संसार के सभी सुखों को देने वाली माँ जगदम्बा की पूजा दो प्रकार से कि जाती हैं पहली हैं सात्विक पूजा जिसे वैदिक पूजा भी कहा जाता हैं, और दूसरी हैं तामसी पूजा जिसे तांत्रिक पूजा भी कहा जाता हैं। गृहस्त जीवन में रहने वाले व्यक्तियों को वैदिक पूजा ही करनी चाहिए जो सरल और बहुत फलदायी होती हैं।
हमारे वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया। शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु संपूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष चैत्र नवरात्रि .. मार्च से प्रारम्भ हैं|
नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।
नव दुर्गा-
श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इसके आलावा श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
नवरात्रि व्रत की कथा-
नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्रह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।
आईऐ जानते हैं। माँ जगदम्बा की वैदिक पूजा की विधि- सर्वप्रथम पूर्व दिशा या उत्त्र दिशा की तरफ मूंह करके रेशम, कम्बल, कुशा के आसन पर बैठे। इसके बाद निम्न मन्त्र से पूजा की सामग्री और स्वंय को पवित्र करें।
ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाहमभ्यन्तर: शुचि:
पूजन प्रयोग में ली जाने वाली सामग्री–
कलश में भरने के लिए शुद्ध जल, गंगाजल, मोली, इत्र, साबुत सुपारी, दूर्वा, कलश में रखने के लिए कुछ सिक्के, पंचरत्न, अशोक या आम के 5 पत्ते, कलश ढकने के लिए मिटटी का दीया, अक्षत, नारियल, नारियल पर लपेटने के लिए लाल कपडा।
माँ दुर्गा की चौकी स्थापित करने की विधि–
नवरात्रि के प्रथम दिन शुभ मुहूर्त में घटस्थापना को करना चाहिए। भविष्य पुराण के अनुसार कलश स्थापना के लिए सबसे पहले पूजा स्थल को शुद्ध पानी से साफ कर लेना चाहिए और उसके बाद लकड़ी के बाजोट पर लाल रंग का कपड़ा बिछाना चाहिए और इस पर अक्षत से अष्टदल बनाना चाहिए।
उसके बाद माँ भगवती की धातु की मूर्ति स्थापित करनी चाहिए। मूर्ति के अभाव में नवार्णमन्त्र युक्त यन्त्र को स्थापित करें। मां दुर्गा की मूर्ति के बाईं तरफ श्री गणेश की मूर्ति रखें। माँ दुर्गा को लाल चुनरी उड़ानी चाहिए।
सर्वप्रथम निम्न मन्त्र से अखण्ड दिपक जलाना चाहिए।
ॐ दीपो ज्योतिः परब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः। दीपो हरतु में पापं पूजा दीप नमोस्तु ते।
मंत्र पढ़ते हुए दीप प्रज्ज्वलित करें।
श्री गणेश पूजन-
किसी भी पूजा में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है। हाथ में पुष्प और अक्षत लेकर निम्न मन्त्रों से गणपति का ध्यान करें।
गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।
भगवान गणेश का आवाहन-
ॐ गणानां त्वा गणापतिहवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग हवामहे वसो मम।
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्।
कलश स्थापना विधि-
किसी भी पूजन या शुभ कार्य में कलश की बड़ी महिमा बताई गई है। कलश पूजन सुख व समृद्धि को बढ़ाता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। कलश के मुख में विष्णुजी का निवास, कंठ में रुद्र तथा मूल में ब्रह्मा स्थित हैं और कलश के मध्य में दैवीय मातृशक्तियां निवास करती हैं। जैसा की वैदों में लिखा हैं।-
कलशस्य मुखे विष्णुः कंठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थतो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः॥
बाजोट की चोकी पर बने अक्षत से अष्टदल पर मिट्टी के एक पात्र में शुद्व मिट्टी ले और इसे अष्टदल पर रख दे इस मिट्टी के पात्र में थोड़ी जौ ड़ाल दे और जल से भरा कलश स्थापित करें। इस कलश में शतावरी जड़ी, हलकुंड, कमल गट्टे व चांदी का सिक्का डालें और नारियल पर लाल कपड़ा लपेट कर उसको मोली से बांध दे, नारियल को जल से भरे कलश पर सदैव इस प्रकार रखे कि उसका मुख साधक की तरफ रहे। निम्न मत्रों से कलश में देवी-देवताओं का आवाहन करे।
कलशस्य मुखे विष्णुः कंठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थतो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः ॥
कुक्षौ तु सागराः सर्वे, सप्तद्वीपा वसुंधराः।
अर्जुनी गोमती चैव चंद्रभागा सरस्वती ॥
कावेरी कृष्णवेणी च च गंगा चैव महानदी।
ताप्ती गोदावरी चैव माहेन्द्री नर्मदा तथा ॥
नदाश्च विविधा जाता नद्यः सर्वास्तथापराः।
पृथिव्यां यान तीर्थानि कलशस्तानि तानि वैः ॥
सर्वे समुद्राः सरितस्तीथर्यानि जलदा नदाः सरितस्तीथर्यानि जलदा नदाः।
आयान्तु मम कामस्य दुरितक्षयकारकाः ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः ॥
अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः।
अत्र गायत्री सावित्री शांति पुष्टिकरी तथा ॥
आयान्तु देवपूजार्थं दुरितक्षयकारकाः।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ॥
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।
नमो नमस्ते स्फटिक प्रभाय सुश्वेतहाराय सुमंगलाय ।
सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधनाथाय नमो॥
ॐ अपां पतये वरुणाय नमः।
ॐ वरुणाद्यावाहित देवताभ्यो नमः।
माँ जगदम्बा की पूजा-
सर्वप्रथम माँ जगदम्बा का निम्न मन्त्र से ध्यान करें।
सर्व मंगल मागंल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्येत्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते॥
कलश स्थापना के बाद माँ दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम माँ दुर्गा की मूर्ति या दुर्गा यन्त्र को आसन दे और फिर माँ दुर्गा का आवाहन करें। माँ दुर्गा को वस्त्र, आभूषण, पुष्पमाला, सुगंधित इत्र अर्पित करें, कुमकुम, अष्टगंध का तिलक करें। धूप व दीप अर्पित नहीं करें। माँ दुर्गा को लाल गुड़हल के फूल अर्पित करना चाहिए और दूर्वा कभी भी न चढ़ाए। अपनी श्रद्धानुसार घी या तेल का दीपक लगाएं। नेवैद्य अर्पित करें। और 1.8 बार निम्न मन्त्र से माँ दुर्गा की आराधना करें।
‘’ऊँ दुं दुर्गायै नमः‘’
इसके बाद निम्न क्षमा मन्त्रों का पाठ करें—
न मंत्रं नोयंत्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत्क्षतव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽयंत्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति॥
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापित्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे कुपुत्रो जायेत क्वचिदप कुमाता न भवति॥
परित्यक्तादेवा विविधविधिसेवाकुलतया मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव कृपा नापि भविता निरालम्बो लम्बोदर जननि कं यामि शरण्॥
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकैः।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ॥
संसार के सभी सुखों को देने वाली माँ भगवती कि पूजा मात्र से ही मनुष्यों की समस्त कामानाआें को पुरा करने वाली हैं। जैसा की दुर्गा सप्त्शती में लिखा हैं।
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दुर्गा सप्तशती – क्या, क्यों और कैसे?
मार्कण्डेय पुराण में ब्रहदेव ने मनुष्य जाति की रक्षा के लिए एक परम गुप्त, परम उपयोगी और मनुष्य का कल्याणकारी देवी कवच एवं व देवी सुक्त बताया है और कहा है कि जो मनुष्य इन उपायों को करेगा, वह इस संसार में सुख भोग कर अन्त समय में बैकुण्ठ को जाएगा।
ब्रहदेव ने कहा कि जो मनुष्य दुर्गा सप्तशती का पाठ करेगा उसे सुख मिलेगा। भगवत पुराण के अनुसार माँ जगदम्बा का अवतरण श्रेष्ठ पुरूषो की रक्षा के लिए हुआ है। जबकि श्रीं मद देवीभागवत के अनुसार वेदों और पुराणों कि रक्षा के और दुष्टों के दलन के लिए माँ जगदंबा का अवतरण हुआ है। इसी तरह से ऋगवेद के अनुसार माँ दुर्गा ही आद्ध शक्ति है, उन्ही से सारे विश्व का संचालन होता है और उनके अलावा और कोई अविनाशी नही है।
इसीलिए नवरात्रि के दौरान नव दुर्गा के नौ रूपों का ध्यान, उपासना व आराधना की जाती है तथा नवरात्रि के प्रत्येक दिन मां दुर्गा के एक-एक शक्ति रूप का पूजन किया जाता है।
नवरात्रि के दौरान श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इस दुर्गा सप्तशती को ही शतचण्डि, नवचण्डि अथवा चण्डि पाठ भी कहते हैं और रामायण के दौरान लंका पर चढाई करने से पहले भगवान राम ने इसी चण्डी पाठ का आयोजन किया था, जो कि शारदीय नवरात्रि के रूप में आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तिथी तक रहती है।
हालांकि पूरे साल में कुल 4 बार आती है, जिनमें से दो नवरात्रियों को गुप्त नवरात्रि के नाम से जाना जाता है, जिनका अधिक महत्व नहीं होता, जबकि अन्य दो नवरात्रियों में भी एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार शारदीय नवरात्रि का ज्यादा महत्व इसलिए है क्योंकि देवताओं ने इस मास में देवी की अराधना की थी, जिसके परिणामस्वरूप मां जगदम्बा ने दैत्यों का वध कर देवताओं को फिर से स्वर्ग पर अधिकार दिलवाया था।
मार्कडेय पुराण के अनुसार नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा के जिन नौ शक्तियों की पूजा-आराधना की जाती है, उनके नाम व संक्षिप्त महत्व इस प्रकार से है-
मां दुर्गा का शैल पुत्री रूप, जिनकी उपासना से मनुष्य को अन्नत शक्तियां प्राप्त होती हैं तथा उनके अाध्यात्मिक मूलाधार च्रक का शोधन होकर उसे जाग्रत कर सकता है, जिसे कुण्डलिनी-जागरण भी कहते है।
मां दुर्गा का ब्रहमचारणी रूप, तपस्या का प्रतीक है। इसलिए जो साधक तप करता है, उसे ब्रहमचारणी की पूजा करनी चाहिए।
च्रदघण्टा, मां दुर्गा का तीसरा रूप है और मां दुर्गा के इस रूप का ध्यान करने से मनुष्य को लौकिक शक्तिया प्राप्त होती हैं, जिससे मनुष्य को सांसारिक कष्टों से छुटकारा मिलता है।
मां दुर्गा की चौथी शक्ति का नाम कूष्माण्डा है और मां के इस रूप का ध्यान, पूजन व उपासना करने से साधक को रोगों यानी आधि-व्याधि से छुटकारा मिलता है।
माँ जगदम्बा के स्कन्दमाता रूप को भगवान कार्तिकेय की माता माना जाता है, जो सूर्य मण्डल की देवी हैं। इसलिए इनके पुजन से साधक तेजस्वी और दीर्घायु बनता है।
कात्यानी, माँ दुर्गा की छठी शक्ति का नाम है, जिसकी उपासना से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और अन्त में मोक्ष, चारों की प्राप्ति होती है। यानी मां के इस रूप की उपासना करने से साधक की सभी मनोकामनाऐं पूरी होती हैं।
मां जगदीश्वरी की सातवीं शक्ति का नाम कालरात्रि है, जिसका अर्थ काल यानी मुत्यृ है और मां के इस रूप की उपासना मनुष्य को मुत्यृ के भय से मुक्ति प्रदान करती है तथा मनुष्य के ग्रह दोषों का नाश होता है।
आठवी शक्ति के रूप में मां दुर्गा के महागौरी रूप की उपासना की जाती है, जिससे मनुष्य में देवी सम्पदा और सद्गुणों का विकास होता है और उसे कभी आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पडता।
सिद्धीदात्री, मां दुर्गा की अन्तिम शक्ति का नाम है जो कि नवरात्रि के अन्तिम दिन पूजी जाती हैं और नाम के अनुरूप ही माँ सिद्धीदात्री, मनुष्य को समस्त प्रकार की सिद्धि प्रदान करती हैं जिसके बाद मनुष्य को किसी और प्रकार की जरूरत नही रह जाती।
हिन्दु धर्म की मान्यतानुसार दुर्गा सप्तशती में कुल 700 श्लोक हैं जिनकी रचना स्वयं ब्रह्मा, विश्वामित्र और वशिष्ठ द्वारा की गई है और मां दुर्गा के संदर्भ में रचे गए इन 700 श्लोकों की वजह से ही इस ग्रंथ का नाम दुर्गा सप्तशती है।
दुर्गा सप्तशती मूलत: एक जाग्रत तंत्र विज्ञान है। यानी दुर्गा सप्तशती के श्लोकों का अच्छा या बुरा असर निश्चित रूप से होता है और बहुत ही तीव्र गति से होता है।
दुर्गा सप्तशती में अलग-अलग जरूरतों के अनुसार अलग-अलग श्लोकों को रचा गया है, जिसके अन्तर्गत मारण-क्रिया के लिए 90, मोहन यानी सम्मोहन-क्रिया के लिए 90, उच्चाटन-क्रिया के लिए .00, स्तंभन-क्रिया के लिए 200 व विद्वेषण-क्रिया के लिए 60-60 मंत्र है।
चूंकि दुर्गा सप्तशती के सभी मंत्र बहुत ही प्रभावशाली हैं, इसलिए इस ग्रंथ के मंत्रों का दुरूपयोग न हो, इस हेतु भगवान शंकर ने इस ग्रंथ को शापित कर रखा है, और जब तक इस ग्रंथ को शापोद्धार विधि का प्रयोग करते हुए शाप मुक्त नहीं किया जाता, तब तक इस ग्रंथ में लिखे किसी भी मंत्र तो सिद्ध यानी जाग्रत नहीं किया जा सकता अौर जब तक मंत्र जाग्रत न हो, तब तक उसे मारण, सम्मोहन, उच्चाटन आदि क्रिया के लिए उपयोग में नहीं लिया जा सकता।
हालांकि इस ग्रंथ का नवरात्रि के दौरान सामान्य तरीके से पाठ करने पर पाठ का जो भी फल होता है, वो जरूर प्राप्त होता है, लेकिन तांत्रिक क्रियाओं के लिए यदि इस ग्रंथ का उपयोग किया जा रहा हो, तो उस स्थिति में पूरी विधि का पालन करते हुए ग्रंथ को शापमुक्त करना जरूरी है।
क्यों और कैसे शापित है दुर्गा सप्तशती के तांत्रिक मंत्र
इस संदर्भ में एक पौराणिक कथा है कि एक बार भगवान शिव की पत्नी माता पार्वती को किसी कानणवश बहुत क्रोध आ गया, जिसके कारण माँ पार्वती ने राैद्र रूप धारण कर लिया और मां पार्वती का इसी क्रोधित रूप को हम मां काली के नाम से जानते हैं।
कथा के अनुसार मां काली के रूप में क्रोधातुर मां पार्वती पृथ्वी पर विचरन करने लगी और सामने आने वाले हर प्राणी को मारने लगी। इससे सुर-असुर, देवी-देवता सभी भयभीत हो गए और मां काली के भय से मुक्त होने के लिए ब्रम्हाजी के नेतृत्व में सभी भगवान शिव के पास गए औन उनसे कहा कि- हे भगवन भाेले नाथ… आप ही देवी काली को शांत कर सकते हैं और यदि आपने ऐसा नहीं किया, तो सम्पूर्ण पृथ्वी का नाश हो जाएगा, जिससे इस भूलोक में न कोई मानव होगा न ही जीव जन्तु।
भगवान शिव ने ब्रम्हाजी को जवाब दिया कि- अगर मैंने एेसा किया तो बहुत ही भयानक असर होगा। सारी पृथ्वी पर दुर्गा के रूप मंत्रो से भयानक शक्ति का उदय होगा और दावन इसका दुरूपयोग करना शुरू कर देंगे, जिससे सम्पूर्ण संसार में आसुरी शक्तियो का वास हो जाएगा।
ब्रम्हाजी ने फिर भगवान शिव से प्रार्थना की कि- हे भगवान भूतेश्वर… आप रौद्र रूप में देवी को शांत कीजिए और इस दौरान उदय होने वाले मां दुर्गा के रूप मंत्रों को शापित कर दीजिए, ताकि भविष्य में कोई भी इसका दुरूपयोग न कर सके।
वहीं भगवान नारद भी थे जिन्होने ब्रम्हाजी से पूछा कि- हे पितामह… अगर भगवान शिव ने उदय होने वाले मां दुर्गा के रूप मंत्रों को शापित कर दिया, तो संसार में जिसको सचमुच में देवी रूपों की आवश्यकता होगी, वे लोग भी मां दुर्गा के तत्काल जाग्रत मंत्र रूपों से वंचित रह जाऐंगे। उनके लिए क्या उपाय है, ताकि वे इन जाग्रत मंत्रों का फायदा ले सकें?
भगवान नारद के इस सवाल के जवाब में भगवान शिव ने दुर्गा सप्तशती को शापमुक्त करने की पूरी विधि बताई, जो कि अग्रानुसार है और इस विधि का अनुसरण किए बिना दुर्गा सप्तशती के मारण, वशीकरण, उच्चाटन जैसे मंत्रों को सिद्ध नहीं किया जा सकता न ही दुर्गा सप्तशती के पाठ का ही पूरा फल मिलता है।
दुर्गा सप्तशती – शाप मुक्ति विधि
भगवान शिव के अनुसार जो व्यक्ति मां दुर्गा के रूप मंत्रों को किसी अच्छे कार्य के लिए जाग्रत करना चाहता है, उसे पहले दुर्गा सप्तशती को शाप मुक्त करना होता है और दुर्गा सप्तशती को शापमुक्त करने के लिए सबसे पहले निम्न मंत्र का सात बार जप करना होता है-
ऊँ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरू कुरू स्वाहा
फिर इसके पश्चात निम्न मंत्र का 21 बार जप करना हाेता है-
ऊँ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरू कुरू स्वाहा
और अंत में निम्न मंत्र का 21 बार जप करना हाेता है-
ऊँ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विधे मृतमूत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा
इसके बाद निम्न मंत्र का 108 बार जप करना होता है-
ऊँ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ऊँ ऐं क्षाेंभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं
इतनी विधि करने के बाद मां दुर्गा का दुर्गा-सप्तशती ग्रंथ भगवान शंकर के शाप से मुक्त हो जाता है। इस प्रक्रिया को हम दुर्गा पाठ की कुंजी भी कह सकते हैं और जब तक इस कुंजी का उपयोग नहीं किया जाता, तब तक दुर्गा-सप्तशती के पाठ का उतना फल प्राप्त नहीं होता, जितना होना चाहिए क्योंकि दुर्गा सप्तशती ग्रंथ को शापमुक्त करने के बाद ही उसका पाठ पूर्ण फल प्रदान करता है।
कैसे करें दुर्गा-सप्तशती का पाठ
देवी स्थापना – कलश स्थापना
दुर्गा सप्तशती एक महान तंत्र ग्रंथ के रूप में उपल्बध जाग्रत शास्त्र है। इसलिए दुर्गा सप्तशती के पाठ को बहुत ही सावधानीपूर्वक सभी जरूरी नियमों व विधि का पालन करते हुए ही करना चाहिए क्योंकि यदि इस पाठ को सही विधि से व बिल्कुल सही तरीके से किया जाए, तो मनचाही इच्छा भी नवरात्रि के नौ दिनों में ही जरूर पूरी हो जाती है, लेकिन यदि नियमों व विधि का उल्लंघन किया जाए, तो दुर्घटनाओं के रूप में भयंकर परिणाम भी भोगने पडते हैं और ये दुर्घटनाऐं भी नवरात्रि के नौ दिनों में ही घटित होती हैं।
इसलिए किसी अन्य देवी-देवता की पूजा-आराधना में भले ही आप विधि व नियमों पर अधिक ध्यान न देते हों, लेकिन यदि आप नवरात्रि में दुर्गा पाठ कर रहे हैं, तो पूर्ण सावधानी बरतना व विधि का पूर्णरूपेण पालन करना जरूरी है।
दुर्गा-सप्तशती पाठ शुरू करते समय सर्व प्रथम पवित्र स्थान (नदी किनारे की मिट्टी) की मिट्टी से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं। हमारे द्वारा किया गया दुर्गा पाठ किस मात्रा में और कैसे स्वीकार हुआ, इस बात का पता इन जौ या गेंहू के अंकुरित होकर बडे होने के अनुसार लगाया जाता है। यानी यदि जौ/गेहूं बहुत ही तेजी से अंकुरित होकर बडे हों, तो ये इसी बात का संकेत है कि हमारा दुर्गा पाठ स्वीकार्य है जबकि यदि ये जौ/गेहूं अंकुरित न हों, अथवा बहुत धीमी गति से बढें, तो तो ये इसी बात की और इशारा होता है कि हमसे दुर्गा पाठ में कहीं कोई गलती हो रही है।
फिर उसके ऊपर कलश को पंचोपचार विधि से स्थापित करें।
कलश के ऊपर मूर्ति की भी पंचोपचार विधि से प्रतिष्ठा करें। मूर्ति न हो तो कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके दोनों ओर त्रिशूल बनाकर दुर्गाजी का चित्र, पुस्तक तथा शालीग्राम को विराजित कर विष्णु का पूजन करें।
पूजन सात्विक होना चाहिए क्योंकि सात्विक पूजन का अधिक महत्व है। जबकि कुछ स्थानों पर असात्विक पूजन भी किया जाता है जिसके अन्तर्गत शराब, मांस-मदिरा आदि का प्रयोग किया जाता है।
फिर नवरात्र-व्रत के आरंभ में स्वस्ति वाचक शांति पाठ कर हाथ की अंजुली में जल लेकर दुर्गा पाठ प्रारम्भ करने का संकल्प करें।
फिर सर्वप्रथम भगवान गणपति की पूजा कर मातृका, लोकपाल, नवग्रह एवं वरुण का विधि से पूजन करें।
फिर प्रधानदेवी दुर्गा माँ का षोड़शोपचार पूजन करें।
फिर अपने ईष्टदेव का पूजन करें। पूजन वेद विधि या संप्रदाय निर्दिष्ट विधि से होना चाहिए।
दुर्गा-सप्तशती पाठ विधि
विभन्न भारतीय धर्म-शास्त्रों के अनुसार दुर्गा सप्तशती का पाठ करने की कई विधियां बताई गर्इ हैं, जिनमें से दो सर्वाधिक प्रचलित विधियाें का वर्णन निम्नानुसार है:
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। यानी इस विधि में केवल पाठ किया जाता है, पाठ करने के बाद उसकी समाप्ति पर हवन आदि नहीं किया जाता।
इस विधि में एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ‘देवा उचुः- नमो दैव्ये महादेव्यै’ से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण पाठ की पूर्णता मानी जाती है। जबकि एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है।
पाठ करने की दूसरी विधि अत्यंत सरल मानी गई है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ (प्रथम अध्याय), दूसरे दिन दो पाठ (द्वितीय व तृतीय अध्याय), तीसरे दिन एक पाठ (चतुर्थ अध्याय), चौथे दिन चार पाठ (पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय), पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ (नवम व दशम अध्याय), छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ (द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय) करने पर सप्तशती की एक आवृति होती है। इस विधि में आंठवे दिन हवन तथा नवें दिन पूर्णाहुति किया जाता है।
अगर आप एक ही बार में पूरा पाठ नही कर सकते है, तो आप त्रिकाल संध्या के रूप में भी पाठ को तीन हिस्सों में विभाजित करके कर सकते है।
चूंकि ये विधियां अपने स्तर पर पूर्ण सावधानी के साथ करने पर भी गलतियां हो जाने की सम्भावना रहती है, इसलिए बेहतर यही है कि ये काम आप किसी कुशल ब्राम्हण से करवाऐं।
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श्री भगवती देवी का परम प्रिय पाठ दुर्गा सप्तशती—-
भुवनेश्वरी संहिता के अनुसार जिस प्रकार से ”वेद”अनादि है, उसी प्रकार ”सप्तशती” भी अनादि है। भगवान श्री वेद व्यास जी के द्वारा रचित महापुराणों में ‘’मार्कण्डेय पुराण‘’के जरिए मानव जाती के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। ”दुर्गा सप्तशती” शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है। ठीक उसी प्रकार जैसे- योग का सर्वोत्तम ग्रंथ गीता है,’दुर्गा सप्तशती’ में कुल सात सौ श्लोक हैं जिन्हें तीन भागों में विभाजित किया गया है।
प्रथम चरित्र- महाकाली, मध्यम चरित्र- महालक्ष्मी, उत्तम चरित्र- महा सरस्वती।
दुर्गा सप्तशती में आए सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है। प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष 5 से 13 अध्यायों में उत्तम चरित्र का वर्णन किया गया हैं।
ऊँ ‘एं प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप है। मध्यम चरित्र महालक्ष्मी का बीजाक्षर रूप ‘ह्रीं‘ और अन्तिम उत्तम चरित्र में महासरस्वती का बीजाक्षर रूप ‘क्लीं‘ है। तंत्र साधना में ‘ऐं‘ मंत्र महासरस्वती, ‘ह्रीं‘ महालक्ष्मी, और महाकाली का बीज मन्त्र ‘क्लीं‘ को माना गया हैं।
‘’ऐं ह्रीं क्लीं’’ इन तीनों बीजमन्त्रों को तांत्रिक साधना का आधार माना गया हैं। तंत्र साधाना मुख्य रूप से वेदों से लिया गया है, जैसे- ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र और सामवेद से वैष्णव तंत्र का उदय हुआ है।
नवरात्रि में माँ दुर्गाजी को खुश करने के लिए अनेक प्रकार के अनुष्ठान किये जाते हैं, जिनमें सबसे ज्यादा उत्तम दुर्गा सप्तशती का पाठ विशेष कल्याणकारी माना जाता है। दुर्गा सप्तशती के अनुष्ठान को शक्ति साधना या चण्डि़ पाठ भी कहा जाता है।
दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोक को तांत्रिक कर्म के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता हैं और दूर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक है। माँ जगदम्बा अनेक नामों से भी परम पूज्य हैं। श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट हुई है।
भगवान वेद व्यासजी ने अनेक महापूराणों की रचना की उनमें से ही मार्कण्डेयपुराण से दुर्गा सप्तशती को लिया गया हैं और इसमें 700 श्लोक होने के कारण इसका नाम सप्तशती पड़ा हैं। शास्त्रों में वर्णित हैं कि माँ दुर्गा की पूजा के साथ ही भैरव की पूजा भी की जाती हैं, इसलिए दुर्गासप्तशती के साथ अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी जोड़ दिया जाता है।
भगवान शिव ने दुर्गा सप्तशती को किलीत कर दिया था, क्योंकि इस पाठ से असुर-दानव सिद्धी प्राप्त कर देवताओं का ही नाश करने में लग जाते थे, लेकिन नारद भगवान के कहने पर भगवान शिव ने केवल अच्छे कार्य के लिए दुर्गा सप्तशती को जाग्रत करने और शाप मुक्त करने का तरीका बताया।
दुर्गा सप्तशती को शापमुक्त करने के लिए निम्न मंत्र का सात बार जप करना चाहिए।
ऊँ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरू कुरू स्वाहा
इसके पश्चात निम्न मंत्र का 21 बार जप करना चाहिए।
ऊँ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरू कुरू स्वाहा
और अंत में निम्न मंत्र का 21 बार जप करना चाहिए।
ऊँ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विधे मृतमूत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा
इसके बाद निम्न मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए।
ऊँ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ऊँ ऐं क्षाेंभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं
दुर्गा सप्तशती पाठ अदभुत शक्तियां प्रदान करता है, और यह संपूर्ण दुर्गा सप्तशती स्वर विज्ञान का एक हिस्सा है। दुर्गा सप्तशती के तेरह अध्यायों के पाठ से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।
आईए जानते हैं कि किस पाठ को करने से क्या फल मिलता हैं
प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए।
द्वितीय अध्याय- मुकदमा झगडा आदि में विजय पाने के लिए।
तृतीय अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिये।
चतुर्थ अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिये।
पंचम अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिए।
षष्ठम अध्याय- डर, शक, बाधा ह टाने के लिये।
सप्तम अध्याय- हर कामना पूर्ण करने के लिये।
अष्टम अध्याय- मिलाप व वशीकरण के लिये।
नवम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
एकादश अध्याय- व्यापार व सुख-संपत्ति की प्राप्ति के लिये।
द्वादश अध्याय- मान-सम्मान तथा लाभ प्राप्ति के लिये।
त्रयोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिये।
चूंकि ये विधियां अपने स्तर पर पूर्ण सावधानी के साथ करने पर भी गलतियां हो जाने की सम्भावना रहती है, इसलिए बेहतर यही है कि ये काम आप किसी कुशल ब्राम्हण से करवाऐं।
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माँ जगदम्बा का अति प्रिय, देवी कवच-—
माँ दुर्गा का कवच अदभुत कल्याणकारी है। दुर्गा कवच मार्कंडेय पुराण से ली गई विशेष श्लोकों का एक संग्रह है और दुर्गा सप्तशी का हिस्सा है। नवरात्र के दौरान दुर्गा कवच का जाप देवी दुर्गा के भक्तों द्वारा शुभ माना जाता है।
ॐ नमश्चण्डिकायै।
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्य चिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
॥मार्कण्डेय उवाच॥
मार्कण्डेय जी ने कहा– पितामह! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये।
॥ब्रह्मोवाच॥
अस्ति गुह्यतमं विप्रा सर्वभूतोपकारकम्।
दिव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्वा महामुने॥२॥
ब्रह्मन्! ऐसा साधन तो एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है। महामुने! उसे श्रवण करो।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥
प्रथम नाम शैलपुत्री है, दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी है। तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नामसे प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति को कूष्माण्डा कहते हैं।
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥
पाँचवीं दुर्गा का नाम स्कन्दमाता है। देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं। सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है।
नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥
नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्री है। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥
जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता।
न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न ही॥७॥
युद्ध समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखाई देती। उनके शोक, दु:ख और भय की प्राप्ति नहीं होती।
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥
जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है। देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो।
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥
चामुण्डादेवी प्रेत पर आरूढ़ होती हैं। वाराही भैंसे पर सवारी करती हैं। ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है। वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं।
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥
माहेश्वरी वृषभ पर आरूढ़ होती हैं। कौमारी का मयूर है। भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमल के आसन पर विराजमान हैं,और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं।
श्वेतरूपधारा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥
वृषभ पर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है। ब्राह्मी देवी हंस पर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूिषत हैं।
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढया नानारत्नोपशोभिता:॥१२॥
इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से सम्पन्न हैं। इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं।
दृश्यन्ते रथमारूढा देव्याः क्रोधसमाकुला:।शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। धारयन्त्यायुद्धानीथं देवानां च हिताय वै॥१५॥
ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिए रथ पर बैठी दिखाई देती हैं। ये शङ्ख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मूसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त औ त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथ में धारण करती हैं। दैत्यों के शरीर का नाश करना,भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना यही उनके शस्त्र-धारण का उद्देश्य है।
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥
महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साह वाली देवी तुम महान् भय का नाश करने वाली हो,तुम्हें नमस्कार है
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि। प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्रि आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥
दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खङ्गधारिणी। प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥
तुम्हारी और देखना भी कठिन है। शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली जगदम्बिक मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री इन्द्रशक्ति)मेरी रक्षा करे। अग्निकोण में अग्निशक्ति,दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारिणी मेरी रक्षा करे। पश्चिम दिशा में वारुणी और वायव्यकोण में मृग पर सवारी करने वाली देवी मेरी रक्षा करे।
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी में रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥
उत्तर दिशा में कौमारी और ईशानकोण में शूलधारिणी देवी रक्षा करे। ब्रह्माणि!तुम ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे ।
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहाना।
जाया मे चाग्रतः पातु: विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥
इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करे। जया आगे से और विजया पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे।
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥
वामभाग में अजिता और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करे। उद्योतिनी शिखा की रक्षा करे। उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे।
मालाधारी ललाटे च भ्रुवो रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥
ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे।
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शङ्करी ॥२३॥
ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे।
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥
नासिका में सुगन्धा और ऊपर के ओंठ में चर्चिका देवी रक्षा करे। नीचे के ओंठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती रक्षा करे।
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥
कौमारी दाँतों की और चण्डिका कण्ठप्रदेश की रक्षा करे। चित्रघण्टा गले की घाँटी और महामाया तालु में रहकर रक्षा करे।
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धारी॥२६॥
कामाक्षी ठोढी की और सर्वमङ्गला मेरी वाणी की रक्षा करे। भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड)में रहकर रक्षा करे।
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥
कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी रक्षा करे। दोनों कंधों में खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करे।
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चान्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२८॥
दोनों हाथों में दण्डिनी और उँगलियों में अम्बिका रक्षा करे। शूलेश्वरी नखों की रक्षा करे। कुलेश्वरी कुक्षि पेट)में रहकर रक्षा करे।
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥
महादेवी दोनों स्तनों की और शोकविनाशिनी देवी मन की रक्षा करे। ललिता देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर रक्षा करे।
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा। पूतना कामिका मेढ्रं गुडे महिषवाहिनी॥३०॥
कट्यां भगवतीं रक्षेज्जानूनी विन्ध्यवासिनी। जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥३१॥
नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वरी रक्षा करे। पूतना और कामिका लिङ्ग की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे। भगवती कटि भाग में और विन्ध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करे। सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियों की रक्षा करे।
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्रीरक्षेत्पादाध:स्तलवासिनी॥३२॥
नारसिंही दोनों घुट्ठियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठभाग की रक्षा करे। श्रीदेवी पैरों की उँगलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे।
नखान् दंष्ट्रा कराली च केशांशचैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥
अपनी दाढों के कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशिनी देवी केशों की रक्षा करे। रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करे।
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती। अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु॥३५॥
पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, माँस, हड्डी और मेद की रक्षा करे। आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करे। मूलाधार आदि कमल-कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूड़ामणि देवी स्थित होकर रक्षा करे। नख के तेज की ज्वालामुखी रक्षा करे। जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे।
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥
ब्रह्माणी!आप मेरे वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्मधारिणी देवी मेरे अहंकार,मन और बुद्धि की रक्षा करे।
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥
हाथ में वज्र धारण करने वाली वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायु की रक्षा करे। कल्याण से शोभित होने वाली भगवती कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे।
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥
रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करे तथा सत्त्वगुण,रजोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी करे।
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥
वाराही आयु की रक्षा करे। वैष्णवी धर्म की रक्षा करे तथा चक्रिणी चक्र धारण करने वाली)देवी यश,कीर्ति,लक्ष्मी,धन तथा विद्या की रक्षा करे।
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥
इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें। चण्डिके! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे।
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥
मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी रक्षा करे। राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करे।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥
देवी! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है,अतएव रक्षा से रहित है,वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो;क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥
पदमेकं न गच्छेतु यदिच्छेच्छुभमात्मनः। कवचेनावृतो नित्यं यात्र यत्रैव गच्छति॥४३॥
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सर्वकामिकः। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥
यदि अपने शरीर का भला चाहे तो मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी न जाय कवच का पाठ करके ही यात्रा करे। कवच के द्वारा सब ओर से सुरक्षित मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता है,वहाँ-वहाँ उसे धन-लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह जिस-जिस अभीष्ट वस्तु का चिन्तन करता है, उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। वह पुरुष इस पृथ्वी पर तुलना रहित महान् ऐश्वर्य का भागी होता है।
निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रमेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥
कवच से सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है। युद्ध में उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में पूजनीय होता है।
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्। य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः। जीवेद् वर्षशतं साग्रामपमृत्युविवर्जितः॥४७॥
देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओं के समय श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है,उसे दैवी कला प्राप्त होती है। तथा वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपमृत्यु रहित हो, सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है।
नश्यन्ति टयाधय: सर्वे लूताविस्फोटकादयः। स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले। भूचराः खेचराशचैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबला॥५०॥
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसा:। ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥५१॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भावेद्राज्यं तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥
मकरी, चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। कनेर,भाँग,अफीम,धतूरे आदि का स्थावर विष,साँप और बिच्छू आदि के काटने से चढ़ा हुआ जङ्गम विष तथा अहिफेन और तेल के संयोग आदि से बनने वाला कृत्रिम विष-ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं,उनका कोई असर नहीं होता।
इस पृथ्वी पर मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के मन्त्र-यन्त्र होते हैं, वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेने पर उस मनुष्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं। ये ही नहीं,पृथ्वी पर विचरने वाले ग्राम देवता,आकाशचारी देव विशेष,जल के सम्बन्ध से प्रकट होने वाले गण,उपदेश मात्र से सिद्ध होने वाले निम्नकोटि के देवता,अपने जन्म से साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, माला (कण्ठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्ष में विचरनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ,ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी हृदय में कवच धारण किए रहने पर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान वृद्धि प्राप्ति होती है। यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला और उत्तम है।
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भावेद्राज्यं तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥
यशसा वद्धते सोऽपी कीर्तिमण्डितभूतले। जपेत्सप्तशतीं चणण्डीं कृत्वा तु कवचं पूरा॥५३॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। तावत्तिष्ठति मेदिनयां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥
कवच का पाठ करने वाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश से साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होता है। जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है, उसकी जब तक वन, पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहती है।
देहान्ते परमं स्थानं यात्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ॐ॥ ॥५६॥
देह का अन्त होने पर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से नित्य परमपद को प्राप्त होता है, जो देवतोओं के लिए भी दुर्लभ है। वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याण शिव के साथ आनन्द का भागी होता है।
।। इति देव्या: कवचं सम्पूर्णम् ।।
जानिए माँ भगवती की सरल पूजा विधि और विभिन्न मंत्र स्त्रोत –
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