सफलता के लिए संकल्प की आंच चाहिए—-साध्वी प्रमुख कनकप्रभा
एक विद्यार्थी ने विद्वान बनने का सपना देखा , वह मनोयोग से पढ़ने लगा। वह सफलता की पहली सीढ़ी तक पहुंचा। उसकी उसी समय मुलाकात किसी संगीतज्ञ से हो गई। वह संगीत की साधना करने लगा। कुछ समय बीता और उसके मन में धनवान बनने की भावना जागी। उसने व्यापार शुरू कर दिया। व्यापार पूरा जमता , उससे पहले ही वह एक राजनेता बनने के लिए बेचैन हो उठा। जीवन के मूल्यवान वर्ष बीत गए। वह न विद्वान बन सका , न संगीतकार बन सका , न धनवान बन सका और न नेता बन सका।
उसने किसी अनुभवी व्यक्ति से अपनी असफलता का राज जानना चाहा। अनुभवी व्यक्ति ने उसे सलाह दी , अन्य सब लक्ष्यों को गौण कर एक ही लक्ष्य के प्रति केंद्रित हो जाओ , एकाग्र बन जाओ , सफलता तुम्हारे द्वार पर स्वयं दस्तक देगी।
मनुष्य बड़े – बड़े स्वप्न देखता है और उन्हें साकार करने के लिए पुरुषार्थ करता है , फिर भी उसके सपने अधूरे रह जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसमें अनेक कारण हो सकते हैं। अपनी औकात से अधिक ऊंचे स्वप्न देखने वाला व्यक्ति उन्हें साकार नहीं कर सकता। स्वप्न को पूरा करने में जिस सीमा तक पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती है , उसके अभाव में स्वप्न अधूरा रह जाता है। देश , काल और परिस्थिति की अनभिज्ञता के कारण भी कई योजनाएं विफल हो जाती हैं। इन सब कारणों से भी एक बड़ा कारण है – संकल्प शक्ति का अभाव।
शिथिल संकल्प वाले व्यक्ति छोटा – सा काम शुरू करने से पहले ही आशंकाओं से घिर जाते हैं। आंखों के आगे संदेह का कुहासा छाया हुआ रहता है। कार्यक्षेत्र की छोटी – सी बाधा भी उन्हें हिमालय की चढ़ाई जितनी दुरूह लगती है। ऐसी स्थिति में काम करने का उत्साह मंद हो जाता है और मन में निराशा भर जाती है।
एक बार जो संकल्प किया , उसे पूरा करने का प्रण ही संकल्प शक्ति है। यह संकल्प शक्ति मिलती है अनुशासन और संयम से। आत्मानुशासन का अर्थ है – अपने पर अपना अनुशासन। अपने आप पर अनुशासन करने की कला विकसित होने के बाद ही दूसरों पर अनुशासन करने का अधिकार प्राप्त होता है।
जो व्यक्ति समय पर सोता है , समय पर उठता है , समय पर अध्ययन करता है , समय पर भोजन करता है , अन्य सब कार्यों में नियम का ध्यान रखता है , उसके लिए अनुशासन की अपेक्षा ही नहीं रहेगी।
सामुदायिक जीवन अनुशासन के बिना नहीं चलता , क्योंकि समुदाय में रहने वाले व्यक्तियों की रुचियां भिन्न – भिन्न होती हैं , काम करने की विधियां अलग – अलग होती हैं और उद्देश्य भी भिन्न – भिन्न होते हैं। उनके लिए कोई नियम या व्यवस्था न हो तो आपस में हितों का टकराव होता है और संघर्ष की आशंका बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में व्यवस्थापक कठोरता का प्रयोग करके अनुशासन स्थापित करने का प्रयास करता है।
अनुशासन और आत्मानुशासन , दोनों में श्रेष्ठ क्या है ? भगवान महावीर ने कहा , संयम और तपस्या आदि द्वारा मैं अपनी आत्मा पर शासन करूं , यह मेरे लिए श्रेयस्कर है। यदि ऐसा नहीं होता है तो दूसरे लोग बंधन आदि के द्वारा मुझ पर शासन करेंगे।
किसी भी क्षेत्र में दक्षता एवं सफलता हासिल करने के लिए एकाग्रता की साधना अपेक्षित है। एकाग्रता का अर्थ है एक आलंबन पर मन का केंद्रीकरण। वैज्ञानिक जितनी नई खोजें करते हैं , नए आविष्कार करते हैं , उनकी पृष्ठभूमि में एकाग्रता की बहुत बड़ी भूमिका है। सैनिक युद्ध का मोर्चा संभालते हैं , यदि वे अपने कार्य के प्रति एकाग्र न हो तो कभी अपने अभियान में सफल हो ही नहीं सकते। साहित्यकार सृजन करता है। उसकी सृजन चेतना भी एकाग्रता के क्षणों में ही सक्रिय होती है।
विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करता है। यदि अध्ययन में उसका मन केंद्रित नहीं है तो वह क्या पढ़ेगा ? और कैसे पढ़ेगा ? चंचलता सफलता में सबसे बड़ी बाधा है। जिस विद्यार्थी का चित्त चंचल होता है , वह एक दिशा में समर्पित भाव सेआगे नहीं बढ़ सकता।
प्रस्तुति : ललित गर्ग

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