माँ वैष्णोदेवी भवन के पूर्व में त्रिकुट पर्वत की ऊँचाई है। मंदिर के अंदर माँ की पिंडी के आगे पश्चिम दिशा में चरण गंगा है, जहाँ हमेशा जल प्रवाहित होता रहता है। भवन के बाहर सामने पश्चिम दिशा में पर्वत में काफी ढलान है, जहाँ पर पर्वत का पानी निरंतर बहता रहता है।

माता वैष्णोदेवी के दरबार में महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली तीन भव्य पिंडियों के रूप में विराजमान हैं। पूर्व दिशा में ऊँचाई होना और पश्चिम दिशा में ढलान व पानी का स्रोत होना अच्छा नहीं माना जाता है, परंतु देखने में आया है कि ज्यादातर वो स्थान, जो धार्मिक कारणों से प्रसिद्ध हैं, चाहे वह किसी भी धर्म से संबंधित हों, उन स्थानों की भौगोलिक स्थिति में काफी समानताएँ देखने को मिलती हैं। 

ऐसे स्थानों पर पूर्व की तुलना में पश्चिम में ढलान होती है और दक्षिण दिशा हमेशा उत्तर दिशा की तुलना में ऊँची रहती है। उदाहरण के लिए ज्योर्तिलिंग महाकालेश्वर उज्जैन, पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर इत्यादि। वह घर जहाँ पश्चिम दिशा में भूमिगत पानी का स्रोत जैसे भूमिगत पानी की टंकी, कुआँ, बोरवेल इत्यादि होता है। उस भवन में निवास करने वालों में धार्मिकता दूसरों की तुलना में ज्यादा ही होती है।

फेंगशुई के सिद्धांत : —-


* किसी भवन के पीछे की ओर ऊँचाई हो, मध्य में भवन हो तथा आगे की ओर नीचा होकर वहाँ जल हो, वह भवन प्रसिद्धि पाता है और सदियों तक बना रहता है। इस सिद्धांत में किसी दिशा विशेष का महत्व नहीं होता है। 

* माँ वैष्णोदेवी भवन के पूर्व में त्रिकुट पर्वत की ऊँचाई है। मंदिर के अंदर माँ की पिंडी के आगे पश्चिम दिशा में चरण गंगा है, जहाँ हमेशा जल प्रवाहित होता रहता है। भवन के बाहर सामने पश्चिम दिशा में पर्वत में काफी ढलान है, जहाँ पर पर्वत का पानी निरंतर बहता रहता है। 

इस प्रकार माता वैष्णोदेवी का दरबार वास्तु एवं फेंगशुई दोनों के सिद्धांतों के अनुकूल होने से माता का यह दरबार विश्व में प्रसिद्ध है। इन्हीं विशेषताओं के कारण ही यहाँ भक्तों का ताँता लगा रहता है। यहाँ खूब चढ़ावा आता है और भक्तों की मनोकामना भी पूर्ण होती है। 

वास्तु के सिद्धांत : —

* त्रिकुट पर्वत पर स्थित माँ का भवन (मंदिर) पश्चिम मुखी है, जो समुद्र तल से लगभग 48.0 फुट ऊँचाई पर है। माँ के भवन के पीछे पूर्व दिशा में पर्वत काफी ऊँचाई लिए हुए हैं और भवन के ठीक सामने पश्चिम दिशा में पर्वत काफी गहराई लिए हुए हैं, जहाँ त्रिकुट पर्वत का जल निरंतर बहता रहता है। 

* भवन की उत्तर दिशा ठीक अंतिम छोर पर पर्वत में एकदम उतार होने के कारण काफी गहराई है। यह उत्तर दिशा में विस्तृत गहराई पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ती गई है। भवन के दक्षिण दिशा में पर्वत काफी ऊँचाई लिए हुए हैं, जहाँ दरबार से ढाई किलोमीटर दूर भैरवजी का मंदिर है, समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 658. फुट है और यह ऊँचाई लगभग पश्चिम नैऋत्य तक है, जहाँ पर हाथी मत्था है। 

* गुफा का पुराना प्रवेश द्वार, जो कि काफी सँकरा (तंग) है। लगभग दो गज तक लेटकर या काफी झुककर आगे बढ़ना पड़ता है, तत्पश्चात लगभग बीस गज लंबी गुफा है। गुफा के अंदर टखनों की ऊँचाई तक शुद्ध जल प्रवाहित होता है, जिसे चरण गंगा कहते हैं। वास्तु का सिद्धांत है कि जहाँ पूर्व में ऊँचाई हो और पश्चिम में निरंतर जल हो या जल का प्रवाह हो वह स्थान धार्मिक रूप से ज्यादा प्रसिद्धि पाता है। 

* भवन के उत्तर-ईशान कोण वाले भाग में सन .977 में दो नई गुफाएँ बनाई गईं, इनमें से एक गुफा में से लोग दर्शन करने अंदर आते हैं और दूसरी गुफा से बाहर निकल जाते हैं। इन दोनों गुफाओं के फर्श का ढाल भी उत्तर दिशा की ओर ही है। ये दोनों ही गुफाएँ भवन में ऐसे स्थान पर बनीं, जिस कारण इस स्थान की वास्तुनुकूलता बहुत बढ़ गई है।

फलस्वरूप इस मंदिर की प्रसिद्धि में चार चाँद लगे हैं, इन गुफाओं के बनने के बाद इस स्थान पर दर्शन करने वालों की संख्या पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गई है और वैभव भी बहुत बढ़ गया है।


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