आइये जाने क्यों बनाते हैं संजा बाई ???
जानिए “संजा बाई” के गीत और आरती–
प्रिय पाठकों/मित्रों, “संजा पर्व” भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से पितृमोक्ष अमावस्या तक पितृपक्ष में कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला पर्व है। यह पर्व मुख्य रूप से मालवा-निमाड़, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र आदि में मनाया जाता है। संजा पर्व में श्राद्ध के सोलह ही दिन कुंवारी कन्याएँ शाम के समय एक स्थान पर एकत्रित होकर गोबर के मांडने मांडती हैं और संजा के गीत गाती हैं व संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं। सोलह ही दिन तक कुंवारी कन्याएँ गोबर के अलग-अलग मांडने मांडती है तथा हर दिन का एक अलग गीत भी होता है।संजा पर्व पर मालवा, निमाड़, राजस्थान व गुजरात के क्षेत्रों में कुंवारी कन्याएं गोबर से दीवार पर .6 दिनों तक विभिन्न कलाकृतियां बनाती हैं तथा उसे फूलों व पत्तियों से श्रृंगारित करती हैं। वर्तमान में संजा का रूप फूल-पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है।
संजा से कला का ज्ञान प्राप्त होता है, जैसे पशु-पक्षियों की आकृति बनाना और उसे दीवारों पर चिपकाना। गोबर से संजा माता को सजाना और किलाकोट, जो संजा के अंतिम दिन में बनाया जाता है, उसमें पत्तियों, फूलों और रंगीन कागज से सजाने पर संजा बहुत सुन्दर लगती है। “संजा” मालवा क्षेत्र में युवा लड़कियों के समूह द्वारा गाये जाने वाले गीत, लोक संगीत एक पारंपरिक मधुर और लुभावना उत्सव है। समृद्धि और खुशी का आह्वान करने हेतु लड़कियां गाय के गोबर से संजा की मूरत बनाती है और उसे पत्ती और फूलों के साथ सजाती है तथा शाम के दौरान संजा की पूजा करती है। 16 दिन के बाद, अपने साथी संजा को विदाई देते हुए यह उत्सव समाप्त होता है। गोबर से आकृती बनाना सोलह दिनों तक चाँद, सुरज, तारे, लड़की, लड़का, सीडी ,बैलगाड़ी आदि बना बना कर उसे रंगबिरंगी पन्नी मोटी फूल पत्ती से सजाते -सजाते यह आयोजन समाप्त होता हैं |
लड़कियां संजा के लोकगीत को गाकर संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं- ‘संजा तू थारा घर जा, थारी माय मारेगी कि कुटेगी, चांद गयो गुजरात…/ संजा माता जीम ले…/ छोटी-सी गाड़ी लुढ़कती जाए, जी में बैठी संजा बाई जाए…’ आदि श्रृंगार रस से भरे लोकगीत जिस भावना और आत्मीयता से लड़कियां गाती हैं, उससे लोकगीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए हैं।
मालवा-निमाड़ की लोक-परंपरा श्राद्ध पक्ष के दिनों में कुंआरी लड़कियां मां पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए पूजन-अर्चन करती हैं, विशेषकर गांवों में संजा ज्यादा मनाई जाती है। संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गांव-देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती हैं और यही यादें उनके व्यवहार में प्रेम, एकता और सामंजस्य का सृजन करती हैं। संजा सीधे-सीधे हमें पर्यावरण व अपने परिवेश से जोड़ती है, तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दें और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जाएं।
किसी ने ठीक ही रचा है-
‘आज शहर में भूली पड़ीगी है म्हारी संजा/ घणी याद आवे है गांव की सजीली संजा/ अब बड़ी हुई गी पण घणी याद आवे गीत संजा/ म्हारी पोरी के भी सिखऊंगी बनानी संजा/ मीठा-मीठा बोल उका व सरस गीत गावेगी संजा’।
लड़कियां संजा के लोकगीत को गाकर संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं-
‘संजा तू थारा घर जा, थारी माय मारेगी कि कुटेगी, चांद गयो गुजरात…/ संजा माता जीम ले…/ छोटी-सी गाड़ी लुढ़कती जाए, जी में बैठी संजा बाई जाए…’ आदि श्रृंगार रस से भरे लोकगीत जिस भावना और आत्मीयता से लड़कियां गाती हैं, उससे लोकगीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए हैं।
अपनी अनूठी व बेमिसाल लोक परंपरा व लोककला के कारण ही मालवा क्षेत्र की देश में एक विशिष्ट पहचान है, यहीं की गौरवमयी संस्कृति की सौम्य, सहज व सुखद अभिव्यक्ति का पर्व है – संजा!
संजा कुंवारी कन्याओं का अनुष्ठानिक व्रत है। राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश व महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में किंचित हेरफेर के साथ वही रूप परिलक्षित होता है, जो मालवा जनपद में विद्यमान है। आश्विन मास की प्रतिपदा से मालवा की कुंवारी कन्याएं इस व्रत का शुभारंभ करती है जो संपूर्ण पितृपक्ष में सोलह दिन तक चलता है। सोलह की संख्या में यूं भी किशोरियों के लिए पूर्णता की द्योतक होती है।
प्रतिदिन गोधूलि बेला में घर के बाहर दहलीज के ऊपर की दीवार पर या लकड़ी के साफ-स्वच्छ पटिए पर गोबर से पृष्ठभूमि लीपकर तैयार की जाती है, यह पृष्ठभूमि विशिष्ट आकार लिए होती है। चौकोर वर्गाकार आकृति के ऊपरी तथा दाएं-बाएं हिस्से में समरूप छोटे वर्ग रेखा के मध्य में बनाए जाते हैं।
सूर्यास्त से पूर्व संजा तैयार कर ली जाती है एवं सूर्यास्त के बाद आरती की तैयारी की जाती है। इन दिनों गोबर, फूल, पत्तियां, पूजन सामग्री प्रसाद इत्यादि के साथ-साथ मंगल गीतों को गाने के लिए सखियां जुटाती मालव बालाओं को सहज ही देखा जा सकता है।
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संजा बाई को छेड़ते हुए लड़कियां गाती हैं-
संजा बाई का लाड़ाजी, लूगड़ो लाया जाड़ाजी
असो कई लाया दारिका, लाता गोट किनारी का।
संजा तू थारा घर जा कि थारी मां
मारेगी कि कूटेगी
चांद गयो गुजरात हरणी का बड़ा-बड़ा दांत,
कि छोरा-छोरी डरपेगा भई डरपेगा।
म्हारा अंगना में मेंदी को झाड़,
दो-दो पत्ती चुनती थी
गाय को खिलाती थी, गाय ने दिया दूध,
दूध की बनाई खीर
खीर खिलाई संजा को, संजा ने दिया भाई,
भाई की हुई सगाई, सगाई से आई भाभी,
भाभी को हुई लड़की, लड़की ने मांडी संजा
संजा सहेली बाजार में खेले, बाजार में रमे
वा किसकी बेटी व खाय-खाजा रोटी वा
पेरे माणक मोती,
ठकराणी चाल चाले, मराठी बोली बोले,
संजा हेड़ो, संजा ना माथे बेड़ो।
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संजा की आरती—
आरती भई आरती करो संजा की आरती ……
दूध म sदोरो दुलीचंद गोरो
दुलीचंद का वाड़ा म s
अइया चु चु बईया चूचू
ऊ जाणी पायाजी
दूध भरी न s ले वा चाल्या
रादूळा लटकाया जी
चलो देराणी चलो जेठानी आपा चाला पाणीजी
पाणी भरत s कावड़ छूटी
अटक बटका चावल चटका
उसमे से निकला लाल बिजौरा
सुन सुन बाबा बात करे
परदेस में परिणाई जी
राजा सरको बाप छोड़्यो
राणी सरकी माय छोड़ी
तीज सरकी बईण छोड़ी
कुँवर कन् ई या भाई जी
अच्छी सी भोजाई जी
अन्नर कन्नर जाओ संजा बाई
सासर
आरती भई आरती करो संजा की आरती
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ऐसे होता हैं संजा का निर्माण—–
गणेश विसर्जन के दूसरे दिन यानी पूनम को मालवा, निमाड़ और राजस्थान की किशोरियों की सखी-सहेली संजा मायके पधारती हैं। ‘संजा’ यानी स्मृतियों और आगत के अद्भुत संगम का पर्व। एक ओर पुरखों की यादें तो दूसरी ओर किशोरियों के मन में विवाह की कामना। योग्य वर की चाहत रखने वाली कुँवारी किशोरियाँ सृजन और विसर्जन के इस पर्व को पितृपक्ष के सोलह दिनों तक बड़े चाव से मनाती हैं।
संजा की सोलह पारंपरिक आकृतियाँ गोबर, फूल, पत्ती और पन्नियों से बनती हैं। संजा के दिनों में ताजे हरे गोबर को ढूँढने में बड़ी कठिनाई होती है, पर जैसे ही गोबर मिल जाता है प्रसन्नचित लड़कियों की खोजी निगाहें ढूँढती हैं, चाँदनी के दूधिया-सफेद, कनेर के पीले, गुलाबी और देसी लाल रंग के गुलाब के फूलों को।
संजा के नाम पर कभी माँगकर, तो कभी चुराकर लाए गए फूलों और गोबर के मिलने पर असली कार्य शुरू होता है। घर की बाहरी दीवार के किसी कोने में पानी छिड़ककर छोटे-से हिस्से को गोबर से लीपा जाता है और इस पर पूनम को पाटलों, बीज को बीजारू, छठ की छाबड़ी, सतमी को सांतियो से लेकर अमावस्या तक के सोलह दिनों में पारंपरिक आकृतियाँ बनाई जाती हैं। अंतिम दिन बनता है- ‘किलाकोट’।
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होते हैं अलग अलग नाम “संजा बाई” के —
गणेश उत्सव के बाद कुँवारी कन्याओं का त्योहार आता है ‘संजा’। यूँ तो यह भारत के कई भागों में मनाया जाता है। लेकिन इसका नाम अलग होता है, जैसे- महाराष्ट्र में गुलाबाई (भूलाबाई), हरियाणा में ‘सांझी धूंधा’, ब्रज में ‘सांझी’, राजस्थान में ‘सांझाफूली’ या ‘संजया’। क्वार कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर अमावस्या तक शाम ढलने के साथ घर के दालान की दीवार के कोने को ताजे गोबर से लीपकर पतली-पतली रेखाओं पर ताजे फूल की रंग-बिरंगी पंखुड़ियाँ चिपका कर संजा तैयार की जाती है।
संजा में बनती हैं विभिन्न आकृतियाँ—
गणेश, चाँद-सूरज, देवी-देवताओं के साथ बिजौरा, कतरयो पान, दूध, दही का वाटका (कटोरी), लाडू घेवर, घुघरो नगाड़ा, पंखा, केले का झाड़, चौपड़ दीवाली झारी, बाण्या की दुकान, बाजूर, किल्लाकोट होता है। मालवा में ‘संजा’ का क्रम पाँच (पंचमी) से आरंभ होता है। पाँच पाचे या पूनम पाटला से। दूसरे दिन इन्हें मिटाकर बिजौर, तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़ और पंचमी को ‘पाँच कुँवारे’ बनाए जाते हैं। लोक कहावत के मुताबिक जन्म से छठे दिन विधाता किस्मत का लेखा लिखते हैं, जिसका प्रतीक है छबड़ी। सातवें दिन सात्या (स्वस्तिक) या आसमान के सितारों में सप्तऋषि, आठवे दिन ‘अठफूल’, नवें दिन ‘वृद्धातिथि’ होने से डोकरा-डोकरी और दसवें दिन वंदनवार बाँधते हैं। ग्यारहवें दिन केले का पेड़ तो बारहवें दिन मोर-मोरनी या जलेबी की जोड़ मँडती है। तेरहवें दिन शुरू होता है किलाकोट, जिसमें 1. दिन बनाई गई आकृतियों के साथ नई आकृतियों का भी समावेश होता है।[2]
संजा को गुलपती, गेंदा, गुलबास के फूलों से सजाया जाता है। संजाबाई के किलाकोट में कौआ बेहद जरूरी है, जिसे सुबह सूरज उगने के पहले संजा से हटा दिया जाता है। इसके पीछे की मान्यता है कि कौआ रात में न हटाने से वह संजा से विवाह के लिए ललक उठता है।
पूजा के पश्चात कच्चा दूध, कंकू तथा कसार छाँटा जाता है। प्रसाद के रूप में ककड़ी-खोपरा बँटता है और शुरू होते हैं संजा के गीत-
‘संजा मांग ऽ हरो हरो गोबर संजा मांग ऽ हरो हरो
गोबर कासे लाऊ बहण हरो हरो गोबर
संजा सहेलडी बजार में हाले वा राजाजी की बेटी।’
होती हैं “मंगलकारी” संजा बाई —
‘संजा’ शब्द संध्या का ही एक लोक रूप है। कुआरी कन्याएँ इसे मंगलदायी देवी के रूप में अपने कौमार्य की सुरक्षा और मन के अनुकूल वर की प्राप्ति की इच्छा से मनाती हैं। सोलह दिन सोलह वर्षों के प्रतीक हैं। परम्परागत रूप से 16 वर्ष की आयु ही कन्या के विवाह के लिए मान्य रही है। इसी कारण कन्याएँ अपनी सखी संजा को सोलहवें दिन ससुराल के लिये विदा करती हैं। चूंकि इसे पितृपक्ष में मनाया जाता है, इसलिये इसमें पितृ देवताओं के स्वागत का भाव भी निहित है। संजा यूं तो मिट्टी की दीवार पर गोबर से लीप कर बनाया जाता है, किन्तु आजकल पक्की दीवारों पर भी काग़ज़ के बने संजा चिपकाकर ही अपनी अभिव्यक्ति की जाती है। कहीं-कहीं पर पक्के मकानों की बाहरी दीवार भी कन्याओं के इस कलाकर्म के लिये केनवास बन जाती है, जिस पर अपनी रुचि और क्षमतानुसार वे संजा मांडती हैं। संजा बहुत ही सरल, सहज और बगैर खर्च के बनने वाली विद्या है। इसमें संजा का कोई निश्चित नियत नाप नहीं होता, फिर भी लगभग तीन फुट वर्गाकार आकार को गोबर से लीप कर उस पर तिथिवार आकारों का अंकन किया जाता है। इस पर गोबर से उंगलियों द्वारा उभरे हुए आकार बनाये जाते हैं, जिनको फूलों, पत्तियों, रंगीन कांच की पन्नियों, कांच के टुकड़ों इत्यादि से सजाया जाता है। परम्परागत मान्यता के अनुसार गुलतेवड़ी के फूल सजावट के लिये उपयुक्त समझे जाते हैं। संजा की आकृति को और ज्यादा सुंदर बनाने के लिये हल्दी, कुकुंम, आटा, जौ, गेहूँ का भी प्रयोग किया जाता है।[.]
संजा सिर्फ एक परंपरा नहीं है। संजा के मांडनों तथा गीतों में महिलाओं के विवाहित जीवन से जुड़े कई जीवन सूत्र छिपे होते हैं, जिन्हें बचपन में ही कुंवारी कन्याओं के जीवन में संजा पर्व के दौरान समझने का मौका मिलता है। हालांकि बदलते समय के साथ इस परंपरा का ह्रास अवश्य हुआ है, लेकिन आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में कुंवारी कन्याएँ बहुत ही उत्साह व उमंग के साथ संजा पर्व मनाती हैं।
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प्रतिपदा से आरंभ होकर अंतिम दिवस तक संजा विभिन्न मोहक आकृतियों को धारण करते हुए अपने पूर्ण निखार से पूरे वर्ष भर सहेज कर दीवार पर रखी जाती है। विवाहित कन्या ससुराल से लौटकर अगले वर्ष अपने हाथों से इसे निकालकर कतिपय अनुष्ठानों के साथ नदी में विसर्जित कर इस व्रत का उद्यापन करती है।
संजा की संपूर्ण कथा को जाने बगैर महज उसकी आकर्षक आकृतियों और मनभावन गीतों पर ही चर्चा करना पर्याप्त नहीं होगा। कन्याओं के इस अनुष्ठानिक पर्व की परंपरा में संजा के ऐतिहासिक व्यक्तित्व और उसकी कारूणिक गाथा का आभास भी गुंफित है।
संजा के ऐतिहासिक मूल्यों का निर्धारण प्रमाणों के अभाव में यथातथ्य खरा नहीं उतरता। सांजी, संजा, संइया और सांझी जैसे भिन्न-भिन्न प्रचलित नाम अपने शुद्ध रूप में संध्या शब्द के द्योतक हैं। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का अनुमान है कि कहीं सांझी का ब्रह्मा की कन्या संध्या से किसी तरह का संबंध तो नहीं है?
कालकापुराण (विक्रम की दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी) के अनुसार एक विपरीत किंवदंती उभरती है कि संध्या व ब्रह्मा के समागम से ही 4. भाव और 69 कलाएं उत्पन्न हुईं।
उदीरितोन्द्रियों घाता विक्षांचक्रे यदाथ्ताम्।
तदैवह्नूनपन्चाराद् भावा जाता शरीरत:।।
विव्योकाद्यास्थता हावाश्चतु: षष्टिकला स्थना:?
कन्दर्पशर विद्याया सन्धायाया अभवान्दिविजा:
किंतु भाव एवं कला की उत्पत्ति मात्र से एवं नाम साम्य के कारण यह अनुमान भ्रामक होगा अत: सांझी का संध्या से किसी तरह का संबंध प्रतीत नहीं होता। संजा कौन थी? इस प्रश्न के उत्तर किशोरावस्था से भिन्न-भिन्न मिलते रहे हैं। कभी यह कि माता पार्वती ने भगवान शिव को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए खेल-खेल में इस व्रत को प्रतिष्ठापित किया था, तो कभी यह कि कुंवारी कन्याओं को सुयोग्य वर प्राप्त हो एवं तदुपरान्त उसका भविष्य मंगलमय व समृद्धिदायक हो इसलिए सांगानेर की आदर्श कन्या संजा की स्मृति में यह व्रत किया जाता है।
संजा के सन्मुख गाए जाने वाले एक गीत से उसके इसी प्रकार के ऐतिहासिक पक्ष पर प्रकाश पड़ता है।
जीरो लो भई जीरो लो
जीरो लइने संजा बई के दो
संजा को पीयर सांगानेर
परण् पधार्या गढ़ अजमेर
राणा जी की चाकरी
कल्याण जी को देस
छोड़ो म्हारी चाकरी
पधारो व्हांका देस।
उक्त पंक्तियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सांझी का मायका सांगानेर नामक स्थान में है और विवाह अजमेर में हुआ है। सांगानेर कल्याण जी का देश है, जहां राणाजी की चाकरी होती है इसलिए विवाह के बाद कल्याण जी इसे अपनी सेवा से मुक्ति प्रदान कर ससुराल जाने का आग्रह करते हैं।
अन्य गीतों में प्रयुक्त प्रवृत्तियां मध्यकालीन सामंती वातावरण की पोषक है। बाल सुलभ चेष्टाओं द्वारा अन्य असंगत अतार्किक बातों को छोड़कर उन गीतों में देखें तो कई अन्य बातें और भी स्पष्ट हो जाती हैं। यथा-संजा का विवाह बचपन में हुआ है और वह सास के सम्मानजनक पद से अनभिज्ञ है अत: सखियों द्वारा खिझाने पर वह जवाब देती है –
ऐसी दुंगा दारी के चमचा की
काम करउंगा धमका से
मैं बैठूंगा गादी पे
उके बैठऊंगा खूंटी पे।
अत: यह भी स्पष्ट होता है कि संजा प्रतिष्ठित परिवार की पुत्री थी, जहां उसका पालन पोषण अत्यंत ऐश्वर्य और वैभव के मध्य हुआ होगा।
संजा तू बड़ा बाप की बेटी
तू खाए खाजा रोटी
तू पेने मानक मोती
पठानी चाल चाले
गुजराती बोली बोले…।
संजा के अंतिम दिन बनाए जाने वाले किलाकोट में राजपूत संस्कृति का पूरा प्रभाव है। मध्यकाल में किलाकोट के भीतर ही पूरा नगर बसा होता था, इसलिए जो किलाकोट बनाए जाते हैं। उनके पूर्ण प्रबंध का संकेत आकृतियों में होता है। किलाकोट में मीरा की गाड़ी बनाना आवश्यक समझा जाता है, इससे जिज्ञासा होती है कि कही संजा व्रत का संबंध मीरा के द्वारका गमन से तो नहीं?
संभवत: सांझी मालवा, ब्रज, राजस्थान आदि में घुमन्तू जातियों के आगमन द्वारा प्रचलित हुई और उसका मूल उद्गम अधिक संभव है अजमेर-सांगानेर से ही हुआ हो। यही लोकधारणाओं पर आधारित उसका ऐतिहासिक पक्ष है। किंतु उसके प्रचलन संबंधी कई प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। प्रथम तो यही कि संजा का पितृपक्ष से क्या संबंध है? संजा का विवाह प्रसंग, इसकी सौभाग्यश्री एवं ससुराल पक्ष का उल्लेख सुंदर जीवन का द्योतक है लेकिन फिर श्राद्धपक्ष में उसे मनाए जाने की परंपरा क्या अर्थ रखती है?
विवाहिताएं अपने विवाह के प्रथम वर्ष के उपरांत इसे क्यों नहीं बनाती? श्री जोगेंद्र सहाय सक्सेना का अनुमान है कि इसका संबंध अनिष्ट से मालूम होता है और वह अनिष्ट संजा के विवाह होने के एक वर्ष के अंदर ही घटित हुआ हो। किंतु संजा के मंगल गीतों की आकर्षक भावाभिव्यंजना, रस स्निग्धता व सौभाग्य यही सिद्ध करते हैं कि संजा अपने समय की आदर्श, संस्कारशील सुकन्या रही होगी। यह स्त्रियों के एक-दूसरे से सुख-दुख को साझा करने की प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा ही है, जिसे कुँवारियाँ संजा बाई की उनकी सासु-ननद से हुई तीखी नोंकझोक के गीतों के माध्यम से एक-दूसरे से साझा करती है। इसे हम ग्रामीण संस्कृति में घुली मधुर संबंधों के प्रेम की मिठास ही कहेंगे, जिसके चलते दीवारों पर उकेरी जाने वाली संजा के प्रति भी युवतियों में सखी सा अपनत्व भाव दिखाई देता है और कुवारियाँ अपनी प्यारी संजा को अपने घर जाने की हिदायत कुछ इस अंदाज में देती है —
– ‘संजा, तू थारा घरे जा, नी तो थारी बाई मारेगा कि कूटेगा कि डेली में डचोकेगा।
’ संजा गीतों में कभी गाड़ी में बैठी संजा बाई के सौंदर्य का चित्रण ‘छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाय, लुढ़कती जाय, जामे बैठी संजा बाई।
घाघरो घमकाती जाय, चूड़लों चमकाती जाय, बाईजी की नथनी झोला खाय, झोला खाय‘ गाकर किया जाता है तो कभी संजा को ‘बड़े बाप की बेटी’ होने का ताना देकर उसके अच्छे पहनावे व लज़ीज खान-पान पर अस अंदाज में कटाक्ष किया जाता है –
‘संजा, तू तो बड़ा बाप री बेटी, तू तो खाये खाजा-रोटी। तू पेरे मनका-मोती। गुजराती बोली बोले, पठानी चाल चाले …. ।‘
संजा एक ऐसा पर्व है, जिसमें भित्ति-चित्रण की विविध आकृतियों के रूप में ग्राम्य सभ्यता के चित्रण के साथ ही संजा के लोकगीतों के माध्यम से लड़कियों को विवाह हेतु गंभीर होने की हिदायत भी दी जाती है। गोबर की संजा मांडने से लेकर संजा का प्रसाद बनाने व आरती करने की सभी जिम्मेदारियाँ लड़कियों की ही होती है। इन छोटे-छोटे कार्यों के बहाने ग्रामीण संस्कृति में लड़कियों को पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति गंभीर होने का व वैवाहिक जीवन में सफलता का फलसफा सिखाया जाता है।
गीतों में मुखरित कल्याण कामना, माता-पिता, सास-श्वसुर, भाई-भावज, ननद, देवर-देवरानी और अंतत: ससुराल में ठाट-बाट से गमन आदि सभी मंगलसूचक हैं। संभव है कि अपने माता-पिता की लाड़ली होने के कारण उसके ससुराल चले जाने के बाद उन्होंने अपनी राज्य सीमा में संजा की स्मृति में कुंवारी कन्याओं का कोई त्योहार आरंभ किया हो, जिसने आगे चलकर अनुष्ठानिक महत्व प्राप्त कर लिया हो।
सांझी का ऐतिहासिक पक्ष ठोस प्रमाणों के अभाव में केवल लोकगीतों पर आधारित मात्र है फिर भी इतना स्पष्ट है कि इसमें बालिकाओं के भावी जीवन के लिए मंगलकामना और समृद्धि का संदेश है। संजा इसलिए सौभाग्य का आदर्श प्रतीक ही नहीं, उनके लिए सजीव व्यक्तित्व सदृश्य है। संजा के गीतों का मूल स्वभाव (बालवृत्तियों से युक्त होकर भी) आदर्श के प्रति श्रद्धापूरित है।
वैसे आजकल संजा का रूप फूल-पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है। शहरों में सीमेंट की इमारतें और दीवारों पर महंगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव, लड़कियों के ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह, टीवी-इंटरनेट का प्रभाव और पढ़ाई की वजह बताने से शहरों में संजा मनाने का चलन खत्म-सा हो गया है लेकिन आज भी गांव-देहातों में पेड़ों की पत्तियां, तरह-तरह के फूल, रंगीन कागज, गोबर आदि की सहज उपलब्धता से यह पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है।
यह कहा जा सकता है कि प्रतिपदा से प्रारंभ होने वाले इस सुमधुर, सौम्य, सुरीले पर्व की गरिमा और उत्कृष्टता आधुनिकता के कांटों से बचकर आज भी अपनी महक, गमक और चमक को यथावत रखे हुए हैं। चाहे शहरी संस्कृति की ‘ कॉन्वेन्टेड’ कन्या के लिए यह सब कुछ ‘ऑड’ हो लेकिन मालवा और हाडौती की संस्कृति में पली-बढ़ी कन्या के लिए यह पर्व और विवाहोपरांत इस पर्व की इंद्रधनुषी स्मृतियां हमेशा ताजगी और मिठास का अहसास कराती है, कराती रहेंगी।
इसका एक कारण संभवतया यह भी हो सकता हैं की बड़े शहरों में गोबर की कमी/उपलब्ध ना होना,गाय/भैंस जैसे पशुओं के लिए स्थान की कमी होना || पढ़ी लिखी आधुनिक कन्या को गोबर की बदबू से परेशानी होना भी एक प्रॉब्लम हो सकती हैं ??? या फिर आधुनिकता के चक्कर में मम्मी को समय ना मिलना , किटी पार्टी-क्लब में बीजी होना या फिर मम्मी को खुद इस ज्ञान का अभाव होना भी नयी पढ़ी को “संजा की जानकारी ना होना हो सकता हैं !!!!???
मेरा विनम्र निवेदन/अपील/प्रार्थना..उन सभी आधुनिक मम्मियों से –आप सभी अपने संस्कार और रिति रिवाजों का ज्ञान अपने बच्चों को जरूर दीजिये अन्यथा इस तरह की परंपराएं धीरे धीरे समाप्त हो जाएँगी ||