यज्ञ से स्वर्ग की प्राप्ति–खींवराज शर्मा –
स्वर्गकामो यजेत्
दर्शपूर्णमासाभ्ययां स्वर्ग कामा यजेत् ।
मीमांसा-ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत् ।
शाबर भाष्यस्वर्ग की कामना इच्छा वाला पुरुश दर्शपूर्णमास यज्ञ करे ।
स्वर्गकाम पुरुष ज्योतिष्टोम यज्ञ करे । यह वाक्य श्री शाबर स्वामी ने मीमांसा का भाष्य करते हुए- द्रव्याणां कर्मसंयोगे गुणत्वेनाभिसम्बंधः ।(मीमा.अ.6पा..सू.1)
स्वर्गकामो यजेत् । इत्यादि वाक्य लिखा है- शाबर भाष्य में यह वाक्य शाबर स्वामी ने कहाँ से प्राप्त किया, यह प्रश्न है, इसका उत्तर है, वेद से प्राप्त किया है,
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । तेहनाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वसाध्याः सन्ति देवाः

अर्थात्-उस पूजनीय परमात्मा को ज्ञान रूप यज्ञ से विद्वान् पूजन करते हैं और पूजा रूप धर्म को धारण करते हैं, तो दुःख से सर्वथा छूट जाते हैं और स्वर्ग को प्राप्त होते हैं, जिस स्वर्ग को साधन सम्पन्न पुरुष पूर्व सृष्टियों में प्राप्त हुए हैं ।
सूर्याचन्द्रमसौधातायथा पूर्वमकल्पयत् ।(ऋ.मं.1( सू.19( मं..)
जैसी सृष्टि पूर्व कल्प में रची, वैसी ही इस कल्प में अर्थात् सृष्टि-प्रवाह से अनादि- अनन्त है । अतः वेद में कहा कि साधन सम्पन्न पुरुष यज्ञ से स्वर्ग को अर्थात् सुख विशिष्ट प्राप्त करते रहे ।
न कर्मर्कत्तृसाधन वैगुण्याः ।(न्याय अ..सू.58)
अर्थात्-कर्म-कर्त्ता और साधन यह तीनों ठीक हो तो यज्ञ से स्वर्ग प्राप्त हो जायेगा ।
स्वर्ग का अर्थ चाहे इस लोक की सुख-सुविधाओं का सन्तोष किया जाय अथवा मरणोपरान्त परलोक में देवताओं की सी स्थिति प्राप्त होना किया जाय, मनुष्य के लिए ये दोनों ही शुभ हैं । यज्ञ से मनुष्य निश्चित रूप से शान्तिदायक शुभ सद्गति को प्राप्त होता है
त्रविद्या मां सोमयाः पूतपापा
यज्ञैरिष्टा स्वर्गति प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्र लोके
मश्नंति दिव्यान् दिविदेव भोगान्॥ (गीता 9/2. )
अर्थ-वेद विधान के अनुसार यज्ञों द्वारा मुझे भगवान को पूजकर निष्पाप मनुष्य स्वर्ग चाहते हैं, वे अपने पुण्य के कारण देवलोक को-स्वर्गीय सुख को प्राप्त करते हैं ।
यज्ञ कर्ता-ऋणी नहीं रहता (यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान पृ.3.2(-21)
वेद भगवान् की प्रतिज्ञा है कि जो यज्ञ करेगा-उसे ऋणी नहीं रहने दूँगा ।
‘सुन्वताम् ऋणं न’ इस प्रतिज्ञा के होते हुए भी देखा जाता है कि कई यज्ञ करने वाले भी ऋणी बने रहते हैं । इसका कारण भी आगे चलकर वेद भगवान् ने स्पष्ट कर दिया है ।
न नूनं ब्रह्मणामृणं प्रोशूनामस्ति सुन्वताम् न सोमोअप्रतापये ।
अर्थात्-निश्चय ही यज्ञकर्ता ब्रह्म परायण मनुष्य कभी ऋणी नहीं हो सकते । किन्तु इन्द्र जिनको लाँघ कर चला जाता है, वह दरिद्र रह जाते हैं ।
इन्द्र भगवान् समस्त ऐश्वर्य के देव तो हैं, वे सब को सुखी बनाना चाहते हैं, पर वे कंजूस और नीच स्वभाव वालो से खिन्न होकर उनके समीप नहीं रुकते और उन्हें बिना कुछ दिये ही लाँघ कर चले जाते हैं । यह बात निम्न मन्त्र में स्पष्ट कर दी गई है ।
अतीहि मन्युषविणं सुषुवां समुपारणे ।
इतं रातं सुतं दिन॥
(ऋ.8/32/21)
क्रोध से यज्ञ करने वाले को अन्धा समझ कर इन्द्र भी उसे नहीं देखता । ईष्र्या से प्रेरित होकर जो यज्ञ करता है, उसे बहरा समझकर इन्द्र भी उसकी पुकार नहीं सुनते । जो यश के लिए यज्ञ करता है उसे धूर्त समझ कर इन्द्र भी उससे धूर्तता करते हैं । जिनके आचरण निकृष्ट हैं, उनके साथ इन्द्र भी स्वार्थी बन जाते हैं, कटुभाषियों को इन्द्र भी शाप देते हैं । दूसरों का अधिकार मारने वालों की पूजा को इन्द्र हजम कर जाते हैं ।
इससे प्रकट है कि जो सच्चे यज्ञकर्ता हैं, उन्हीं के ऊपर इन्द्र भगवान् सब प्रकार की भौतिक और आध्यात्मिक सुख सम्पदाएँ बरसाते हैं । भगवान् भावना के वश में हैं । जिनकी श्रद्धा सच्ची है, जिनका अन्तःकरण पवित्र है, जिनका चरित्र शुद्ध है, जो परमार्थ की दृष्टि से हवन करते हैं, उनका थोड़ा सा सामान भी इन्द्र देवता सुदामा के तन्दुलों की भाँति प्रेम-पूर्वक ग्रहण करते हैं और उसके बदले में इतना देते हैं, जिससे अग्निहोत्री को किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, वह किसी का ऋणी नहीं रहता ।
रुपये पैसे का ऋण न रहे, सो बात ही नहीं । देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण आदि सामाजिक और आध्यात्मिक ऋणों से छुट्टी पाकर वह बंधन-मुक्त होकर मुक्ति-पद का सच्चा अधिकारी बनता है ।
यज्ञ से तृप्त हुए इन्द्र की प्रसन्नता तीन प्रकार से उपलब्ध होती है-(1) कर्मकाण्ड द्वारा आधिभौतिक रूप से भौतिक ऐश्वर्य का धन, वैभव देता है । (2) साधना द्वारा पुरुषार्थियों को आधिदैविक रूप से राज्य, नेतृत्व-शक्ति और कीर्ति प्रदान करता है । (3) योगाभ्यासी, आध्यात्म-हवन करने वाले को इन्दि्रय-निग्रह मन का निरोध का ब्रह्म का साक्षात्कार मिलता है ।
यज्ञ से सब कुछ मिलता है । ऋण से छुटकारा भी मिलता है, पर याजक होना चाहिये सच्चा! क्योंकि सच्चाई और उदारता में ही इन्द्र भगवान् प्रसन्न होकर कुछ देने को तैयार होते हैं ।
(यज्ञ का ज्ञान विज्ञान पृ.3.19)

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