विवाह के संस्कार और हमारा ईश्वर—-अंशुमाली रस्तोगी 


बचपन का दौर था। तब ईश्वर में हमारी प्रबल आस्था थी। उसे आस्था न कहकर आप ‘डर’ कहें तो ज्यादा ठीक रहेगा। यह डर परीक्षाओं के दौरान और रिजल्ट आने के वक्त ज्यादा हावी हो जाया करता था। हम ईश्वर से प्रार्थना किया करते थे कि वह हमें अच्छे नंबरों से पास करा दे। 


हमारा ईश्वर कभी वह प्रार्थना सुन लेता था और कभी नहीं भी सुनता था। जब नहीं सुनता था तब उस पर बड़ा गुस्सा आता था। मन करता था अभी मंदिर जाकर उससे पूछूं कि मैं फेल कैसे हो गया, जबकि मैं तुम्हारे दरबार में हाजिरी लगाने नियमित रूप से आया करता था। 


खैर हर सोच, हर विचार का अपना एक समय होता है। धीर-धीरे उस सोच, उस आस्था से मैं पीछे हटता गया। ईश्वर और उसकी शक्ति पर कई ग्रंथ पढ़े। कुछ बातें जीवन के अनुभवों से समझीं। मिथकों से पीछे हटा। मैंने महसूस किया कि तब मैं उसके पीछे भाग रहा था, उसको सब कुछ मान रहा था, जिसको कभी देखा न था। जिसकी उत्पत्ति का कहीं कोई प्रमाण नहीं था। 


एक पौराणिक मान्यता है कि यह पृथ्वी गाय के सींग या शेष नाग के फण पर टिकी हुई है। अब आप ही बताएं कि आज के युग में क्या यह बात मानने लायक है? दरअसल, इन तर्कहीन मिथकों को गढ़ने में बहुत बड़ा योगदान पुराने जमाने के पढ़े-लिखे और शिक्षित वर्ग का रहा है। वह योगदान अब भी बना हुआ है, क्योंकि हम उनके मिथकों का प्रतिवाद नहीं करते। 


आज भी हम विवाह को किसी ईश्वरीय अनुष्ठान की तरह संपन्न कराते हैं। ईश्वर की शान में की जाने वाली तमाम बेवकूफियों में एक बेवकूफी विवाह की भी शामिल है। कहते हैं कि विवाह ईश्वर संपन्न करवाता है। वही जोड़ियां बनाता है, वही तोड़ता भी है। विवाह से पहले लड़के और लड़की के ग्रह-नक्षत्रों को मिलान कराया जाता है, ताकि उनके वैवाहिक जीवन में किसी प्रकार की अड़चन न आने पाए। कभी किसी का कोई ग्रह भारी निकल आता है, तो किसी में मांगलिक दोष पाया जाता है। फिर शुरू होती है उनके दोष-निवारण की प्रक्रिया। 


हमने विवाह को रस्मों-रिवाजों व धार्मिक अनुष्ठानों में ढालकर उसे विचार और व्यवहार दोनों से काट दिया है। विवाह के बनने-बिगड़ने के पीछे किसी ग्रह-नक्षत्र या ईश्वर का हाथ नहीं, बल्कि स्त्री-पुरुष के बीच पनपने वाली वैचारिक सहमतियां-असहमतियां होती हैं। आप वैचारिक सहमति-असहमति को किसी ईश्वरीय अनुष्ठान से नहीं जीत सकते। विवाह का आयोजन सामाजिक है, उसकी सफलता -असफलता हमारे आपसी व्यवहार और समझदारी पर निर्भर करती है। क्या मंडप में कराए जाने वाले तमाम अनुष्ठानों के बावजूद हमारे समाज में शादियां नहीं टूटतीं? क्या बहू का दहेज के लिए उत्पीड़न नहीं होता? 


दरअसल हम ईश्वर के मिथकों और अंध आस्थाओं में इस कदर उलझ – से गए हैं कि आगे का खुला रास्ता हमें दिखाई ही नहीं देता। यह .. वीं सदी है , लेकिन ईश्वर और धर्म के प्रति हमारी सोच हमें जबरन मध्यकाल में बनाए रखती है। हम पर ईश्वर का खौफ बना हुआ है। धर्म अपने कर्मकांडों के सहारे हम पर हावी है। 


आधुनिक समाज का समझदार तबका इस पर कुछ नहीं बोलना चाहता , क्योंकि वह खुद भी ईश्वर की तीसरी आंख से डरता है। लेकिन ईश्वर प्राचीन काल में ठहरा हुआ तो नहीं होगा। अगर वह उस युग के ऋषियों – मुनियों को प्रेम करता था , तो आज के लोगों को भी प्यार करता होगा। यदि उस काल में उसे जानने , पाने और प्रसन्न करने के उपाय सोचे गए थे , तो इस काल में भी सोचे जा सकते हैं – नए चलन और नए साधनों के अनु रूप।

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