माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। जो जीवन रहते उनकी सेवा नहीं कर पाते, उनके देहावसान के बाद बहुत पछताते हैं। इसीलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पत्र की अनिवार्यता मानी गई है। राजा भागीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा जी को स्वर्ग से धरती पर ला दिया। जन्मदाता माता-पिता को मृत्योपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। प्रस्तुत है पितृ एवं पितृ पक्ष के महत्व की विशेष जानकारी –
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन
दद्याज्जलाज्जलीन।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणदेव नश्यति।
श्राद्ध पक्ष में अपने दिवंगत पितरों के निमित्त जो व्यक्ति तिल, जौ, अक्षत, कुशा, दूध, शहद व गंगाजल सहित पिण्डदान व तर्पणादि, हवन करने के बाद ब्राह्माणों को यथाशक्ति भोजन, फल-वस्त्र, दक्षिणा, गौ आदि का दान करता है, उसके पितर संतृप्त होकर साधक को दीर्घायु, आरोग्य, स्वास्थ्य, धन, यश, सम्पदा, पुत्र-पुत्री आदि का आशीर्वाद देते हैं। जो व्यक्ति जान-बूझकर श्राद्ध कर्म नहीं करता, वह शापग्रस्त होकर अनेक प्रकार के कष्टों व दु:खों से पीड़ित रहता है। अपने पूर्वज पितरों के प्रति श्रद्धा भावना रखते हुए पितृ यज्ञ व श्राद्ध कर्म करना नितांत आवश्यक है। इससे स्वास्थ्य, समृद्धि, आयु एवं सुख-शांति में वृद्धि होती है।
श्राद्ध में कुश और तिल का महत्व—–
दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोंनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।
श्राद्ध के देवता
वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं।
विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र व्यक्ति केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को देना चाहिए या किसी गाय को दिन भर घास खिला देनी चाहिए अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करनी चाहिए कि हे! प्रभु मैंने हाथ वायु में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।
किसे करना चाहिए श्राद्ध?
श्राद्ध के प्रकार—
श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-
नित्य- यह श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथी पर किया जाता है।
नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे-पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।
काम्य- यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती के लिए कृतिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।
श्राद्ध के लिए अनुचित बातें—-
कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में नहीं प्रयुक्त होते- मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्रजल से बना नमक। भैंस, हिरिणी, उँटनी, भेड़ और एक खुरवाले पशु का दूध भी वर्जित है पर भैंस का घी वर्जित नहीं है। श्राद्ध में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने जाते हैं। श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि में कभी नहीं किया जाता है। जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व न हो, सार्वजनिक हो, ऐसी भूमि पर श्राद्ध किया जा सकता है।
अनुष्ठान का अर्थ—-
अपने दिवंगत बुजुर्गों को हम दो प्रकार से याद करते हैं—-
स्थूल शरीर के रूप में
भावनात्मक रूप से।
श्राद्ध विधि : ऐसे करें पितरों को तृप्त —-
हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का प्रमुख स्थान माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान का अधिकारी माना गया है और नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर मनुष्य करता है।
इसलिए यहां जानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है –
– पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।
– पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।
– पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।
– एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।
– पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।
– पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
– पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।
– पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।
– पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है।
– गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है।
– कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है।
आश्विन कृष्ण पक्ष में जिस दिन पूर्वजों की श्राद्ध तिथि आए उस दिन पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध विधि-विधान से करना चाहिए। किंतु अगर आप किसी कारणवश शास्त्रोक्त विधानों से न कर पाएं तो यहां बताई श्राद्ध की सरल विधि को अपनाएं –
– सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर लिपकर व गंगाजल से पवित्र करें।
– घर आंगन में रंगोली बनाएं।
– महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं।
– श्राद्ध का अधिकारी श्रेष्ठ ब्राह्मण (या कुल के अधिकारी जैसे दामाद, भतीजा आदि) को न्यौता देकर बुलाएं।
– ब्राह्मण से पितरों की पूजा एवं तर्पण आदि कराएं।
– पितरों के निमित्त अग्नि में गाय का दूध, दही, घी एवं खीर अर्पित करें।
गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन से चार ग्रास निकालें।
– ब्राह्मण को आदरपूर्वक भोजन कराएं, मुखशुद्धि, वस्त्र, दक्षिणा आदि से सम्मान करें।
– ब्राह्मण स्वस्तिवाचन तथा वैदिक पाठ करें एवं गृहस्थ एवं पितर के प्रति शुभकामनाएं व्य
जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं पूरे वर्ष श्राप देते तथा अपने सगे संबंधियों का रक्त चूसते रहते हैं और वर्ष भर उनके घर में मांगलिक कार्य नहीं होते। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में पितृ दोष का सबसे अधिक महत्व है। यदि घर में कोई मांगलिक कार्य नहीं हो रहे हैं, रोज नई-नई आफतें आ रही है, आदमी दीन-हीन होकर भटक रहा है या संतान नहीं हो रही है, या विकलांग पैदा हो रही है तो इसका मुख्य कारण यह है कि उस व्यक्ति की कुंडली में श्राद भाव से अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा पक्ष की अमावस्या को विधि विधान के साथ पिंड श्राद्ध करता है, तो पितृ उससे प्रसन्न हो जाते हैं तथा उसे आशीर्वाद देकर जाते ।
पितृ पक्ष का महत्व—–
ज्योतिष शास्त्र में ऋतुओं तथा काल, पक्ष, उत्तरायण तथा दक्षिणायन, उत्तर गोल और दक्षिण गोल का अत्यधिक महत्व है। उत्तर गोल में देवता पृथ्वी लोक में विचरण करते हैं, वहीं दक्षिण लोक भाद्र मास की पूर्णिमा को चंद्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नजदीक से गुजरता है। इसी मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा से अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाजे पर पहुंच जाते हैं और वहां अपना असम्मान या अपनी नई पीढ़ी में नास्तिकता को देख दुखी होकर श्राप देकर चले जाते हैं। वे पितृलोक में जाकर अपने साथियों के समक्ष अपने परिवार का दुख प्रकट करते हैं और पूरे वर्ष दुखी रहते हैं। अगर उनकी नई पीढ़ी पितरों के प्रति सम्मान रख रही है तो वे दूसरे पितरों से मिलकर अपनी पीढ़ी की बड़ाई करते हुए फूले नहीं समाते हैं। ऐसा वर्णन श्राद्ध मीमांसा में आया है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। श्राद्ध का अर्थ पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव से है। जो मनुष्य उनके प्रति उनकी तिथि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार फलफूल, अन्न, मिष्ठान आदि से ब्राह्मण को भोजन कराते हैं। उस पर प्रसन्न होकर पितृ उसे आशीर्वाद देकर जाते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं, प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और द्वितीय पितृ पक्ष में जिस मास और तिथि को पितर की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उसका दाह संस्कार हुआ है। वर्ष में उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिंड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। पितृपक्ष में जिस तिथि को पितर की मृत्यु तिथि आती है, उस दिन पार्वण श्राद्ध किया जाता है। पार्वण श्राद्ध में 9 ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है, किंतु शास्त्र किसी एक सात्विक एवं संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कराने की भी आज्ञा देते हैं।
शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निर्मित जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते है, और घर, परिवार व्यवसाय तथा आजीविका में हमेेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से अपने माता-पिता आदि सम्माननीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध न करने से, उनके निर्मित वार्षिक श्राद्ध आदिन करने से पितरों का दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति वंश वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी संकट धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएं होते हुए भी मन असंतुष्ट रहना आदि पितृ दोष भी हो सकते हैं। कहते हैं कि यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हो हुई हो, तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएं। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत पुराण की कथा करवाएं। वैसे श्रीमद भागवत पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आत्म शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती
पितरों का मोक्ष द्वार ‘गयाजी’—–
हे पुण्यात्मा! हम तुम्हें नमन करते हैं। तीनों लोकों में तुम जहां भी और जिस रूप में भी हो, हमारी तिलांजलि आप तक पहुंचे और आप तृप्त हों। अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए गंगा में खड़े होकर लाखों लोग रोज ऐसे ही अपने पितरों को तृप्त करते हैं।
कहते हैं कि जो ‘गया’ हो आए उन्हें मोक्ष मिल गया, उस पर भी अकेले नहीं बल्कि अपने सभी पितरों के साथ। दुनिया में हिंदू धर्मावलंबियों के लिए गया, मोक्ष स्थली के रूप में विख्यात है।
प्राचीन काल से नदियों के किनारे बसे नगर, किले उस पर भी अगर पहाडि़यां हों, और वो भी वनों से घिरी हों तो उसका महत्व द्विगुणित हो जाता है। पहाड़ और राजमार्ग की संधि पर जन्में ऐसे नगरों की अपनी विशेषताएं उनकी प्रगतिशीलता होती हैं। वे नए जमाने के अनुसार बदलते रहते हैं। गया ऐसा ही एक घर्मनगर है जिसे पुरातन काल से श्रद्धा भाव के कारण ‘गया जी’ कहते चले आ रहे हैं। भारत वर्ष के गौरवमयी प्राचीन मगध क्षेत्र के हृदय भाग में बसा यह नगर इतिहास, धर्म, संस्कृति, पुरातत्व जनचेतना के मामले में प्रारंभ से ही अग्रणी रहा है। इस क्षेत्र के कौतुहलपूर्ण इतिहास को हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख व इस्लाम के संत फकीरों ने विभिन्न मौकों पर उजागर किया है। इस शहर का इतिहास प्राचीन, अनोखा, और वास्तव में गौरवशाली रहा है। पटना से करीब 9. किलोमीटर की दूरी पर और अंतः सलिला फल्गु के किनारे बसे गया का धर्म और इतिहास के पर्वों पर बड़ा ही नाम है।
यहां प्राचीनकाल से ही सभी धर्मों के लोगों के उपासना स्थल का होना, यहां की सहिष्णु मिट्टी का साक्षात् गवाह है। तभी तो इसे पांचवां धाम कहा जाता है। हरेक साल .5 दिनों के लिए होने वाला पितृपक्ष का मेला इस नगर की एक विशिष्ट पहचान है। गौरतलब है कि श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण प्रायः हरेक भारतीय तीर्थों में संपादित होता है, पर इस अनुष्ठान के नाम पर विशाल मेला केवल गया में ही लगता है, जहां भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विनी अमावस्या तक इस कार्य के निमित्त देश के दूरस्थ स्थानों और विदेशों से भी लोगों का आगमन होता है। इसे इस नगर की खासियत ही कही जाएगी कि यहां साल भर श्राद्ध पिंडदान होता रहता है।
भारत में तीन नगरों के नाम व इतिहास असुरों के साथ संबद्ध है। इसमें गया की यह विशेषता कही जायेगी कि यहां का श्रीपुरुष विष्णुभक्त पराक्रमी गयासुर देवभक्त था। असुरों में भक्ति का प्रणम्य पुरुष था, जबकि जालंधर नगरी का जालंधर और तंजौर नगरी के तेजासुर अपने अनैतिक व दुष्ट कामों के लिए कुख्यात थे। इसी गयासुर के भक्तिभाव का असर है कि यहां के लोग धर्म-कर्म में खूब विश्वास करते हैं। सनातन धर्म के ऐसे कोई तीर्थ व देवता नहीं जिनका गया में स्थान न हो, इसी लिए गया को सर्वतीर्थमयी भी कहा जाता है। गया एक ऐसा नगर है जहां प्राचीन व अर्वाचीन का अद्भुत दर्शनीय है। देव मंदिरों के पूजन अर्चन व दर्शन यहां के लोगों की दिनचर्या में शामिल हैं। शहर के शताधिक मंदिरों में खासकर श्री विष्णुपद, माता मंगला गौरी, श्री बंगला स्थान, माई वागेश्वरी, श्री भैरो स्थान मार्कडेश्वर शिव, फल्केश्वर महादेव, पितामाहेश्वर, वृद्धपरपिता माहेश्वर गोदावली, महावीर स्थान, अक्षयवट आदि में बारहो मास गहमागहमी बनी रहती है।
गया को धरोहर समेट एक पुरातन नगरी भी कहा जाता है। जहां गांव-जबारी में पग-पग पर इतिहास-पुरातत्व के कण बिखरे पड़े हैं। नवाश्म काल से लेकर हरेक भारतीय काल का जीत स्थल यहां मौजूद है, यहां के धरोहरों पर कार्य करने के लिए आज भी कितने ही विदेशी शोधार्थी आते रहते हैं। इसके गर्भ में बौद्ध, जैन व हिंदु स्थलों की भरमार है। गया की बात चले और बोधगया की बात न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? दरअसल शुरू से ही गया और बोधगया का चोली-दामन की तरह अभित्र संबंध रहा है। और तो और पंचकोशी गया क्षेत्र में प्रेतशिला व ब्रह्मयोनी में से एक से लेकर बोधगया तक की भूमि का उल्लेख किया गया है। गया से तकरीबन 11 किलोमीटर की दूरी पर निरंजना नदी के पार्श्व में विराजमान बोधगया वही भूमि है जहां करीब 255. वर्ष पूर्व तथागत को आत्मज्योति की संप्राप्ति हुई।
गया भ्रमणकालीन संस्कृति का मर्धन्य केंद्र कहलाता है जहां भ्रमणार्थी सालों भर आते रहते हैं। यह जानकर गर्व होता है कि यह वही नगर है जहां बिहार प्रांत में पहले पहल 1855 ई. में एक विशाल पुस्तकालय व संग्रहालय की स्थापना की गई। आज भी यहां पुस्तकालयों व संग्रहालयों की कोई कमी नहीं है। वर्तमान में यहां मगध संस्कृति केंद्र सह गया संग्रहालय निर्माणधीन है। मंत्र लाल पुस्तकालय, मारवाडी पुस्तकालय, जनता पुस्तकालय आदि पाठक के दिलोदिमाग में आज भी बसे हैं। गया क्षेत्र की मूल भाषा मगही है जो बुद्ध काल के पूर्व की भाषा मानी जाती है। हालांकि लोग कहते हैं कि गया की भाषा व बोली गर्म है, जबकि सच्चाई यह है कि किसी गयावासी के मुख से कोई मगही संवाद सुन ले तो उसमें अक्खड़पन लिए प्यार-मनुहार का रूप प्रतीत होता है। आज इस क्षेत्र में मगही में कितने ही कार्य हो रहे हैं तब भी यह संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान पाने से वंचित है। यह सर्वप्राचीन भारतीय लोकभाषा है।
गया रास-रंग के लिए भी दूर-दराज तक प्रसिद्ध है। एक ओर जहां खूब तीखा व खट्टा प्रेमी यहां मिल जाएंगे, तो कितने ही लोग ऐसे हैं जो मिष्ठान से ही पेट भर लेते हैं। पान के बारे में तो पूछिए मत! इन सबके दांत इस बात के मूक गवाह हैं कि इनका खाना बगैर पान के हजम नहीं होता। बैठकबाजी, बतकही व फबती भी गया के लोगों को अच्छा लगता है। चर्चा चाहे किसी विषय की हो पर तय है कि यहां से निकली बात दूर तलक जाती है। इधर हाल के दिनों में नगर ने बिजली और पानी की समस्या से तो निजात पाई है, पर गंदगी का कोई स्पष्ट हल नहीं निकला है। यहां के साहित्यकार-पत्रकार संघ ने भी इस दिशा में पहल की है, पर नतीजे कुछ खास नहीं निकले। गया नगर की यह विशेषता कही जाएगी कि यहां लेखनहारों की कोई कमी नहीं। प्रत्येक मुहल्ला यहां लेखकों से शोभायमान है। कलमकारी यहां का जीवंत पेशा है। कुल मिलाकर यह कहना उचित जान पड़ता है कि इस लोक से परलोक के बीच संबंध का स्थल गया एक तरण तारन की स्थली है जहां के प्राचीन आदर्श आज भी उसी रूप में जीवंत है। तो फिर देर किस बात की आपका गया आगमन हर पल हर घड़ी शुभकारी होगा, ऐसा शास्त्रोउक्त मत है।
श्राद्ध विवेचन—–
प्रत्येक शरीर में आत्मा तीन रूप में पाई जाती है,पहली विज्ञान आत्मा दूसरी महान आत्मा और तीसरी भूत आत्मा,विज्ञान आत्मा वह है,तो गर्भाधान से पहले स्त्री पुरुष में संभोग की इच्छा उत्पन्न करती है,वह आत्मा रोदसी नामक मंडल से आता है,उक्त मंडल पृथ्वी से सत्ताइस हजार मील दूर है,दूसरी है महान आत्मा वह चन्द्रलोक से अट्ठाइस अंशात्मक रेतस बनाकर आता है,उसी २८ अंश रेतस से पुरुष पुत्र पैदा करता है,तीसरी है भूतात्मा जो माता पिता द्वारा खाने वाले अन्न के रस से बने वायु द्वारा गर्भ पिण्ड में प्रवेश करता है,उससे खाये गये अन्न और पानी की मात्रा के अनुसार अहम भाव शामिल होता है,इसी को प्रज्ञानात्मा तथा भूतात्मा कहते है,यह भूतात्मा पृथ्वी के अलावा किसी अन्य लोक में नही जा सकती है,मृत प्राणी की महानात्मा स्वजातीय चन्द्र लोक में चला जाता है,चन्द्र लोक में उस महानात्मा से २८ अंश रेतस मांगा जाता है,क्योंकि चन्द्रलोक से २८ अंश रेतस लेकर ही वह उत्पन्न हुआ था,इसी अट्ठाइस अंश रेतस को पितृ ऋण कहते है,२८ अंश रेतस के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिण्ड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धा नामक मार्ग का सम्बन्ध मध्यान्हकाल में पृथ्वी से होता है,इसलिये ही मध्यान्हकाल में श्राद्ध करने का विधान है,पृथ्वी पर कोई भी वस्तु सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल के सम्पर्क से ही बनती है,संसार में सोम सम्बन्धी वस्तु विशेषत: चावल और जौ ही है,जौ में मेधा की अधिकता है,धान और जौ में रेतस (सोम) का अंश विशेष रूप से रहता है,अश्विन कृष्ण पक्ष में यदि चावल तथा जौ का पिण्डदान किया जावे तो चन्द्रमण्डल को रेतस पहुंच जाता है,पितर इसी चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते है,”विदूर्ध्वभागे पितरो वसन्त: स्वाध: सुधादीधीत मामनन्ति”।
अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की ओर रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है,श्राद्ध की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त उनकी आत्मा की तृप्ति के लिये श्रद्धा पूर्वक जो अर्पित किया जाता है,वह ही श्राद्ध है। मृत्यु के पश्चात दसगात्र और षोडशी पिण्डदान तक मृत व्यक्ति की प्रे संज्ञा रहती है,सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृ पक्ष में भर में जो तर्पण किया जाता है,उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यायित होता है,पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो जौ या चावल का पिण्डदान देता उसमें रेतस का अंश लेकर चन्द्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है,ठीक अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है,१५ दिन पश्चात अपना अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है,इसलिये इसे पितृ पक्ष कहते है,अन्य दिनों में जो श्राद्ध किया जाता है,उसका सम्बन्ध सूर्य की सुषुम्ना नाडी से रहता है,जिसके द्वारा श्रद्धा मध्यान्हकाल में पृथ्वी पर आती है,और यहां से तत पितर का भाग लेजाती है,परन्तु पितृ पक्ष में पितृप्राण चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते है,वे स्वत: ही चन्द्र पिण्ड की परिवर्तित स्थिति के कारण पृथ्वी पर व्याप्त होते है,इसी कारण पितृपक्ष में तर्पण का इतना महात्म्य है।
शास्त्रों में निर्देश है,के माता पिता आदि के निमित्त उनके नाम और उच्चारण मन्त्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है,वह उनको व्याप्त होता है,यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देवयोनि प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे अमृत रूप में प्राप्त होता है,यदि उन्हे गन्धर्व लोक की प्राप्ति हो तो वह अन्न उन्हे भोग्यरूप में उन्हे प्राप्त होता है,यदि वह पशु योनि में हो तो वह अन्न उन्हे तृण रूप में प्राप्त होता है,यदि वह प्रेत योनि में प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे रुधिर रूप में प्राप्त होता है,यदि कर्मानुसार मनुष्य योनि प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे अन्न आदि के रूप में प्राप्त होता है।
श्राद्ध पक्ष की सूचना पाते ही सभी पितृ एक दूसरे का स्मरण करते हुये मनोमय रूप में श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते है,और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन प्राप्त करते है,किंवदन्ति के अनुसार सूर्य कन्या राशि में आता है,तो पितर अपने पुत्र और पौत्रों के घर जाते है,विशेषत: अश्विन अमावस्या को उनका श्राद्ध नही करने पर वे श्राप देकर लौट जाते है,अत: उन्हे पत्र पुष्प फ़ल और जल तर्पण से यथा शक्ति उन्हे तृप्त करना चाहिये,हमे श्राद्ध विमुख नही होना चाहिये।
॥ कन्यागते सवितरि पितरौ यान्ति वै सुतान,अमावस्या दिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिता:,श्रद्धाभावे स्वभवनं शापं दत्वा ब्रजन्ति ते॥
मुख्यत: श्राद्ध दो प्रकार के होते है,एकोदिष्ट,और पार्वण,कालान्तर में चार प्रकार के श्राद्धों को मुख्यता दी गयी,वे है पार्वण,एकोदिष्ट वृद्धि और सपिण्डन,यही चार प्रकार के श्राद्ध समाज में प्रचलित है,वृद्धि श्राद्ध का स्पष्ट अर्थ नान्दिमुख श्राद्ध है,श्राद्धों की पूर्ण संख्या बारह है।
॥ नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्ध सपिण्डनं,पार्वण चेति विज्ञेय गोष्ठ्यां शुद्ध्यर्थष्टमम,कर्मागं नवम प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम,यात्रास्वेकादशं प्रोक्तं पुष्टयर्थ द्वादशं स्मृतम॥
इसमें नित्य श्राद्ध तर्पण और पंचमहायज्ञ के रूप में किया जाता है,नैमित्तिक श्राद्ध का ही नाम एकोदिष्ट है,यह किसी एक व्यक्ति के लिये किया जाता है,मृत्यु के बाद यही श्राद्ध किया जाता है,प्रतिवर्ष मृत्यु तिथि पर भी एकोदिष्ट ही किया जाता है,काम्य श्राद्ध किसी कामना की पूर्ति की इच्छा से किया जाता है,वृद्धि श्राद्ध पुत्र जन्म के अवसर पर किया जाता है,इसी को नान्दि श्राद्ध भी कहते है,सपिण्डन श्राद्ध मृत्यु के पश्चात दसगात्र षोडशी के बाद किया जाता है इसके द्वारा म्रुत व्यक्ति को पितरों के साथ मिलाया जाता है।
प्रेत श्राद्ध में जो पिण्डदान करते है,उस पिण्ड को पितरों को दिये पिण्ड में मिला दिया जाता है,पार्वण श्राद्ध प्रतिवर्ष अश्विन कृष्ण पक्ष में मृत्यु तिथि और अमावस्या के दिन किया जाता है,इसके अतिरिक्त अन्य सभी पर्वों पर भी यह श्राद्ध किया जाता है,गोष्ठी-श्राद्ध विद्वानों को सुखी समृद्ध बनाने के लिये किया जाता है,इससे पितरों को तृप्ति होना भी स्वाभाविक है,शुद्धि-श्राद्ध शारीरिक मानसिक और अशौचादि अशुद्धि के निवारण हेतु किया जाता है,कर्मांग-श्राद्ध सोमयाग पुंसवन सीमन्तोन्नयन आदि के अवसर पर किया जाता है,दैविक-श्राद्ध देवताओं की प्रसन्नता के लिये किया जाता है,यात्रा श्राद्ध यात्रा के समय किया जाता है,पुष्टि-श्राद्ध धन धान्य समृद्धि हेतु किया जाता है।
हमारे धर्म शास्त्रों में श्राद्ध के सम्बन्ध में इतने विस्तार से अध्ययन किया गया है,कि इसके सामने अन्य समस्त धार्मिक कृत्य गौण लगते है,श्राद्ध के सूक्ष्मतम कृत्यों के सम्बन्ध में इतनी सूक्ष्म मीमांसा की गयी है,कि विचारशील मनुष्य इससे चमकृत हो उठते है,मनोविज्ञान के अध्ययन कर्ताओं के लिये श्राद्धीय कर्मकाण्ड विवेचन एवं अध्ययन हेतु उत्तम सामग्री है,शास्त्रकारों ने अपने पाण्डित्य और मनोविज्ञान का अद्वितीय रूप प्रकट किया है। नया मकान बनवाने पर नया कूप या पानी का साधन बनवाने पर,समृद्धि प्राप्त करने पर देश में कोई असाधारण घटना घटने पर शत्रुओं पर विजय प्राप्त होने पर पुत्र जन्म यज्ञोपवीत विवाह कन्यादान आदि अवसरों पर जब परिवार के सभी लोग मिलकर उत्सव मना रहे हों,मन उत्साहित हो उस समय अपने स्वर्गीय पूर्वजों की स्मृति होना नितांत आवश्यक है,उस समय यह इच्छा भी जागृत होती है,कि यदि इस अवसर पर माता पिता बडे भाई या अन्य कोई आत्मीय यहां होते तो वे सभी यह देखकर बहुत आनन्दित होते। जो हमारे सुख में अन्तरात्मा से सुखी तथा दुख में अन्तरात्मा से दुखी होते थे।
इस मनोवैज्ञानिक सत्य से इन्कार नही किया जा सकता कि मानसिक भावना सर्वशक्तिमान है,श्रद्धानत मन के समक्ष स्वर्गीय आत्मा सजीव और साकार हो उठती है,श्राद्ध में माता पिता आदि का ध्यान करना हमारा परम कर्तव्य है,अनेक श्रद्धालु लोगों का यह अनुभव है,कि श्राद्ध के समय उन्हे माता पिता या किसी अन्य आत्मीय की झलक दिखाई दी,भगवान राम ने जब अपने पिता का श्राद्ध किया था तब पिण्डदान के पश्चात भगवती सीता को दशरथ आदि पितरों के दर्शन करवाये थे,यह व्यर्थ कल्पना नही है,क्योंकि कालान्तर का मनोविज्ञान भी श्राद्ध के इस शाश्वत सत्य के निकट पहुंचता जा रहा है।
श्राद्ध के लिये आवश्यक वस्तुओं पर भी शास्त्रों में विस्तार से विचार किया गया है,कौनसी वस्तु कैसी हो,कहां से ली जाये,व कब ली जाये,भोजन सामग्री कैसी हो,किन पात्रों में वे कैसी बनायी जायें,इस सभी महत्वपूर्ण तथ्यों का शास्त्रों में वर्णन किया गया है,फ़ल साग तरकारी आदि में कुछ वस्तुयें अश्राद्धीय बतायी गयी है,शास्त्रों में प्रत्येक वस्तु की शुद्धता व स्तर निर्धारित किया गया है,शास्त्रों द्वारा निर्धारित पुष्प व चन्दन का ही प्रयोग करना चाहिये।
इसके अलावा श्राद्ध में कैसे ब्राह्मणों को आमन्त्रित किस प्रकार किया जाये,कब आमन्त्रित किया जाये,निमत्रण के बाद ब्राह्मण किस प्रकार आचरण करें,और ब्राह्मण किस प्रकार भोजन करें,इन सभी बातों का शास्त्रों में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है,शास्त्रों में ब्राह्मण को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है,उत्तम,मध्यम और अधम,शास्त्रों में निषिद्ध ब्राह्मणों की सूची बहुत लम्बी है,शास्त्रों में कठोर आदेश है,कि अन्य किसी धार्मिक कृत्य में ब्राह्मणों की परीक्षा नही लेनी चाहिये,परन्तु श्राद्ध में प्रयत्नपूर्वक इस ब्राह्मण की परीक्षा लेनी चाहिये,और यह परीक्षा निमन्त्रण से पूर्व ही कर लेनी चाहिये।
॥ न ब्राह्मण परीक्षेत दैव कर्माणि धर्मवित,पित्रये कर्माणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्नत:॥
॥ परकीये गृहे यस्तु स्वात्पितर्प ये द्यादि,तदभूमि स्वामि पितुभि: श्राद्धकर्म विहन्यते॥
घर में किये गये श्राद्ध का पुण्य तीर्थ-स्थल पर किये गये श्राद्ध से आठ गुना अधिक मिलता है।
॥तीर्थादष्टगुणं पुण्यं स्वगृहे ददत: शुभे॥
मृतक की अन्त्येष्टि और श्राद्ध को जो व्यवस्था कालान्तर से प्रचलित है,वह भी हमारे वेदों में वर्णित है,गृह्यसूत्रों में पितृ यज्ञ अथवा पितृ श्राद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है,आश्वलायन गृह्यसूत्र के सप्ततमी अष्टमी कण्डिका में विस्तारपूर्वक श्राद्ध-विधि वर्णित की गयी है,जो कि पाठन व मनन दोनों की द्रिष्टि से उत्तम है। अन्त्येष्टि विधि का वर्णन भी इसमें उपल्ब्ध है,चिता प्रज्वलित होने पर ऋग्वेद का यह मन्त्र पढा जाता है,”प्रेहि प्रेहि पथभि: पूर्वेभि:”,अर्थात जिस मार्ग से पूर्वज गये है,तुम भी उसी मार्ग से जाओ,मूलत: वेदों में भी श्राद्ध और पिण्डदान का उल्लेख किया गया है,श्राद्ध में जो मन्त्र पढे जाते है,वे उनमे से कुछ इस प्रकार है,” अत्र पितरों मादध्वं यथाभागमा वृषायव्यम”,अर्थात पितृ यज्ञ में पित्रुगण उपस्तित हों,और अंशानुसार अपना अपना भाग ग्रहण करें। दूसरा इस प्रकार है,”नम: व: पितरो रसाय,नम: व: पितरो शोषाय”,अर्थात पितरों को नमस्कार ! बसन्त ऋतु का उदय होने पर सभी पदार्थ रसवान हो,तुम्हारी कृपा से देश सुन्दर बसन्त ऋतु को प्राप्त हो,पितरों को नमस्कार ! ग्रीष्म ऋतु आने पर सर्व पदार्थ शुष्क हों,देश में ग्रीष्म ऋतु भली प्रकार व्याप्त हों”।
इसी प्रकार छ: ऋतुओं के सुन्दर और सुखद होने की कामना की गयी है,यह भी कहा गया है कि पितरो ! तुमने हमे गृहस्थ बना दिया है,अत: हम तुम्हारे लिये दातव्य वस्तु अर्पित कर रहे है।
वेदों के बाद हमारे स्मृतिकारों और धर्माचार्यों ने श्राद्धीय विषयों को बहुत व्यापक बनाया है,और जीवन के प्रत्येक अंग के साथ सम्बद्ध कर दिया,मनुस्मृति से लेकर आधुनिक निर्णयसिन्धु धर्मसिन्धु तक की परम्परा यह सिद्ध करती है कि इस विधि में समय समय पर युगानुरूप संशोधन परिवर्धन और परिवर्तन होता रहा है,नयी मान्यता नयी परिभाषा नयी विवेचना और तदुनुरूप नयी व्यवस्था समान होती रही है,दुर्भाग्य की बात यह है कि विदेशी आधिपत्य के बाद जब हिन्दू समाज पंगु हो गया,तब समाज का नियंत्रण विदेशी पद्धति और विधि विधान से होने लगा,तब युग की आवश्यकता के अनुरूप नयी परिभाषा व्यवस्थाक्रम भी अवरुद्ध हो गया,फ़लस्वरूप उपयोगितावाद मानव मन की तुष्टि अपने पुरातन संस्कारों से नही हो पा रही है,और वह वेदान्ती मानव संस्कार विहीन होता जा रहा है,जीवित माता पिता भाई बहिन रिस्तेदार भी आज मात्र उपयोगितावाद की कसौटी पर कसे जा रहे है,तब हमारी आस्था स्वयं पर से ही विचलित होती जा रही है,देश में व्याप्त समस्त अशान्ति विक्षोभ असन्तोष अनैतिकता आदि का मूल कारण यही है,यही कारण द्वापर में यादव कुल को समाप्त करने के लिये पैदा हुये थे,जब एक ऋषि से मजाक करने और उनकी सत्यता को परखने के चक्कर में एक युवक के पेट में लोहे की कढाही बांध कर पूंछा गया था कि इसके पेट में क्या है,और उन ऋषि को सत्यता का पता चलते ही उन्होने कह दिया था कि इसके पेट में वही है,जो इस कुल का विनाश करेगा,डर की बजह से उस कढाही को समुद्र के किनारे पर पत्थर पर घिसा गया,बचे हुये टुकडे को समुद्र में फ़ेंका गया,उस टुकडे को एक मछली के द्वारा निगला गया,बहेलिये के द्वारा उस मछली को मारा गया,और उस टुकडे को बहेलिये के द्वारा तीर पर लगाया गया,लोहे की घिसन एक घास के अन्दर व्याप्त हुई,और वही घिसन से व्याप्त घास जब यादवों के पर्व पर नहाने के समय एक दूसरे को मारने से सभी मरते गये,और अन्त में उसी कुल की बजह से भगवान श्रीकृष्ण को भी उसी बहेलिये के द्वारा बनाये गये उसी तीर का शिकार होकर इस संसार से जाना पडा था,उसी प्रकार से आजका मानव उसी प्रकार के तत्वों को पैदा किये जा रहा है,जो पूर्व की सहायतायें थीं,उनके द्वारा अभी तक मानव चलता रहा,और अब धीरे धीरे समाप्त होने के कारण वह हर तरीके से परेशान दिखाई दे रहा है,उसे रास्ता नही मिल रहा है,जिससे वह अपने और अपने कारकों को वह संभाल पाये,लेकिन जो सभी तरह से मोक्ष यानी शांति को देने वाला कारण है,वह केवल अपने ऊपर आदेश देने और शांति देने के लिये पूर्वज ही माने जा सकते हैं।
किसे करना चाहिए श्राद्ध?
श्राद्ध विधि : ऐसे करें पितरों को तृप्त —-
हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का प्रमुख स्थान माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान का अधिकारी माना गया है और नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर मनुष्य करता है।
इसलिए यहां जानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है –
– पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।
– पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।
– पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।
– एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।
– पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।
– पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
– पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।
– पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।
– पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है।
– गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है।
– कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है।
आश्विन कृष्ण पक्ष में जिस दिन पूर्वजों की श्राद्ध तिथि आए उस दिन पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध विधि-विधान से करना चाहिए। किंतु अगर आप किसी कारणवश शास्त्रोक्त विधानों से न कर पाएं तो यहां बताई श्राद्ध की सरल विधि को अपनाएं –
– सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर लिपकर व गंगाजल से पवित्र करें।
– घर आंगन में रंगोली बनाएं।
– महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं।
– श्राद्ध का अधिकारी श्रेष्ठ ब्राह्मण (या कुल के अधिकारी जैसे दामाद, भतीजा आदि) को न्यौता देकर बुलाएं।
– ब्राह्मण से पितरों की पूजा एवं तर्पण आदि कराएं।
– पितरों के निमित्त अग्नि में गाय का दूध, दही, घी एवं खीर अर्पित करें।
गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन से चार ग्रास निकालें।
– ब्राह्मण को आदरपूर्वक भोजन कराएं, मुखशुद्धि, वस्त्र, दक्षिणा आदि से सम्मान करें।
– ब्राह्मण स्वस्तिवाचन तथा वैदिक पाठ करें एवं गृहस्थ एवं पितर के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करें।
हिन्दूधर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार या प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्घ्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है जिसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं।
ब्रह्म पुराण ने श्राद्ध की परिभाषा यों दी है, ‘जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।'[1] मिताक्षरा[2] ने श्राद्ध को यों परिभाषित किया है, ‘पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्राद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।’ कल्पतरु की परिभाषा यों है, ‘पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।’ रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने मिताक्षरा के समान ही कहा है, किन्तु इनमें परिभाषा कुछ उलझ सी गयी है। याज्ञवल्क्यस्मृति[.] का कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं। यह वचन एवं मनु[4] की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा–पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनकों पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए। कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है; होम, पिण्डदान एवं ब्राह्मण तर्पण (ब्राह्मण संतुष्टि भोजन आदि से); किन्तु श्राद्ध शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गोण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।
श्राद्ध और पितर
श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट संबंध है। पितरों के बिना श्राद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुँचाने का माध्यम मात्र है। मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिण्ड, दानादि किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है और जिस ‘मृत व्यक्ति’ के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो जायें, उसी की ‘पितर’ संज्ञा हो जाती है।
‘मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों।
साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक,
चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।’
श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मन्त्रों के साथ जो (दान-दक्षिणा आदि ) दिया जाय, वही श्राद्ध कहलाता है। 20 अंश रेतस (सोम) को ‘पितृॠण’ कहते हैं। 28 अंश रेतस के रूप में ‘श्रद्धा’ नामक मार्ग से भेजे जाने वाले ‘पिण्ड’ तथा ‘जल’ आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धावान मार्ग का संबंध मध्याह्न काल में श्राद्ध करने का विधान है।
हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख- समृध्दि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।
श्राद्ध क्यों अनुपयोगी
नन्द पंण्डित कृत श्राद्धकल्प (लगभग 1600 ई.) ने विरोधियों (जिन्हें वे नास्तिक कहते हैं) को विस्तृत प्रत्युत्तर दिया है। विरोधियों का कथन है कि पिता आदि के लिए, जो अपने विशिष्ट कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक को जाते हैं या अन्य प्रकार का जीवन धारण करते हैं, श्राद्ध सम्पादन कोई अर्थ नहीं रखता। नन्द पंण्डित ने पूछा है–’श्राद्ध क्यों अनुपयोगी है?’ क्या इसीलिए कि इसके सम्पादन की अपरिहार्यता के लिए कोई व्यवस्थित विधान नहीं है? या इसीलिए की श्राद्ध से फलों की प्राप्ति नहीं होती? या इसीलिए की यह सिद्ध नहीं हुआ है कि पितृगण श्राद्ध से संतुष्टि पाते हैं? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि ‘विज्ञ लोगों को पूरी शक्ति भर श्राद्ध अवश्य करना चाहिए’–ऐसे वचन हैं जो श्राद्ध की अनिवार्यता घोषित करते हैं। इसी प्रकार से दूसरा विरोध भी अनुचित है, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति[5] ने श्राद्ध के फल भी घोषित किये हैं, यथा दीर्घ जीवन आदि। इसी प्रकार तीसरा विकल्प भी स्वीकार करने योग्य नहीं है। श्राद्ध कृत्यों में ऐसा नहीं है कि केवल ‘देवदत्त’ आदि नाम वाले पूर्वज ही प्राप्तिकर्ता हैं और वे पितृ, पितामह एवं प्रपितामह शब्दों से लक्षित होते हैं। प्रत्युत वे नाम वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों जैसे अधीक्षक देवताओं के साथ ही द्योतित होते हैं। जिस प्रकार देवदत्त आदि शब्दों से जो लक्षित होता है, वह न केवल शरीरों (जैसे की नाम दिये गये हैं) एवं आत्माओं का द्योतन करता है, प्रत्युत वह शरीरों से विशिष्टिकृत व्यक्तिगत आत्माओं का परिचायक है। इसी प्रकार पितृ आदि शब्द अधीक्षक देवताओं (वसु, रुद्र एवं आदित्य) के साथ ‘देवदत्त’ एवं अन्यों के सम्मिलित रूप का द्योतन करते हैं। अत: वसु आदि अधीक्षक देवतागण पुत्रों आदि द्वारा दिये गये भोजन-पान से संतुष्ट होकर उन्हें, अर्थात् देवदत्त आदि को संतुष्ट करते हैं और श्राद्धकर्ता को संतति, पुत्र, जीवन, सम्पत्ति आदि से फल देते हैं। जिस प्रकार गर्भवती माता देहाद (गर्भवती दशा में स्त्रियों की विशिष्ट इच्छा) रूप में अन्य लोगों से मधुर अन्न-पान आदि द्वारा स्वयं सन्तुष्टि प्राप्त करती है और गर्भस्थित बच्चे को भी संतुष्टि देती है तथा दोहद, अन्न आदि देने वाले को प्रत्युपकारक फल देती है, वैसे ही पितृ शब्द से द्योतित पिता, पितामह एवं प्रपितामह वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के रूप हैं, वे केवल मानव रूप में कहे जाने वाले देवदत्त आदि के समान नहीं हैं। इसी से ये अधिष्ठाता देवतागण श्राद्ध में किये गये दानादि के प्राप्तिकर्ता होते हैं, श्राद्ध से तर्पित (संतुष्ट) होते हैं और मनुष्य के पितरों को संतुष्ट करते हैं।[6] श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डयपुराण से 18 श्लोक उदधृत किये हैं, जिनमें बहुत से अध्याय 28 में पाये जाते हैं। जिस प्रकार बछड़ा अपनी माता को इतस्तत: फैली हुई अन्य गायों में से चुन लेता है, उसी प्रकार श्राद्ध में कहे गये मंत्र प्रदत्त भोजन को पितरों तक ले जाते हैं।[7]
साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव रखता है, उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। विद्या की विरासत से भी लाभ पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध-कर्म कर सकता है। नि:सन्तान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता। शेष कार्य ( पिण्डदान, अग्निहोम ) उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।
श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं- तिल, माष, चावल, जौं, जल, मूल, (जड़युक्त सब्जी) और फल।
तीन चीजें शुध्दिकारक हैं – पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल।
तीन बातें प्रशसनीय हैं – सफ़ाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता)) का न होना।
श्राद्ध में महत्वपूर्ण बातें – अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली की स्वच्छ्ता, उदारता से भोजन आदि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मण की उपस्थिति।
पिण्ड का अर्थ—-
श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे ‘सपिण्डीकरण’ कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढियों के समन्वित ‘गुणसूत्र’ उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। हमारे देश में सूंघना यानी कि आधा भोजन करना माना जाता है। इस प्रकार श्राद्ध करने वाला पिण्डदान से पहले अपने पितरों की उपस्थिति को ख़ुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है।
कर्म, पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले व्यक्ति इस सिद्धान्त के साथ कि पिण्डदान करने से तीन पूर्व पुरुषों की आत्मा को संतुष्टि प्राप्त होती है, कठिनाई से समझौता कर सकते हैं। पुनर्जन्म[8] के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर में प्रविष्ट होती है। किन्तु तीन पूर्व पुरुषों के पिण्डदान का सिद्धान्त यह बतलाता है कि तीनों पूर्वजों की आत्माएँ 50 या 100 वर्षों के उपरान्त भी वायु में सन्तरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगन्धि या सारतत्व वायव्य शरीर द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्यस्मृति, मार्कण्डेय पुराण[9], मत्स्य पुराण[10] एवं अग्नि पुराण[11] में आया है कि पितामह लोग (पितर) श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं संतुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुख एवं राज्य देते हैं। मत्स्यपुराण[12] में ऋषियों द्वारा पूछा गया एक प्रश्न ऐसा आया है कि वह भोजन, जिसे ब्राह्मण (श्राद्ध में आमंत्रित) खाता है या जो कि अग्नि में डाला जाता है, क्या उन मृतात्माओं के द्वारा खाया जाता है, जो (मृत्युपरान्त) अच्छे या बुरे शरीर धारण कर चुके होंगे। मत्स्य पुराण[13] में यह उत्तर दिया गया है कि पिता, पितामह, प्रपितामह, वैदिक उक्तियों के अनुसार, क्रम से वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के समान रूप माने गये हैं; कि नाम एवं गोत्र (श्राद्ध के समय वर्णित), उच्चरित मंत्र एवं श्रद्धा आहुतियों को पितरों के पास ले जाते हैं; कि यदि किसी के पिता (अपने अच्छे कर्मों के कारण) देवता हो गये हैं, तो श्राद्ध में दिया हुआ भोजन अमृत हो जाता है और वे उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है। यदि वे दैत्य (असुर) हो गये हैं तो वह (श्राद्ध में दिया गया भोजन) उनके पास भाँति-भाँति के आनन्दों के रूप में पहुँचता है। यदि वे पशु हो गये हैं तो वह उनके लिए घास हो जाता है और यदि वे सर्प हो गये हैं तो श्राद्ध भोजन वायु बनकर उनकी सेवा करता है, आदि-आदि। श्राद्धकल्पतरु[14] ने मत्स्य पुराण[15] के श्लोक मार्कण्डयपुराण में कहकर उदधृत किये हैं। विश्वरूप[16] ने भी उपर्युक्त विरोध उपस्थित करके स्वयं कई उत्तर दिये हैं। एक उत्तर यह है–यह बात पूर्णरूपेण शास्त्र पर आधारित है। अत: जब शास्त्र कहता है कि पितरों को संतुष्टी मिलती है और कर्ता को मनोवांछित फल प्राप्त होता है, तो कोई विरोध खड़ा नहीं करना चाहिए। एक दूसरा उत्तर यह है–वसु, रुद्र आदि ऐसे देवता हैं, जो कि सभी स्थानों पर अपनी पहुँच रखते हैं, अत: पितर लोग जहाँ पर भी हों वे उन्हें संतुष्ट करने की शक्ति रखते हैं। विश्वरूप ने प्रश्नकर्ताओं को नास्तिक कहा है, जैसा कि कुछ अन्य लोगों एवं पश्चात्यकालीन लेखकों ने कहा है।
स्थूल शरीर तो मरने के बाद अग्नि को या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम पितरों की स्मृति कर उनके भावनात्मक शरीर की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों और हमें सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आर्शीवाद दें।
श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डेयपुराण के आधार पर जो तर्क उपस्थित किये हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं और उनमें बहुत खींचातानी है। मार्कण्डेय एवं मत्स्य, ऐसा लगता है, वेदान्त के इस कथन के साथ हैं कि आत्मा इस शरीर को छोड़कर देव या मनुष्य या पशु या सर्प आदि के रूप में अवस्थित हो जाती है। जो अनुमान उपस्थित किया गया है वह यह है कि श्राद्ध में जो अन्न-पान दिया जाता है, वह पितरों के उपयोग के लिए विभिन्न द्रव्यों में परिवर्तित हो जाता है।[17] इस व्यवस्था को स्वीकार करने में एक बड़ी कठिनाई यह है कि पितृगण विभिन्न स्थानों में मर सकते हैं और श्राद्ध बहुधा उन स्थानों से दूर ही स्थान पर किया जाता है। ऐसा मानना क्लिष्ट कल्पना है कि जहाँ दुष्कर्मों के कारण कोई पितर पशु रूप में परिवर्तित हो गये हैं, ऐसे स्थान विशेष में उगी हुई घास वही है, जो सैकड़ों कोस दूर श्राद्ध में किये गये द्रव्यों के कारण उत्पन्न हुई है। इतना ही नहीं, यदि एक या सभी पितर पशु आदि योनि में परिवर्तित हो गये हैं, तो किस प्रकार अपनी सन्तानों को आयु, धन आदि दे सकते हैं? यदि यह कार्य वसु, रुद्र एवं आदित्य करते हैं तो सीधे तौर पर यह कहना चाहिए कि पितर लोग अपनी सन्तति को कुछ भी नहीं दे सकते।
प्राचीन प्रथा
प्रतीत होता है कि श्राद्ध द्वारा पूजा-अर्चना प्राचीन प्रथा है और पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और हिन्दू धर्म ने, जो कि व्यापक है (अर्थात् अपने में सभी को समेट लेता है) पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त ग्रहण करते हुए भी श्राद्धों की परम्परा को ज्यों कि त्यों रख लिया है। एक प्रकार से श्राऋ संस्था अति उत्तम हैं। इससे व्यक्ति अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर लेता है जो जीवितावस्था में अपने प्रिय थे। आर्यसमाज श्राद्ध प्रथा का विरोध करता है और ऋग्वेद में उल्लिखित पितरों को वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले जीवित लोगों के अर्थ में लेता है। यह ज्ञातव्य है कि वैदिक उक्तियाँ दोनों सिद्धान्तों का पालन करती है। शतपथ ब्राह्मण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यज्ञकर्ता के पिता को दिया गया भोजन इन शब्दों में कहा जाता है–’यह तुम्हारे लिये है’। विष्णु पुराण[18] में आया है–’वह, जिसका पिता मृत हो गया हो, अपने पिता के लिए पिण्ड रख सकता है।’ मनु स्मृति[19] ने कहा है कि पिता वसु, पितामह रुद्र एवं आदित्य कहे गये हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति[20] ने यह व्यवस्था दी है कि वसु, रुद्र एवं आदित्य पित हैं और श्राद्ध के अधिष्ठाता देवता हैं। इस अन्तिम कथन का उद्देश्य है कि पितरों का ध्यान वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में करना चाहिए।
पितरों की कल्पित, कल्याणकारी एवं हानिप्रद शक्ति पर ही आदिम अवस्था के लोगों में पूर्वज-पूजा की प्रथा महत्ता को प्राप्त हुई। ऐसा समझा जाता था कि पितर लोग जीवित लोगों को लाभ एवं हानि दोनों दे सकते हैं। आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थीं अथवा जो उत्सव किये जाते थे, वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण के चिह्नों के रूप में प्रचलित हो गये हैं। प्राक्-वैदिक साहित्य में पितरों के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किये गये हैं।[21] बौधायन धर्मसूत्र[22] ने एक ब्राह्मण ग्रन्थ से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं। यही बात औशनसस्मृति एवं देवल (कल्पतरु) ने भी कही है। वायु पुराण[23] में ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग (आमंत्रित) ब्राह्मणों में वायु रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों आदि से सम्पूजित होते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं।[24] मनु[25] एवं औशनस-स्मृति इस स्थापना का अनुमोदन करते हैं कि पितर लोग आमंत्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं। मत्स्यपुराण[26] ने व्यवस्था दी है कि मृत्यु के उपरान्त को पितर को 12 दिनों तक पिण्ड देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे संतोष देते हैं। अत: आत्मा मृत्यु के उपरान्त 12 दिनों तक अपने आवास को नहीं त्यागती। अत: 10 दिनों तक दूध (और जल) ऊपर टांग देना चाहिए। जिससे सभी यातनाएँ (मृत के कष्ट) दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा को निश्चित आवास स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)। विष्णु धर्मसूत्र[27] में आया है–”मृतात्मा श्राद्ध में ‘स्वधा’ के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक में रसास्वादन करता है; चाहे मृतात्मा (स्वर्ग में) देव के रूप में हो, या नरक में हो (यातनाओं के लोक में हो), या निम्न पशुओं की योनि में हो, या मानव रूप में हो, सम्बन्धियों के द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके पास पहुँचता है; जब श्राद्ध सम्पादित होता है तो मृतात्मा एवं श्राद्धकर्ता दोनों को तेज़ या सम्पत्ति या समृद्धि प्राप्त होती है।[28]
ब्रह्म पुराण[29] के मत से श्राद्ध का वर्णन पाँच भागों में किया जाना चाहिए। कैसे, कहाँ, कब, किसके द्वारा एवं किन सामग्रियों द्वारा। किन्तु इन पाँच प्रकारों के विषय में लिखने के पूर्व में हमें ‘पितर’ शब्द की अन्तर्निहित आदकालीन विचारधारा पर प्रकाश डाल लेना चाहिए। हमें यह देखना है कि अत्यन्त प्राचीन काल में (जहाँ तक हमें साहित्य प्रकाश मिल पाता है) इस शब्द के विषय में क्या दृष्टिकोण था और इसकी क्या महत्ता थी।
पितृ का अर्थ
‘पितृ’ का अर्थ है ‘पिता’, किन्तु ‘पितर’ शब्द जो दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है:-
व्यक्ति के आगे के तीन मृत पूर्वज एवं
मानव जाति के प्रारम्भ या प्राचीन पूर्वज जो एक प्रथक लोक के अधिवासी के रूप में कल्पित हैं।[30]
दूसरे अर्थ के लिए ऋग्वेद[31] में उल्लेख है “वह सोम जो कि शक्तिशाली होता चला जाता है और दूसरों को भी शक्तिशाली बनाता है, जो तानने वाले से तान दिया जाता है, जो धारा में बहता है, प्रकाशमान (सूर्य) द्वारा जिसने हमारी रक्षा की–’वह सोम, जिसकी सहायता से हमारे पितर लोगों ने एक स्थान (जहाँ गोयें छिपाकर रखी हुई थीं) को एवं उच्चतर स्थलों को जानते हुए गौओं के लिए पर्वत को पीड़ित किया।” ऋग्वेद[32] में पितृगण निम्न, मध्यम एवं उच्च तीन श्रेणियों में व्यक्त हुए हैं। वे प्राचीन, पश्चात्यकालीन एवं उच्चतर कहे गये हैं।[33] वे सभी अग्नि को ज्ञात हैं, यद्यपि सभी पितृगण अपने वंशजों को ज्ञात नहीं हैं।[34] वे कई श्रेणियों में विभक्त हैं, यथा–अंगिरस्, वैरूप, भृगु, नवग्व एवं दशग्व[35]; अंगिरस् लोग यम से सम्बन्धित हैं, दोनों को यज्ञ में साथ ही बुलाया जाता है।[36] ऋग्वेद[37] में ऐसा कहा गया है–”जिसकी (इन्द्र की) सहायता से हमारे प्राचीन पितर अंगिरस्, जिन्होंने उसकी स्तुति-वन्दना की और जो स्थान को जानते थे, गौओं का पता लगा सके।” अंगिरस् पितर लोग स्वयं दो भागों में विभक्त थे; नवग्व एवं दशग्व।[38] कई स्थानों पर पितर लोग सप्त ऋषियों जैसे सम्बोधित किये गये हैं[39] और कभी-कभी नवग्व एवं दशग्व भी सप्त ऋषि कहे गये हैं।[40] अंगिरस् लोग अग्नि[41] एवं स्वर्ग[42] के पुत्र कहे गये हैं। पितृ लोग अधिकतर देवों, विशेषत: यम के साथ आनन्द मनाते हुए व्यक्त किये गये हैं।[43] वे सोमप्रेमी होते हैं[44], वे कुश पर बैठते हैं[45], वे अग्नि एवं इन्द्र के साथ आहुतियाँ लेने आते हैं[46] और अग्नि उनके पास आहुतियाँ ले जाती हैं।[47] जल जाने के उपरान्त मृतात्मा को अग्नि पितरों के पास ले जाती है।[48] पश्चात्कालीन ग्रन्थों में भी, यथा मार्कण्डेय पुराण[49] में ब्रह्मा को आरम्भ में चार प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न करते हुए व्यक्त किया गया है, यथा–देव, असुर, पितर एवं मानव प्राणी।[50]
ऐसा माना गया है कि शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है।[51] मृतात्मा पितृलोक में चला जाता है और अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह उसे सत् कर्म वाले पितरों एवं विष्णु के पाद-न्यास (विक्रम) की ओर ले जाए।[52] यद्यपि ऋग्वेद[53] में यम की दिवि (स्वर्ग में) निवास करने वाला लिखा गया है, किन्तु निरुक्त[54] के मत से वह मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है। अथर्ववेद[55] का कथन है–”हम श्रद्धापूर्वक पिता के पिता एवं पितामह की, जो बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं और जो पृथ्वी एवं स्वर्ग में रहते हैं, पूजा करें।” ऋग्वेद[56] में आया है–’तीन लोक हैं; दो (अर्थात् स्वर्ग एवं पृथ्वी) सविता की गोद में हैं, एक (अर्थात् मध्यम लोक) यमलोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं।’ ‘महान प्रकाशमान (सूर्य) उदित हो गया है, (वह) पितरों का दान है।[57]’ तैत्तिरीय ब्राह्मण[58] में ऐसा आया है कि पितर इससे आगे तीसरे लोक में निवास करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भुलोक एवं अंतरिक्ष के उपरान्त पितृलोक आता है। बृहदारण्यकोपनिषद्[59] में मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक वर्णित हैं। ऋग्वेद[60] में यम कुछ भिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया[61], या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है[62] या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निसन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है।[63] किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है।[64]
पितरों की अन्य श्रेणियाँ भी हैं, यथा–पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:।
अन्तिम दो के नाम ऋग्वेद[65] में आये हैं। शतपथ ब्राह्मण ने इनकी परिभाषा यों की है–”जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर बर्हिषद: कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ता: कहा गया है; केवल ये ही पितर हैं।”[66]
पाश्चात्कालीन लेखकों ने पितरों की श्रेणियों के नामों के अर्थों में परिवर्तन कर दिया है।
उदाहरणार्थ, नान्दीपुराण (हेमाद्रि) में आया है- ब्राह्मणों के पितर अग्निष्वात्त, क्षत्रियों के पितर बर्हिषद्, वैश्यों के पितर काव्य, शूद्रों के पितर सुकालिन: तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के पितर व्याम हैं।[67]
यहाँ तक की मनु[68] ने भी पितरों की कई कोटियाँ दी हैं और चारों वर्णों के लिए क्रम से सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन: पितरों के नाम बतला दिये गये हैं। आगे चलकर मनु[69] ने कहा है कि ब्राह्मणों के पितर अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। इन नामों से पता चलता है कि मनु ने पितरों की कोटियों के विषय में कतिपय परम्पराओं को मान्यता दी है।
इन नामों एवं इनकी परिभाषा के लिए मत्स्य पुराण[70] में भी उल्लेख है।
शातातपस्मृति[71] में पितरों की 12 कोटियों या विभागों के नाम आये हैं, यथा–पिण्डभाज: (3), लेपभाज: (3), नान्दीमुख (3) एवं अश्रुमुख (3)। यह पितृविभाजन दो दृष्टियों से हुआ है।
वायु पुराण[72], ब्रह्माण्ड पुराण[73], पद्म पुराण[74], विष्णुधर्मोत्तर[75] एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान् हैं और चार मूर्तिमान्; वहाँ पर उनका और उनकी संतति का विशद वर्णन हुआ हैं इन पर हम विचार नहीं करेंगे।
स्कन्द पुराण[76] ने पितरों की नौ कोटियाँ दी हैं; अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। इस सूची में नये एवं पुराने नाम सम्मिलित हैं।
भारतीय लोग भागों, उपविभागों, विभाजनों आदि में बड़ी अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं और सम्भवत: यह उसी भावना का एक दिग्दर्शन है।
मनु[77] ने कहा है कि ऋषियों से पितरों की उदभूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उदभूति हुई।
यह द्रष्टव्य है कि यहाँ देवगण पितरों से उदभूत माने गये हैं। यह केवल पितरों की प्रशस्ति है (अर्थात् यह एक अर्थवाद है)।
देवों से भिन्न—-
पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद[78] के ‘पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्’ में प्रयुक्त शब्द ‘पंचजना:’ एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण[79] ने व्याख्या की है वे पाँच कोटियाँ हैं, अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस। निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है[80] और अपनी ओर से भी व्याख्या की है। अथर्ववेद[81] में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं। प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं। तैत्तिरीय संहिता[82] में आया है–’देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर।’ सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में।[83] शतपथ ब्राह्मण [84] ने वर्णन किया है कि पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा- ‘तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास (के अन्त) में (अमावस्या को) मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की तेज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा।’ देवों से उसने कहा- ‘यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश।’ तैत्तिरीय ब्राह्मण[85] ने लगता है, उन पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।
कौशिकसुत्र[86] ने एक स्थल पर देव-कृत्यों एवं पितृ कृत्यों की विधि के अन्तर को बड़े सुन्दर ढंग से दिया है। देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीर बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय ‘स्वाहा’ एवं ‘वषट्’ शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में ‘स्वधा’ या ‘नमस्कार’ शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। बौधायन श्रौतसूत्र[87] ने एक स्थल पर इनमें से कुछ का वर्णन किया है।[88] स्वयं ॠग्वेद[89] ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथब्राह्मण[90] ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।
यद्यपि देव एवं पितर पृथक कोटियों में रखे गये हैं, तथापि पितर लोग देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं। ऋग्वेद[91] ने कहा है कि पितर सोम पीते हैं। ऋग्वेद[92] में ऐसा कहा गया है कि पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें ‘उषा’ को उत्पन्न करने वाले द्योतित किया गया है।[93] यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है।[94] में पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने[95] एवं यजमान (यज्ञकर्ता) को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है।[96] ऋग्वेद[97] एवं अथर्ववेद[98] ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है। अथर्ववेद[99] ने कहा है–’वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें।’ वाजसनेयी संहिता[100] में प्रसिद्ध मंत्र यह है–”हे पितरो, (इस पत्नी के) गर्भ में (आगे चलकर) कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार (पूर्ण विकसित) हो जाए”, जो इस समय कहा जाता है, जब कि श्राद्धकर्ता की पत्नी तीन पिण्डों में बीच का पिण्ड खा लेती है।[101]
इन शब्दों से यह नहीं समझना चाहिए कि पितरों के प्रति लोगों में भय-तत्त्व का सर्वथा अभाव था।[102] उदाहरणार्थ ॠग्वेद[103] में आया है–'(त्रुटि करने वाले) मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें।’ ॠग्वेद[104] में हम पढ़ते हैं–”वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें।” ॠग्वेद[105] में ऐसा आया है कि–’वसिष्ठों ने देवों की स्तुति करते हुए पितरों एवं ऋषियों के सदृश वाणी (मंत्र) परिमार्जित की या गढ़ी।” यहाँ पितृ एवं ऋषि दो पृथक कोटियाँ हैं और वसिष्ठों की तुलना दोनों से की गई है।[106]
वैदिक साहित्य की बहुत सी उक्तियों में पितर शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है।'[107] शतपथ ब्राह्मण[108] ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–”हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ’।[109] कुछ[110] ने यह सूक्त दिया है–”यह (भात का पिण्ड) तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो तुम्हारे पीछे आते हैं।” किन्तु शतपथब्राह्मण ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं करना चाहिए, प्रत्युत यह विधि अपनानी चाहिए–”यहाँ यह तुम्हारे लिये है।” शतपथब्राह्मण[111] में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। इन वैदिक उक्तियों एवं मनु[112] तथा विष्णु पुराण[113] की इस व्यवस्था पर कि नाम एवं गोत्र बोलकर ही पितरों का आहावान करना चाहिए, निर्भर रहते हुए श्राद्धप्रकाश[114] ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में कवल ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश[115] ब्रह्म पुराण ने इस कथन, जो यह व्यवस्था देता है कि कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए की मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊँगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं, तो उसे वैसा करना चाहिए, (अर्थात् पितरों का आहावान करना चाहिए), यह निर्देश देता है कि यहाँ पर पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा–कर्ता के पिता एवं अन्यों से। वायु पुराण[116], ब्रह्माण्ड पुराण एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों (पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया हैं।[117]
वैदिक साहित्य के उपरान्त की रचना में, विशेषत: पुराणों में पितरों के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ, वायुपुराण[118] ने पितरों की तीन कोटियाँ बताई हैं; काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्। पुन: वायु पुराण[119] ने तथा वराह पुराण[120], पद्म पुराण[121] एवं ब्रह्मण्ड पुराण[122] ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्। शतातपस्मृति[123] ने 12 पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।
सूत्रकाल (लगभग ई. पू. 600) से लेकर मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों तक सभी लोगों ने श्राद्ध की महत्ता एवं उससे उत्पन्न कल्याण की प्रशंसा के पुल बाँध दिये हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[124] ने अधोलिखित सूचना दी है- ‘पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे। देव लोग यज्ञों के कारण (पुरस्कारस्वरूप) स्वर्ग चले गये, किन्तु मनुष्य यहीं पर रह गये। जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं वे परलोक (स्वर्ग) में देवों एवं ब्रह्मा के साथ निवास करते हैं। तब (मनुष्यों को पीछे रहते देखकर) मनु ने उस कृत्य को आरम्भ किया जिसे श्राद्ध की संज्ञा मिली है, जो मानव जाति को श्रेय (मुक्ति या आनन्द) की ओर ले जाता है। इस कृत्य में पितर लोग देवता (अधिष्ठाता) हैं, किन्तु ब्राह्मण लोग (जिन्हें भोजन दिया जाता है) आहवानीय अग्नि (जिसमें यज्ञों के समय आहुतियाँ दी जाती हैं) के स्थान पर माने जाते हैं।” इस अन्तिम सूत्र के कारण हरदत्त (आपस्तम्ब धर्मसूत्र के टीकाकार) एवं अन्य लोगों का कथन है कि श्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाना प्रमुख कृत्य है। ब्रह्माण्डपुराण[125] ने मनु को श्राद्ध के कृत्यों का प्रवर्तक एवं विष्णुपुराण[126], वायु पुराण[127] एवं भागवत पुराण[128] ने श्राद्धदेव कहा है। इसी प्रकार शान्तिपर्व[129] एवं विष्णुधर्मोत्तर॰[130] में आया है कि श्राद्धप्रथा का संस्थापन विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह और प्रपितामह को दिये गये तीन पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए। इससे और आपस्तम्ब धर्मसूत्र के वचन से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व श्राद्धप्रथा का प्रतिष्ठापन हो चुका था और यह मानवजाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है।[131] किन्तु यह ज्ञातव्य है कि ‘श्राद्ध’ शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक वचन में नहीं पाया जाता, यद्यपि पिण्डपितृयज्ञ (जो अहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित होता था)[132], महापितृयज्ञ (चातुर्मास्य या साकमेघ में सम्पादित) उपं अष्टका आरम्भिक वैदिक साहित्य में ज्ञात थे। कठोपनिषद[133] में ‘श्राद्ध’ शब्द आया है; जो भी कोई इस अत्यन्त विशिष्ट सिद्धान्त को ब्राह्मणों की सभा में या श्राद्ध के समय उदघोषित करता है, वह अमरता प्राप्त करता है।’ ‘श्राद्ध’ शब्द के अन्य आरम्भिक प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होते हैं। अत्यन्त तर्कशील एवं सम्भव अनुमान यही निकाला जा सकता है कि पितरों से सम्बन्धित बहुत ही कम कृत्य उन दिनों किये जाते थे, अत: किसी विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गयी। किन्तु पितरों के सम्मान में किये गये कृत्यों की संख्या में जब अधिकता हुई तो श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई।
श्राद्ध की प्रशस्तियों के कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। बौधायन धर्मसूत्र[134] का कथन है कि पितरों के कृत्यों से दीर्घ आयु, स्वर्ग, यश एवं पुष्टिकर्म (समृद्धि) की प्राप्ति होती है। हरिवंश पुराण[135] में आया है–श्राद्ध से यह लोक प्रतिष्ठित है और इससे योग (मोक्ष) का उदय होता है। सुमन्तु[136] का कथन है–श्राद्ध से बढ़कर श्रेयस्कर कुछ नहीं है।[137] वायुपुराण[138] का कथन है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है तो वह ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र एवं अन्य देवों, ऋषियों, पक्षियों, मानवों, पशुओं, रेंगने वाले जीवों एवं पितरों के समुदाय तथा उन सभी को जो जीव कहे जाते हैं, एवं सम्पूर्ण विश्व को प्रसन्न करता है। यम ने कहा है कि पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि (समृद्धि), बल, श्री, पशु, सौख्य, धन, धान्य की प्राप्ति होती है।[139] श्राद्धसार[140] एवं श्राद्धप्रकाश[141] द्वारा उदधृत विष्णुधर्मोत्तरपुराण में ऐसा कहा गया है कि प्रपितामह को दिया गया पिण्ड स्वयं वासुदेव घोषित है, पितामह को दिया गया पिण्ड संकर्षण तथा पिता को दिया गया पिण्ड प्रद्युम्न घोषित है और पिण्डकर्ता स्वयं अनिरुद्ध कहलाता है। शान्तिपर्व[142] में कहा गया है कि विष्णु को तीनों पिण्डों में अवस्थित समझना चाहिए। कूर्म पुराण में आया है कि “अमावस्या के दिन पितर लोग वायव्य रूप धारण कर अपने पुराने निवास के द्वार पर आते हैं और देखते हैं कि उनके कुल के लोगों के द्वारा श्राद्ध किया जाता है कि नहीं। ऐसा वे सूर्यास्त तक देखते हैं। जब सूर्यास्त हो जाता है, वे भूख एवं प्यास से व्याकुल हो निराश हो जाते हैं, चिन्तित हो जाते हैं, बहुत देर तक दीर्घ श्वास छोड़ते हैं और अन्त में अपने वंशजों को कोसते (उनकी भर्त्सना करते हुए) चले जाते हैं। जो लोग अमावस्या को जल या शाक-भाजी से भी श्राद्ध नहीं करते उनके पितर उन्हें अभिशापित कर चले जाते हैं।”
‘श्राद्ध’ शब्द की व्युत्पत्ति पर भी कुछ लिख देना आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि यह शब्द “श्रद्धा” से बना है। ब्रह्मपुराण (उपर्युक्त उद्धृत), मरीचि एवं बृहस्पति की परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध है। श्राद्ध में श्राद्धकर्ता का यह अटल विश्वास रहता है कि मृत या पितरों के कल्याण के लिए ब्राह्मणों को जो कुछ भी दिया जाता है वह उसे या उन्हें किसी प्रकार अवश्य ही मिलता है। स्कन्द पुराण[143] का कथन है कि ‘श्राद्ध’ नाम इसलिए पड़ा है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल (मूल स्रोत) है। इसका तात्पर्य यह है कि इसमें न केवल विश्वास है, प्रत्युत एक अटल धारणा है कि व्यक्ति को यह करना ही है। ॠग्वेद[144] में श्रद्धा को देवत्व दिया गया है और वह देवता के समान ही सम्बोधित हैं।[145] कुछ स्थलों पर श्रद्धा शब्द के दो भाग (श्रत् एवं धा) बिना किसी अर्थ परिवर्तन के पृथक्-पृथक् रखे गये हैं।[146] तैत्तिरीय संहिता[147] में आया है–”बृहस्पति ने इच्छा प्रकट की; देव मुझमें विश्वास (श्रद्धा) रखें, मैं उनके पुरोहित का पद प्राप्त करूँ।” निरुक्त[ में ‘श्रत्’ एवं ‘श्रद्धा’ का ‘सत्य’ के अर्थ में व्यक्त किया गया है। वाज. सं.[150] में कहा गया है कि प्रजापति ने ‘श्रद्धा’ को सत्य में और ‘अश्रद्धा’ को झूठ में रख दिया है, और वाज. सं.[151] में कहा गया है कि सत्य की प्राप्ति श्रद्धा से होती है।