माँ भगवती ऐसे होगी प्रसन्न—-माँ की कृपा प्राप्ति के सरल उपाय—–नवरात्रि विशेष—…1

नवरात्रि में माँ दुर्गा की पूजा विशेष फलदायी है। नवरात्रि ही एक ऐसा पर्व है जिसमें महाकाली, महालक्ष्मी और माँ सरस्वती की साधना करके जीवन को सार्थक किया जा सकता है। ऐसी माँ दुर्गा की कृपा प्राप्ति के लिए कुछ सरल उपाय नीचे दिए जा रहे हैं।

– माँ दुर्गा को तुलसी दल और दूर्वा चढ़ाना निषिद्ध है।

– अपने घर के पूजा स्थान में भगवती दुर्गा, भगवती लक्ष्मी और माँ सरस्वती के चित्रों की स्थापना करके उनको फूलों से सजाकर पूजन करें।

– नौ दिनों तक माता का व्रत रखें। अगर शक्ति न हो तो पहले, चौथे और आठवें दिन का उपवास अवश्य करें। माँ भगवती की कृपा जरूर प्राप्त होगी।

– नौ दिनों तक घर में माँ दुर्गा के नाम की ज्योत अवश्‍य जलाएँ।

– अधिक से अधिक नवार्ण मंत्र ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै’ का जाप अवश्‍य करें।

– इन दिनों में दुर्गा सप्तशती का पाठ अवश्‍य करें।

– पूजन में हमेशा लाल रंग के आसन का उपयोग करना उत्तम होता है। आसन लाल रंग का और ऊनी होना चाहिए।

– लाल रंग का आसन न होने पर कंबल की आसन इतनी मात्रा में बिछाकर उस पर लाल रंग का दूसरा कपड़ा डालकर उस पर बैठकर पूजन करना चाहिए।

– पूजा पूरी होने के पश्‍चात आसन को प्रणाम करके लपेटकर सुरक्षित जगह पर रख दीजिए।

– पूजा के समय लाल वस्त्र पहनना शुभ होता है। लाल रंग का तिलक भी जरूर लगाएँ। लाल कपड़ों से आपको एक विशेष ऊर्जा की प्राप्ति होती है।

– माँ को प्रात: काल के समय शहद मिला दूध अर्पित करें। पूजन के पास इसे ग्रहण करने से आत्मा व शरीर को बल प्राप्ति होती है। यह एक उत्तम उपाय है।

– आखिरी दिन घर में रखीं पुस्तकें, वाद्य यंत्रों, कलम आदि की पूजा अवश्य करें।

– अष्‍टमी व नवमी के दिन कन्या पूजन करें।

– उपरोक्त नियमों का पालन कर नौ दुर्गा को प्रसन्न करें।
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माँ दुर्गा के नौ नैवेद्य–नौ दिन का विशेष प्रसाद—

* प्रथम नवरात्रि के दिन माँ के चरणों में गाय का शुद्ध घी अर्पित करने से आरोग्य का आशीर्वाद मिलता है। तथा शरीर निरोगी रहता है।

* दूसरे नवरात्रि के दिन माँ को शक्कर का भोग लगाएँ व घर में सभी सदस्यों को दें। इससे आयु वृद्धि होती है।

* तृतीय नवरात्रि के दिन दूध या दूध से बनी मिठाई खीर का भोग माँ को लगाकर ब्राह्मण को दान करें। इससे दुखों की मुक्ति होकर परम आनंद की प्राप्ति होती है।

* माँ दुर्गा को चौथी नवरात्रि के दिन मालपुए का भोग लगाएँ। और मंदिर के ब्राह्मण को दान दें। जिससे बुद्धि का विकास होने के साथ-साथ निर्णय शक्ति बढ़ती है।

* नवरात्रि के पाँचवें दिन माँ को केले का नैवैद्य चढ़ाने से शरीर स्वस्थ रहता है।

* छठवीं नवरात्रि के दिन माँ को शहद का भोग लगाएँ। जिससे आपके आकर्षण शक्त्ति में वृद्धि होगी।

* सातवें नवरात्रि पर माँ को गुड़ का नैवेद्य चढ़ाने व उसे ब्राह्मण को दान करने से शोक से मुक्ति मिलती है एवं आकस्मिक आने वाले संकटों से रक्षा भी होती है।

* नवरात्रि के आठवें दिन माता रानी को नारियल का भोग लगाएँ व नारियल का दान कर दें। इससे संतान संबंधी परेशानियों से छुटकारा मिलता है।

* नवरात्रि की नवमी के दिन तिल का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान दें। इससे मृत्यु भय से राहत मिलेगी। साथ ही अनहोनी होने की‍ घटनाओं से बचाव भी होगा।
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नवदुर्गा के आसान सिद्ध मंत्र –नवरात्रि विशेष—

दुर्गा सप्तशती में कुछ ऐसे सिद्ध मंत्र हैं, जिनके द्वारा हम अपनी मनोकामना की पूर्ति कर सकते हैं।

कैसे करें जाप :- नवरात्रि के प्रतिपदा के दिन घटस्थापना के बाद संकल्प लेकर प्रातः स्नान करके दुर्गा की मूर्ति या चित्र की पंचोपचार या दक्षोपचार या षोड्षोपचार से गंध, पुष्प, धूप दीपक नैवेद्य निवेदित कर पूजा करें। मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखें।

शुद्ध-पवित्र आसन ग्रहण कर रुद्राक्ष, तुलसी या चंदन की माला से मंत्र का जाप एक माला से पाँच माला तक पूर्ण कर अपना मनोरथ कहें। पूरी नवरात्रि जाप करने से मनोवांच्छित कामना अवश्य पूरी होती है।

उपरोक्त सारे मंत्र विधिनुसार करने पर मनुष्‍य अपने पापों और कष्‍टों को दूर करके माता के आशीर्वाद का पात्र बन जाता है। नवरात्रि में संयमपूर्वक की गई प्रार्थना और भक्ति माता स्वीकार करती है और साथ ही अपने भक्तों के कष्‍टों का निवारण करते हुए उन्हें मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाती है।

* सर्वकल्याण के लिए-
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्येत्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुऽते॥

* आरोग्य एवं सौभाग्य प्राप्ति के लिए-
देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि॥

* बाधा मुक्ति एवं धन-पुत्रादि प्राप्ति के लिए-
सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धन धान्य सुतान्वितः।
मनुष्यों मत्प्रसादेन भवष्यति न संशय॥

* सुलक्षणा पत्नी प्राप्ति के ‍‍‍लिए-
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसारसागस्य कुलोद्‍भवाम्।।

* दरिद्रता नाश के लिए-
दुर्गेस्मृता हरसि भतिमशेशजन्तो: स्वस्थैं: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दरिद्रयदुखभयहारिणी कात्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता।।

* शत्रु नाश के लिए-
ॐ ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्‍टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वाम् कीलय बुद्धिम्विनाशाय ह्रीं ॐ स्वाहा।।

* सर्वविघ्ननाशक मंत्र-
सर्वबाधा प्रशमनं त्रेलोक्यस्यखिलेशवरी।
एवमेय त्वया कार्य मस्माद्वैरि विनाशनम्‌॥

* ऐश्वर्य प्राप्ति एवं भय मुक्ति मंत्र-
ऐश्वर्य यत्प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्य सम्पदः।
शत्रु हानि परो मोक्षः स्तुयते सान किं जनै॥

* विपत्तिनाशक मंत्र-
शरणागतर्दिनार्त परित्राण पारायणे।
सर्वस्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोऽतुते॥

* स्वप्न में कार्य-सिद्धि के लिए-
दुर्गे देवी नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।
मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय।।
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भक्ति भाव से नवरात्रि मनाएँ…नवरात्रि के पवित्र दिनों का पूजन-विधान—

वैदिक गंथों में वर्णन हैं कि इस वसुधा को बचाएँ रखने के लिए युगों से देव व दानवों में ठनी रही। देवता जो कि परोपकारी, कल्याणकारी, धर्म व भक्तों के रक्षक है। वहीं दानव अर्थात्‌ राक्षस इसके विपरीत हैं। इसी क्रम में जब रक्तबीज, महिषासुर जैसे दैत्यों ने अपनी ताकत के अभिमान में अत्याचार कर धरती को पीड़ित करने लगे तो देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन कर उसे विविध प्रकार के अमोघ अस्त्र प्रदान किए।

जो आदिशक्ति माँ दुर्गा के नाम से संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। भक्तों की रक्षा व देव कार्य अर्थात्‌ कल्याण के लिए भगवती दुर्गा ने नौ दिनों में नौ रूपों जयंती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा को प्रकट किया। जिन्होंने नौ दिनों तक महाभयानक युद्ध कर शुंभ-निशुंभ, रक्तबीज आदि अनेकों दैत्यों का वध कर दिया।

उन्हीं देवियों की आराधना नौ दिनों तक विशेष पवित्रता से की जाती है। नौ देवियों में प्रथम श्री शैलपुत्री, द्वितीय श्री ब्रह्मचारिणी, तृतीय श्री चंद्रघंटा, चतुर्थ श्री कुष्मांडा, पंचम श्री स्कंदमाता, षष्ठम श्री कात्यायनी, सप्तम श्री कालरात्रि, अष्टम श्री महागौरी, नवम श्री सिद्धिदात्री की पूजन व हवनादि यज्ञ क्रियाओं का आयोजन किया जाता है।

नवरात्रों में रंगों का विशेष महत्व है, रंग प्रत्येक व्यक्ति को बड़ी तीव्रता से प्रभावित करते हैं। इसलिए पहले नवरात्रि में सफेद व लाल रंग का प्रयोग व कपड़े शुभ माने गए हैं। दूसरे में केशरिया, पीच व हल्का पीला रंग, तीसरे में लाल, चौथे में नीला-सफेद व केशरिया रंग, पाँचवें में हरा, लाल, सफेद, छठे में लाल-सफेद, सातवें में नीला-लाल-सफेद, आठवें में लाल-केशरिया-पीला-सफेद-गुलाबी, तथा नौवें दिन लाल, सफेद रंग बहुत अच्छे माने जाते हैं।

पूजन के पूर्व जौ बोने का विशेष फल होता है। पाठ करते समय बीच में बोलना या फिर बंद करना अच्छा नहीं है। ऐसा करना ही पड़े तो पाठ का आरम्भ पुनः करें। पाठ मध्यम स्वर व सुस्पष्ट, शुद्ध चित्त होकर करें। पाठ संख्या का दशांश हवनादि करने से इच्छित फल प्राप्त होता है। दूर्वा (हरी घास) माँ को नहीं चढ़ाई जाती है। नवरात्रों में पहले, अंतिम और पूरे नौ दिनों का व्रत अपनी सामर्थ्य व क्षमता के अनुसार रखा जा सकता है।

नवरात्रों के व्रत का पारण (व्रत खोलना) दशमी में करना अच्छा माना गया है। यदि नवमी की वृद्धि हो तो पहली नवमी को उपवास करने के पश्चात्‌ दूसरे दसवें दिन पारण करने का विधान शास्त्रों में मिलता है।

नौ कन्याओं का पूजन कर उन्हें श्रद्धा के साथ भोजन व दक्षिणा देना अत्यंत श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार भक्त अपना ऐश्वर्य बढ़ाने हेतु सर्वशक्ति रूपा माँ दुर्गा की अर्चना कर सकते हैं।
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नवग्रहों की पीड़ा दूर करें दुर्गा —

शक्ति एवं भक्ति के साथ सांसारिक सुखों को देने के लिए वर्तमान समय में यदि कोई देवता है। तो वह एक मात्र देवी दुर्गा ही हैं। सामान्यतया समस्त देवी-देवता ही पूजा का अच्छा परिणाम देते हैं। किन्तु कलियुग में दुर्गा एवं गणेश ही पूर्ण एवं तत्काल फल देने वाले हैं। कहा भी है- ‘कलौ चण्डी विनायकौ।’

नवग्रहों की पीड़ा एवं दैवी आपदाओं से मुक्ति का एक मात्र साधन देवी की आराधना ही है। वर्तमान समय में कालसर्प एवं मांगलिक दोष के अलावा कुछ दोष ऐसे भी है। जिनकी शान्ति सम्भवतः अन्य किसी साधना अथवा पूजा से कठिन है। जैसे अवतंष योग।

जब कुंडली में नीच शनि, निर्बल गुरु एवं मंगल से किसी तरह का संयोग बनता है। तब व्यवसाय एवं नौकरी दोनों ही प्रभावित होते हैं। इसी प्रकार जब कुंडली में राहु एवं चन्द्रमा अपोक्लिम अथवा पणफर भाव में लग्नेश अथवा नवमेश के साथ अस्तगत अथवा निर्बल होते हैं। तब वक्रदाय योग होता है। विवाह का न होना अथवा विवाह होकर भी टूट जाना अथवा तलाक आदि की स्थिति उत्पन्न होती है।

बुध अथवा सूर्य के साथ गुरु का छठे, आठवें अथवा बारहवें भाव में होकर उच्चगत मंगल से दृष्ट होना रुदाग्र योग बनाता है। जिससे बच्चे पैदा न होना, अथवा बच्चा होकर मर जाना आदि पीड़ा होती है। ऐसी स्थिति में दुर्गा तंत्र में आए वर्णन के अनुसार देवी का अनुष्ठान शत-प्रतिशत परिणाम देने वाला होता है। यद्यपि इसका वर्णन शक्ति संगम तंत्र, देवी भागवत, तंत्र रहस्य तथा दक्षिण भारत का प्रधान ग्रंथ ‘वलयक्कम’ में भी बहुत अच्छी तरह से किया गया है।

जैसे वृषभ राशि वालों को यदि कालसर्प की पीड़ा हो तो कंचनलता के पाँच पत्ते लेकर उन पर लाल चंदन का लेप करें। अपने सिर के एक बाल को धीरे से उखाड़ कर एक पत्ते पर रख कर उसे शेष पाँचों पत्तों से उलटा कर ढँक दें।

– पाँच सेर गाय का दूध लेकर उसमें तिन्ने के चावल का खीर बनाएँ। खीर को पाँच भाग में बाँट केले के पत्ते पर रख लें। शेष बचे खीर को अलग बर्तन में रख ले। ध्यान रहे इस कार्य में या तो मात्र पत्तों का प्रयोग करें, अथवा ताँबे का बर्तन प्रयोग में लावें। अन्य कोई धातु प्रयुक्त नहीं हो सकती है। तथा उन पर दुर्गा देवी के नवार्ण मंत्र का 1.3 बार पाठ करते हुए 133 बार लौंग के फूलयुक्त दूध की हल्की पतली धार के साथ अभिषेक करें। 27वें दिन परिणाम सामने होगा।

तांत्रिक ग्रन्थों में यह बताया गया है कि नवदुर्गा नवग्रहों के लिए ही प्रवर्तित हुईं हैं—
‘नौरत्नचण्डीखेटाश्च जाता निधिनाह्ढवाप्तोह्ढवगुण्ठ देव्या।’

अर्थात् नौ रत्न, नौ ग्रहों की पीड़ा से मुक्ति, नौ निधि की प्राप्ति, नौ दुर्गा के अनुष्ठान से सर्वथा सम्भव है। भगवान राम ने भी इसके प्रभाव से प्रभावित होकर अपनी दश अथवा आठ नहीं बल्कि नवधा भक्ति का ही उपदेश दिया है।

ध्यान रहे आज के वैज्ञानिक भी अपने सम्पूर्ण खोज के बाद इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रौन इन तीन तत्वों के प्रत्येक के अल्फा,बीटा तथा गामा तीन-तीन किरणों के भेद से 3-3 अर्थात 9 किरणों को ही प्राप्त किया हैं। किन्तु ग्रह व्यवस्था, तांत्रिक ग्रन्थों में इसका क्रम निम्न प्रकार बताया गया है।
सूर्यकृत पीड़ा की शान्ति के लिए कात्यायनी, चन्द्रमा के लिए चन्द्रघण्टा, मंगल के लिए शैलपुत्री, बुध के लिए स्कन्दमाता, गुरु के लिए ब्रह्मचारिणी, शुक्र के लिए महागौरी, शनि के लिए कालरात्रि, राहु के लिए कूष्माण्डा तथा केतु के लिए सिद्धिदात्री। अर्थात् जिस ग्रह की पीड़ा, कष्ट हो उससे संबंधित दुर्गा के रूप की पूजा विधि-विधान से करने पर अवश्य ही शान्ति प्राप्त होती है।

विक्रान्ता, आयुष्मा, अतिलोम, घृष्णा, मांदिगोठ, विषेंधरी आदि भयंकर कुयोगों की शान्ति यदि संभव है तो एकमात्र दुर्गा की पूजा ही समर्थ है। वास्तव में आदि काल से ही मनुष्य, देवी-देवता अथवा किसी भी प्राणी पर यदि कोई संकट पड़ा है तो उसके लिए सभी ने दुर्गा माता की ही अराधना की है। और माता दुर्गा ने ही सबका उद्धार किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जादू टोना, रोग, भय, पिशाच्च, बेताल तथा डाकिनी आदि से मुक्ति प्राप्ति दुर्गा की तांत्रिक पूजा-पद्धति सर्वथा ही सफल है।

दुर्गा के अनुष्ठान की तांत्रिक विधि का विधिवत अनुपालन हमारे भारत में कम किन्तु इटली के सार्सिडिया, आस्ट्रेलिया के वैलिंग्टन, दक्षिणी अमेरिका के चिली एवं वॉशिंगटन डीसी, दक्षिणी अमेरिका के चिली तथा चीन में यांग टीसी क्यांग नदी के तटवर्ती प्रान्तों में ज्यादा देखने को मिल सकती हैं।
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नौ दुर्गा आराधना का महत्व ——

शक्ति उपासना के महत्व के बारे में कहा जाता है कि जगत्‌ की उत्पत्ति, पालन एवं लय तीनों व्यवस्थाएँ जिस शक्ति के आधीन सम्पादित होती है वही पराम्वा भगवती आदि शक्ति हैं, यें कारी बन कर सृष्टि का सृजन करने से इन्हें सृष्टिरूपा बीज कहा जाता है। ‘ह्रीं कारी’ देवी को प्रतिपालि का एवं ‘क्लीं कारी’ काम रूपा शक्ति जगत का लय कर अपने आश्रय में ले लेती हैं। यही तीन शक्तियाँ महाकाली, महालक्ष्मी महासरस्वती कहलाती हैं।

इन्हीं के अनन्त रूप हैं लेकिन प्रधान नौ रूपों में नवदुर्गा बन कर आदि शक्ति सम्पूर्ण पृथ्वी लोक पर अपनी करूणा की वर्षा करती है, अपने भक्त और साधकों में अपनी ही शक्ति का संचार करते हुए, करूणा एवं परोपकार के द्वारा संसार के प्राणियों का हित करती है।

प्रथम नवरात्रि को माँ की शैल पुत्री रूप में आराधना की जाती है। वस्तुतः नौ दुर्गा के रूप माता पार्वती के हैं। दक्ष प्रजापति के अहंकार को समाप्त कर प्रजापति क्रम में परिवर्तन लाने एवं अपने सती स्वरूप का संवरण कर पार्वती अवतार क्रम में नौ दुर्गा की नौ रूपमूर्तियों की उपासना है नवरात्रि उपासना।

यद्यपि शक्ति अवतार को दक्ष यज्ञ में अपने योग बल से सम्पन्न करने से पूर्ण भगवती सती जी ने भगवान शंकर के समक्ष अपनी दस महाविधाओं को प्रकट किया तथा उनके सती जी के दग्ध छाया छाया देह के अंग-प्रत्यंगो से अनेक शक्ति पीठों में आदि शक्ति प्रतिष्ठित हो कर पूजी जाने लगी पार्वती रूपा भगवती के प्रथम स्वरूप शैल पुत्री की आराधना से साधक की योग यात्रा की पहली सीढ़ी बिना बाधाओं के पार हो जाती है। योगीजन प्रथम नवरात्रि की साधना में अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित शक्ति केंद्र की जागृति मे तल्लीन कर देते हैं।

नवरात्रि आराधना, तन मन और इन्द्रिय संयम साधना की उपासना है, उपवास से तन संतुलित होता है। तन के सन्तुलित होने पर योग साधना से इंद्रियाँ संयमित होती है। इन्द्रियों के संयमित होने पर मन अपनी आराध्या माँ के चरणों में स्थिर हो जाता है। वस्तुतः जिसने अपने मन को स्थिर कर लिया वह संसार चक्र से छूट जाता है। संसार में रहते हुए उसके सामने कोई भी सांसारिक विध्न-बाधाएँ टिक नहीं सकती। वह भगवती दुर्गा के सिंह की तरह बन जाता है, ऐसे साधक भक्त एवं योगी महापुरूष का दर्शन मात्र से सिद्धियाँ मिलने लगती हैं। परन्तु सावधान रहना चाहिए की सांसारिक उपलब्धि रूपी सिद्धियाँ संसार में भटका देती हैं। अतः उपासक एवं साधकों को यह भी सावधानी रखनी होती है कि उनका लक्ष केवल माँ दुर्गा के श्री चरणों में समर्पण है और कुछ नहीं।

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