दुर्गा सप्तशती पाठ—
अद्भुत शक्तियां प्रदान करता है
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दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
– सर्वप्रथम साधक को स्नान कर शुद्ध हो जाना चाहिए।
– तत्पश्चात वह आसन शुद्धि की क्रिया कर आसन पर बैठ जाए।
– माथे पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म, चंदन अथवा रोली लगा लें।
– शिखा बाँध लें, फिर पूर्वाभिमुख होकर चार बार आचमन करें।
– इसके बाद प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर देवी को अर्पित करें तथा मंत्रों से संकल्प लें।
– देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार विधि से पुस्तक की पूजा करें।
– फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए।
– इसके बाद उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है।
-इसके जप के पश्चात् मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए।
तत्पश्चात पूरे ध्यान के साथ माता दुर्गा का स्मरण करते हुए दुर्गा सप्तशती पाठ करने से सभी प्रकार की मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं।
दुर्गा सप्तशती के अलग-अलग प्रयोग…/ उपाय—-
– लक्ष्मी, ऐश्वर्य, धन संबंधी प्रयोगों के लिए पीले रंग के आसन का प्रयोग करें।
– वशीकरण, उच्चाटन आदि प्रयोगों के लिए काले रंग के आसन का प्रयोग करें।
बल, शक्ति आदि प्रयोगों के लिए लाल रंग का आसन प्रयोग करें।
– सात्विक साधनाओं, प्रयोगों के लिए कुश के बने आसन का प्रयोग करें।
वस्त्र- लक्ष्मी संबंधी प्रयोगों में आप पीले वस्त्रों का ही प्रयोग करें। यदि पीले वस्त्र न हो तो मात्र धोती पहन लें एवं ऊपर शाल लपेट लें। आप चाहे तो धोती को केशर के पानी में भिगोंकर पीला भी रंग सकते हैं।
हवन करने से
जायफल से कीर्ति और किशमिश से कार्य की सिद्धि होती है।
आंवले से सुख और केले से आभूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अर्ध्य देकर यथाविधि हवन करें।
खांड, घी, गेंहू, शहद, जौ, तिल, बिल्वपत्र, नारियल, किशमिश और कदंब से हवन करें।
गेंहूं से होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
खीर से परिवार, वृद्धि, चम्पा के पुष्पों से धन और सुख की प्राप्ति होती है।
आवंले से कीर्ति और केले से पुत्र प्राप्ति होती है।
कमल से राज सम्मान और किशमिश से सुख और संपत्ति की प्राप्ति होती है।
खांड, घी, नारियल, शहद, जौं और तिल इनसे तथा फलों से होम करने से मनवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है।
व्रत करने वाला मनुष्य इस विधान से होम कर आचार्य को अत्यंत नम्रता के साथ प्रमाण करें और यज्ञ की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दें। इस महाव्रत को पहले बताई हुई विधि के अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। नवरात्र व्रत करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।
नवार्ण मंत्र को मंत्रराज कहा गया है।
‘ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’
शीघ्र विवाह के लिए।
क्लीं ऐं ह्रीं चामुण्डायै विच्चे।
लक्ष्मी प्राप्ति के लिए स्फटिक की माला पर।
ओंम ऐं हृी क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
परेशानियों के अन्त के लिए।
क्लीं हृीं ऐं चामुण्डायै विच्चे।
दुर्गा सप्तशती के अध्याय से कामनापूर्ति-
.- प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए।
2- द्वितीय अध्याय- मुकदमा झगडा आदि में विजय पाने के लिए।
.- तृतीय अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिये।
4- चतुर्थ अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिये।
5- पंचम अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिए।
6- षष्ठम अध्याय- डर, शक, बाधा ह टाने के लिये।
7- सप्तम अध्याय- हर कामना पूर्ण करने के लिये।
8- अष्टम अध्याय- मिलाप व वशीकरण के लिये।
9- नवम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
10- दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
11- एकादश अध्याय- व्यापार व सुख-संपत्ति की प्राप्ति के लिये।
12- द्वादश अध्याय- मान-सम्मान तथा लाभ प्राप्ति के लिये।
13- त्रयोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिये।
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दुर्गा सप्तशती के लाभ–
वैदिक आहुति की सामग्री—
प्रथम अध्याय-एक पान पर देशी घी में भिगोकर 1 कमलगट्टा, 1 सुपारी, 2 लौंग, 2 छोटी इलायची, गुग्गुल, शहद यह सब चीजें सुरवा में रखकर खडे होकर आहुति देना।
द्वितीय अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, गुग्गुल विशेष
तृतीय अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 38 शहद
चतुर्थ अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं.1से11 मिश्री व खीर विशेष,
चतुर्थ अध्याय- के मंत्र संख्या 24 से 27 तक इन 4 मंत्रों की आहुति नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से देह नाश होता है। इस कारण इन चार मंत्रों के स्थान पर ओंम नमः चण्डिकायै स्वाहा’ बोलकर आहुति देना तथा मंत्रों का केवल पाठ करना चाहिए इनका पाठ करने से सब प्रकार का भय नष्ट हो जाता है।
पंचम अध्ययाय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 9 मंत्र कपूर, पुष्प, व ऋतुफल ही है।
षष्टम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 23 भोजपत्र।
सप्तम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 10 दो जायफल श्लोक संख्या 19 में सफेद चन्दन श्लोक संख्या 27 में इन्द्र जौं।
अष्टम अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक संख्या 54 एवं 62 लाल चंदन।
नवम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या श्लोक संख्या 37 में 1 बेलफल 40 में गन्ना।
दशम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 5 में समुन्द्र झाग 31 में कत्था।
एकादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 2 से 23 तक पुष्प व खीर श्लोक संख्या 29 में गिलोय 31 में भोज पत्र 39 में पीली सरसों 42 में माखन मिश्री 44 मेें अनार व अनार का फूल श्लोक संख्या 49 में पालक श्लोक संख्या 54 एवं 55 मेें फूल चावल और सामग्री।
द्वादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 10 मेें नीबू काटकर रोली लगाकर और पेठा श्लोक संख्या 13 में काली मिर्च श्लोक संख्या 16 में बाल-खाल श्लोक संख्या 18 में कुशा श्लोक संख्या 19 में जायफल और कमल गट्टा श्लोक संख्या 20 में ऋीतु फल, फूल, चावल और चन्दन श्लोक संख्या 21 पर हलवा और पुरी श्लोक संख्या 40 पर कमल गट्टा, मखाने और बादाम श्लोक संख्या 41 पर इत्र, फूल और चावल
त्रयोदश अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 27 से 29 तक फल व फूल।
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साधक जानकारी के अभाव में मन मर्जी के अनुसार आरती उतारता रहता है
साधक जानकारी के अभाव में मन मर्जी के अनुसार आरती उतारता रहता है जबकि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारने का विधान है- चार बार चरणों पर से दो बार नाभिे पर से, एक बार मुख पर से, सात बार पूरे शरीर पर से। इस प्रकार चौदह बार आरती की जाती है। जहां तक हो सके विषम संख्या अर्थात 1, 5, 7 बत्तियॉं बनाकर ही आरती की जानी चाहिये।
शैलपुत्री साधना- भौतिक एवं आध्यात्मिक इच्छा पूर्ति।
ब्रहा्रचारिणी साधना- विजय एवं आरोग्य की प्राप्ति।
चंद्रघण्टा साधना- पाप-ताप व बाधाओं से मुक्ति हेतु।
कूष्माण्डा साधना- आयु, यश, बल व ऐश्वर्य की प्राप्ति।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार/रोजगार/सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।
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विभिनन मनोकामनाओं के लिए दुर्गा सप्तशती के अलग-अलग श्लोक मंत्र रूप में प्रयुक्त होते हैं जिनका ज्ञान किसी योग्य विद्वान से पूछकर किया जा सकता है।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार/रोजगार/सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।
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दुर्गा सप्तशती का पाठ, विधि ( प्रयोग का तरीका)—-
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशागुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’
‘ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।’
ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥1॥
ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥2॥
ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥3॥
ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥4॥
ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥5॥
ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥6॥
ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥7॥
ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥8॥
ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥9॥
ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥10॥
ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥11॥
ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥12॥
ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥13॥
ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥14॥
ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥15॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥16॥
ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥17॥
ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी-
महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥18॥
इत्येवं हि महामन्त्रान् पठित्वा परमेश्वर।
चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥19॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः।
आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥20॥
इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका बहिर्मातृका आदि न्यास करें, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करें, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरंभ किया जाता है।
श्रीचण्डिकाध्यानम्
ॐ बन्धूककुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीम् ।
स्फुरच्चन्द्रकलारत्नमुकुटां मुण्डमालिनीम् ।।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां पीनोन्नतघटस्तनीम् ।
पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात् ।।
दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानिताम् ।
या धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनी या रक्तबीजाशनी ।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धिदात्री परा
सा देवी नवकोटिमूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी ।।
ॐ नमश्चण्डिकायै
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ।। १।।
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ।। २।।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।। ३।।
सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम् ।। ४।।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।। ५।।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ।। ६।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ।। ७।।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः ।। ८।।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ।। ९।।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ।।१०।।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ।।११।।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ।।१२।।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ।।१३।।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ।।१४।।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ।।१५।।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ।।१६।।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ।।१७।।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ।।१८।।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ।।१९।।
जया मामग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ।।२०।।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ।।२१।।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा तु नासिके ।।२२।।
कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शाङ्करी ।। २३।।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ।। २४।।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ।। २५।।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ।। २६।।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ।। २७।।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ।। २८।।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ।। २९।।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ।। ३०।।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ।। ३१।।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ।। ३२।।
रोमकूपेषु कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा ।। ३३।।
अन्त्राणि कालरात्रिश्व पित्तं च मुकुटेश्वरी ।। ३४।।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ।। ३५।।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ।। ३६।।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याणशोभना ।। ३७।।
सत्त्वं रजस्तमश्वैव रक्षेन्नारायणी सदा ।। ३८।।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्या च चक्रिणी ।। ३९।।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ।। ४०।।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ।।४१।।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ।।४२।।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ।।४३।।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ।।४४।।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ।। ४५।।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ।। ४६।।
जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ।। ४७।।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ।। ४८।।
भूचराः खेचराश्चैव कुलजाश्चौपदेशिकाः ।। ४९।।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ।। ५०।।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ।। ५१।।
मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञास्तेजोवृद्धिकरं परम् ।। ५२।।
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।।५३।।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ।। ५४।।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ।। ५५।।
लभते परमं स्थानं शिवेन समतां व्रजेत् ।। ५६।।
।।ॐ नमश्वण्डिकायै।।
मार्कण्डेय उवाच
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ।। १।।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ।। २।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ३।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ४।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ५।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ६।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ७।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ८।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ९।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १०।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ११।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १२।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १३।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १४।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १५।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १६।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १७।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १८।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १९।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २०।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २१।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २२।।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २३।।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ।।२४।।
स तु सप्तशतींसंख्या वरमाप्नोति सम्पदाम्।।ॐ।। २५।।
ॐ नमश्चण्डिकायै
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ।। १।।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः ।। २।।
एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिद्धयति ।। ३।।
विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम् ।। ४।।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ।। ५।।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्निमन्त्रणाम् ।। ६।।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ।। ७।।
इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।। ८।।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः ।। ९।।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। १०।।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः ।। ११।।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदम् शुभम् ।। १२।।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ।। १३।।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ।।ॐ।। १४।।
शङ्खं सन्दधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम् ।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकाम्
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम् ।।
ॐ ऐं मार्कण्डेय उवाच ।। १।।
निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद्गदतो मम ।। २।।
स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः ।। ३।।
सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले ।। ४।।
बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा ।। ५।।
न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः ।। ६।।
आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः ।। ७।।
कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः ।। ८।।
एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम् ।। ९।।
प्रशान्तः श्वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम् ।। १०।।
इतश्चेतश्च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे ।। ११।।
मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत् ।।१२।।
न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदामदः ।।१३।।
ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः ।।१४।।
असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम् ।।१५।।
एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः ।।१६।।
स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चागमनेऽत्र कः ।।१७।।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम् ।।१८।।
प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम् ।। १९।।
पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः ।। २१।।
वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः ।। २२।।
प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः ।। २३।।
कथं ते किं नु सद्वृत्ता दुर्वृताः किं नु मे सुताः ।। २५।।
तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम् ।। २८।।
किं करोमे न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः ।। ३०।।
पतिः स्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव मे मनः ।। ३१।।
यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु ।। ३२।।
उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ ।। ३८।।
दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना ।। ४१।।
जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम ।। ४२।।
स्वजनेन च सन्त्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति ।। ४३।।
दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ ।। ४४।।
ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता ।। ४५।।
विषयाश्च महाभाग यान्ति चैवं पृथक्पृथक् ।। ४७।।
केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः ।। ४८।।
यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः ।। ४९।।
मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः ।। ५०।।
कणमोक्षादृतान् मोहात्पीडयमानानपि क्षुधा ।। ५१।।
लोभात् प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्यसि ।। ५२।।
महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा ।। ५३।।
महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत् ।। ५४।।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।। ५५।।
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये ।। ५६।।
ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च किं द्विज ।। ६०।।
उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते ।। ६६।।
आस्तीर्य शेषमभजत् कल्पान्ते भगवान् प्रभुः ।। ६७।।
विष्णुकर्णमलोद्भूतौ हन्तुं ब्रह्माणमुद्यतौ ।। ६८।।
दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम् ।। ६९।।
विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम् ।। ७०।।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः ।। ७१।।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिताः ।। ७३।।
त्वमेव सा त्वं सावित्री त्वं देवि जननी परा ।। ७४।।
त्वयैतत् पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ।। ७५।।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ।। ७६।।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी ।। ७७।।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ।। ७८।।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ।। ७९।।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ।। ८०।।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ।। ८१।।
तस्य सर्वस्य या शक्त्तिः सा त्वं किं स्तूयसे मया ।। ८२।।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ।। ८३।।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ।। ८४।।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ।। ८५।।
विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ ।। ८९।।
निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ।। ९०।।
एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ ।। ९१।।
क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ ।। ९२।।
पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः ।। ९३।।
उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति केशवम् ।। ९५।।
विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः ।। १००।।
कृत्वा चक्रेण वै छिन्ने जघने शिरसी तयोः ।। १०३।।
प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः श्रृणु वदामि ते ।।ऐं ॐ।। १०४।।
महालक्ष्मीध्यानम्
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम् ।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् ।।
महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे ।। २।।
जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः ।। ३।।
पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ ।। ४।।
त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम् ।। ५।।
अन्येषां चाधिकारान्स स्वयमेवाधितिष्ठति ।। ६।।
विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना ।। ७।।
शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम् ।। ८।।
चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ ।। ९।।
निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शङ्करस्य च ।। १०।।
निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत ।। ११।।
ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम् ।। १२।।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा ।। १३।।
याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा ।। १४।।
वारुणेन च जङ्घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः ।। १५।।
वसूनां च कराङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका ।। १६।।
नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा ।। १७।।
अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा ।। १८।।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः ।। १९।।
चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य स्वचक्रतः ।। २०।।
मारुतो दत्तवांश्चापं बाणपूर्णे तथेषुधी ।। २१।।
ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद्गजात् ।। २२।।
प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम् ।। २३।।
कालश्च दत्तवान् खड्गं तस्याश्चर्म च निर्मलम् ।। २४।।
चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च ।। २५।।
नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम् ।। २६।।
विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम् ।। २७।।
अम्लानपङ्कजां मालां शिरस्युरसि चापराम् ।। २८।।
हिमवान् वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च ।। २९।।
शेषश्च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम् ।। ३०।।
अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा ।। ३१।।
तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः ।। ३२।।
चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्च चकम्पिरे ।। ३३।।
जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम् ।। ३४।।
दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः ।। ३५।।
आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः ।। ३६।।
स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा ।। ३७।।
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम् ।। ३८।।
ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम् ।। ३९।।
महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः ।। ४०।।
रथानामयुतैः षड्भिरुदग्राख्यो महासुरः ।। ४१।।
पञ्चाशद्भिश्च नियुतैरसिलोमा महासुरः ।। ४२।।
गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः परिवारितः ।। ४३।।
बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः ।। ४४।।
अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः ।। ४५।।
कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा ।। ४६।।
तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा ।। ४७।।
केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित् पाशांस्तथापरे ।। ४८।।
सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका ।। ४९।।
अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः ।। ५०।।
सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेसरी ।। ५१।।
निःश्वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका ।। ५२।।
युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः ।। ५३।।
अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्खांस्तथापरे ।। ५४।।
ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः ।। ५५।।
पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान् ।। ५६।।
केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्गपातैस्तथापरे ।। ५७।।
वेमुश्च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः ।। ५८।।
निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे ।। ५९।।
केषाञ्चिद्बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे ।। ६०।।
विच्छिन्नजङ्घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः ।। ६१।।
छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः ।। ६२।।
ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः ।। ६३।।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः ।।६४।।
अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत् स महारणः ।। ६५।।
मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम् ।। ६६।।
निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम् ।। ६७।।
शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति ।। ६८।।
यथैषां तुष्टुवुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचो दिवि ।।ॐ।। ६९।।
ध्यानम्
ॐ उद्यद्भानुसहस्त्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं
देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्।।
सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धुमथाम्बिकाम् ।। २।।
यथा मेरुगिरेः श्रृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः ।। ३।।
जघान तुरगान्बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम् ।। ४।।
विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः ।। ५।।
अभ्यधावत तं देवीं खड्गचर्मधरोऽसुरः ।। ६।।
आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान् ।। ७।।
ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः ।। ८।।
जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात् ।। ९।।
तच्छूलं शतधा तेन नीतं स च महासुरः ।। १०।।
आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः ।। ११।।
हुङ्काराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम् ।। १२।।
चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत् ।। १३।।
बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा ।। १४।।
युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहरैरतिदारुणैः ।। १५।।
करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक् कृतम् ।। १६।।
दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः ।। १७।।
वाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम् ।। १८।।
त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी ।। १९।।
दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम् ।। २०।।
माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान् ।। २१।।
लाङ्गूलताडितांश्चान्यान् श्रृङ्गाभ्यां च विदारितान् ।। २२।।
निःश्वासपवनेनान्यान्पातयामास भूतले ।। २३।।
सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका ।। २४।।
श्रृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च ।। २५।।
लाङ्गूलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः ।। २६।।
श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः ।। २७।।
दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत् ।। २८।।
तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे ।। २९।।
छिनत्ति तावत् पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत ।। ३०।।
तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः ।। ३१।।
कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत ।। ३२।।
तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। ३३।।
पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना ।। ३४।।
विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान् ।। ३५।।
उवाच तं मदोद्धूतमुखरागाकुलाक्षरम् ।। ३६।।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ।। ३८।।
पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत् ।। ४०।।
अर्धनिष्क्रान्त एवासीद्देव्या वीर्येण संवृतः ।। ४१।।
तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः ।। ४२।।
प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः ।। ४३।।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।। ४४।।
ध्यानम्
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शंखं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरुढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः।।
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या ।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः ।। २।।
निःशेषदेवगणशक्त्तिसमूहमूर्त्या ।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ।। ३।।
ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च ।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ।। ४।।
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ।। ५।।
किञ्चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि ।
किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि
सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु ।। ६।।
ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा ।
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-
मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ।। ७।।
तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि ।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-
रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च ।। ८।।
अभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः ।
मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-
र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ।। ९।।
मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् ।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ।। १०।।
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा ।
श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ।। ११।।
बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम् ।
अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि
वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण ।। १२।।
मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः ।
प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं
कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन ।। १३।।
सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि ।
विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-
न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य ।। १४।।
तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः ।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना ।। १५।।
ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति ।
स्वर्गं प्रयाति च ततो भवती प्रसादा-
ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन ।। १६।।
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ।। १७।।
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम् ।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान्विनिहंसि देवि ।। १८।।
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम् ।
लोकान्प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी ।। १९।।
शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम् ।
यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-
योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत् ।। २०।।
रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः ।
वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणां
वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् ।। २१।।
रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र ।
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि ।। २२।।
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा ।
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्तम्
मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ।। २३।।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ।। २४।।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ।। २५।।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ।। २६।।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः ।। २७।।
अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः ।। २९।।
प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान् ।। ३०।।
ददाम्यहमतिप्रीत्या स्तवैरेभिः सुपूजिता ।
यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः ।। ३४।।
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः ।। ३५।।
तस्य वित्तद्धिर्विभवैर्धनदारादिसम्पदाम् ।। ३६।।
तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप ।। ३९।।
देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी ।। ४०।।
वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ।। ४१।।
तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते ।।ह्रीं ॐ।। ४२।।
।। अथ पञ्चमोऽध्यायः ।।
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम् ।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्रसरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम् ।।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात् ।। २।।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च ।। ३।।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः ।। ४।।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम् ।। ५।।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः ।। ६।।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः ।। ७।।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।। ९।।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः ।। १०।।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ।। ११।।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ।। १२।।
नमो जगत्प्रतिष्टायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ।। १३।।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || १४-१६||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || १७-१९||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || २०-२२||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || २३-२५||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || २६-२८||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || २९-३१||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ३२-३४||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ३५-३७||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ३८-४०||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ४१-४३||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ४४-४६||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ४७-४९||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ५०-५२||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ५३-५५||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ५६-५८||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ५९-६१||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ६२-६४||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ६५-६७||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ६८-७०||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ७१-७३||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ७४-७६||
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः || ७७||
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ७८-८०||
त्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता ।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।। ८१।।
रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते ।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः
सर्वापदो भक्त्तिविनम्रमूर्तिभिः ।। ८२।।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन ।। ८४।।
शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताऽब्रवीच्छिवा ।। ८५।।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः ।। ८६।।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते ।। ८७।।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया ।। ८८।।
ददर्श चण्डो मुण्डश्व भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः ।। ८९।।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम् ।। ९०।।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर ।। ९१।।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति ।। ९२।।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे ।। ९३।।
पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः ।। ९४।।
रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम् ।। ९५।।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम् ।। ९६।।
तथाऽयं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः ।। ९७।।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे ।। ९८।।
वह्निरपि ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी ।। ९९।।
स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते ।। १००।।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम् ।। १०२।।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु ।। १०३।।
सा देवी तां ततः प्राह श्लक्ष्णं मधुरया गिरा ।। १०४।।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः ।। १०६।।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह शृणुष्व तत् ।। १०७
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक् ।। १०८।।
तथैव गजरत्नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम् ।। १०९।।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम् ।। ११०।।
रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने ।। १११।।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम् ।। ११२।।
भज त्वं चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः ।। ११३।।
एतद् बुद्धया समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज ।। ११४।।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत् ।। ११६।।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः ।। ११८।।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा ।। ११९।।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति ।। १२०।।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु ।। १२१।।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः ।। १२३।।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका ।। १२४।।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम् ।। १२५।।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि ।। १२६।।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा ।। १२८।।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत् ।।ॐ।। १२९।।
ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली-
भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम्।
मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां
सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये।।
समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात् ।। २।।
सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम् ।। ३।।
तामानय बलाद्दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम् ।। ४।।
स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा ।। ५।।
वृतः षष्टया सहस्राणामसुराणां दृतं ययौ ।। ७।।
जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः ।। ८।।
ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम् ।। ९।।
बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम् ।। ११।।
हुङ्कारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका ततः ।। १३।।
ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्त्तिपरश्वधैः ।। १४।।
पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहनः ।। १५।।
आक्रान्त्या चाधरेणान्यान् स जघान महासुरान् ।। १६।।
तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान्पृथक् ।। १७।।
पापौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः ।। १८।।
तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना ।। १९।।
बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः ।। २०।।
आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ ।। २१।।
तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु ।। २२।।
तदाशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम् ।। २३।।
शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम् ।। २४।।
न्यस्तैकाङि्घ्रं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्।।
चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः ।। २।।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने ।। ३।।
आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः ।। ४।।
कोपेन चास्या वदनं मषीवर्णमभूत्तदा ।। ५।।
काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ।। ६।।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ।। ७।।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ।। ८।।
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ।। ९।।
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान् ।। १०।।
निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् ।। ११।।
पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ।। १२।।
मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि ।। १३।।
ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा ।। १४।।
जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा ।। १५।।
दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् ।। १६।।
छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः ।। १७।।
बभुर्यथाऽर्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् ।। १८।।
काली करालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला ।। १९।।
गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत् ।। २०।।
तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा ।। २१।।
मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् ।। २२ ।।
प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् ।। २३।।
युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि ।। २४।।
उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः ।। २६।।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवी भविष्यसि ।।ॐ।। २७।।
अणिमादिभिरावृतां मयूखैरहमित्येव विभावये भवानीम्।।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः ।। २।।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह ।। ३।।
कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः ।। ४।।
शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया ।। ५।।
युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम ।। ६।।
निर्जगाम महासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः ।। ७।।
ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम् ।। ८।।
घण्टास्वनेन तान्नादानम्बिका चोपबृंहयत् ।। ९।।
निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना ।। १०।।
देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः ।। ११।।
भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः ।। १२।।
शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः ।। १३।।
तद्वदेव हि तच्छक्तरसुरान्योद्धुमाययौ ।। १४।।
आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते ।। १५।।
महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा ।। १६।।
योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी ।। १७।।
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखड्गहस्ताऽभ्युपाययौ ।। १८।।
शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम् ।। १९।।
प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः ।। २०।।
प्राप्ता सहस्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा ।। २१।।
हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याऽऽह चण्डिकाम् ।। २२।।
चण्डिका शक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी ।। २३।।
दूत त्वं गच्छ भगवन्पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः ।। २४।।
ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः ।। २५।।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ ।। २६।।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः ।। २७।।
शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता ।। २८।।
अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र कात्यायनी स्थिता ।। २९।।
ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः ।। ३०।।
चिच्छेद लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्त्तैर्महेषुभिः ।। ३१।।
खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन्कुर्वती व्यचरत्तदा ।। ३२।।
ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून्येन येन स्म धावति ।। ३३।।
दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्याऽतिकोपना ।। ३४।।
पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः ।। ३५।।
वाराहमूर्त्या न्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः ।। ३६।।
नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा ।। ३७।।
पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा ।। ३८।।
दृष्ट्वाऽभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः ।। ३९।।
योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः ।। ४०।।
समुत्पतति मेदिन्यां तत्प्रमाणस्तदासुरः ।। ४१।।
ततश्चन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत् ।। ४२।।
समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः ।। ४३।।
तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः ।। ४४।।
समं मात्रुभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम् ।। ४५।।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः ।। ४६।।
गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम् ।। ४७।।
सहस्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः ।। ४८।।
माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम् ।। ४९।।
मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः ।। ५०।।
पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः ।। ५१।।
व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम् ।। ५२।।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं वदनं कुरु ।। ५३।।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिता ।। ५४।।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति ।। ५५।।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम् ।। ५६।।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम् ।। ५७।।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम् ।। ५८।।
मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः ।। ५९।।
जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम् ।। ६१।।
नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः ।। ६२।।
तेषां मात्रुगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः ।।ॐ।। ६३।।
ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्दैः।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि।।
देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम् ।। २।।
चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः ।। ३।।
चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते ।
शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे ।। ५।।
अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुरव्ययासुरसेनया ।। ६।।
सन्दष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः ।। ७।।
निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः ।। ८।।
शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः ।। ९।।
ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ ।। १०।।
अताडयन्मूर्घ्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम् ।। ११।।
निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम् ।। १२।।
तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम् ।। १३।।
आयातं मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत् ।। १४।।
सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता ।। १५।।
आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले ।। १६।।
भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम् ।। १७।।
भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं वभौ नभः ।। १८।।
ज्याशब्दं चापि धनुषश्चकारातीव दुःसहम् ।। १९।।
समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना ।। २०।।
पूरयामास गगनं गां तथैव दिशो दश ।। २१।।
कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः ।। २२।।
तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ ।। २३।।
तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः ।। २४।।
आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया ।। २५।।
निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते ।। २६।।
चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः ।। २७।।
स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह ।। २८।।
आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा ।। २९।।
चक्रायुधेन दितिजश्छादयामास चण्डिकाम् ।। ३०।।
चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैः सायकांश्च तान् ।। ३१।।
अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः ।। ३२।।
खड्गेन शितधारेण स च शूलं समाददे ।। ३३।।
हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका ।। ३४।।
महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन् ।। ३५।।
शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसावपतद्भुवि ।। ३६।।
असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान् ।। ३७।।
ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः ।। ३८।।
वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णाकृता भुवि ।। ३९।।
वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे ।। ४०।।
भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः ।।ॐ।। ४१।।
ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्निनेत्रां धनुश्शरयुताङ्कुशपाशशूलम्।
रम्यैर्भुजैश्च दधतीं शिवशक्तिरुपां कामेश्वरीं ह्रदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्।।
हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः ।। २।।
अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी ।। ३।।
पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः ।। ५।।
तस्या देव्यास्तनौ जग्मुरेकैवासीत्तदाम्बिका ।। ६।।
तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव ।। ८।।
पश्यतां सर्वदेवानामसुराणां च दारुणाम् ।। १०।।
तयोर्युद्धमभूद्भूयः सर्वलोकभयङ्करम् ।। ११।।
बभञ्च तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः ।। १२।।
बभञ्च लीलयैवोग्रहुङ्कारोच्चारणादिभिः ।। १३।।
सापि तत्कुपिता देवी धनुश्चिच्छेद चेषुभिः ।। १४।।
चिच्छेद देवी चक्रेण तामप्यस्य करे स्थिताम् ।। १५।।
अभ्यदावत्तदा देवीं दैत्यनामधिपेश्वरः ।। १६।।
धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्चर्म चार्ककरामलम् ।। १७।।
जग्राह मुद्गरं घोरमम्बिकानिधनोद्यतः ।। १८।।
तथापि सोऽभ्यधावत्तां मुष्टिमुद्यम्य वेगवान् ।। १९।।
देव्यास्तं चापि सा देवी तलेनोरस्यताडयत् ।। २०।।
स दैत्यराजः सहसा पुनरेव तथोत्थितः ।। २१।।
तत्रापि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका ।। २२।।
चक्रतुः प्रथमं सिद्धमुनिविस्मयकारकम् ।। २३।।
उत्पात्य भ्रामयामास चिक्षेप धरणीतले ।। २४।।
अभ्यधावत दुष्टात्मा चण्डिकानिधनेच्छया ।। २५।।
जगत्यां पातयामास भित्त्वा शूलेन वक्षसि ।। २६।।
चालयन् सकलां पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम् ।। २७।।
जगत्स्वास्थ्यमतीवाप निर्मलं चाभवन्नभः ।। २८।।
सरितो मार्गवाहिन्यस्तथासंस्तत्र पातिते ।। २९।।
बभूवुर्निहते तस्मिन् गन्धर्वा ललितं जगुः ।। ३०।।
ववुः पुण्यास्तथा वाताः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः ।। ३१।।
ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरिटां तुङ्गकुचा नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्।।
सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम् ।
कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभा-
द्विकासिवक्त्राब्जविकाशिताशाः ।। २।।
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ।। ३।।
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि ।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-
दाप्यायते कुत्स्नमलङ्घयवीर्ये ।। ४।।
विश्वस्य बीजं परमासि माया ।
सम्मोहितं देवि समस्तमेत-
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ।। ५।।
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु ।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ।। ६।।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ।। ७।।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। ८।।
विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते ।। ९।।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १०।।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ।। ११।।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १२।।
कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १३।।
माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तुते ।। १४।।
कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १५।।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १६।।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १७।।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १८।।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १९।।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते ।। २०।।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते ।। २१।।
महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते ।। २२।।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तुते ।। २३।।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ।। २४।।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ।। २५।।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ।। २६।।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्यो नः सुतानिव ।। २७।।
शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम् ।। २८।।
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ।। २९।।
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम् ।
रूपैरनेकैर्बहुधात्ममूर्तिम्
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या ।। ३०।।
ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या ।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम् ।। ३१।।
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र ।
दावानलो यत्र तथाब्धिमद्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ।। ३२।।
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम् ।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ।। ३३।।
भीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः ।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ।। ३४।।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ।। ३५।।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम् ।। ३७।।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ।। ३९।।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ।।४१।।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ।। ४२।।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान् ।। ४३।।
रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः ।। ४४।।
स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम् ।। ४५।।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्यामययोनिजा ।। ४६।।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः ।। ४७।।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः ।। ४८।।
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम् ।।४९।।
पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले ।। ५०।।
तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः ।। ५१।।
यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति ।। ५२।।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम् ।। ५३।।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।। ५४।।
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे।।
तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम् ।। २।।
कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद्वधं शुम्भनिशुम्भयोः ।। ३।।
श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुतमम् ।। ४।।
भविष्यति न दारिद्रयं न चैवेष्टवियोजनम् ।। ५।।
न शस्त्रानलतोयौघात् कदाचित् सम्भविष्यति ।। ६।।
श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं हि तत् ।। ७।।
तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम ।। ८।।
सदा न तद्विमोक्ष्यामि सान्निध्यं तत्र मे स्थितम् ।। ९।।
सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च ।। १०।।
प्रतीच्छिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथाकृतम् ।। ११।।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः ।। १२।।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ।। १३।।
पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान् ।। १४।।
नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम श्रृण्वताम् ।। १५।।
ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं श्रृणुयान्मम ।। १६।।
दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते ।। १७।।
सङ्घातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम् ।। १८।।
रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम् ।। १९।।
पशुपुष्पार्ध्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः ।। २० ।।
अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या ।। २१।।
श्रुतं हरति पापानि तथाऽऽरोग्यं प्रयच्छति ।। २२।।
युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम् ।। २३।।
युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः ।। २४।।
अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः ।। २५।।
सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः ।। २६।।
आधूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे ।। २७।।
सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा ।। २८।।
मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा ।। २९।।
पश्यतामेव देवानां तत्रैवान्तरधीयत ।। ३२।।
यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः ।। ३३।।
जगद्विध्वंसिनि तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे ।। ३४।।
सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम् ।। ३६।।
सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति ।। ३७।।
महाकाल्या महाकाले महामारीस्वरूपया ।। ३८।।
स्थितं करोति भूतानां सैव काले सनातनी ।। ३९।।
सैवाभावे तथालक्ष्मीर्विनाशायोपजायते ।। ४०।।
ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं शुभाम् ।। ४१।।
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे।।
विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया ।। ३।।
मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे ।। ४।।
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा ।। ५।।
प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं संशितव्रतम् ।। ७।।
जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने ।। ८।।
स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन् ।। ९।।
अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः ।। १०।।
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम् ।। ११।।
परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ।। १२।।
अत्र चैव निजं राज्यं जतशत्रुबलं बलात् ।। १७।।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम् ।। १८।।
बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता ।। २७।।
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिभर्विता मनुः ।। २८।।
ॐ तत् सत् ॐ ।।
ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्वराम्यह-मादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यह-मिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ।। १।।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ।। २।।
तां भा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ।। ३।।
अमन्तवो मां त उपक्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ।। ४।।
यं कामये तं तमुग्रं कृष्णोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।। ५।।
अहं जनाय समदं कृष्णोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ।। ६।।
ततो वि तिष्टे भुवनानु विश्वो-तामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ।। ७।।
परो दिवा पर एना पृथिव्यै-तावती महिना सं बभूव ।। ८।।
एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तु मर्हसि॥1॥
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥2॥
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥3॥
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥4॥
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥5॥
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥6॥
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥7॥
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥8॥
कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिर:स्त्रजम॥9॥
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नम:॥10॥
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥11॥
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥12॥
एभि: कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्रुते सुखम्॥13॥
सत्त्वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥14॥
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥15॥
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी॥16॥
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपत:॥17॥
हिरण्यगभरै रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥18॥
श्री: पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥19॥
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥20॥
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥21॥
त्रयी विद्या कामधेनु: सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥22॥
नयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥23॥
उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥ 24॥
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जना:॥25॥
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥26॥
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥ 25॥
महाभूतात्मकं सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम्॥28॥
संजहार जगत्सर्व सह गौर्या महेश्वर:॥29॥
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥30॥
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥1॥
मधुकैटभनाशार्थ यां तुष्टावाम्बुजासन:॥2॥
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥3॥
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रिय:॥4॥
परिघं कार्मुकं शीर्ष निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥5॥
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥6॥
त्रिगुणा सा महालक्ष्मी: साक्षान्महिषमर्दिनी॥7॥
रक्त मध्या रक्त पादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥8॥
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9॥
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाध:करक्रमात्॥10॥
चक्रं त्रिशूलं परशु: शङ्खो घण्टा च पाशक:॥11॥
अलंकृतभुजामेभिरायुधै: कमलासनाम्॥12॥
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥13॥
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥14॥
शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥15॥
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥16॥
उपासनं जगन्मातु: पृथगासां निशामय॥17॥
दक्षिणोत्तरयो: पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥18॥
वामे लक्ष्म्या हृषीकेश: पुरतो देवतात्रयम्॥19॥
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥20॥
दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥21॥
यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥22॥
नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥23॥
अष्टादशभुजा सैव पूज्या महिषमर्दिनी॥24॥
ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥25॥
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्॥26॥
पैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितै:॥27॥
(बलिमांसादिपूजेयं विप्रवज्र्या मयेरिता॥
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥28॥
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम्॥29॥
दक्षिणे पुरत: सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥30॥
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानस:॥31॥
एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥32॥
प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलि:॥33॥
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥34॥
भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहित:॥35॥
सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥36॥
भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्॥37॥
भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥38॥
यथोक्ते न विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥38॥
अथ मूर्तिरहस्यम्
स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥1॥
देवी कनकवर्णाभा कनकोत्तमभूषणा॥2॥
इन्दिरा कमला लक्ष्मी: सा श्री रुक्माम्बुजासना॥3॥
तस्या: स्वरूपं वक्ष्यामि शृणु सर्वभयापहम्॥4॥
रक्तायुधा रक्त नेत्रा रक्त केशातिभीषणा॥5॥
पतिं नारीवानुरक्ता देवी भक्तं भजेज्जनम्॥6॥
दीर्घौ लम्बावतिस्थूलौ तावतीव मनोहरौ॥7॥
भक्तान् सम्पाययेद्देवी सर्वकामदुघौ स्तनौ॥8॥
आख्याता रक्त चामुण्डा देवी योगेश्वरीति च॥9॥
इमां य: पूजयेद्भक्त्या स व्यापनेति चराचरम्॥10॥
(भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्।)
तं सा परिचरेद्देवी पतिं प्रियमिवाङ्गना॥11॥
गम्भीरनाभिस्त्रिवलीविभूषिततनूदरी॥12॥
मुष्टिं शिलीमुखापूर्णं कमलं कमलालया॥13॥
काम्यानन्तरसैर्युक्तं क्षुत्तृण्मृत्युभयापहम्॥14॥
शाकम्भरी शताक्षी सा सैव दुर्गा प्रकीर्तिता॥15॥
उमा गौरी सती चण्डी कालिका सा च पार्वती॥16॥
अक्षय्यमश्रुते शीघ्रमन्नपानामृतं फलम्॥17॥
विशाललोचना नारी वृत्तपीनपयोधरा॥18॥
एकावीरा कालरात्रि: सैवोक्ता कामदा स्तुता॥19॥
चित्रानुलेपना देवी चित्राभरणभूषिता॥20॥
इत्येता मूर्तयो देव्या या: ख्याता वसुधाधिप॥21॥
इदं रहस्यं परमं न वाच्यं कस्यचित्त्वया॥22॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन देवीं जप निरन्तरम्॥23॥
पाठमात्रेण मन्त्राणां मुच्यते सर्वकिल्बिषै:॥24॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन सर्वकामफलप्रदम्॥25॥
सर्वरूपमयी देवी सर्व देवीमयं जगत्।
अतोऽहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्।)
।। अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ।।
ॐ अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१।।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।२।।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।।३।।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ।। ४।।
इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।। ५।।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। ६।।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ।। ७।।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसात्सुरेश्वरि।।८।।