******मृत्युन्जय-योग****पवन तलहन—-****
*************************
जिस प्रार अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किया था, उसी प्रकार श्रीद्वारकापुरी उद्धव जी को भी उपदेश प्रदान किया! उक्त उपदेश में कर्म, ज्ञान, भक्ति, योह आदि अनेक विषयों की भगवान ने बड़ी ही विषद व्याख्या की है! अंत में योग का उपदेश हो जाने के बाद उद्धव ने भगवान से कहस कि ‘प्रभु! मेरी समझ में आपकी यह योगचर्य साधारण लोगों के लिये दु:साध्य है, अतएव आप कृपापूर्वक कोई ऐसा उपाय बतलाइये जिससे सब लोग सहज ही सफल हो सकें! तब भगवान ने उद्धव को भागवत-धर्म बतलाया और उसकी प्रसंसा में कहा कि ‘अब मैं तुम्हें मंगलमय धर्म बतलाता हूँ, जिसका श्रद्धापूर्वक आचरण करने से मनुष्य दुर्जय मृतु को जीत लेता है! यानी जन्म=मरण के चक्र से सदा के लिये छूटकर भगवान को पा जाता है! इसीलिये इसका नाम मृत्युन्जय-योग है!
भगवान ने कहा——
मनके द्वारा निरंतर मेरा विचार और चित्तके द्वारा निरंतर मेरा चिन्तन करने से आत्मा और मन मेरे ही धर्म में औराग हो जाता है! इसलिये मनुष्य को चाहिये कि शनै: शनै: मेरा स्मरण बढाता हुआ ही सब कर्मों को मेरे लिये ही करे! जहां मेरे भक्त साधुजन रहते हों उन पवित्र स्थानों में रहे और देवता, असुर अथा मनुष्यों से जो मेरे अनन्य भक्त हो चुके हैं, उनके आचरणों का अनुकरण करे! अलग या सब के साथ मिलर प्रचलित पर्व, यात्र्र आदि में महोत्सब कटे! यथाशक्ति ठाट-बाटसे गान-वादू, कीर्तन आदि करे-कराये! निर्मल-चित्त कोकर सब प्राणियों में और अपने-आपमें बाहर-भीतर सब जगह आकाश के समान सर्वत्र मुझ परमात्मा को व्याप्त देखे! इस प्रकार ज्ञानदृष्टि से जो सब प्राणियों को मेरा ही रूप मानकर सबका सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चंडाल, चोर और ब्राह्मण भक्त, सूर्य और चिंगारी, दयालु और क्रूर. सब में समान दृष्टि रखता है, वही मेरी मन से पंडित है! बारंबार बहुत दिनों तक सब प्राणियों में मेरी भावना करने से मनुष्य के चित्त से स्पर्धा, असूया, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं! अपनी दिल्लगी उड़ानेवाले घरके लोगों को “मैं उत्तम हूँ, यह नीच है –इस प्रकार की देहदृष्टि को और लोकलाज को छोड़कर कुत्ते, चंडाल, गौ और गधे तक को पृथ्वी पर गिराकर भगवद्भाव से साष्टांग प्रणाम करे!
जबतक सब प्राणियों में मेरा स्वरुप न दीखे, तबतक उक्त प्रकार से मन-वाणी और शरीर के व्यवहारों द्वारा मेरी उपासना करता रहे! इस तरह सर्वत्र परमात्म-बुद्धि करने से उसे सब कुछ ब्रह्ममय दीखने लगता है! ऐसी दृष्टि हो जाने प् जब समस्त संशयों का सर्वथा नाश हो जाये, तब उसे कर्मों से उपराम हो जाना चाहिये! अथवा वह उपराम हो जाता है! हे उद्धव! मन, वाणी और शरीर समस्त वृत्तियों से और चेष्टाओं से सब प्राणीयों में मुझको देखना ही मेरे मत में सब प्रकार के मेरी प्राप्ति के साधनों में सर्वित्तम साधन है! हे उढ़ाक! एक बार निश्चयपूर्वक आरम्भ करने के बाद फिर मेरा यह निष्काम धर्म किसी प्राकर की विध्न-बाधाओं से अणुमात्र भी ध्वंस नहीं होता! क्योंकि निर्गुण होने के कारण मैंने ही इसको पूर्णरूप से निश्चित किया है! हे संत ! भय. शोक आदि कारणों से भागने, चिल्लाने आदि व्यर्थ के प्रयासों को भी यदि निष्काम-बुद्धि से मुझ परमात्मा के अर्पण कर दे तो वह भी परम धर्म हो जाता है! इस असत और विनाशी मनुष्य-शरीर के द्वारा इसी जन्म में मुझ सत्य और अमर परमात्मा को प्राप्त कर लेने में ही बुद्धिमानों की बुद्धिमानी और चतुरों की चतुराई है!
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषां च मनीषिणाम !
यत्सत्यमनृतेनेह मर्येनाप्रोति माँSमृतम !!
अतएव जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिये यत्न न करके केवल विषयभोगों में ही लगे हुए हैं, वे श्रीभगवान मत में तो बुद्धिमान हैं और न मनीषी हैं!
*************************
जिस प्रार अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किया था, उसी प्रकार श्रीद्वारकापुरी उद्धव जी को भी उपदेश प्रदान किया! उक्त उपदेश में कर्म, ज्ञान, भक्ति, योह आदि अनेक विषयों की भगवान ने बड़ी ही विषद व्याख्या की है! अंत में योग का उपदेश हो जाने के बाद उद्धव ने भगवान से कहस कि ‘प्रभु! मेरी समझ में आपकी यह योगचर्य साधारण लोगों के लिये दु:साध्य है, अतएव आप कृपापूर्वक कोई ऐसा उपाय बतलाइये जिससे सब लोग सहज ही सफल हो सकें! तब भगवान ने उद्धव को भागवत-धर्म बतलाया और उसकी प्रसंसा में कहा कि ‘अब मैं तुम्हें मंगलमय धर्म बतलाता हूँ, जिसका श्रद्धापूर्वक आचरण करने से मनुष्य दुर्जय मृतु को जीत लेता है! यानी जन्म=मरण के चक्र से सदा के लिये छूटकर भगवान को पा जाता है! इसीलिये इसका नाम मृत्युन्जय-योग है!
भगवान ने कहा——
मनके द्वारा निरंतर मेरा विचार और चित्तके द्वारा निरंतर मेरा चिन्तन करने से आत्मा और मन मेरे ही धर्म में औराग हो जाता है! इसलिये मनुष्य को चाहिये कि शनै: शनै: मेरा स्मरण बढाता हुआ ही सब कर्मों को मेरे लिये ही करे! जहां मेरे भक्त साधुजन रहते हों उन पवित्र स्थानों में रहे और देवता, असुर अथा मनुष्यों से जो मेरे अनन्य भक्त हो चुके हैं, उनके आचरणों का अनुकरण करे! अलग या सब के साथ मिलर प्रचलित पर्व, यात्र्र आदि में महोत्सब कटे! यथाशक्ति ठाट-बाटसे गान-वादू, कीर्तन आदि करे-कराये! निर्मल-चित्त कोकर सब प्राणियों में और अपने-आपमें बाहर-भीतर सब जगह आकाश के समान सर्वत्र मुझ परमात्मा को व्याप्त देखे! इस प्रकार ज्ञानदृष्टि से जो सब प्राणियों को मेरा ही रूप मानकर सबका सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चंडाल, चोर और ब्राह्मण भक्त, सूर्य और चिंगारी, दयालु और क्रूर. सब में समान दृष्टि रखता है, वही मेरी मन से पंडित है! बारंबार बहुत दिनों तक सब प्राणियों में मेरी भावना करने से मनुष्य के चित्त से स्पर्धा, असूया, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं! अपनी दिल्लगी उड़ानेवाले घरके लोगों को “मैं उत्तम हूँ, यह नीच है –इस प्रकार की देहदृष्टि को और लोकलाज को छोड़कर कुत्ते, चंडाल, गौ और गधे तक को पृथ्वी पर गिराकर भगवद्भाव से साष्टांग प्रणाम करे!
जबतक सब प्राणियों में मेरा स्वरुप न दीखे, तबतक उक्त प्रकार से मन-वाणी और शरीर के व्यवहारों द्वारा मेरी उपासना करता रहे! इस तरह सर्वत्र परमात्म-बुद्धि करने से उसे सब कुछ ब्रह्ममय दीखने लगता है! ऐसी दृष्टि हो जाने प् जब समस्त संशयों का सर्वथा नाश हो जाये, तब उसे कर्मों से उपराम हो जाना चाहिये! अथवा वह उपराम हो जाता है! हे उद्धव! मन, वाणी और शरीर समस्त वृत्तियों से और चेष्टाओं से सब प्राणीयों में मुझको देखना ही मेरे मत में सब प्रकार के मेरी प्राप्ति के साधनों में सर्वित्तम साधन है! हे उढ़ाक! एक बार निश्चयपूर्वक आरम्भ करने के बाद फिर मेरा यह निष्काम धर्म किसी प्राकर की विध्न-बाधाओं से अणुमात्र भी ध्वंस नहीं होता! क्योंकि निर्गुण होने के कारण मैंने ही इसको पूर्णरूप से निश्चित किया है! हे संत ! भय. शोक आदि कारणों से भागने, चिल्लाने आदि व्यर्थ के प्रयासों को भी यदि निष्काम-बुद्धि से मुझ परमात्मा के अर्पण कर दे तो वह भी परम धर्म हो जाता है! इस असत और विनाशी मनुष्य-शरीर के द्वारा इसी जन्म में मुझ सत्य और अमर परमात्मा को प्राप्त कर लेने में ही बुद्धिमानों की बुद्धिमानी और चतुरों की चतुराई है!
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषां च मनीषिणाम !
यत्सत्यमनृतेनेह मर्येनाप्रोति माँSमृतम !!
अतएव जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिये यत्न न करके केवल विषयभोगों में ही लगे हुए हैं, वे श्रीभगवान मत में तो बुद्धिमान हैं और न मनीषी हैं!