जानिए क्या हैं चिकित्सा ज्योतिष (मेडिकल एस्ट्रोलॉजी)—





आज के दौर में ज्योतिष विद्या के बारे में अनेकों भ्रान्तियाँ फैली हैं। कई तरह की कुरीतियों, रूढ़ियों व मूढ़ताओं की कालिख ने इस महान विद्या को आच्छादित कर रखा है। यदि लोक प्रचलन एवं लोक मान्यताओं को दरकिनार कर इसके वास्तविक रूप के बारे में सोचा जाय तो इसकी उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता। यह व्यक्तित्व के परीक्षा की काफी कारगर तकनीक है। इसके द्वारा व्यक्ति की मौलिक क्षमताएँ, भावी सम्भावनाएँ आसानी से पता चल जाती हैं। साथ ही यह भी मालूम हो जाता है कि व्यक्ति के जीवन में कौन से घातक अवरोध उसकी राह रोकने वाले हैं अथवा प्रारब्ध के किन दुर्योगों को उसे किस समय सहने के लिए विवश होना है। 
          
लेकिन इसके लिए इसके स्वरूप एवं प्रक्रिया के विषय को जानना जरूरी है। आज का विज्ञान व वैज्ञानिकता इस सत्य को स्वीकारती है कि अखिल ब्रह्माण्ड ऊर्जा का भण्डार है। यह स्वीकारोक्ति यहाँ तक है कि आधुनिक भौतिक विज्ञानी पदार्थ के स्थान पर ऊर्जा तरंगों के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। उनके अनुसार पदार्थ तो बस दिखने वाला धोखा है, यथार्थ सत्य तो ऊर्जा ही है। इस सृष्टि में कोई भी वस्तु हो या फिर प्राणि- वनस्पति, वह जन्मने के पूर्व भी ऊर्जा था और मरने के बाद भी ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तरंगों का एक हिस्सा बन जायेगा। विज्ञानविद् एवं अध्यात्मवेत्ता दोनों ही इस सत्य को स्वीकारते हैं कि ब्रह्माण्डव्यापी इस ऊर्जा के अनेकों तल- स्तर एवं स्थितियाँ हैं जो निरन्तर परिवॢतत होती रहती हैं। इनमें यह परिवर्तन ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का कारण है। 
          
हालाँकि यह परिवर्तन क्यों होता है- इस बारे में वैज्ञानिकों एवं अध्यात्मविदों में सैद्धान्तिक असहमति है। वैज्ञानिक दृष्टि जहाँ इस परिवर्तन के मूल कारण मात्र सांयोगिक प्रक्रिया मानकर मौन धारण कर लेती है। वहीं आध्यात्मिक दृष्टिकोण इसे ब्राह्मीचेतना से उपजी सृष्टि प्रकिया की अनिवार्यता के रूप में समझता है। इसके अनुसार मनुष्य जैसे उच्चस्तरीय प्राणी की स्थिति में परिवर्तन उसके कर्मों, विचारों, भावों एवं संकल्प के अनुसार होता है। ज्योतिष विद्या का आधारभूत सब यही है। यद्यपि इस विद्या के विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि जीवन व्यापी परिवर्तन के इस क्रम में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के विविध स्तर भी किसी न किसी प्रकार से मर्यादित होते हैं। ऊर्जा के इन विभिन्न स्तरों को ज्योतिष के विशेषज्ञों ने प्रतीकात्मक संकेतों में वर्गीकृत किया है। नवग्रह, बारह राशियाँ, सत्ताइस नक्षत्र इस क्रमिक वर्गीकरण का ही रूप है। प्रतीक कथाओं, उपभागों एवं रूपकों में इनके बारे में कुछ भी क्यों न कहा गया हो, पर यथार्थ में ये ब्रह्माण्डीय ऊर्जा धाराओं के ही विविध स्तर व स्थितियाँ हैं। 
          
ज्योतिष के मर्मज्ञ एवं आध्यात्मिक ज्ञान के विशेषज्ञ दोनों ही एक स्वर से इस सच्चाई को स्वीकारते हैं कि मनुष्य के जन्म के क्षण का विशेष महत्त्व है। यूँ तो महत्त्व प्रत्येक क्षण का होता है, पर जन्म का क्षण व्यक्ति को जीवन भर प्रभावित करता रहता है। ऐसा क्यों है? तो इसका आसान सा जवाब यह है कि प्रत्येक क्षण में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विशिष्ट शक्तिधाराएँ किसी न किसी बिन्दु पर किसी विशेष परिमाण में मिलती हैं। मिलन के इन्हीं क्षणों में मनुष्य का जन्म होता है। इस क्षण में ही यह निर्धारित हो पाता है कि ऊर्जा की शक्तिधाराएँ भविष्य में किस क्रम में मिलेंगी और जीवन में अपना क्या प्रभाव प्रदर्शित करेंगी। 
          
चिकित्सा ज्योतिष (मेडिकल एस्ट्रोलॉजी) के संबंध में कुछ नियम वेद-पुराणों में भी दिये गये हैं—


विष्णु पुराण तृतीय खंड अध्याय-.1 के श्लोक 78 में आदेश है कि भोजन करते समय अपना मुख पूर्व दिशा, उत्तर दिशा में रखें । उससे पाचन क्रिया उत्तम रहती है और शरीर स्वस्थ रहता है। 


इसी प्रकार विष्णु पुराण तृतीय अंश अध्याय-11 के श्लोक 111 में उल्लेख है कि शयन करते समय अपना सिर पूर्व दिशा में, या दक्षिण दिशा में रख कर सोवें। इससे स्वास्थ्य उत्तम रहता है। 


उत्तर दिशा में सिर रख कर कभी नहीं सोवें, क्योंकि उत्तर दिशा में पृथ्वी का चुंबक नार्थ उत्तरी ध्रुव है और मानव शरीर का चुंबक सिर है। अतः . चुंबक एक दिशा में होने से असंतुलन होगा और नींद ठीक से नहीं आएगी तथा स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ेगा। उच्च रक्तचाप हो जाएगा। शायद इसी कारण भारतवर्ष में मृत शरीर का सिर उत्तर में रखते हैं। 


कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि क्या ज्योतिषी डॉक्टर की भूमिका निभा सकते हैं? इसका उत्तर यह है कि ज्योतिषी डॉक्टर की भूमिका नहीं निभाते, परंतु जन्मपत्रिका, या हस्तरेखा के आधार पर ज्योतिषी यह बताने का प्रयत्न करते हैं कि उक्त व्यक्ति को भविष्य में कौन सी बीमारी होने की संभावना है, जैसे जन्मपत्रिका में तुला लग्न, या राशि पीड़ित हो, तो व्यक्ति को कमर के निचले वाले भाग में समस्या होने की संभावना रहती है। जन्मपत्रिका में बीमारी का घर छठवां स्थान माना जाता है और अष्टम स्थान आयु स्थान है। 


तृतीय स्थान अष्टम से अष्टम होने से यह स्थान भी बीमारी के प्रकार की ओर इंगित करता है, जैसे तृतीय स्थान में चंद्र पीड़ित हो, तो टी.बी. की बीमारी की संभावना रहती है और तृतीय स्थान में शुक्र पीड़ित हो, तो शर्करा की बीमारी ‘मधुमेह’ की संभावना रहती है। शनि, या राहु तृतीय स्थान में पीड़ित होने पर जहर खाना, पानी में डूबना, ऊंचाई से गिरना और जलने से घाव होना आदि की संभावना बनती है।


बात केवल मनुष्य की नहीं है, उस क्षण में जन्मने वाले मिट्टी, पत्थर, मकान- दुकान, कुत्ता, बिल्ली, वृक्ष- वनस्पति सभी का सच एक ही है। यही कारण है कि ज्योतिष के मर्मज्ञ व विशेषज्ञ प्रत्येक जड़ या चेतन का ऊर्जा चक्र या कुण्डली तैयार करते हैं। यह चक्र प्रायः ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की नव मूल धाराओं या नवग्रह एवं बारह विशिष्ट शक्तिधाराओं या राशियों को लेकर होता है। यदि गणना सही ढंग से की गई है तो इन ऊर्जा धाराओं के सांयोगिक प्रभाव इन पर देखने को मिलते हैं। परन्तु मनुष्य की स्थिति थोड़ी सी भिन्न है। वह न तो जड़ पदार्थों की तरह एकदम अचेतन है और न वृक्ष- वनस्पतियों या अन्य प्राणियों की तरह अर्धचेतन। इसे तो आत्मचेतन कहा गया है। इसमें दूरदर्शी विवेकशीलता का भण्डार है। यही वजह है कि वह स्वयं को अपने ऊपर पड़ने वाले ब्रह्माण्डीय ऊर्जा प्रवाहों के अनुसार समायोजित करने में सक्षम है। 
          
जहाँ तक ज्योतिष की बात है तो वह जन्म क्षण के अनुसार बनाये गये ऊर्जा चक्र के क्रम में यह निर्धारित करती है कि इस व्यक्ति पर कब कौन सी ऊर्जा धाराएँ किस भाँति प्रभाव डालने वाली हैं। इस चक्र से यह भी पता चलता है कि विगत में किये गये किन कर्मों, संस्कारों अथवा प्रारब्ध के किन कुयोगों अथवा सुयोगों के कारण उसका जन्म इस क्षण में हुआ। यह ज्ञान ज्योतिष का एक भाग है। इसी के साथ इसका दूसरा हिस्सा भी जुड़ा हुआ है। यह दूसरा हिस्सा इन विशिष्ट ऊर्जाधाराओं के साथ समायोजन के तौर- तरीकों से सम्बन्धित है। अर्थात् इसमें यह विधि विज्ञान है कि किन स्थितियों में हम क्या करें? यानि कि क्या उपाय करके मनुष्य अपने जीवन में आने वाले सुयोगों व सौभाग्य को बढ़ा सकता है। और किन उपायों को अपना कर वह अपने कुयोगों को कम अथवा निरस्त कर सकता है। 
          
प्रत्येक स्थिति को सँवारने के लिए अनेकों विधियाँ हैं और सभी प्रभावकारी हैं। आध्यात्मिक चिकित्सक इनमें से किसी भी विधि को स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं। यह सब उनकी विशेषज्ञता पर निर्भर है। हालाँकि इन पंक्तियों में इस सच को स्वीकारने में कोई संकोच नहीं हो रहा है कि आज के दौर में ऐसे विशेषज्ञ व मर्मज्ञ नहीं के बराबर हैं, जो अध्यात्म साधना और ज्योतिष विद्या दोनों में निष्णात हों, पर कुछ दशक पूर्व भारतीय विद्या के महा पण्डित महामहोपाध्याय डॉ. गोपीनाथ कविराज के गुरु स्वामी विशुद्धानन्द जी महाराज के जीवन में यह दुर्गम सुयोग उपस्थित हुआ था। हिमालय के दिव्य क्षेत्र ज्ञानगंज के साधना काल में उन्होंने अपने गुरुओं से अध्यात्म चिकित्सा के साथ ज्योतिष विद्या में भी मर्मज्ञता प्राप्त की थी। 
          
वह ज्योतिष के तीनों आयामों- १. गणित ज्योतिष, २. योग ज्योतिष एवं देव ज्योतिष में पारंगत थे। गणित ज्योतिष को तो सभी जानते हैं। इसमें जन्म समय के अनुसार गणना करके फलाफल का विचार किया जाता है। योग ज्योतिष में योग विद्या के द्वारा व्यक्ति के माता- पिता के मिलन का पता करते हैं, इसकी गणना गर्भाधान के क्षण से की जाती है, न कि जातक के भूमिष्ट होने के क्षण से। देव ज्योतिष में कई आश्चर्य प्रकट होते हैं। जैसे व्यक्ति के नाम से ही उसकी कुण्डली बना देना। उसके वस्त्र अथवा किसी परिचित व्यक्ति को आधार मानकर उसके जन्म चक्र एवं फलाफल का ठीक- ठीक विवेचन कर देना। व्यक्ति को देखकर उसकी पत्नी अथवा किसी दूर- दराज के रिश्तेदान की जन्म कुण्डली बना देना और उसका सही फलाफल बता देना। 
          
स्वामी विशुद्धानन्द अपनी अध्यात्म चिकित्सा में ज्योतिष के इन आयामों का समयानुसार उपयोग करते थे। रोहणी कुमार चेल महाशय ने उनके साथ हुए अपने अनुभव को बताते हुए कहा है, कि जब वह पहली बार उनसे मिलने गये तो अपने हैण्ड बैग में स्वयं की एवं पत्नी की कुण्डली लेकर गये थे। मकसद जिन्दगी की कुछ समस्याओं का समाधान पाना था। पर ज्यों ही वह बैठे और कुण्डली निकालने लगे, त्यों ही विशुद्धानन्द जी ने उन्हें टोक दिया और कहा रुको यह कहते हुए उन्होंने किताब के अन्दर रखा कागज निकाला। इस कागज में न केवल उनकी वरन् उनकी पत्नी की कुण्डली थी बल्कि फलाफल आदि का विवरण लिखा था। आश्चर्यचकित रोहणी कुमार चेल ने अपने पास रखी एवं विशुद्धानन्द महाराज द्वारा बतायी गयी कुण्डलियों को मिलाया। इसमें पत्नी की कुण्डली तो एकदम वही था, पर उनकी कुण्डली में जन्म लग्र अलग थी। 
          
जिज्ञासा करने पर उन्होंने कहा कि मेरी बनायी कुण्डली ही सही है, क्योंकि तुम्हारे पास की कुण्डली यदि सही होती तो तुम साधारण इंसान न होकर अवतार होते। और तुम हमारे पास न आते, बल्कि मैं स्वयं तुम्हारे पास आता। क्योंकि तुम्हारे पास की जो कुण्डली है उसमें वर्णित जन्म लग्र के साथ ब्रह्माण्ड की जो ऊर्जाधाराएँ जिस क्रम में मिल रही थीं, वह सब कुछ असाधारण था। ऐसे समय मंस तो मानव जन्म घटित ही नहीं होता। वह तो एक असाधारण क्षण था। इस वार्तालाप के साथ ही उन्होंने उनकी आध्यात्मिक चिकित्सा के सारे सरंजाम जुटा दिये। इस चिकित्सा की प्रक्रिया में कतिपय तंत्र की तकनीकें भी शामिल थीं।


चिकित्सा शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र दोनों प्राचीन विज्ञान हैं मनुष्य जीवन को स्वस्थ रखने में दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका है !चिकित्सा और ज्योतिष दोनों ही सब्जेक्ट समाज के लिए बहुत उपयोगी हैं और इन दोनों ही विषयों की आवश्यकता समाज के लगभग  प्रत्येक  व्यक्ति को पड़ती रहती है कोई बीमार होगा तो उसे दवा चाहिए और जो किसी भी विषय में परेशान होगा उसे ज्योतिष का सहयोग चाहिए यही कारण है कि समाज का लगभग हर व्यक्ति अपने को औषधि वैज्ञानिक अर्थात डॉक्टर एवं ज्योतिष वैज्ञानिक अर्थात ज्योतिषी सिद्ध करने का प्रयास कैसे भी करता रहता है ||


ज्योतिषी को ., 6, 8 स्थान के ग्रहों की शक्ति देखनी चाहिए। यदि यह पता लग जाए कि भविष्य में कौनसी बीमारी की संभावना है, तो उससे बचने के उपाय करते रहेंगे, जैसे हृदय रोग होने की संभावना होगी तो वसा वाले पदार्थ नहीं खाएंगे और मानसिक तनाव से बचने का प्रयास करेंगे। इसी प्रकार सर्दी की तासीर की संभावना है, तो उससे बचते रहेंगे।


यदि आधुनिक भारत के डॉक्टर ज्योतिष का ज्ञान रखें, तो वे सरलता से निदान कर के, उचित इलाज करने में सक्षम होंगे। इसी प्रकार ज्योतिषीयों को भी मानव शरीर का ज्ञान होना आवश्यक है, जैसे जन्मपत्री में जो राशि, या ग्रह छठवें, आठवें, या बारहवें स्थान में पीड़ित हो, या इन स्थानों के स्वामी हो कर पीड़ित हो, तो उनसे संबंधित बीमारी की संभावना रहती है। इस संदर्भ में यहां, जन्मपत्री के अनुसार प्रत्येक स्थान और राशि से शरीर के कौन-कौन से अंग प्रभावित होते हैं, उनकी संक्षेप में सभी को जानकारी दी जा रही है। 


मेष राशि/लग्न : यह अग्नि तत्व राशि है। यह मस्तिष्क सिर, जीवन शक्ति और पित्त को प्रभावित करती है। इस लग्न वाला व्यक्ति श्रेष्ठ जीवन शक्ति वाला होता है। ऐसा व्यक्ति माणिक धारण करे, तो स्वास्थ्य उत्तम रहने की संभावना है। ज्योतिष शास्त्र के द्वारा बीमारियों का पूर्वानुमान लगाया जाता है। डॉक्टर, व्यक्ति के रोगी होने पर उसका इलाज करते हैं, परंतु ज्योतिष एक ऐसी विद्या है जिसके द्वारा बीमारियों का पूर्वानुमान लगा कर उनसे बचने के उपाय किये जाते हैं, बीमारी से बचा जा सकता है, या उसकी तीव्रता कम की जा सकती है। 


वृष राशि/लग्न : यह पृथ्वी तत्व राशि है। यह मुख, नेत्र, कंठ नली, आंत तथा वात को प्रभावित करती है। इस लग्न वाला सामान्यतः स्वस्थ रहता है। गले में संक्रमण की शिकायत इन व्यक्तियों को अधिक रहती है। इसके लिए सावधानी बरतें, तो उत्तम होगा। 


मिथुन राशि/ लग्नः यह वायु तत्व राशि है। यह कंठ, भुजा, श्वास नली, रक्त नली, श्वास क्रिया तथा कफ को प्रभावित करती है। इस लग्न वाले की जीवन शक्ति सामान्य रहती है। 


कर्क राशि/ लग्नः यह जल तत्व राशि है। यह वक्ष स्थल, रक्त संचार और पित्त को प्रभावित करती है। इस राशि-लग्न वालों को मूंगा लाभकारी है जो जीवनदायिनी औषधि का काम करता है। 


सिंह राशि/लग्न : यह अग्नि तत्व राशि है। यह जीवन शक्ति, हृदय, पीठ, मेरुदंड, आमाशय, आंत और वात को प्रभावित करती है। इस लग्न, राशि वाले में जीवन शक्ति अधिक रहती है। इनके लिए मूंगा जीवन शक्तिदायक और लाभदायक है। 


कन्या राशि/लग्न : जन्मपत्रिका में छठा स्थान बीमारी का स्थान माना जाता है। इस कारण जन्मपत्री का परीक्षण करते समय छठवें स्थान, या कन्या राशि का सूक्ष्म और सावधानी से परीक्षण करना चाहिए। यह पृथ्वी तत्व राशि है। यह उदर के बाहरी भाग, हड्डी, आंतें, मांस और कफ को प्रभावित करती है। 


राशि तुला/ लग्न : यह वायु तत्व राशि है। यह कम, श्वास क्रिया तथा पित्त को प्रभावित करती है। इस लग्न वालों के स्वास्थ्य के लिए नीलम लाभकारी है। 


वृश्चिक राशि/ लग्न : या यह जल तत्व राशि है। यह जननेंद्रिय, गुदा, गुप्तांग, रक्त संचार और वात को प्रभावित करती है। 


धनु राशि/लग्न : यह अग्नि तत्व राशि है। यह जांघ, नितंब तथा कफ और पाचन क्रिया को प्रभावित करती है। इसके लिए पीला पुखराज लाभकारी है। 


मकर राशि/लग्न : यह पृथ्वी तत्त्व राशि है। यह जांघ, घुटनों के जोड़, हड्डी, मांस तथा पित्त को प्रभावित करती है। इनके लिए नीलम और हीरा लाभकारी हैं। 


कुंभ राशि/लग्न : यह वायु तत्त्व राशि है। यह घुटने, जांघ के जोड़, हड्डियों-नसों, श्वास क्रिया तथा वात को प्रभावित करती है। 


मीन राशि/लग्नः यह जल तत्त्व राशि है। यह पांव, पांव की उंगलियों, नसों, जोड़ों, रक्त संचार तथा कफ को प्रभावित करती है। इनके स्वास्थ्य के लिए मोती लाभकारी है।


ज्योतिष द्वारा रोगों की पहचान व चिकित्सा ज्योतिषशास्त्र में जन्म कुंडली, वर्ष कुंडली, प्रश्न कुंडली, गोचर तथा सामूहिक शास्त्र की विधाएँ व्यक्ति के प्रारब्ध का विचार करती हैं, उसके आधार पर उसके भविष्य के सुख-दु:ख का आंकलन किया जा सकता है। चिकित्सा ज्योतिष में
इन्हीं विधाओं के सहारे रोग निर्णय करते हैं तथा उसके आधार पर उसके ज्योतिषीय कारण को दूर करने के उपाय भी किये जाते हैं। इसलिए चिकित्सा ज्योतिष को ज्योतिष द्वारा रोग निदान की विद्या भी कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे मेडिकल ऐस्ट्रॉलॉजी कहते हैं।
मन और शरीर के मध्य तारतम्य स्वास्थ्य है तथा इस तारतम्य का टूटना ही रोग है। जन्मपत्रिका में सूर्यए चन्द्रमा, लग्न की स्थिति एवं कुछ अन्य योग यह तय करते है कि हमारी जन्मजात रोग प्रतिरोधक क्षमता कैसी होगी। बृहत पाराशर होरा शास्त्र में कुछ विशेष परिस्थितियों में हुए जन्म को अशुभ जन्म माना गया है। यदि इन विशेष स्थितियों में जन्म हो तो ये जन्म पत्रिका के अन्य शुभ योगों को नष्ट कर देते हैं। अशुभ जन्म में निम्न स्थितियों का वर्णन किया गया है।


1. अमावस्या 2. कृष्ण चतुर्दशी 3. भद्रा करण 4. भाई या पिता का एक नक्षत्र 5. संक्रान्ति 6. क्रान्तिसाम्य-सूर्य और चन्द्रमा की क्रांति समान हो 7. सूर्य ग्रहण 8. चन्द्र ग्रहण 9. व्यतिपातादि दुर्योग 1.. त्रिविद्य गण्डान्त 11. यमघण्ट योग 12. तिथि क्षय 13. ग्धादि योग 14. त्रिखल जन्म 15. विकृत प्रसव 16. तुला मास 17. सार्प शीर्ष-वृश्चिक संक्रांति मास में अमावस्या का जन्म हो और सूर्य-चन्द्रमा अनुराधा नक्षत्र के तीसरे या चौथे चरण में हो तो सार्प शीर्ष दोष होता है। जीवन भय, घातक रोग, धन आदि का क्षय। जब तक शांति न हो शिवालय में घी का दीपक जलाएं।
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जन्मजात रोग-प्रतिरोधात्मक क्षमता—-
सूर्य चन्द्रमा और लग्न जन्मपत्रिका में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अच्छे स्वास्थ्य के लिए इन तीनों का बली होना अत्यंत आवश्यक है। यदि ये तीनों बली हो तो व्यक्ति आदिव्याधि से बचा रहता है। अष्टम भाव आयु का भाव है, इसलिए अष्टम भाव और अष्टमेश का भी बली होना आवश्यक है। जन्मजात रोग प्रतिरोधक क्षमता निम्न स्थितियों में अच्छी रहती है :—


1. बली लग्र एवं लग्नेश
2. लग्न एवं लग्नेश का शुभ कतृरि में होना
3. 3,6,11 में अशुभ ग्रह एवं गुलिक
4. केन्द्र-त्रिकोण में शुभ ग्रह होना
5. अष्टम भाव में शनि होना।
6. बली अष्टमेश
7. बली आत्मकारक
8. लग्न व अष्टम भाव में अधिक अष्टक वर्ग बिन्दु होना
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जन्म पत्रिका में लग्र, सूर्य, चंद्र के चक्र बिंदुओ से शरीर के बाहरी, भीतरी रोग को आसानी से समझा जा सकता है। लग्र बाहर के रोगो का, तथा सूर्य भीतर के रोग, तेज, प्रकृति का तथा चंद्रमा मन उदर का प्रतिनिधी होता है। इन तीनों ग्रहों का अन्य ग्रहों से पारस्परिक संबध या शत्रुता ही शरीर के विभिन्न रोगो को जन्म देती है। 


रक्तचाप के लिए चन्द्र, मंगल और शनि ग्रह को अधिक उत्तरदायी माना गया है। शनि ग्रह और साढ़े साती से व्याप्त भय तथा विनाश की चर्चा अक्सर की जाती है, हजारों उपाय भी किये जाए हैं। लेखक ने भी ऐसी ग्रह दशा से पीड़ित लोगों को रक्तचाप से ग्रसित होना बताया है। रक्तचाप की भांति मुधमेह भी आम रोग हो गया है। मानसिक तनाव और अनियमित खान-पान को इसका कारण बताया गया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बताया गया है कि सूर्य-चन्द्र द्वादश भाव में स्थित हों, राहु और सूर्य सप्तम स्थान में हों, शनि और मंगल के साथ चन्द्रमा छठे, आठवें और बारहवें स्थान में स्थित हों तो व्यक्ति नेत्रहीन होगा।


किसी भी जन्म पत्रिका का षष्ठ भाव रोग का स्थान होता है। शरीर में कब, कहां, कौन सा रोग होगा वह इसी से निर्धारित होता है। यहां पर स्थित क्रूर ग्रह पीड़ा उतपन्न करता है। उस पर यदि शुभ ग्रहो की दृष्टि न हो तो यह अधिक कष्टकारी हो जाता है। प्रश्न कुण्डली रोग के विषय में जानकारी प्राप्त करने का साधारण तरीका है |


जानिए रोग के कारक ग्रह—
सूर्य के कारण–बुखार, हृदय सम्बन्धी रोग, नेत्र रोग, सिर दर्द, अस्थियों में तकलीफ, पित्त दोष ये ऐसे रोग हैं जिनके कारक ग्रह सूर्य हैं |हृदय, पेट, पित्त, दांयीं आंख, घाव, जलने का घाव, गिरना, रक्त प्रवाह में बाधा आदि के लिए सूर्य उत्तरदायी होता है |।। ज्योतिष के मुताबिक सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह सूर्य है। सूर्य का सीधा असर इंसान की आंखों, हड्डियों और आत्मविश्वास पर होता है। अगर सूर्य की दशा और दिशा आपके पक्ष में न हो तो आप आंखों और हड्डियों से जुड़ी किसी बीमारी से ग्रसित हो सकते हैं। सूर्य, सिंह राशि का स्वामी है।


चन्द्रमा के कारण–सर्दी – खांसी, फेफड़ों में परेशानी, नजला, जुकाम, क्षय रोग, श्वास सम्बन्धी रोग एवं मानसिक रोगों के लिए चन्द्र उत्तरदायी होता है | |चंद्रमा को शांति का प्रतीक माना जाता है। ज्योतिषियों के मुताबिक दिमाग और खून से जुड़ी बीमारियों का संबंध चंद्रमा की दशा से है। चंद्रमा कर्क राशि का स्वामी है।


मंगल के कारण–शरीर के तरल पदार्थ, रक्त बायीं आंख, छाती, दिमागी परेशानी, महिलाओं में मासिक चक्र, सिर, जानवरों द्वारा काटना, दुर्घटना, जलना, घाव, शल्य क्रिया ऑपरेशन, उच्च रक्तचाप, गर्भपात इत्यादि के लिए मंगल उत्तरदायी होता है |।मंगल- मंगल ग्रह इंसान की ताकत और हिम्मत पर सीधा असर करता है। ज्योतिषियों के मुताबिक मंगल की दशा बिगड़ने पर इंसान की ताकत और प्रभाव में कमी आ सकती है। मंगल ग्रह वृश्चिक और मेष राशि का स्वामी है।


बुध के कारण–एलर्जी, पागलपन, हिस्टीरिया, चर्म रोग, मिर्गी एवं सन्निपात  और गला, नाक, कान, फेफड़े, आवाज, बुरे सपने आदि के लिए बुध उत्तरदायी होता है |। अगर आपकी बोलचाल की क्षमता पर असर पड़े तो मतलब बुध की दशा ठीक नहीं है। ज्योतिषियों की मानें तो त्वचा से जुड़ी बीमारियां भी बुध की दशा पर निर्भर करती हैं। बुध कन्या और मिथुन राशि का स्वामी है।


गुरु के कारण  — यकृत, शरीर में चर्बी, मधुमेह, शुक्र चिरकालीन बीमारियां, कान इत्यादि के लिए गुरु उत्तरदायी होता है |। 
पीलिया, पेट की खराबी, गुर्दे में परेशानी, वायु विकार, मोटपा जैसे रोगों के लिए गुरू उत्तरदायी होते है |लीवर और कान से जुड़ी समस्या का सीधा संबंध बृहस्पति ग्रह से होता है। अगर बृहस्पति की दशा और दिशा आपके अनुकूल नहीं है तो लीवर और सुनने की क्षमता पर असर पड़ सकता है। बृहस्पति, धनु और मीन राशि का स्वामी है।


शुक्र के कारण—शुक्र के प्रभाव से गुप्त रोग, कमज़ोरी, प्रदर, मधुमेह,मूत्र में जलन, गुप्त रोग, आंख, आंतें, अपेंडिक्स, मधुमेह, मूत्राशय में पथरी आदि  का सामना करना होता है|इंसान के काम करने की क्षमता पर सीधा असर डाल सकता है शुक्र। शुक्र की दशा ठीक न होने पर यौन रोगों से जुड़ी समस्या भी हो सकती है। शुक्र तुला और वृषभ राशि का स्वामी है।


शनि के कारण–जोड़ों में दर्द, नाड़ी सम्बन्धी दोष, गठिया, सूखा, पेट दर्द और पांव, पंजे की नसें, लसिका तंत्र, लकवा, उदासी, थकान की तकलीफ का कारण शनि उत्तरदायी होता है |। |ज्योतिषियों के मुताबिक शनि की ग्रह दशा इंसान के जीवन पर खासा असर डालती है लेकिन सेहत के हिसाब से शनि नाड़ी तंत्र को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। नस-नाड़ी से जुड़ी बीमारी शनि ग्रह की दशा ठीक नहीं होने पर हो सकती है। शनि मकर और कुंभ राशि का स्वामी है ।


राहु के कारण–हडि्डयां, जहर फैलना, सर्प दंश, क्रॉनिक बीमारियां, डर आदि के लिए राहु उत्तरदायी होता है |। | 


केतु के कारण– हकलाना, पहचानने में दिक्कत, आंत्र, परजीवी इत्यादि के लिए केतु उत्तरदायी होता है |। | 
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उपचार स्थिती–
प्रश्न कुण्डली में प्रथम, पंचम, सप्तम एवं अष्टम भाव में पाप ग्रह हों और चन्द्रमा कमज़ोर या पाप पीड़ित हों तो रोग का उपचार कठिन होता है जबकि चन्द्रमा बलवान हो और 1, 5, 7 एवं 8 भाव में शुभ ग्रह हों तो उपचार से रोग का ईलाज संभव हो पाता है.पत्रिका में तृतीय, षष्टम, नवम एवं एकादश भाव में शुभ ग्रह हों तो उपचार के उपरान्त रोग से मुक्ति मिलती है.सप्तम भाव में शुभ ग्रह हों और सप्तमांश बलवान हों तो रोग का निदान संभव होता है.चतुर्थ भाव में शुभ ग्रह की स्थिति से ज्ञात होता है कि रोगी को दवाईयों से अपेक्षित लाभ प्राप्त होगा. इसके आलावा अलग अलग ग्रहों के उपचार के साथ साथ रोगो से बचने के लिये महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें। 
-ऊँ नम: शिवाय मंत्र का सतत जाप करें। -ऊँ हूँ जूँ स: इन बीज मंत्रो का चौबीसो घंटे जाप करे। 
-शिव का अभिषेक करें।

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