नव निर्माण के लिए आती हैं विषम परिस्थितियां—-सीताराम गुप्ता
बालस्वरूप ‘राही’ की एक कविता है :
अंधेरा रात-भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर,
सदा ही नाश के हाथों नया निर्माण होता है।
जीवन की हर समस्या किसी बड़े लाभ के लिए अवसर का आधार बनती है। यह केवल व्यक्ति के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि समाज, राष्ट्र तथा विश्व के संदर्भ में भी उतनी ही सटीक लगती है। होरेस ने कहा है, प्रतिकूल परिस्थितियां प्रतिभा को प्रकट करती हैं तथा समृद्धि इसका लोप।
सामान्य व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाता, इसीलिए वह सामान्य रह जाता है और आगे नहीं बढ़ पाता। सफल व्यक्ति विषमताओं में भी अवसर खोज लेता है। खूबसूरत टाइटैनिक के जलसमाधि लेने से इस क्षेत्र की उन्नति पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा अपितु टाइटैनिक से अच्छे जलयान तैयार किए गए। किसी स्पेस शटल के दुर्घटनाग्रस्त होने से अंतरिक्ष कार्यक्रमों का सिलसिला नहीं रुका, बल्कि प्रयासों में और तेजी ही आई।
आसफुद्दौला के शासनकाल में अवध में एक बार भीषण अकाल पड़ा। तब लोगों को रोजगार मुहैया कराने के मकसद से लखनऊ के बड़े इमामबाड़ा का निर्माण शुरू किया गया। इसके लगभग एक शताब्दी बाद ऐसा ही एक निर्माण पुणे में हुआ और यह था सन् .89. में बना आगा खां पैलेस। उन दिनों इस पूरे क्षेत्र में अनेक बार अकाल पड़े और महामारियां फैलीं। वहां भी लोगों को रोजगार देने के उद्देश्य से ही इस विशाल प्रासाद का निर्माण कराया गया था। इसके बनने में पांच साल का समय लगा तथा हजारों लोगों को यहां काम दिया गया। यदि व्यक्ति या समाज या राष्ट्र चाहे तो किसी भी विनाश को नव निर्माण के अवसर में बदल सकता है।
जापान में आए भूकंप और सूनामी पर विचार कीजिए। हजारों लोगों की मृत्यु तथा खरबों की संपत्ति का नुकसान हुआ। लेकिन कुछ लोग इसे भी आशा भरी नजरों से देखते हैं। वे कहते हैं कि जिस तरह दूसरे विश्वयुद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस से एक नए शक्तिशाली और औद्योगिक जापान का उदय हआ , उसी तरह इस बार भी जापान और शक्तिशाली बन कर उभरेगा। संभव है , कोई विशेष संदेश देने के लिए ही प्रकृति ने इतनी बड़ी विनाश लीला रची हो।
समस्याएं या कठिनाइयां जीवन का स्वाभाविक क्रम हैं। ये प्राकृतिक भी हो सकती हैं और मनुष्य निर्मित भी। अकाल , बाढ़ , भूकंप , महामारी , जंगलों की आग , ज्वालामुखी , तूफान और सूनामी आदि जैसी अनेक प्राकृतिक आपदाओं से मनुष्य अपने आरंभिक काल से ही दो – चार होता रहा है।
आज वैज्ञानिक प्रगति के युग में असावधानीवश भी होने वाली अनेक आपदाएं भी देखी जा रही हैं। एयरक्रैश , रेल , बस या अन्य साधनों की दुर्घटनाएं , गैस रिसाव , बड़ी बिल्डिंगों तथा औद्योगिक इकाइयों में आग व विस्फोट तथा और न जाने कितनी तरह की दूसरी दुर्घटनाएं। वैसे संसार के समस्त लोगों की सामूहिक सोच का ही परिणाम होती हैं प्राकृतिक आपदाएं। जब सामूहिक सोच अत्यंत विकृत होकर सघन हो जाती है , तब प्रकृति व्यग्र होकर इस प्रकार की आपदाओं को अंजाम देने के लिए विवश हो जाती है। यदि इन घटनाओं के पीछे छुपे संदेश को हम देख सकें और उस पर अमल कर सकें तो संभव है इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
अब यही अमल कई दूसरे रूपों में प्रकट होगा। कहीं पीडि़तों के लिए करुणा के रूप में , कहीं सहायता के रूप में तो कहीं विकास योजनाओं द्वारा निर्माण के रूप में। सोच में यही सकारात्मक परिवर्तन कला है और जो घटित हो चुका है वह सृजन की प्रसव – पीड़ा। प्रसव – पीड़ा के बाद नूतन सृजन अवश्यंभावी है।
सफल व्यक्ति या समाज वह है जो इन प्रतिकूलताओं में भी नए अवसर खोज लेता है।

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