गणेश का अर्थ और -गणेश पूजन —-
गणेश जी का सिर हाथी का है । यह सिर बड़ा भी है और मजबूत भी । हर व्यक्ति अगर अपना कार्य लगन और निष्ठा लगन से करना चाहे तो पूरा कार्य भार अपने सिर पर लेना होता है ।
श्री गणेश के नेत्र छोटे हैं, पर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी वस्तु देख पाने में सक्षम हैं । गणेश की जीभ भीतर है । यह इस बात का प्रतीक है कि जीभ सदैव भीतर अर्थात् नियंत्रण में रखें । श्री गणेश की लंबी और ऊँची नाक और कान पंखे की तरह लम्बे हैं । इसका अर्थ है कानों से छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बात सुनो पर उसे सब पर प्रकट मत करो ।
श्री गणेश जी की चार भुजाएँ चारों दिशाओं के प्रतीक हैं । साथ ही धर्म, अर्थ काम तथा मोक्ष, इन चार पुरूषार्थों की प्राप्ति के लिए सतत् कार्यशील रहने के सूचक हैं । दूसरे हाथ में कमल है । यह सुख समृद्धि का प्रतीक है तथा सिखाता है कि धन के प्रति लालच नहीं होना चाहिए । धन के साथ हमारा वही संबंध होना चाहिए जितना कमल का जल से होता है ।
तीसरे हाथ में परशु है । यह कार्य में आने वाले विघ्नों को काटने का अर्थ देता है । चौथे हाथ की मुट्ठी जताती है कि हमें अपने रहस्य गुप्त रखने चाहिए । मुट्ठी बंद सफलता का प्रतीक है ।
गणेश मूषक पर सवार है । अर्थ यह है कि किसी को भी छोटा नहीं समझना चाहिए । * गणेश जी का एक नाम लंबोदर है । अर्थ यह है कि औरों की बातें पेट में रखकर उन्हें पचाने की क्षमता अपने भीतर उत्पन्न करनी चाहिए । ऐसा करने वाला व्यक्ति तरह-तरह के झंझटों से सुरक्षित रहता है ।
विघ्न निवारण के लिये गणेश प्रसिद्ध हैं । न केवल विघ्नविनाश ही वरन् प्रत्येक कामना भी इनकी उपासना से पूर्ण होती है । हिन्दू धर्म का कोई भी मांगलिक कार्य बिना भगवान गणपति की पूजा के प्रारम्भ नहीं होता । इतना ही नहीं, प्रत्येक देवी-देवता की आराधना करने से पूर्व गणेश से ही प्रार्थना की जाती है कि वह साधना पूर्ण होने में सहायक बनें । इतना महत्व किसी अन्य देवी देवता को नहीं प्राप्त है । हिन्दू धर्म में अतिमहत्वपूर्ण देव हैं गणपति ।
लक्ष्मी और गणेश अपने क्षेत्र में अलग-अलग महत्व रखते हैं और अपने-अपने उपासकों की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते रहते हैं । अगर यह दो शक्तियाँ परस्पर मिल जायें तो आप सभी मनोकामनाओं की पूर्ति कर सकते हैं, आप प्राप्त कर सकते हैं निर्विघ्न अपार धन-यश-वैभव ।
श्री गणेश लक्ष्मी पूजा से, सुख-शांति व श्रीवृद्धि होती है, घर में वातावरण आनंददायक होता है । व्यवसाय में बाधा दूर होकर, धन का आवागमन होता है ।
श्री गणेश जी सर्वस्वरूप, परात्पर परब्रह्म साक्षात् परमात्मा हैं । गणेश शब्द का अर्थ है जो समस्त जीव-जाति के “ईश” अर्थात् स्वामी हैं । धर्मपरायण भारतीय जन वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों द्वारा अनादि काल से इन्हीं अनादि तथा सर्वपूज्य भगवान गणपति की पूजा करते आ रहे हैं । हृदय से उपासना करने वाले भक्तों को आज भी उनके अनुग्रह का प्रसाद मिलता है । अतः उनकी कृपा की प्राप्ति के लिए वेदों, शास्त्रों ने वैदिक उपासना पद्धति का निर्माण किया है जिससे उपासक गणेश की उपासना करके मनोवांछित फल प्राप्त कर सकें । गणेश का अर्थ ः ‘गण’ का अर्थ है- वर्ग, समूह, समुदाय । ‘ईश’ का अर्थ है- स्वामी । शिवगणों एवं गण देवों के स्वामी होने से उन्हें “गणेश” कहते हैं । आठ वसु, ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य ‘गणदेवता’ कहे गए हैं ।
“गण” शब्द व्याकरण के अंतर्गत भी आता है । अनेक शब्द एक गण में आते हैं । व्याकरण में गण पाठ का अपना एक अलग ही अस्तित्व है । वैसे भी भवादि, अदादि तथा जुहोत्यादि प्रभृतिगण धातु समूह है । “गण” शब्द शूद्र के अनुचर के लिए भी आता है । जैसा कि “रामायण” में कहा गया है- धनाध्यक्ष समो देवः प्राप्तो वृषभध्वजः । उमा सहायो देवेशो गणैश्च बहुभिर्युत ः ॥
गणेश तत्व का रहस्य—
गणेश तत्व क्या है, इसका आध्यात्मिक रहस्य क्या है? इस पर भी ध्यान देना आवश्यक है । श्री गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रामायण में श्री पार्वतीजी को “श्रद्धा” और शंकरजी को विश्वास का रूप माना है । किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए श्रद्धा और विश्वास दोनों का ही होना आवश्यक है । जब तक श्रद्धा न होगी, तब तक विश्वास नहीं हो सकता तथा विश्वास के अभाव में श्रद्धा भी नहीं ठहर पाती । वैसे ही पार्वती और शिव से श्री गणेश हुए । अतः गणेश सिद्धि और अभीष्ट पूर्ति के प्रतीक हैं । किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व विघ्न के निवारणार्थ एवं कार्य सिद्धियार्थ गणेशजी की आराधना आवश्यक है । यही बात योग शास्त्र में भी कही गई है । “योग शास्त्र” के आचार्यों का कहना है कि -मेरूदंड के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी है, वह ब्रह्मारन्ध में प्रवेश करके मस्तिष्क के नाड़ी गुच्छ में मिल जाती है । साधारण दशा में प्राण सम्पूर्ण शरीर में बिखरा होता है, उसके साथ चित्त भी चंचल होता है । योगी क्रिया विशेष से प्राण को सुषुम्ना में खींचकर ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ाता है त्यों-त्यों उसका चित्त शांत होता है । योगी के ज्ञान और शक्ति में भी वृद्धि होती है । सुषुम्ना में नीचे से ऊपर तक नाड़ी कद या नाड़ियों के गुच्छे होते हैं । इन्हें क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र कहते हैं । इस मूलाधार को- ‘गणेश स्थान’ भी कहा जाता है । कबीर आदि ने जहाँ चक्रों का वर्णन किया है, वहाँ प्रथम स्थान को “गणेश स्थान” भी कहा है ।
गणेशपूजन—-
गणपति पूजन के द्वारा ‘परमेश्वर’ का ही पूजन होता है । जो साधक दत्तचित्त होकर उपासना में तत्पर होता है, उसकी बुद्धि और चित्त शुद्ध होते हैं । इसके साथ ही साथ देवताओं का अपना विघ्नरूप सिद्धि रूप में परिणत हो जाता है । ‘श्रुति’ भी कहती हैं- ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।’ वह परतत्व एक है तथा बुद्धिमान लोगों के द्वारा अनेक नामों से पुकारा जाता है । स्वशुद्धावस्था में वह अखंडा, चिद्थन, एकरस और नेति-नेतीवाच्य ‘ब्रह्म’ हैं, वही ‘परमात्मा’ है या ‘ईश्वर’ कहलाता है । उसी को कोई साधक ब्रह्म, कोई विष्णु, कोई शिव और कोई ईशानी कहता है । गणपति के उपासक उसे ही ‘महागणाधिपति’ कहते हैं और गणपति तत्व को “ब्रह्म्” से अभिन्न मानते हैं ।
श्री गणेशजी के पास प्रायः “अकुंश” रहते हैं । “पाश” मोह का और तमोगुण का चिह्न । “मोद” का अर्थ आनंद प्रदान करने वाला है । “वरमुद्रा” सत्वगुण- इन तीनों से ऊपर उठकर एक विशेष आनन्द का अनुभव करने लगता है । चम्पत रायजी के अनुसार चूहा विवेचक, विभाचक, भेद कारक, विस्तारक और विशेषक बुद्धि है । गणेश जी का सिर काटना अहंकार का नाश होना है । हाथों का सिर लगना संयोजक है, समन्वयकारक और संशेषक बुद्धि का उदय होना होना है । ज्ञान और तन्मूलक व्यवहार के लिए सामान्य और विशेष दोनों का परिचय आवश्यक है । विभाजन और समाहारक, दोनों प्रकार की बुद्धि के होते हुए भी प्रधानता समन्वयात्मक बुद्धि की ही होती है । इसलिए गणेशजी का वाहन मूषक है ।
इस संशेषक बुद्धि के कारण ही वे “बुद्धि सागर” कहे जाते हैं । गणेशजी की ‘एकदन्तता’; उनकी अद्वैत प्रियता की सूचक है । “लम्बोदर” का तात्पर्य यह है कि अनेक ब्रह्मांड उनके उदर में हैं । “गणेश पुराण” के उपासना खण्ड के अंतर्गत “गणेशाष्टक” में कहा भी है- यतश्च विरासी जगत् सर्चमेतत् तथाब्जा सनो विश्वगो विश्व गोप्ता । तथेन्द्रा दयो देवसंघा मनुष्याः सदा तं गणेश नामामो भजामः ॥
अर्थात् “जिनसे इस समस्त जग का प्रादुर्भाव हुआ है, जिनसे कमलासन ब्रह्मा, विश्वव्यापी, विश्व रक्षक विष्णु, इंद्र आदि देव- समुदाय और मनुष्य प्रकट हुए हैं, उन गणेश का हम सदा ही नमन और भजन करते हैं ।” इसी प्रकार “एकदन्त स्तोत्र” में भी कहा गया है-
सदात्म रूपं सकलादि भूत ममायिनं सोअहम् चिन्त्य बोधम् । अनादि मध्यान्त विहीनमेक तमेक दन्त शरणं ब्रजामः ॥
अर्थात् – “जो सदात्म स्वरूप सबके आदि कारण, माया रहित तथा “ओअहमस्मि” है, वह परमात्मा मैं हूँ । इस अचिन्त्य बोध से सम्पन्न हैं जिनका आदि मध्य और अंत नहीं है, उन एक अद्वितीय एकदंतधारी भगवान गंणेश की हम शरण लेते हैं । ”