सृजन का उत्सव गुड़ी पड़वा -गुड़ी पड़वा विशेष—
फागुन के गुजरते-गुजरते आसमान साफ हो जाता है, दिन का आँचल सुनहरा हो जाता है और शाम लंबी, सुरमई हो जाती है, रात बहुत उदार… बहुत उदात्त होकर उतरती है तो सिर पर तारों का थाल झिलमिलाता है। होली आ धमकती है, चाहे तो इसे धर्म से जोड़े या अर्थ से… सारा मामला तो अंत में मौसम और मन पर आकर टिक जाता है।
इन्हीं दिनों वसंत जैसे आसमान और जमीन के बीच होली के रंगों की दुकान सजाए बैठा रहता है। मन को वसंत का आना भाता है तो पत्तों का गिरना और कोंपलों के फूटने से पुराने के अवसान और नए के आगमन का संदेश अपने गहरे अर्थों में हमें जीवन का दर्शन समझाता है।
एक साथ पतझड़ और बहार के आने से हम इसी वसंत के मौसम में जीवन का उत्सव मनाते हैं, कहीं रंग होता है तो कहीं उमंग होती है। बस, इसी मोड़ पर एक साल और गुजरता है। गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा के साथ एक नया साल वसंत के मौसम में नीम पर आईं भूरी-लाल-हरी कोंपलों की तरह बहुत सारी संभावनाओं की पिटारी लेकर हमारे घरों में आ धमकता है। जब वसंत अपने शबाब पर है तो फिर इतिहास और पुराण कैसे इस मधुमौसम से अलग हो सकते हैं।
श्रीखंड, पूरणपोळी और नीम के अजीबो-गरीब संयोग के साथ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को हम विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाते हैं। इस तिथि से पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों ही मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में भी मिलते हैं। तो इस तरह तो हम सृष्टि के गर्भाधान का उत्सव मनाते हैं, गुड़ी पड़वा पर।
इसी दिन से चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती है। लोक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर का भी राज्यारोहण किया गया था। इतिहास बताता है कि इस दिन मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर विक्रम संवत का प्रवर्तन किया।
इस दिन से प्रारंभ चैत्र नवरात्रि का समापन रामनवमी पर भगवान राम का जन्मदिन मनाकर किया जाता है। मध्यप्रदेश में मालवा और निमाड़ में गुड़ी पड़वा पर गुड़ी बनाकर खिड़कियों में लगाई जाती है। नीम की पत्ती या तो सीधे ही या फिर पीसकर रस बनाकर ली जाती है।
मान्यता है कि इस दिन से वर्षभर नित्य नियम से पाँच नीम की पत्तियाँ खाने से व्यक्ति निरोग रहता है। दक्षिण भारत में इसे इगादि, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में उगादि, कश्मीर में नवरेह और सिन्धी में इसे चेटीचंड के रूप में मनाया जाता है। आखिर वसंत को नवजीवन के आरंभ के अतिरिक्त और किसी तरह से कैसे मनाया जा सकता है? वसंत के संदेश को गुड़ी पड़वा की मान्यता से बेहतर और कोई परिभाषित नहीं कर सकता।
शुभ पर्वों में छुपा सेहत का संकेत–गुड़ी पड़वा : हिन्दू नववर्ष आरंभ :::—-
नए वर्ष के, नए दिवस के,
नए सूर्य तुम्हारी हो जय-जय
तुम-सा हो सौभाग्य सभी का,
नया क्षितिज हो मंगलमय।
गुड़ी पड़वा हिन्दू नववर्ष के रूप में भारत में मनाया जाता है। इस दिन सूर्य, नीम पत्तियाँ,अर्घ्य, पूरनपोली, श्रीखंड और ध्वजा पूजन का विशेष महत्व होता है। माना जाता है कि चैत्र माह से हिन्दूओं का नववर्ष आरंभ होता है। सूर्योपासना के साथ आरोग्य, समृद्धि और पवित्र आचरण की कामना की जाती है। इस दिन घर-घर में विजय के प्रतीक स्वरूप गुड़ी सजाई जाती है।
उसे नवीन वस्त्राभूषण पहना कर शकर से बनी आकृतियों की माला पहनाई जाती है। पूरनपोली और श्रीखंड का नैवेद्य चढ़ा कर नवदुर्गा, श्रीरामचन्द्र जी एवं राम भक्त हनुमान की विशेष आराधना की जाती है। यूँ तो पौराणिक रूप से इसका अलग महत्व है लेकिन प्राकृतिक रूप से इसे समझा जाए तो सूर्य ही सृष्टि के पालनहार हैं। अत: उनके प्रचंड तेज को सहने की क्षमता हम पृथ्वीवासियों में उत्पन्न हो ऐसी कामना के साथ सूर्य की अर्चना की जाती है।
इस दिन सुंदरकांड, रामरक्षास्तोत्र और देवी भगवती के मंत्र जाप का खास महत्व है। हमारी भारतीय संस्कृति ने अपने आँचल में त्योहारों के इतने दमकते रत्न सहेजे हुए हैं कि हम उनमें उनमें निहित गुणों का मूल्यांकन करने में भी सक्षम नहीं है।
इन सारे त्योहारों का प्रतीकात्मक अर्थ समझा जाए तो हमें जीवन जीने की कला सीखने के लिए किसी ‘कोचिंग’ की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। जैसे शीतला सप्तमी का अर्थ है कि आज मौसम का अंतिम दिवस है जब आप ठंडा आहार ग्रहण कर सकते हैं। आज के बाद आपके स्वास्थ्य के लिए ठंडा आहार नुकसानदेह होगा। साथ ही ठंड की विधिवत बिदाई हो चुकी है अब आपको गर्म पानी से नहाना भी त्यागना होगा।
कई प्रांतों में रिवाज है कि गर्मियों के रसीले फल, व्यंजन आदि गुड़ी को चढ़ाकर उस दिन से ही उनका सेवन आरंभ किया जाता है। गुड़ी पड़वा पर नीम का सेवन करने से वर्ष भर रोगाणुओं से लड़ने की ताकत मिलती है। सूर्य अर्घ्य से सूर्य किरणों का शरीर में प्रवेश होता है जो सेहत की दृष्टि से लाभकारी है। आजकल जिसे सूर्य चिकित्सा के नाम से भी पहचाना जाता है। सूर्य किरणों में निहित विभिन्न रंग शरीर के अलग-अलग हिस्सों को लाभ पहुँचाते हैं।
वास्तव में इन रीति रिवाजों में भी कई अनूठे संदेश छुपे हैं। यह हमारी अज्ञानता है कि हम कुरीतियों को आँख मूँदकर मान लेते हैं। लेकिन स्वस्थ परंपरा के वाहक त्योहारों को पुरातनपंथी कह कर उपेक्षित कर देते हैं। हमें अपने मूल्यों और संस्कृति को समझने में शर्म नहीं आना चाहिए। आखिर उन्हीं में हमारी सेहत और सौन्दर्य का भी तो राज छुपा है।
नववर्ष में हम सूर्य को जल अर्पित करते हुए कामना करें कि हमारे देश के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक उत्थान का ‘सूर्य’ सदैव प्रखर और तेजस्वी बना रहें। और जुबान पर नीम पत्तियों को रखते हुए कामना करें कड़वाहट को त्याग रिश्तों में मिठास बनाए रखने की।
त्योहार तो बस मनाने के लिए होते है… खुशी, मस्ती, जोश और अपनेपन की भावनाएँ त्योहारों के माध्यम से अभिव्यक्त हो ही जाती हैं। फसलें काटने का त्योहार हो या फिर रामजी से जुड़े तथ्य हों, गुड़ी पड़वा वर्तमान में एक आम व्यक्ति के लिए श्रीखंड खाने और मेल-मिलाप के अलावा ज्यादा कुछ नहीं है।
महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में इसे अलग-अलग कारणों से मनाया जाता है, पर सबसे बड़ा कारण जो सबसे अच्छा लगता है कि इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया और समय ने आज से चलना आरंभ किया था।
कितना मोहक और अच्छा विचार है कि समय का चलना कैसे होगा… एक समान गति से वह दिन-रात बस चलता ही जा रहा है मानो ब्रह्माजी ने तेज चलने से मना किया हो। समय अपनी गति से चला और क्या खूब चल रहा है। दिन और रात के दौरान वह करवट बदल रहा है और अपनी छाप छोड़ते जा रहा है।
मौसम करवट बदलकर ठीक आपके सम्मुख उत्सव मनाता नजर आ जाए तो समझिए गुड़ी पड़वा आ गया है। गुड़ी पड़वा का यह त्योहार आपको अनजाने में ही अपनत्व का आचमन करवा जाता है और भविष्य के लिए ‘बेस्ट लक’ कहकर हौले से अपनी लगाम सूर्य देवता के हाथ में दे देता है
समय को समय का भान नहीं है और होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि जिस दिन उसे इसका भान हो जाएगा वह तत्काल रुक जाएगा, जड़ हो जाएगा और चाहकर भी आगे नहीं बढ़ पाएगा। गुड़ी पड़वा इस समय को सलाम कहने का त्योहार है। यह ऐसा त्योहार है, जो समय को जानने-पहचानने और उसमें मिल जाने का है।
श्रीखंड में घुली शकर की तरह प्रेम बाँटने और बढ़ाने का संदेश देने वाले त्योहार गुड़ी पड़वा का वर्तमान के युग में भी उतना ही महत्व है जितना कि आज से कई सौ वर्ष पूर्व था।
गुड़ी पड़वा इस कारण भी महत्वपूर्ण है कि इस दिन ब्रह्माजी ने क्या सोचकर सृष्टि का निर्माण किया और उस पर पृथ्वी जैसे ग्रह पर ‘मनुष्य’ नामक प्राणी का भी निर्माण किया। करोड़ों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने जब पृथ्वी पर पहली बार साँस ली होगी, तब यह नहीं सोचा होगा कि आज गुड़ी पड़वा है बल्कि वे तो अपने वजूद को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे होंगे।
गुड़ी पड़वा सभ्य समाज की सोच है कि जैसे बर्थडे मनाते हैं, वैसे ही ऐसा कुछ मनाया जाए जिसमें मनोरंजन भी हो और फिर खान-पान तो हो ही। सृष्टि के निर्माण के दौरान ब्रह्माजी ने यह नहीं सोचा होगा कि अन्य जीवों की तरह मनुष्य भी शांति से पृथ्वी पर जीवन बिताएगा।
उनकी कल्पना के विपरीत हम ब्रह्माजी को यह बताने में लग गए हैं कि… देखो भाई! भले ही सृष्टि का निर्माण आपने किया हो, पर पृथ्वी पर अधिकार तो हमारा ही बनता है और जब हम अधिकार रखते हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। हम प्रदूषण फैला सकते हैं… आपस में युद्ध कर सकते हैं… भेदभाव कर सकते हैं और आपस में बँट भी सकते हैं, क्योंकि यह हमारी पृथ्वी है। आपने तो केवल निर्माण किया है, रहने लायक तो हमने ही बनाया है, फिर प्रतिवर्ष हम आपके सम्मान में गुड़ी पड़वा मनाते तो हैं।
ब्रह्माजी के मन में कभी भी विचार नहीं आया होगा कि ‘मनुष्य’ नामक जीव अपने आपको महान की श्रेणी में ले आएगा और रुपए-पैसों को ईजाद कर वह एक-दूसरे से ही भेदभाव करने लगेगा। ‘गरीब’ शब्द ब्रह्माजी के शब्दकोश में नहीं था। मनुष्य ने अपने आप ही समभाव को गरीबी का चोला ओढ़ा दिया ताकि वह स्वयं को श्रेष्ठ मान सके। कभी-कभी लगता है कि आध्यात्मिक गुरु लोगों को जब ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहना सिखाते हैं तो वह गलत अर्थ ले लेते हैं और अपने आपको ब्रह्मा समझने लगते हैं।
वैसे गुड़ी पड़वा एक ओर आनंद का उत्सव है तो दूसरी ओर विजय और परिवर्तन का प्रतीक भी है। कृषकों के लिए इसका विशेष महत्व है। आंध्रप्रदेश में इसे उगादि (युगादि) तिथि अर्थात युग का आरंभ के रूप में मनाया जाता है।
वहीं सिन्धी समाज में भगवान झूलेलाल के जन्मदिवस चेटीचंड अर्थात चैत्र के चन्द्र के रूप में मनाया जाता है। सप्तऋषि संवत् के अनुसार कश्मीर में ‘नवरेह’ नाम से इसे नववर्ष के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। वैसे ऐतिहासिक दृष्टि से इसी दिन सम्राट चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की थी, इस कारण विक्रम संवत के नाम से भी प्रसिद्ध है।
आस्था का स्वरूप है गुड़ी : कहने को तो गुड़ी पड़वा के दिन घरों के दरवाजों को तोरण से सजाया जाता है और एक दंड पर साड़ी लपेटकर, सिरों पर लोटा रखकर पुष्पमाला से सुसज्जित कर घरों पर लगाई जाती है। गुड़ी आस्था का प्रतीक है।
यह आस्था रामजी के प्रति है और सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा के प्रति भी। उन्हें धन्यवाद कहने का यह हमारा अनूठा तरीका है। घरों पर ऊँची जगह इन्हें लगाने का भी कारण यह है कि हम घर को मंदिर समझ रहे हैं और कलश को घर के ऊपर सजा रहे है ताकि घर में मंदिर की तरह सुख और शांति रहे।
गुड़ी को श्रीखंड और पूरणपोळी का भोग भी लगाते हैं, इस भावना के साथ कि ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।’ गुड़ी अनजाने में ही हमें श्रद्धा, विजय, आस्था, पवित्रता जैसे भावों से परिचय करवा देती है। गुड़ी को महिला का स्वरूप दिया जाता है, जो कि महिलाओं के सम्मान का प्रतीक भी है। आज के आधुनिक युग में जहाँ विटामिन और प्रोटीन की अँगरेजी दवाओं से बाजार भरा पड़ा है, कड़वे नीम के पत्ते खाना आउटडेटेड समझा जा सकता है।
इसमें हायजिन की बातें होने लगेंगी। पर सच यह है कि इस दिन नीम की पत्तियों के साथ कालीमिर्च, मिश्री, अजवाइन और सौंठ का सेवन किया जाता है। इनका सेवन करने से आरोग्य, बल, बुद्धि व तेजस्विता में वृद्धि होती है। आज के आधुनिक युग के युवा यह कह सकते हैं कि ऐसा क्यों? तो इसका सीधा-सा जवाब यह हो सकता है कि अब ब्रह्माजी से पूछने से रहे कि ऐसा क्यों?
पर जैसा कि पुराने ग्रंथों में लिखा है, यह परंपरा काफी वर्षों से चली आ रही है और गुड़ी पड़वा के बाद का समय भीषण गर्मियों का होता है, इस कारण मनुष्य में रोगों से लड़ने की शक्ति को बढ़ाने के लिए ऐसा किया होगा।