श्रावण माह  महत्व—–

वैसे तो प्रत्येक तिथि, वार, नक्षत्र एवं माह अपना विशेष महत्व रखते हैं किन्तु श्रावण माह का अपना अलग ही महत्व है। इस माह में ग्रहराज सूर्यदेव चन्द्रमा की राशि कर्क में विचरण करते हैं। जैसा कि विविध पौराणिक कथाओं से यह बात स्पष्ट है कि चन्द्रमा को ‘सुधांशु’ भी कहा गया है अर्थात चन्द्रमा अमृतमय है। इसमें अमृत का पुट विद्यमान है।

यही चन्द्रमा भगवान शिव के सिर पर भी विराजमान है। यही कारण है कि अपने कण्ठ में हलाहल विष एवं सिर पर उग्र ज्वालायुक्त तीसरा नेत्र धारण करने वाले भगवान शिव को जगत कल्याण हेतु अपने सिर पर अमृतमय जलयुक्त गंगा तथा सुधानिधि चन्द्रमा को धारण करना पड़ा है जिससे कण्ठ एवं नेत्र की ज्वाला को ठण्डक प्राप्त हो सके तथा इनकी उग्रता से लोक कल्याण प्रभावित न होने पाए। यही कारण है कि अन्यान्य देवी-देवताओं को घृत, पूरी एवं पकवान आदि की आवश्यकता पड़ती है जबकि भगवान शिव धतूरा, बिल्व आदि पत्र-पुष्प से ही पूजित एवं प्रसन्न होते हैं। उनकी पूजा के लिए किसी पकवान या विशेष वैदिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। मात्र उनका सिर ठण्डा होना चाहिए।

यही कारण है कि मेष राशिगत उच्चस्थ सूर्य की प्रचण्ड आतप विकिरण करने वाली किरणों से जब समस्त जगत उत्तप्त रहता है तब चन्द्रमा के शीतल गृह अर्थात कर्क राशि में सूर्य के आते ही समस्त जगत को प्रचण्ड गर्मी से राहत प्राप्त होती है। और प्रसन्न होकर इन्द्रदेव भी जलभरे घुमड़ते बादलों की ठण्डी जल धारा से भगवान शिव का अभिषेक प्रारम्भ कर देते हैं। अगर हम भौगोलिक दृष्टिकोण से भी देखें तो कल्पित कर्क रेखाGet Fabulous Photos of Rekha हिमालय की पूर्वोत्तरवर्ती श्रृंखलाओं से गुजरती है। महामति वराह मिहिर ने अपनी कालजयी रचना बृहत्संहिता के ‘नक्षत्र कूर्माध्यायः’ में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है-

‘अथपूर्वस्यामञजनबृषभध्वजपद्ममा​ल्यवद्गिरयः।
व्याघ्रमुखसुह्मकर्वटचान्द्रपुर​ाःषूर्पकर्णाष्च।
खसमगधषिबिरगिरिमिथिलसमतटोड्राष्​ववदनदन्तुरकाः।
प्राग्ज्योतिड्ढलौहित्यक्षीरोदस​मुद्रपरुड्ढादाः।
उदयगिरिभद्रगौडकपौण्ड्रोत्कलकाष​िमेकलाम्बष्ठाः।
एकपदताम्रलिप्तककोषलका वर्धमानष्च।’

अर्थात् अंजनगिरि, बृषभध्वजगिरि, पद्मगिरि, माल्यवान पर्वत, व्याघ्रमुख, सुह्म, कर्कट (कर्वट), चन्द्रपुर, शूर्पकर्ण देश, खस, मगध, शिविरपर्वत, मिथिला, समतट, उड्र, अष्ववदन, दन्तुरक, प्राग्ज्योतिश, लौहित्य,पुरुषाद प्रदेश, उदयगिरि, भद्र, गौड देश, पौण्ड्र, उत्कल, काशी, मेकल, अम्बष्ठ, एकपद, ताम्रलिप्तक, कोशल व वर्धमान प्रदेश आर्दा्रदि तीन नक्षत्रों के वर्गों में पड़ते हैं। अर्थात आर्दा्र, पुनर्वसु, पुष्य इन तीन नक्षत्रों के ये प्रदेश हैं। ध्यान रहे इनमें अन्तिम नक्षत्र पुष्य कर्क राशि के वृत्त में पड़ता है। इनमें पूर्वोत्तर भाग के जितने भी प्रान्त या पर्वत हैं वे सब पुष्य नक्षत्र वर्ग के हैं।
श्रावण मास
हिमाच्छादित पर्वत चोटियों से गुजरते हुए भगवान भुवन भास्कर अपने आतप में न्यूनता समाविष्ट कर देते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भूतभावन भगवान भोलेनाथ का प्रिय निवास स्थान कैलाश पर्वत भी यहीं पर स्थित है जिसकी चोटी पर जाकर भुवन भास्कर भगवान सूर्य भी भगवान शिव की श्रृंखला रूपी जटाओं में विश्राम सा करने लगते हैं। और इसी समय जगत कष्ट विमोचक भवभय हारी कैलाशपति भगवान चन्द्रमौलि लोक कल्याण के लिए तत्पर होते हैं। ऐसी प्रकृति प्रदत्त अनुकूल वेला में यदि पत्र-पुष्प आदि से भगवान शिव की पूजा की जाए और उससे किसी अक्षय फल की प्राप्ति हो तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

ऐसे अनुकूल मुहूर्त की खोज प्राचीन ऋषियों एवं वैदिक आचार्यों ने बहुत सूक्ष्म निरीक्षण एवं गहन परीक्षण तथा श्रमसाध्य अन्वेक्षण के बाद किया होगा। इन्हीं यथार्थवादी साक्षात तथ्यगत प्रमाणों के आधार पर इस परम पावन श्रावण मास को पूजा-पाठ की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण बताया गया है। वैसे तो किसी माह के किसी दिन को शिव की पूजा की जा सकती है। और उसका भी परिणाम शोभन ही होगा परन्तु इस श्रावण माह का पूजन अपना विशेष महत्व रखता है। यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पूजन महती फलदायी हो सकता है तो ऐसे विशेष पर्व में किया गया पूजन तो अवश्य ही कोटिगुना फल देने वाला होगा।

जनश्रुति एवं प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार जब सतीजी राम के वनवास काल में रामचन्द्रजी की परीक्षा लेने के लिए सीताजी का रूप धारण किया था तो भगवान शिव ने सतीजी से विछोह का परम कठोर व्रत धारण कर लिया था। भगवान शिव को पुनः प्राप्त करने के लिए सतीजी ने इसी श्रावण मास में विधि-विधानपूर्वक पूजा करके भगवान शिव को पुनः पति रूप में प्राप्त किया था।

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