ॐकार रूद्राष्ट्क(भावार्थ सहित)—-
परम शिव भक्त कागभुशुण्डि ने जब अपने गुरू की अवहेलना की तो वे शिव के क्रोध-भाजन हुए। अपने शिष्य के लिए क्षमादान की अपेक्षा रखने वाले सहृदय गुरू ने रूद्राष्टक की रचना की तथा महादेव को प्रसन्न किया। सम्पुर्ण कथा रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में वर्णित है।
नमामी शमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं, ब्रह्म वेदस्वरूपम् ।
निजं, निर्गुणं, निर्विकल्पं, निरीहं, चिदाकाशं आकाशवासं भजेहं ।।
—-हे मोक्ष रूप (आप जो) सर्व व्यापक हैं, ब्रह्म और वेद् स्वरूप हैं, माया, गुण, भेद, इक्षा से रहित हैं, चेतन, आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्ररूप को धारण करने वाले हैं, आपको प्रणाम करता हूँ।
निराकारं ॐकार मुलं तुरीयं, गिरा ज्ञान गोती-तमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसार-पारं नतो अहम ।।
—हे निराकार आप जो कि ॐ कार के भी मूल हैं, तथा तीनों गुणों (सद-रज-तमस) से पृथक हैं, वाणी-ज्ञान-इंद्रियों से परे हैं, महाकाल के भी काल हैं, मैं ऐसे कृपालु, गुणों के भंडार, एवं सृष्टि से परे आप परम देव को नमस्कार करता हूँ।
तुषाराद्रि-संकाश-गौरं गंभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद भाल बालेन्दू कण्ठे-भुजंगा॥
—हे शिव, आप हिमालय पर्वत के समक्ष गौर वर्ण वाले तथा गंभीर चित वाले हैं तथा
आपके शरीर की कांति करोडों कामदेवों की ज्योति के सामान है। आपके शिश पर गंगाजी, ललाट पर दूज का चन्द्रमा तथा गले में सर्प माल शोभायमान है।
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीश-चर्माबरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥
—कानों में झिलमिलाते कुण्ड्ल से सोभायमान तथा विशाल नेत्रों एवं सुन्दर भौंहें वाले, हे नीलकंठ, हे सदा प्रसन्नचित रहने वाले परम दयालु, मृगचर्म एवं मुण्डमाल धारण करने वाले, सबके प्रिय और स्वामी, हे शंकर! मैं आपको भजता हूँ।
प्रचण्डं, प्रकृष्टं, प्रगल्भं, परेशं, अखंडं अजं भानुकोटि-प्रकाशम्।
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजे अहं भवानीपतिं भाव गम्यम्॥
—-आप प्रचण्ड रूद्रस्वरूप, उत्तम, तेजवान, परमेश्वर, अखंड, जन्मरहित, करोडों सूर्यों के सामान प्रकाशमान, तीनों प्रकार के दुःखो को हरने वाले, हाथों मे शूल धारण करने वाले, एवं भक्ति द्वारा प्राप्त होने वाले हैं। हे माँ भवानी के स्वामि, मैं आपको भजता हूँ।
कलातीत-कल्याण-कल्पांतकारी, सदा सज्जनानन्द दातापुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद-प्रसीद प्रभो मन्माथारी॥
—आप (सोलह) कलाओं से पृथक, कल्यानकारी, कल्पचक्र के नियन्ता, सज्जनों को आनन्द प्रदान करने वाले, सत, चित, आनन्द स्वरूप त्रिपुरारी हैं। हे प्रभु! आप मुझ पर प्रसन्न होएं। प्रसन्न होएं।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परे वा नाराणम्।
न तावत्सुखं शांति संताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभुताधिवासम् ॥
—-जबतक उमापति के चरणरूप कमलों को प्राणी नहीं भजते, या उनका ध्यान नहीं करते तबतक उन्हे इस लोक या परमलोक में सुख-शांति नहीं मिलती। हे सभी प्राणियों में वास करने वाले, प्रभु, आप प्रसन्न हों।
न जानामि योगं जपं नैव पूजाम्, नतोहं सदा सर्वदा शम्भु ! तुभ्यम।
जरा जन्म दु:खौद्य तातप्यमानं, प्रभो ! पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥
—हे शम्भुं! मैं पुजा-जप-तप-योग आदि कुछ भी नहीं जानता; मैं सदैव आपको प्रणाम करता हूँ। जन्म,अवस्था रोग आदि दुःखों से पीडित मुझ दीन की आप रक्षा करें! हे प्रभु मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
रूद्राष्टक इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये,
ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शम्भु प्रसीदति ॥
—ब्राह्मण द्वारा कहा गया हे रूद्राष्टक भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए है। जो व्यक्ति श्रद्धा भक्ति से इसका पाठ करते हैं, उनपर शिव सदैव प्रसन्न रहते हैं….