(शाकंभरी जयंती मानेगी 12 जनवरी 2017 को)
धर्म ग्रंथों के अनुसार, पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्र का पर्व प्रारंभ होता है, जो पौष मास की पूर्णिमा तक मनाया जाता है। पूर्णिमा तिथि पर माता शाकंभरी की जयंती मनाई जाती है। इस बार शाकंभरी नवरात्र का प्रारंभ 6 जनवरी, शुक्रवार को हो रहा है। नवरात्र समाप्त होने पर पौष मास की पूर्णिमा (12 जनवरी, गुरुवार) को शाकंभरी जयंती का पर्व मनाया जाएगा। इस पर्व के दौरान तंत्र-मंत्र के साधक अपनी सिद्धि के लिए वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे।
तंत्र-मंत्र के साधकों को अपनी सिद्धि के लिए खास माने जाने वाली शाकंभरी नवरात्रि की शुरुआत 6 जनवरी, से । इन दिनों साधक वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे। मां शाकंभरी ने अपने शरीर से उत्पन्न शाक-सब्जियों, फल-मूल आदि से संसार का भरण-पोषण किया था। इसी कारण माता ‘शाकंभरी’ नाम से विख्यात हुईं। वैसे तो वर्ष भर में चार नवरात्रि मानी गई है, आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में शारदीय नवरात्रि, चैत्र शुक्ल पक्ष में आने वाली चैत्र नवरात्रि, तृतीय और चतुर्थ नवरात्रि माघ और आषाढ़ माह में मनाई जाती है। देशभर में मां शाकंभरी के तीन शक्तिपीठ हैं। पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय माताजी के नाम से स्थित है। दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और तीसरा स्थान उत्तरप्रदेश के मेरठ के पास सहारनपुर में 40 किलोमीटर की दूर पर स्थित है। शाकंभरी माताजी का प्रमुख स्थल अरावली पर्वत के मध्य सीकर जिले में सकराय माताजी के नाम से विश्वविख्यात हो चुका है। तंत्र-मंत्र के जानकारों की नजर में इस नवरात्रि को तंत्र-मंत्र की साधना के लिए अतिउपयुक्त माना गया है। धर्म ग्रंथों के अनुसार पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्र का पर्व प्रारंभ होता है, जो पौष मास की पूर्णिमा तक मनाया जाता है। पूर्णिमा तिथि पर माता शाकंभरी की जयंती मनाई जाती है। इस पर्व के दौरान तंत्र-मंत्र के साधक अपनी सिद्धि के लिए वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवी शाकंभरी आदिशक्ति दुर्गा के अवतारों में एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका, भीमा, भ्रामरी, शाकंभरी प्रसिद्ध हैं।
शाकुम्भरी देवी माता दुर्गा के 51 शक्तिपीठो में से एक है । यह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में बेहट तहसील में स्थित है । माता के दर्शन से पहले यहां मान्यता है कि भूरा देव के दर्शन करने पडते है । श्री दुर्गासप्तशती पुस्तक में शाकुंभरी देवी का वर्णन आता है कि जब एक बार देवताओ और दानवो में युद्ध चल रहा था जिसमें दानवो की ओर से शुंभ ,निशुंभ, महिषासुर आदि बडे बडे राक्षस लड रहे थे तो देवता उनसे लडते लडते शिवालिक की पहाडियो में छुप छुपकर विचरण करने लगे और जब बात ना बनी तो नारद मुनि के कहने पर उन्होने देवी मां से मदद मांगी । इसी बीच भूरादेव अपने पांच साथियो के साथ मां की शरण में आया और देवताओ के साथ मिलकर लडने की आज्ञा मांगी । मां ने वरदान दिया और युद्ध होने लगा । राक्षसेा की ओर से रक्तबीज नाम का असुर आया जिसकी खून की एक बूंद गिरने पर एक और उसी के समान असुर पैदा हो जाता था । मां ने विकराल रूप धरकर और चक्र चलाकर इन सब दानवो को मार डाला । माता काली ने खप्पर से रक्तबीज का सिर काटकर उसका सारा खून पी लिया जिससे नये असुर पैदा नही हुए पर इस बीच शुंभ और निशुंभ ने भूरादेव के बाण मार दिया जिससे वो गिर पडा । युद्ध समाप्त होने के बाद माता ने भूरादेव को जीवित कर वरदान मांगने को कहा तो उन्होने हमेशा मां के चरणो की सेवा मांगी जिस पर माता ने वरदान दिया कि जो भी मेरे दर्शन करेगा उसे पहले भूरादेव के दर्शन करने होंगे तभी मेरी यात्रा पूरी होगी ।
शाकुंभरी देवी मंदिर की महत्ता क्या है । ये मंदिर शक्तिपीठ है और यहां सती का शीश यानि सिर गिरा था । मंदिर में अंदर मुख्य प्रतिमा शाकुंभरी देवी के दाईं ओर भीमा और भ्रामरी और बायीं ओर शताक्षी देवी प्रतिष्ठित हैं । शताक्षी देवी को शीतला देवी के नाम से भी संबोधित किया जाता है । कहते हैं कि शाकुंभरी देवी की उपासना करने वालो के घर शाक यानि कि भोजन से भरे रहते हैं शाकुंभरी देवी की कथा के अनुसार एक दैत्य जिसका नाम दुर्गम था उसने ब्रहमा जी से वरदान में चारो वेदो की प्राप्ति की और यह वर भी कि मुझसे युद्ध में कोई जीत ना सके वरदान पाकर वो निरंकुश हो गया तो सब देवता देवी की शरण में गये और उन्होने प्रार्थना की । ऋषियो और देवो को इस तरह दुखी देखकर देवी ने अपने नेत्रो में जल भर लिया । उस जल से हजारो धाराऐं बहने लगी जिनसे सम्पूर्ण वृक्ष और वनस्पतियां हरी भरी हो गई । एक सौ नेत्रो द्धारा प्रजा की ओर दयापूर्ण दृष्टि से देखने के कारण देवी का नाम शताक्षी प्रसिद्ध हुआ । इसी प्रकार जब सारे संसार मे वर्षा नही हुई और अकाल पड गया तो उस समय शताक्षी देवी ने अपने शरीर से उत्पन्न शाको यानि साग सब्जी से संसार का पालन किया । इस कारण पृथ्वी पर शाकंभरी नाम से विख्यात हुई ।
दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकंभरी के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है-
मंत्र-
शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।।
अर्थात- देवी शाकंभरी का वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं। ये पद्मासना हैं अर्थात् कमल पुष्प पर ही विराजती हैं। इनकी एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है।
शाकम्भरी देवी दुर्गा के अवतारों में एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका,भीमा, भ्रामरी, शताक्षी तथा शाकंभरी प्रसिद्ध हैं। देश भर में मां शाकंभरी के तीन शक्तिपीठ हैं
पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है।
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और तीसरा उत्तरप्रदेश में सहारनपुर से 42 किलोमीटर दूर कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
पुराणिक कथा के अनुसार शाकुम्भरा देवी ने 100 वर्षो तक तप किया था और महिने के अंत में एक बार शाकाहारी भोजन कर तप किया था । ऐसी निर्जीव जगह जहाँ पर सौ वर्ष तक पानी भी नहीं था। वहाँ पर पेड़ और पौधे उत्पन्न हो गये। यहाँ पर साधु-सन्त माता का चमत्कार देखने के लिये आये। और उन्हें शाकहारी भोजन दिया गया इसका तात्पर्य यह था कि माता केवल शाकहारी भोजन का भोग ग्रहण करती है और इस घटना के बाद से माता का नाम शाकम्भरी माता पड़ा। पुराणिक कथा के अनुसार यहाँ पर शंकराचार्य आये और तपस्या की थी। शाकम्भरी देवी तीन देवी ब्रह्मीदेवी, भीमादेवी और शीतलादेवी का शक्तिरूप है ।
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जानिए भारत में स्थित माँ शाकम्भरी के मुख्य मंदिरों को—
1-पहला प्रमुख श्री शाकम्भरी माता मन्दिर, गाँव सकराय सीकर (राजस्थान)…
सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां,
पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि महाभारत काल में पांडव अपने भाइयों व परिजनों का युद्ध में वध (गोत्र हत्या) के पाप से मुक्ति पाने के लिए अरावली की पहाडिय़ों में रुके। युधिष्ठिर ने पूजा अर्चना के लिए देवी मां शर्करा की स्थापना की थी। वही अब शाकंभरी तीर्थ है। श्री शाकम्भरी माता गाँव सकराय यह आस्था केन्द्र सुरम्य घाटियों के बीच बना शेखावटी प्रदेश के सीकर जिले में यह मंदिर स्थित है। यह मंदिर सीकर से 56 किमी. दूर अरावली की हरी वादीयों में बसा है। झुंझनूँ जिले के उदयपुरवाटी के समीप है। यह मंदिर उदयपुरवाटी गाँव से 16 किमी. पर है। यहाँ के आम्रकुंज, स्वच्छ जल का झरना आने वाले व्यक्ति का मन मोहित करते हैं। इस शक्तिपीठ पर आरंभ से ही नाथ संप्रदाय वर्चस्व रहा है जो आज तक भी है। यहाँ देवी शंकरा, गणपति तथा धन स्वामी कुबेर की प्राचीन प्रतिमाएँ स्थापित हैं। यह मंदिर खंडेलवाल वैश्यों की कुल देवी के मंदिर के रूप में विख्यात है। इसमें लगे शिलालेख के अनुसार मंदिर के मंडप आदि बनाने में धूसर और धर्कट के खंडेलवाल वैश्यों सामूहिक रूप से धन इकट्ठा किया था। विक्रम संवत 749 के एक शिलालेख प्रथम छंद में गणपति, द्वितीय छंद में नृत्यरत चंद्रिका एवं तृतीय छंद में धनदाता कुबेर की भावपूर्ण स्तुति लिखी गई है।
इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी में किया गया था। भारत के आठशक्ति पीठों में से यह एक है। यह भव्य मंदिर विभिन्न प्रकार के वृक्षों से घिरा है तथा कई प्रकार के औषधि वृक्ष भी इस शांत मालकेतु घाटी (अरावली पर्वत) में पाये जाते हैं। शंकर गंगा नदी बारिश के दिनों में इस मंदिर के पास से बहती है। भक्तों को पवित्र स्नान करने हेतु कई घाट बनवाये गये हैं। इस मंदिर के आसपास अन्य महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में जटा शंकर मंदिर तथा श्री आत्म मुनि आश्रम शामिल है। भक्तगण सालभर इस मंदिर में आते रहते हैं, लेकिन हिंदु कॅलेंड़र के अनुसार महिने के आठवे, नौवें तथा दसवें दिन देवी भगवती की विशेष प्रार्थना के होते हैं। नवरात्रों के दौरान नौ दिन का उत्सव यहाँ होता है।
2-दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है
जिले के सांभर कस्बे में अवस्थित शाकम्भरी देवी अशाकम्भरी देवी का प्राचीन शक्तिपीठ जयपुर जिले के सांभर कस्बे में अवस्थित है। शाकम्भरी माता सांभर की अधिष्ठात्रीदेवी है और इस शक्तिपीठ से ही इस कस्बे ने अपना यह नाम पाया। सांभर पर चौहान राजवंश का शताब्दियों तक असधिपत्य रहा। 12वि शती के अन्तिम चरण में सांभर के प्रदेश में चौहानों का राज्य था। यहाँ सांभर झील शाकंभरी देवी के नाम पर प्रसिद्ध है। महाकाव्य महाभारत के अनुसार यह क्षेत्र असुर राज वृषपर्व के साम्राज्य का एक भाग था और यहाँ पर असुरों के कुलगुरु शुक्राचार्य निवास करते थे। इसी स्थान पर शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का विवाह नरेश ययाति के साथ सम्पन्न हुआ था। देवयानी को समर्पित एक मंदिर झील के पास स्थित है। यहाँ शाकम्भरी देवी को समर्पित एक मंदिर भी उपस्थित है।
एक अन्य हिंदू मान्यता के अनुसार, शाकम्भरी देवी जो कि चौहान राजपूतों की रक्षक देवी हैं, सांभर प्रदेश के लोग इस वन संपदा को लेकर होने वाले संभावित झगड़ों के लेकर चिंतित हो गये थे। देवी ने यहां स्थित इस वन को बहुमूल्य धातुओं के एक मैदान में परिवर्तित कर दिया था। और इसे एक वरदान के स्थान पर श्राप समझने लगे। लोगों ने देवी से अपना वरदान वापस लेने की प्रार्थना की तो देवी ने सारी चांदी को नमक में परिवर्तित कर दिया। सांभर, पौराणिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक और धार्मिक महत्तव का एक सांस्कृतिक पहचान रही है शाकम्भरी देवी के मंदिर की अतिक्ति पौराणिक राजा ययाति की दोनों रानियों देपयानी और शर्मिष्ठा के नाम पर एक विशाल सरोवर व कुण्ड अद्यावधि वहां विद्यमान है जो इस क्षेत्र के प्रमुख तीर्थस्थलों के रूप में विख्यात है। वर्तमान में देवनानी के नाम से प्रसिद्ध इस तीर्थ का लोक में बड़ा माहात्म्य है जिसकी सूचक यह कहावत है देवदानी सब तीर्थो की नानी। चौहान काल में सांभर और उसका निकटवर्ती क्षेत्र सपादलक्ष (सवा लाख की जनसंख्या सवा लाख गांवों या सवा लाख की राजस्व वसूली क्षेत्र) कहलाता था।
ज्ञात इतिहास के अनुसार चौहान वंश शासक वासुदेव ने सातवीं शताब्दी ईं में सांभर झील और सांभर नगर की स्थापना शाकम्भरी देवी के मंदिर के पास में की। सांभर सातवीं शताब्दी ई. तक अर्थात् वासुदेवी के राज्यकरल से १११५ ई. उसके वंशज अजयराज द्वारा अजयमेरू दुर्ग या अजमेर की स्थापना कर अधिक सुरक्षित समझकर वहां राजधानी स्थानांतरित करने तक शाकम्भरी इस यशस्वी चौहान राजवंश की राजधानी रही। सांभर की अधिष्ठात्री और चौहान राजवंश की कुलदेवी शाकम्भरी माता का प्रसिद्ध मंदिर सांभर से लगभग 15 कि.मी. दूर अवस्थित है। सांभर के पास जिस पर्वतीय स्थान में शाकम्भरी देवी का मंदिर है वह स्थान कुछ वर्षों पहले तक जंगल की तरह था और घाटी देवी की बनी कहलाती थी। समस्त भारत में शाकम्भरी देवी का सर्वाधिक प्राचीन मंदिर यही है जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि देवी की प्रतिमा भूमि से स्वतः प्रकट हुई थी। शाकम्भरी देवी की पीठ के रूप में सांभर की प्राचीनता महाभारत काल तक चली जाती है। महाभारत (वन पर्व), शिव पुराण (उमा संहिता) मार्कण्डेय पुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों में शाकम्भरी की अवतार कथाओं में शत वार्षिकी अनावृष्टि चिन्तातुर ऋषियोंपर देवी का अनुग्रह शकादि प्रसाद दान द्वारा धरती के भरण पोषण की कथायें उल्लेखनीय है। वैष्णव पुराण में शाकम्भरी देवी के तीनों रूपों में शताक्षी, शाकम्भरी देवी का शताब्दियों से लोक में बहुत माहात्म्य है। सांभर और उसके निकटवर्ती अंचल में तो उनकी मान्यता है ही साथ ही दूरस्थ प्रदेशों से भी लोग देवी से इच्छित मनोकमना, पूरी होने का आशीर्वाद लेने तथा सुख-समृद्धि की कामना लिए देवी के दर्शन हेतु वहां आते हैं। प्रतिवर्ष भादवा सुदी अष्टमी को शाकम्भरी माता का मेला भरता है। इस अवसर पर सैंकड़ों कह संख्या में श्रद्धालु देवी के दर्शनार्थ वहां आते हैं। चैत्र तथा आसोज के नवरात्रों में यहां विशेष चहल पहल रहती है।
.- तीसरा मां शाकंभरी का मंदिर स्थान बेहट, सहारनपुर,
उत्तरप्रदेश शिवालिक पर्वतमाला के घने जंगल में मां शाकंभरी का मंदिर स्थान बेहट, सहारनपुर, उत्तरप्रदेश
उत्तरप्रदेश में सहारनपुर से 42 किलोमीटर दूर कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस सिद्धपीठ में बने माता के पावन भवन में माता शाकंभरी देवी, भीमा देवी, भ्रामरी देवी व शताक्षी देवी की नौ देवियों में से, एक हैं मां शाकंभरी देवी। कल कल छल छल बहती नदी की जल धारा ऊंचे पहाड़ और जंगलों के बीच विराजती हैं माता शाकंभरी। कहा जाता है शाकंभरी देवी लोगों को धन धान्य का आशीर्वाद देती हैं। इनकी अराधना करने वालों का घर हमेशा शाक यानी अन्न के भंडार से भरा रहता है।
बेहट शाकंभरी देवी का इतिहास—
कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर—
शाकंभरी देवी के मंदिर में माता शाकंभरी के दाईं ओर भीमा और भ्रामरी और बाईं और शीताक्षी देवी प्रतितिष्ठितहै। भारत की शिवालिक पर्वत श्रेणी में माता श्री शाकंभरी देवी का प्रख्यात तीर्थस्थल है। दुर्गा पुराण में वर्णित 51 शक्तिपीठों में से एक शाकंभरी सिद्धपीठ जिले के शिवालिक वन प्रभाग के आरक्षित वन क्षेत्र में स्थित है। यहां की पहाड़ियों पर पंच महादेव व भगवान विष्णु के प्राचीन मंदिर भी स्थित हैं। इस पावन तीर्थ के आसपास गौतम ऋषि की गुफा, बाण गंगा व प्रेतसीला आदि पवित्र स्थल स्थापित हैं। यहां वर्ष में तीन मेले लगते हैं, जिसमें शारदीय नवरात्र मेला अहम है। शिवालिक घाटी में माता शाकंभरी आदि शक्ति के रूप में विराजमान हैं। गर्भगृह में माता शाकंभरी, भीमा, भ्रांबरी व शताक्षी देवियों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मान्यता है कि सिद्धपीठ पर शीश नवाने वाले भक्त सर्व सुख संपन्न हो जाते हैं। यह भी मान्यता है कि मां भगवती सूक्ष्म शरीर में इसी स्थान पर वास करती हैं। जब भक्तगण श्रद्धा पूर्व मां की आराधना करते हैं तो करुणामयी मां शाकंभरी स्थूल शरीर में प्रकट होकर भक्तों के कष्ट हरती हैं।
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धर्म ग्रंथों के अनुसार देवी शाकंभरी आदिशक्ति दुर्गा के अवतारों में एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका, भीमा, भ्रामरी, शाकंभरी प्रसिद्ध हैं। दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकंभरी के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है-
मंत्र—
शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।।
देवी शाकंभरी का वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं। ये पद्मासना हैं अर्थात् कमल पुष्प पर ही विराजती हैं। इनकी एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है।
पौराणिक कथा के अनुसार एक समय भूलोक पर दुर्गम नामक दैत्य के प्रकोप से लगातार सौ वर्ष तक वर्षा न होने के कारण अन्न-जल के अभाव में समस्त प्रजा त्राहिमाम करने लगी। दुर्गम नामक दैत्य ने देवताओं से चारों वेद चुरा लिए थे। देवी शाकंभरी ने दुर्गम नामक दैत्य का वध कर देवताओं को पुन: वेद लौटाए। देवी शाकंभरी के सौ नेत्र हैं, इसलिए इन्हें शताक्षी कहकर भी संबोधित किया जाता है।
देवी शाकंभरी ने जब अपने सौ नेत्रों से देवताओं की ओर देखा तो धरती हरी-भरी हो गई। नदियों में जल धारा बह चली। वृक्ष फलों और औषधियों से परिपूर्ण हो गए। देवताओं का कष्ट दूर हुआ। देवी ने शरीर से उत्पन्न शाक से धरती का पालन किया। इसी कारण शाकंभरी नाम से प्रसिद्ध हुईं।
ब्रह्मांड में स्थित समस्त ग्रह, नक्षत्र एवं तारागणों की भ्रमणशीलता से निरंतर परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों में दिन-रात का हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि ऋतुओं का अनुभव करते हुए जीवन-यापन करते हैं। रात-दिन की निरंतरता एक विशिष्ट समूह बनकर अवधि का मापदंड हो जाती है। इनमें भी कभी रात बड़ी होती है, तो कभी दिन और कभी दोनों समान होते हैं। जब समान होते हुए रात्रि मान बढऩे या घटने लगता है तो उसे नवीन रात्रि या नवरात्र के नाम से संबोधित किया जाता है। वास्तव में ये होने वाला परिवर्तन हमारी दिनचर्या पर अपना प्रभाव डालता है।
वर्ष 2017 में पौष माह के शुक्ल पक्ष कि अष्टमी गुरुवार 5 जनवरी से शाकंभरी नवरात्र का प्रारंभ हो रहा है। तंत्र-मंत्र के साधकों को अपनी सिद्धि के लिए खास माने जाने वाली वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे। शाकंभरी नवरात्र का समापन पौषी पूर्णिमा के दिन 12 जनवरी, गुरुवार 2017 को होगा। 9 दिन तक तंत्र-मंत्र के साधक मनचाही सिद्धियों को अंजाम देने के लिए वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे।
शुभ मुहूर्त–
अष्टमी तिथि- 5 जनवरी 2017 6:30 पर शुरू होगी।
अष्टमी तिथि समाप्त- 12 जनवरी 2017 को 4:55 पर।
स्वरुप: देवी शाकंभरी आदिशक्ति दुर्गा के अवतारों में से एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका, भीमा, भ्रामरी, शाकंभरी प्रसिद्ध हैं। दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकंभरी के स्वरूप का वर्णन है जिसके अनुसार इनका वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं। ये पद्मासना हैं अर्थात् कमल पुष्प पर ही ये विराजती हैं। इनकी एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है।
मंत्र: —
शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।।
पौराणिक कथा: पौराणिक मतानुसार एक समय में भूलोक पर दुर्गम नामक दैत्य के प्रकोप से लगातार सौ वर्ष तक वर्षा न होने के कारण अन्न-जल के अभाव में समस्त प्रजा त्राहिमाम करने लगी। दुर्गम नामक दैत्य ने देवताओं से चारों वेद चुरा लिए थे। देवी शाकंभरी ने दुर्गम नामक दैत्य का वध कर देवताओं को पुनः वेद लौटाए थे। देवी शाकंभरी के सौ नेत्र हैं इसलिए इन्हें शताक्षी कहकर भी संबोधित किया जाता है।
देवी शाकंभरी ने जब अपने सौ नेत्रों से देवताओं की ओर देखा तो धरती हरी-भरी हो गई। नदियों में जल धारा बह चली। वृक्ष फलों और औषधियों से परिपूर्ण हो गए। देवताओं का कष्ट दूर हुआ। देवी ने शरीर से उत्पन्न शाक से धरती का पालन किया। इसी कारण शाकंभरी नाम से प्रसिद्ध हुईं। महाभारत में देवी शाकंभरी के नाम का उल्लेख इस इस श्लोक के रूप में किया गया है।
श्लोक:–
दिव्यं वर्षसहस्त्रं हि शाकेन किल सुब्रता, आहारं सकृत्वती मासि मासि नराधिप, ऋषयोऽभ्यागता स्तत्र देव्या भक्त्या तपोधनाः, आतिथ्यं च कृतं तेषां शाकेन किल भारत ततः शाकम्भरीत्येवनाम तस्याः प्रतिष्ठम्।
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जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
नहिं तब आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
अर्थ – हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमालय की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चंद्रमा की ओर टकटकी लगाकर और छ: मुखवाले स्वामी कार्तिकेयजी की माता! हे जगजननी! हे बिजली की-सी कांतियुत शरीर वाली! आपकी जय हो। आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं। हे भक्तों को मुंहमांगा वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं। मेरे मनोरथ को आप भली भांति जानती हैं योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं।