स्थान। महाराज भोज देव द्वारा ग्यारहवीं शताब्दी में ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक ग्रंथ लिखा गया था जो वस्तु शास्त्र का प्रमाणिक एवं अमूल्य ग्रथं है। वैसे वास्तु शास्त्र कोई नया विषय या ज्ञान नहीं है। बहुत पुराने समय से यह भारत में प्रचलित था। जीवनचर्या की तमाम क्रियाएं किस दिशा से संबंधित होकर करनी चाहिए इसी का ज्ञान इस शास्त्र में विशेष रूप से बताया गया है। भूमि, जल प्रकाष, वायु तथा आकांश नामक महापंच भूतों के समन्वय संबंधी नियमों का सूत्रीकरण किया, ऋशि मुनियों ने। पूर्व दिशा के परिणाम बच्चों को प्रभावित करते हैं। जिन भवनों में पूर्व और उत्तर में खाली स्थान छोड़ा जाता है, उनके निवासी समृद्ध और निरोगी रहते हैं। मकान के उत्तर और पूर्व का स्थल दूर से ही उनके निवासियों के जीवन स्तर की गाथा स्वयं स्पश्ट कर देते हैं।सभी जानते हैं दिशाएं चार होती हैं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर-दक्षिण। जहां दो दिशाएं मिलती हैं वह कोण कहलाता है। व्यवसायिक स्थलों में यदि ईषान कोण दूशित हो तो वहां कार्यरत कर्मचारियों में एक प्रकार का लचीलापन दिखाई देता है। यानि अनुषासनहीनता रहेगी जिससे प्रतिश्ठान चाह कर भी अनुकूल तरक्की नहीं कर पाते। व्यवसायिक स्थलेां में दुकान में ईषान कोण में घड़ीसाज को बैठाना, मोची का कार्य करने वाले को किराये पर देना, पी.सी.ओ. लगाना, पान व चाय की थड़ी लगाना अथवा ईषान कोण से सीढि़यों को निर्माण करवाना इत्यादि से ईषान कोण दूशित हो जाता हेै। जिसके परिणाम स्वरूप वहां पर कार्यरत कर्मचारियों में जरूरत से ज्यादा वाणी का प्रयोग, व्यर्थ का खर्च इत्यादि होने से एकाग्रता में कमी रहती है। इसी प्रकार औद्योगिक इकाईयों में जहां ईषान कोण दूशित कर दिया जाए तो इकाईयों में आये दिन कार्यावकाष रहना, आर्थिक नुकसान का होना, मानसिक उत्कण्ठा से वादा खिलाफी होना, धोखे होना, अचानक मषीनों का बार बार खराब होना व माल का सही समय पर प्रोसेसिंग न होना इत्यादि कारण सम्भवतः देखे जा सकते है। 
पूरे भवन की चारदीवारी एवं फर्ष को सतह में पूर्वी और उत्तरी भाग सबसे नीचा रखना चाहिए। पूर्वी भाग जितना नीचा होगा गृहस्वामी को उतनी ही शांति और सुख प्राप्त होगा। किसी भी औद्योगिक संस्थान का टीन सेट का ढाल हमेशा पूर्वी या उत्तर की तरफ ही होना चाहिए। बरसात का पानी इकट्ठा होकर पूर्वी ईशान से बाहर निकल जाना चाहिए। मध्य पूर्व से ईशान एवं मध्य उत्तर से ईशान में तहखाने का निर्माण करवा सकते हैं। अन्य किसी भी बेसमेंट का निर्माण वर्जित है। पानी से संबंधित कार्य पूर्व दिशा की तरफ होने चाहिए। भवन के पूर्व व उत्तर में चारदीवारी से थोड़ा स्थान छोड़कर निर्माण करवाना चाहिए। पूर्व की तरफ वाले हमेशा छोटे और पश्चिम व दक्षिण की तरफ वाले कमरे बड़े एवं ऊंचे बनवाने चाहिए।वास्तु शास्त्र अनुसार पूर्वी ईशान, उत्तरी ईशान, दक्षिणी आग्नेय एवं पश्चिमी वायव्यं में मुख्य द्वार, खिड़की, दरवाजे का निर्माण करवाना चाहिए। भवन में दरवाजे, खिड़की सम संख्या में होने चाहिए। खिड़कियां पूर्व और उत्तर में अधिक बनवाएं। दक्षिण पश्चिम में खिड़किया, दरवाजे कम होने चाहिए।भवन निर्माण में नींव खुदाई आरंभ करने से लेकर भवन पर छत पड़ने तक भूखंड के चारों दिशाओं के कोण 9. डिग्री के कोण पर रहे तभी भवन निर्माण कर्ता को वास्तु शास्त्र के सर्वोत्तम शुभदायक परिणाम प्राप्त होंगे। भवन निर्माण में जहां दिशा का महत्व है, कोणों का महत्व उसमें कहीं अधिक होता है, क्योंकि कोण दो दिशाओं के मिलन से बनता है। हानि-लाभ, परिणाम भी दोहरा ही प्राप्त होता है। सभी जानते हैं दिशाएं चार होती हैं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर-दक्षिण। जहां दो दिशाएं मिलती हैं वह कोण कहलाता है। 
ईशान कोणः पूर्वी दिशा के उत्तर की तरफ वाले भाग को पूर्वी ईषान तथा उत्तरी दिशा में पूर्वी दिशा की तरफ वाले भाग को उत्तरी ईशान कहते हैं। 
ईशान कोण के शुभ-अशुभ प्रभाव: ईशान में गृहस्वामी एवं वाले बच्चे प्रभावित होते हैं। यह ऐश्वर्य, सुख, समृद्धि, वंशवृद्धि एवं बुद्धिमान संतान प्रदान करता है। वास्तु अनुसार ईशान का बहुत महत्व है। ईशान दिशा में मुख्य द्वार रखने से मकान, कारखाना, कार्यालय निवासी अत्यंत वैभव पूर्वक धन संपत्ति प्राप्त करते हैं उनकी संतान अत्यंत होषियार और मेधावी होती है। ईशान दिशा में भूखंड के पास नदी, तालाब, नहर, कुआं हो तो उस भूखंड मालिक की संपन्नता में वृद्धि और आकस्मिक धन दौलत प्राप्त होती है।
ईशान दिशा पूर्व की ओर बढ़ती हो, तो उस मकान के निवासी धनवान और दयालु होंगे। यदि उत्तर दिशा में मार्ग प्रखर हो तो उनकी सभी मनोकामना पूर्ण होती है। ईशान दिशा को कभी भी निर्माण से ढंकना नहीं चाहिए। पूरे मकान का जल ईशान दिशा में से होकर बाहर जाना चाहिए, उस मकान मालिक को वंश की वृद्धि के साथ ऐष्वर्य भी प्राप्त होगा। भवन निर्माणकर्ता को ईशान की आरंभ में ही सावधानी से रक्षा करनी चाहिए। ईशान कटा हुआ नहीं होना चाहिए। ईशान में वास्तु संबंधी त्रुटियां हों और शेष सभी दिशाओं में वास्तु अनुसार निर्माण हुआ हो उस ग्रह स्वामी का  विकास संभव नहीं होगा। सारी आमदनी खर्चों में पूरी हो जाएगी। ईशान कोण वाली दिशा में देवालय, देव पूजा, मंदिर पूर्व उत्तर ईशान कोण में ही बनवाएं। 
उत्तर ईशान उच्च कोटि का प्रभावी भाग है। यदि किसी आवासीय भवन, औद्योगिक संस्थान, व्यावसायिक परिसर का मुख्य द्वार उत्तरी ईशान कोण में बनवाया जाए तो उस भवन मालिक को अनेकों प्रकार से लाभ होता है। मानो उसके भाग्य खुल जाते हैं। उत्तरी ईशान मुख्य द्वार रखने से उत्तरी पूर्वी भाग खाली और हल्का रहेगा जो स्वास्थ्य की दृश्टि से उत्तम है। घर के अन्य द्वार भी पूर्वी ईशान या उत्तरी ईशान में बनवाएं। मकान के पूर्व में या उत्तर में आम रास्ता हो तो वह शुभ होता है। घर से निकलने पर मार्ग उत्तर दिशा की तरफ हो तो अधिक शुभ होता है।ईशान में उत्तर की ओर कटाव तथा चारदीवारी से ही निर्माण होने पर घर की महिलाएं अस्वस्थ पीडि़त एवं  आर्थिक कारणों से चिंतित रहेगी। किसी भी भवन के ईशान में वास्तु दोष होगा, तो नेऋत्य में भी वास्तु दोष होगा ही। पहले ईशान में वास्तु दोष दूर करवाना चाहिए, बाद में नेऋत्य का वास्तु दोष दूर करना चाहिए। किसी गृहस्थ के भवन में किसी भी दिशा में वास्तु दोष होगा, तो उसी दिशा में उनकी फैक्ट्री आॅफिस, व्यावसायिक प्रतिष्ठान में भी दोष होगा, यह अटूट सत्य है। कहीं भवनों का व्यापारिक प्रतिष्ठानों का निरीक्षण करने पर यह बात 90 प्रतिशत सही पाई जाती है। जिस व्यक्ति के घर का ईशान कोण और नेऋत्य कोण पूर्ण रूप से वास्तु अनुसार हो, तो गृहस्थ का कमजोर भाग्य भी शक्तिशाली हो जाती है। ईशान कोण के तरफ वाले कमरे को शयन कक्ष के लिए उपयोग में नहीं लाना चाहिए। इस कमरे में बच्चों को पढ़ाने की व्यवस्था करनी चाहिए। इससे बच्चे, मेधावी, होनहार आदेश का पालन करने वाले होगे।ईषान कोण को पवित्र, साफ सुथरा, बिना काट छांट के, अपेक्षाकृत हल्का व ढलान युक्त रखना नितान्त आवष्यक है। भवन निर्माण में इसी अनुरूप प्रारूप तैयार करवा कर उचित मार्गदर्षन से वास्तुपूरक भवन में रहवासियेां को नैसर्गिक अनुकूलता प्राप्त होती है। जिससे समरूपता से कार्यषील रहकर षान्त, प्रफुल्लित व सदैव प्रसन्नचित रहना नियति बन जाती है वरना प्रष्नचित होकर जीवनयापन करते काफी लोगों को देखा जा सकता है। ईषान कोण में नक्षे में पूजाघर, अध्ययन कक्ष, ड्राईंग रूम, पैसेज, बच्चों का कमरा, लाॅन, बगीचे बना सकते हैं। 
आठों दिशाओं में ईशान दिशा सर्वश्रेष्ठा है। अतः, ईशान खंड पर भवन निर्माण करते समय निर्माता को विशेष ध्यान देना आवश्यक है क्योंकि निर्माण में छोटी-सी भूल या वास्तु दोष इतने बढि़या भूखंड को दोषपूर्ण बनाकर नकारात्मक प्रभाव देने वाला भी बना सकती है।उत्तर ईशान उच्च कोटि का प्रभावी भाग है। यदि किसी आवासीय भवन, औद्योगिक संस्थान, व्यावसायिक परिसर का मुख्य द्वार उत्तरी ईशान कोण में बनवाया जाए तो उस भवन मालिक को अनेकों प्रकार से लाभ होता है। मानो उसके भाग्य खुल जाते हैं। उत्तरी ईशान मुख्य द्वार रखने से उत्तरी पूर्वी भाग खाली और हल्का रहेगा जो स्वास्थ्य की दृश्टि से उत्तम है। घर के अन्य द्वार भी पूर्वी ईशान या उत्तरी ईशान में बनवाएं। मकान के पूर्व में या उत्तर में आम रास्ता हो तो वह शुभ होता है। घर से निकलने पर मार्ग उत्तर दिशा की तरफ हो तो अधिक शुभ होता है।

 पं0 दयानन्द शास्त्री 
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,  
पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार, 
झालरापाटन सिटी (राजस्थान) ..6023
मो0 नं0 .ए ., 

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