*भक्तिसे सर्वातिशायी सामर्थ्य***-पवन तलहन
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भगवान शंकर की भक्ति से मनुष्य में इतनी सामर्थ्य आ जाती है कि वह देवों को भी अभिभूत कर सकता है! विप्र दाधीच भगवान शंकर के उत्तम भक्त थे! वे भस्म धारण करते थे और सदा भगवान शंकर का स्मरण किया करते थे! राजा क्षुप इनके मित्र थे! ये क्षुप कोई साधारण रजा नहीं थे! असुरों के युद्ध में इनसे इंद्र सहायता लेते रहते थे! क्षुप ने असुरों पर इतना पराक्रम दिखलाया कि इंद्र ने प्रसन्न हिकार इन्हें वज्र दे किया था! इस पुरस्कार को पाकर राजा क्षुप का अहंकार बढ़ गया वे अपने मित्र दाधीच से बार-बार कहा करते थे कि मैं आठ लोकपालों के अंशों से बना हूँ; अत: मैं ईश्वर हूँ! आप भी मेरी पूजा किया करें!
दाधीच को यह बात अच्छी न लगी! धीरे-धीरे दोनों मित्रों में मनोमालिन्य बढ़ने लगा! एक दिन दाधीच ने जब क्षुपके मस्तकपर मुष्टिक प्रहार किया, तब मदोन्मत्त क्षुप ने उनपर वज्र चला दिया!
वज्र से आहात होने पर दाधीच ने महर्षि शुक्र का स्मरण किया! महर्षि शुक्र संजीवनी विद्या के विशेषज्ञ थे! योग बल से वहाँ पहुँच कर उनहोंने दाधीच के क्षत-विक्षत शरीर को जोड़कर पूर्ववत बना दिया! फिर उनहोंने दाधीच को परामर्श दिया कि ‘तुम भगवान शिव की आराधना कर अवध्य बन जाओ! वे परब्रह्म हैं, आशुतोष हैं! उनकी शरण लो! मैंने उन्हीं से मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की है!’
तत्पश्चात दाधीच ने आराधना कर भगवान शंकर से अवध्यता प्राप्त कर ली! भगवान शंकर ने दाधीच की हड्डी को वज्र बना दिया और उन्हें कभी दीन-हीं न होने का वरदान दे दिया! दाधीच समर्थ होकर राजा क्षुप के पास पुन: पाहून गये! दोनों में अहंकार की मात्रा बढ़ी हुई थी! राजा क्षुप ने उनपर पुन: वज्र का प्रहार किया, किन्तु इस बार दाधीच का बाल भी बांका न हुआ! उनमें दीन-भाव न आया!
इस पराभव से रजा क्षुप ने विष्णुदेव की आराधना की! विष्णुदेव ने प्रसन्न कोकर राजा को समझाया कि “शिव के भक्त को किसी से भय नहीं होता! दाधीच की बात ही निराली है!” किन्तु राजा क्षुप का आग्रह देख विष्णुदेव ब्राह्मण का रूप धारण कर दाधीच के पास पहुंचे! शिव-भक्ति के प्रभाव से दाधीच ने विष्णुदेव को पहचान लिया और कहा कि “मैं आपकी भक्तवत्सलता को जनता हूँ, किन्तु भगवान शंकर के प्रभाव से मुझे किसी का भय नहीं है!” श्रीविष्णु ने कहा–दाधीच! भगवान शंकर की कृपा से तुम्हें सचमुच भय नशीं है और तुम सर्वज्ञ हो गये हो, किन्तु झगड़ा मिटाने के लिये एक बार तुम कह दो कि मैं डरता हूँ!” दाधीच इसके लिये तैयार नहीं हुए, तब विवश कोकर श्रीविष्णु को चक्र उठाना पडा! राजा क्षुप वहीं विद्यमान थे! चक्र को निस्तेज देखकर श्रीविष्णुदेव ने ओना सब अस्त्र-शास्त्र छोड़कर दध्हिच को अपना विश्वरूप दिखलाया! तब दध्हिच ने भगवान शंकर की कृपा से अपने शारीर में हजारों ब्रह्मा, विष्णु, महेश दिखलाये!
राजा क्षुप दध्हिच का यह अद्भुत सामर्थ्य देखकर चकित हो गये! तब उनहोंने भगवान शंकर के भक्त के महत्त्व को समझ कर दध्हिच की पूजा की! इस तरह दाधीच ने सिद्ध कर दिया कि भक्ति सबसे बढ़कर है! भक्ति नियन्ता श्रेष्ठ है!