भारतवर्ष में शक्ति उपासना का इतिहास अत्यन्त प्राचीन एवं व्यापक है। अनादिकाल से जगन्माता की उपासना प्रचलित है। कहा गया है- शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं न चे देवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि। अतस्त्वामाराध्यां हरि हर विरिन्च्यादिभिरप प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृत पुण्यः प्रभवति ॥ अर्थात स्वयं शिव भी तभी कुछ करने में समर्थ होते हैं जब शक्ति से युक्त होते हैं। इसके बिना तो किंचित मात्र हिलने में भी वे असमर्थ हैं। शक्ति साधना के महत्व से हर कोई अच्छी तरह परिचित है। देश के कोने-कोने में शक्तिपूजा अपने भिन्न-भिन्न स्वरूपों में विद्यमान है। नवरात्रि पर्व के दौरान इसका दिग्दर्शन सर्वत्र सहज ही किया जा सकता है। ख़ासकर शक्तिपीठों एवं सिद्ध-जागृत स्थलों में देवी पूजा की विभिन्न परंपराएँ आज भी अक्षुण्ण बनी हुई शाक्त उपासना का कीर्तिगान कर रही हैं। राजस्थान का दक्षिणाँचल वाग्वर प्रदेश भी देश के उन गिने-चुने स्थलों में है जहाँ शक्ति पूजा का पुरातन स्वरूप अपनी सम्पूर्ण मौलिकता के साथ बरकरार है। त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर की स्थापना के बारे में अधिकृत जानकारी कहीं नहीं मिलती, तथापि सत्य है कि यह अत्यधिक पुराना धाम रहा है। ऎसा माना जाता है कि इसका निर्माण सम्राट कनिष्क से पूर्व हुआ है। उस जमाने के श्विलिंग इस मन्दिर के आस-पास पाए गए हैं जिनसे इसकी प्राचीनता का बोध होता है। कुछ विद्वान इसका निर्माण तीसरी शताब्दी से पूर्व होना बताते हैं। यह देश के प्रमुख श्रद्धा केन्द्रों में अपनी पहचान बना चुका है। माना जाता है कि जिस स्थान पर आज यह मन्दिर अवस्थित है वहाँ किसी समय दुर्गापुर नामक नगर बसा हुआ था। यहाँ प्राप्त शिलालेख में ‘त्रिउरारी’ अर्थात ‘त्रिपुरारी’ शब्द का उल्लेख मिलता है। इसी क्षेत्र में शिवपुरी, शक्तिपुरी एवं विष्णुपुरी नामक तीन दुर्ग थे। अतीत में इस मन्दिर को विशेष महत्व प्राप्त था । मन्दिर के पृष्ठ भाग में युगल देवताओं ब्रह्मा-विष्णु-महेश, दक्षिण में काली तथा उत्तर में आठ भुजाओं वाली महा सरस्वती के मन्दिर थे। इसका प्रमाण दुर्गा सप्तशती के वैकृतिक रहस्य में देखने को मिलता है। विशालकाय एवं ऎतिहासिक मन्दिर के गर्भ गृह में अष्टादश भुजाओं वाली देवी की मनोहारी भव्य मूर्ति है जिसे भक्तजन तरतई माता, त्रिपुर सुन्दरी, दुर्गा, महालक्ष्मी आदि नामों से संबोधित कर अगाध आस्था व्यक्त करते हैं। सिंहारूढ़ देवी की अठारह भुजाओं में विविध आयुध सुशोभित हैं। श्यामवर्ण की भव्य कांतियुक्त तेजोपुञ्ज मूर्ति के दर्शनमात्र से हर कोई दर्शनार्थी आत्मविभोर हो सहज ही आकर्षण के पाश में बंध कर चैतन्य तत्व का आभास पाता है। बरबस यह स्वर फूट पड़ते हैं –विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषण कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम् !हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनी विभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे ॥ मूर्ति के प्रभामण्डल में छोटी-छोटी किन्तु सुन्दर मूर्तियाँ हैं जो शिल्प कला की दृष्टि से भी अन्यतम हैं। देवी की मूर्ति के अधोभाग में काले-चमकीले संगमरमर पर ‘श्री यंत्र’ अंकित है जिसका तंत्र शास्त्रीय दृष्टि से विशेष महत्व है। यहाँ के परमार शासकों के समय देवी की पूजा-अर्चना की विशेष व्यवस्था थी।कई राजा-महाराजाओं ने यहाँ शक्ति साधना के विशेष अनुष्ठान, शाक्त कराए और देवी की कृपा प्राप्त की। भारतवर्ष के विभिन्न हिस्सों से राजा-महाराजा अपनी ख़ास मनौतियों के लिए त्रिपुर सुन्दरी की शरण में आते रहे हैं। यही नहीं तो अनेक तपस्वियों एवं शाक्त साधकों की यह सिद्ध स्थली रहा है, जहाँ रह कर इन्होंने दैवी से साक्षात्कार किया। यही कारण है कि शक्तिपीठों व उप पीठों के संबंध में पुराणों में वर्णित अधिकृत सूची में स्थान न होते हुए भी त्रिपुरा सुन्दरी तीर्थ शक्तिपीठ के बराबर का दर्जा रखता है। देवी के चमत्कारों की अनेकों गाथाएँ बहुश्रुत हैं। इनमें कई घटनाओं का संबंध महाराज विक्रमादित्य, सिद्धराज जयसिंह, मालवा के नरेश जगदेव परमार आदि से जोड़ा जाता है। हालांकि इस मन्दिर को त्रिपुर सुन्दरी का मन्दिर कहा जाता है लेकिन तथ्य यह है कि यह अष्टादशभुजा महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी का मन्दिर है और निज मन्दिर में प्रतिष्ठित मूर्ति का स्वरूप भी वही है, जिसके बारे में दुर्गा सप्तशती में कहा गया है – अष्टादशभुजा चैषा पूज्या महिषमर्दिनी। महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभुः पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्तवत्सलाम् त्रिपुर सुन्दरी के वास्तविक स्वरूप के बारे में श्रीविद्या ग्रंथों में इस तरह बताया गया है – महाकामेशमहिषी पन्चप्रेतासनस्थिता सेयं विराजते देवी महात्रिपुरसुन्दरी । लौहित्यनिर्जित जपाकुसुमानुरागां पाशांकुशौ धनुरिषूनपिधारयन्तीम्। तामे्रक्षणामरुणमाल्य विशेषभूषां ताम्बूलपूरितमुखीं त्रिपुरां नमामि॥ अर्थात त्रिपुर सुन्दरी देवी लाल रंग, जपा कुसुम के अनुरूप, पाश, अंकुश, धनुष, बाण धारण किए हैं। यह देवी मन्दिर श्रद्धा के साथ-साथ पर्यटन की दृष्टि से भी ख्याति पर है। मन्दिर को पूरी तरह आधुनिक स्वरूप दिया गया है। मन्दिर में विश्राम बरामदों के अलावा बड़ी धर्मशाला भी है जहाँ हर तरह की आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। रोजाना यहाँ दर्शनार्थियों का जमघट लगा रहता है किन्तु अष्टमी, रविवार, नवरात्रि तथा दीपावली के दिनों और ख़ास पर्वं-त्योहारों पर मेले जैसा दृश्य बना रहता है। देश के विभिन्न हिस्सों से यहाँ श्रद्धालु आते हैं। बांसवाड़ा आने वाले सैलानी और विशिष्टजनों में शायद ही कोई ऎसा होता है जो यहाँ आकर भी मैया के दरबार में न पहुँचे। वागड़ अंचल सहित देश के विभिन्न हिस्सों से यहाँ आने वाले श्रद्धालु भक्तजन देवी के दर्शन पाकर धन्य हो उठते हैं। अनुष्ठानों का क्रम यहाँ सदैव बना रहता है। वर्ष में कई बार मन्दिर परिसर में विशिष्ट मनोकामना के लिए विशेष तांत्रिक अनुष्ठान होते हैं। रोजाना देवी की मूर्ति का अलग-अलग मनोहारी श्रृंगार होता है। विशेष अवसरों पर रजत एवं स्वर्णाभूषणों से श्रृंगार और गरबा नृत्योत्सव होता है। वनाँचल के आदिवासियों में भी देवी के प्रति अगाध आस्था के भाव हैं और ये लोग ‘तरतई माता’ कहकर देवी माँ को पूजते रहे हैं। वागड़ में त्रिपुर सुन्दरी के प्रति इस कदर आत्मीयता है कि लोग अपनी संरक्षक के रूप में माँ के आशीर्वाद का सदैव अनुभव करते हैं और जब भी कभी विपत्ति आती है या मनोकामना होती है, माँ के सम्मुख निवेदित कर देते हैं। जन विश्वास है कि देवी हर किसी भक्त की कामना पूरी करती है और कष्टों से उबारती है। माँ त्रिपुरा अपने दरबार में आए हर किसी भक्तजन के जीवन में आशा की नई किरण भर देती हैं। माँ के दरबार से कोई निराश नहीं लौटता। शास्त्र में कहा है – यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोक्षो यत्रास्ति मोक्षो न च तत्र भोगो देवी पादयुगार्चकानां भोगश्च मोक्षश्च करस्थ ऎवः ।