ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
Om! That (Karana Brahma) is a complete whole. This (Karya Brahma) too is a complete whole. From the complete whole only, the (other) complete whole rose. Even after removing the complete whole from the (other) complete whole, still the complete whole remains unaltered and undisturbed.
OM! PEACE! PEACE! PEACE!
ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (जगत) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण (परब्रह्म) से ही पूर्ण (जगत) की उत्पत्ति होती है। तथा पूर्ण (जगत) का पूर्णत्व लेकर (अपने में समाहित करके) पूर्ण (परब्रह्म) ही शेष रहता है। त्रिविध ताप (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक) की शांति हो।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
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अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम॥१८॥
हे अग्नि देव ! हमें कर्म फल भोग के लिए सन्मार्ग पर ले चल । हे देव तू समस्त ज्ञान और कर्मों को जानने वाला है । हमारे पाखंड पूर्ण पापों को नष्ट कर । हम तेरे लिए अनेक बार नमस्कार करते है ।
O Fire (Agni)! Lead us on virtuous path to enjoy the wealth that has been accumulates on account of the good deed we performed. Oh God! You are knower of all knowledge and any action. We pray to destroy our false sins. We offer to you many may salutations.
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वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतँ शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर॥१७॥
मेरा प्राण सर्वात्मक वायु रूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो क्योकि वह शरीरों में आने जाने वाला जीव अमर है ;और यह शरीर केवल भस्म पर्यन्त है इसलिये अन्त समय में हे मन ! ओउम् का स्मरण कर, अपने द्वारा किए हुये कर्मों स्मरण कर, ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किये हुए कर्मों का स्मरण कर॥१७॥
Let my Air (Paraná) to achieve all-pervading Air, the eternal Sutratman because The Breath of all being(Atmatatva) is an immortal, and let this body be burnt by fire to aches. O mind! Remember AUM , that which was done! O mind! Remember AUM, Remember that which was done .
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पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह तेजः।
यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि॥१६॥
हे जगत पोषक सूर्य ! हे एकाकी गमन करने वाले ! , यम (संसार का नियमन करनेवाले), सूर्य (प्राण और रस का शोषण करने वाले), हे प्रजापतिनंदन ! आप ताप (दुःखप्रद किरणों को) हटा लीजिये और आपका अत्यन्त मंगलमय रूप है उस को मैं देखता हूं जो वह पुरुष (आदित्य मण्डलस्थ) है वह मैं हूं॥.6॥
Oh Sun (The one who nutritious the world)! O alone the traveler! Yama (the controller of all)! Oh son of Brahma (the creator of the Universe) I pray to you to shrink your rays into yourself so that I see your very auspicious form. Whoever is the Purusha residing here (Aditya-Mandalsth), He am I.
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हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पुषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये॥
सत्य (आदित्य मण्डलस्थ ब्रह्म) का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है । हे पूषन मुझ सत्या धर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे ।
The face of Truth is covered with golden divine light characters. O Pushan (Effulgent Being)! Debunk it for me (the one who is in search of Truth) to make the achievement of Supreme Being.
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सम्भुतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह ।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूयामृतमश्नुते ॥
जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति) और संभूति (हिरण्य गर्भ ) को साथ साथ जानता है ; वह कार्य ब्रह्म की उपासना से मृत्यु को पार करके असम्भूति के द्वारा प्रकृति लय रूप अमरत्व को प्राप्त कर लेता है ।
He who knows at the same time both the Unmanifested (the cause of manifestation) and the destructible or manifested, he overcomes death through knowledge of Hiranyagarbha and obtains immortality through knowledge of unborn Prakriti.
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अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥
हिरण्यगर्भ की उपासना से और ही फल बताया गया है ; तथा अव्यक्त प्रकृति की उपासना से और फल बताया गया है । इस प्रकार हमने बुद्धिमानों से सुना है ,जिन्होने हमारे प्रति हमे समझाने के लिए उनकी व्याख्या की थी ।
What we get from the worship of the Unmanifested (Hiranyagarbha) and another from the worship of the manifested (Unborn Prakriti). Thus we have heard from the wise who revealed that to our understanding.
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अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ रताः॥१२॥
जो कारण प्रकृति कारण (अव्यक्त प्रकृति) की उपासना करते हैं वे गहरे अन्धकार में प्रवेश करते हैं |और जो कार्य प्रकृति (व्यक्त प्रकृति) में रमते हैं वे उससे भी अधिक अन्धकार को प्राप्त होते हैं ॥१२॥
Into a blind darkness they enter who follow Unmanifested (Prakriti), they as if into a greater darkness those who devote to the Manifested (Hiranyagarbha).
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विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥११॥
जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व प्राप्त कर लेता है ॥११॥
He who knows at the same time both Vidya the Knowledge and Avidya the Ignorance, crosses beyond death by Avidya and obtains Immortality by Vidya
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अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१०॥
विद्या (ज्ञान)-से और ही फल है तथा अविद्या (कर्म)-से और ही फल है। ऐसा हमने बुद्धिमान् पुरुषों से सुना है, जिन्होने हमारे प्रति उसकी व्यवस्था की थी ॥१०॥
What we get from Vidya (Knowledge) is different; and from Avidya (ignorance, performance of ritualistic Karma) is different. Thus we have heard from the wise men who taught this.
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अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः॥९॥
(जो अविद्या (कर्म)- की उपासना करते हैं वे [अविद्यारूप] घोर अन्धकार मे प्रवेश करते हैं और जो विद्या (उपासना)-मे ही रत हैं वे मानों उससे भी अधिक अन्धकार मे प्रवेश करते हैं।)
They who worship Avidya (karma) alone fall into blind darkness of this materialistic life (Samsara): and those who worship (Known as Upaasana) Vidya alone (and not the actual performance) fall into even greater darkness.
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स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमसनाविरं शुद्धमपापविद्वम् |
कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ||8||
(वह ईश्वर सर्वत्र व्यापक है,जगदुत्पादक,शरीर रहित,शारीरिक विकार रहित,नाड़ी और नस के बन्धन से रहित,पवित्र,पाप से रहित, सूक्ष्मदर्शी,ज्ञानी,सर्वोपरि वर्तमान,स्वयंसिद्ध,अनादि,प्रजा (जीव) के लिए ठीक ठीक कर्म फल का विधान करता है|)
He (The Self) is all pervasive, like space (Atman is preset everywhere), resplendent (luminous as the sun), bodiless, spotless, without nerves, pure, untouched by sin. He is the knower of all, omniscient, self-existent; he is the one who has organized all the materiel objects to be available for eternal years.
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यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।।७।।
(जिस अवस्था में विशेष ज्ञानप्राप्त योगी की दृष्टि में सम्पूर्ण चराचर जगत परमात्मा ही हो जाता है उस अवस्था में ऐसे एकत्व देखने वाले को कहाँ मोह और कहाँ शोक ?)
When, to the knower (the man who has realized the Supreme Reality), all those being have become the Self (Ataman). For him how can there be delusion or sorrow, when he sees the Oneness (every-where)?
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यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥६॥
(जो सम्पूर्ण प्राणियों को आत्मा मे ही देखता है और समस्त प्राणियों मे भी आत्मा को ही देखता है, वह इस [सार्वात्म्यदर्शन]- के कारण ही किसीसे घृणा नहीं करता ॥6॥)
He who sees all beings in the Self (Atman) and the Self in all beings, Therefore he does not hate.
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तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः॥५॥
(वह आत्मतत्त्व चलता है और नहीं भी चलता । वह दूर है और समीप भी है । वह सबके अंतर्गत है और वही इस सबके बाहर भी है (अर्थात वह परमात्मा सृष्टि के कण कण में व्याप्त है )॥5॥)
It (the Atman) moves and It moves not. It is distant and also It is near. It is within all this and It is also outside all this.
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अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥४॥
(वह आत्मतत्त्व अपने स्वरूप से विचलित न होनेवाला, एक तथा मन से भी तीव्र गतिवाला है । इसे इंद्रियाँ प्राप्त नहीं कर सकतीं क्योंकि यह उन सबसे पहले (आगे) गया हुआ है । वह स्थिर होनेपर भी अन्य सब गतिशीलों को अतिक्रमण कर जाता है । उसके रहते हुए ही वायु समस्त प्राणियों के प्रवृत्ति रूप कर्मों का विभाग करता है ॥4॥)
That One (Atman), though motionless, is faster than the mind. The senses (Devas) can never overtake It, for It ever goes before. Though immovable, It goes faster than those who run after It. By It the all-pervading the air (Matarisvan) sustains all living beings
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असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥३॥
(वे असुर सम्बन्धी लोक आत्मा के अदर्शन रूप अज्ञान से अच्छादित हैं। जो कोई भी आत्मा का हनन करने वाले हैं वे आत्मघाती जीव मरने के अनन्तर उन्हीं लोकों में जाते हैं। (अर्थात जो कोई भी आत्महत्या अथवा आत्मा के विरुद्ध आचरण करते हैं वे निश्चित रूप से प्रेत-लोक में जाते हैं।)॥.॥)
After departing their bodies, they (those that are ignorant) who have killed the Self go to the worlds of the devils (as compared with the non-dual state of the supreme Self even gods are (Asuras), covered with blinding ignorance.
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥
(इस लोक मे कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीनेकी इच्छा करनी चाहिए। इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है, ऐसा करने से तुझे [अशुभ] कर्मका लेप नहीं होगा ॥.॥)
One should desire to live in this world a hundred years, one should live performing Karma (righteous deeds), by which method bad karma may not cling, i.e. one may not get attached to karma. Therefore, one should desire to live by doing only such karmas as Agnihotra etc.
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1 st Mantra of Isa-Upanishad.
ॐ ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥१॥
(जगत् मे जो कुछ स्थावर-जङ्गम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा व्याप्त है। उसका त्याग-भाव उपभोग करना चाहिए ,किसीके धन की इच्छा नहीं करनी चाहिए ।।1।।)
All this, whatsoever exists in the universe, should be covered by the Lord, in other words by perceiving the Divine Presence everywhere. Having renounced (the unreal), enjoy (the Real). Do not covet the wealth of any man.
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