*****भगवत्प्रार्थाना के तीन रूप******पवन तलहन *****
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हमारे संसार में ऐसे प्राणी भी हैं, जो स्वाभाविक प्राय: भगवान की प्रार्थना करते हैं! उनमें सब तो नहीं, पर अधिकाँश कैसी प्रार्थना करते हैं, यह विचारणीय है! संक्षेप में कहने पर उनकी प्रार्थना का रूप यह है—
नाथ! मुझे अमुक वस्तु दो, अमुक प्रकार से दो और अमुक समय में दो! अर्थात कौन-सी वस्तु मिले, इसका निर्णय तो हम कर ही देते हैं! उस वस्तु की प्राप्ति किस उपाय से हो तथा किस समय हो, यह भी हम ही पहले से उन्हें सूचित कर देते हैं—मानो भगवान में यह ज्ञान नहीं कि वे हमारी यथार्थ आवश्यक वस्तु का निर्णय कर सकें, उसकी प्राप्ती का उपाय स्थिर कर सकें तथा थीक्ल समय पर हमें लाकर दे सकें! होना तो यह चाहिये कि हम प्रार्थना करें कि —
नाथ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मुझे दो; जिस प्रकार देना चाहो, उस प्रकार से दो तथा जब देना चाहो, तभी दो! क्योंकि उनके समान या बढ़कर सर्वज्ञ तथा सर्वथा निर्भूल शुभचिन्तक हमारे लिए और कौन होगा; किन्तु यह न करके हम प्रभु के सामने अपनी क्षुद्र भावनाओं को ही रखते हैं! फिर भी यह प्रार्थना श्रेणी में अवश्य है; क्योंकि उस समय हमारे हृदय का प्रभु संयोग तो होता ही है! भगवान ऐसी प्रार्थना से नाराज बिलकुल नहीं होते, वे तो कभी भी किसीपर भी किसी कारण से भी नाराज होत्र ही नहीं; किन्तु ऐसी प्रार्थनाओं का यथोचित परिणाम हमें तुरंत मिल ही जाय, यह निश्चित नहीं! ये सफल भी हो सकती हैं, नहीं भी हो सकती, क्योंकि प्रभु के अनंत मंगलमय विधान से अविरोधी प्रार्थनाएं ही तत्क्षण सफल होती हैं, वे सफल नहीं होतीं –परम मंगलमय से अमंगल का दान किसी को मिल जो नहीं सकता!
उपर्युक्त दोनों से अतिरिक्त कुछ ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो भगवान से केवल भगवान के लिये—भगवत्प्रेम के लिये ही प्रार्थना करते हैं! जगत की किसी वस्तु की चाह उनके मनमें नहींहोती! विषयों का प्रलोभन उन्हें ज़रा भी नहीं सताता! उनका हृदय सहज और सतत भगवान से जुडा हुआ होता है!
इस तीसरी श्रेणी की प्रार्थना में तो प्रार्थी को कुछ शिखने की आवश्यता नहीं होती, प्रार्थना की सारी विधियां उसकी प्रार्थना में सहज ही वर्त्तमान रहती हैं! वास्तव में सच्ची और कल्याणमयी भगवत्प्रार्थाना है भी यही, मानव-जीवन की सफलता भी इसी प्रार्थना में है! क्षुद्र भोगों के लिये भगवान से प्रार्थना करना तो भगवान कि कृपामयतापर, उनके परम मंगलमय विधान पर अविश्वास का ही द्योतक है—-मानो भगवान को हमारी हीनता नहीं, हमारी आवश्यक वस्तु वे हमें नहीं दे रहे हैं. ऐसी भावना हमारी अन्तश्चेतना में छिपी होती है! फिर भी हमें वहाँ से आगे बढ़ना है, जहां हम खड़े हैं! यदि हम प्रभु पर सर्वथा निर्भर नहीं हो सकते तो पूर्ण निर्भरता का स्वांग भरने से काम नहीं चलता! हमें तो अपने मानसिक धरातल के अनुरूप ही मारेग अपनाना पडेगा! जब हम पूर्ण निर्भरता का मार्ग ग्रहण कर सकते; अत: पहले दो प्रार्थनाओं को ही हमलोग अपनाते हैं; किन्तु इन दोनों प्रार्थनाओं में भी कुछ जानाने योग्य बातें हैं; उन्हें जानकार समझ कर फिर की हुई प्रार्थना बड़ी मूल्यवान होती है! वह प्रार्थना निचे स्तर से उठाकर भगवान के दिव्य आलोक में पहुंचा देती है!
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हमारे संसार में ऐसे प्राणी भी हैं, जो स्वाभाविक प्राय: भगवान की प्रार्थना करते हैं! उनमें सब तो नहीं, पर अधिकाँश कैसी प्रार्थना करते हैं, यह विचारणीय है! संक्षेप में कहने पर उनकी प्रार्थना का रूप यह है—
नाथ! मुझे अमुक वस्तु दो, अमुक प्रकार से दो और अमुक समय में दो! अर्थात कौन-सी वस्तु मिले, इसका निर्णय तो हम कर ही देते हैं! उस वस्तु की प्राप्ति किस उपाय से हो तथा किस समय हो, यह भी हम ही पहले से उन्हें सूचित कर देते हैं—मानो भगवान में यह ज्ञान नहीं कि वे हमारी यथार्थ आवश्यक वस्तु का निर्णय कर सकें, उसकी प्राप्ती का उपाय स्थिर कर सकें तथा थीक्ल समय पर हमें लाकर दे सकें! होना तो यह चाहिये कि हम प्रार्थना करें कि —
नाथ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मुझे दो; जिस प्रकार देना चाहो, उस प्रकार से दो तथा जब देना चाहो, तभी दो! क्योंकि उनके समान या बढ़कर सर्वज्ञ तथा सर्वथा निर्भूल शुभचिन्तक हमारे लिए और कौन होगा; किन्तु यह न करके हम प्रभु के सामने अपनी क्षुद्र भावनाओं को ही रखते हैं! फिर भी यह प्रार्थना श्रेणी में अवश्य है; क्योंकि उस समय हमारे हृदय का प्रभु संयोग तो होता ही है! भगवान ऐसी प्रार्थना से नाराज बिलकुल नहीं होते, वे तो कभी भी किसीपर भी किसी कारण से भी नाराज होत्र ही नहीं; किन्तु ऐसी प्रार्थनाओं का यथोचित परिणाम हमें तुरंत मिल ही जाय, यह निश्चित नहीं! ये सफल भी हो सकती हैं, नहीं भी हो सकती, क्योंकि प्रभु के अनंत मंगलमय विधान से अविरोधी प्रार्थनाएं ही तत्क्षण सफल होती हैं, वे सफल नहीं होतीं –परम मंगलमय से अमंगल का दान किसी को मिल जो नहीं सकता!
उपर्युक्त दोनों से अतिरिक्त कुछ ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो भगवान से केवल भगवान के लिये—भगवत्प्रेम के लिये ही प्रार्थना करते हैं! जगत की किसी वस्तु की चाह उनके मनमें नहींहोती! विषयों का प्रलोभन उन्हें ज़रा भी नहीं सताता! उनका हृदय सहज और सतत भगवान से जुडा हुआ होता है!
इस तीसरी श्रेणी की प्रार्थना में तो प्रार्थी को कुछ शिखने की आवश्यता नहीं होती, प्रार्थना की सारी विधियां उसकी प्रार्थना में सहज ही वर्त्तमान रहती हैं! वास्तव में सच्ची और कल्याणमयी भगवत्प्रार्थाना है भी यही, मानव-जीवन की सफलता भी इसी प्रार्थना में है! क्षुद्र भोगों के लिये भगवान से प्रार्थना करना तो भगवान कि कृपामयतापर, उनके परम मंगलमय विधान पर अविश्वास का ही द्योतक है—-मानो भगवान को हमारी हीनता नहीं, हमारी आवश्यक वस्तु वे हमें नहीं दे रहे हैं. ऐसी भावना हमारी अन्तश्चेतना में छिपी होती है! फिर भी हमें वहाँ से आगे बढ़ना है, जहां हम खड़े हैं! यदि हम प्रभु पर सर्वथा निर्भर नहीं हो सकते तो पूर्ण निर्भरता का स्वांग भरने से काम नहीं चलता! हमें तो अपने मानसिक धरातल के अनुरूप ही मारेग अपनाना पडेगा! जब हम पूर्ण निर्भरता का मार्ग ग्रहण कर सकते; अत: पहले दो प्रार्थनाओं को ही हमलोग अपनाते हैं; किन्तु इन दोनों प्रार्थनाओं में भी कुछ जानाने योग्य बातें हैं; उन्हें जानकार समझ कर फिर की हुई प्रार्थना बड़ी मूल्यवान होती है! वह प्रार्थना निचे स्तर से उठाकर भगवान के दिव्य आलोक में पहुंचा देती है!