येनादिते सीमानं नयति प्रजापतिर्महते सौभगाय!
तेनाहमस्यै सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टि कृणोमी!! (-ऋग्वेद) 

अर्थात जिस प्रकार ब्रह्मा ने देवमाता अदिति का सीमन्तोन्नयन किया था, उसी प्रकार इस गर्भिणी का सीमन्तोन्नयन कर इसकी संतान को मैं दीर्घजीवी करता हूँ।

सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में तृतीय संस्कार है। यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है। इसका शाब्दिक अर्थ है- “सीमन्त” अर्थात ‘केश और उन्नयन’ अर्थात ‘ऊपर उठाना’। संस्कार विधि के समय पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम ‘सीमंतोन्नयन’ पड़ गया।

यह संस्कार कब लें?

जब गर्भ चार से छः मास का हो जाये, तो उस समय गर्भिणी माता को अपने भावी शिशु के लिए सीमन्तोन्नयन संस्कार प्राप्त करना चाहिए। इस संस्कार का उद्देश्य गर्भवती स्त्री को मानसिक बल प्रदान करते हुए सकारात्मक विचारों से पूर्ण रखना था। शिशु के विकास के साथ माता के हृदय में नई-नई इच्छाएँ पैदा होती हैं। शिशु के मानसिक विकास में इन इच्छाओं की पूर्ति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अब वह सब कुछ सुनता और समझता है तथा माता के प्रत्येक सुख-दु:ख का सहभागी होता है। अतः छठे या आठवें मास में इस संस्कार को अवश्य कर लेना चाहिये। पुंसवन संस्कार जहां गर्भाधारण के तीसरे महीने में किये जाने का विधान है वहीं सीमन्तोन्नयन संस्कार चौथे, छठे या आठवें माह में किया जाता है। अधिकतर विद्वान इस संस्कार को आठवें महीने में किये जाने के पक्ष में हैं। आइये जानते हैं सीमन्तोन्नयन संस्कार के बारे में।

समझें सीमन्तोन्नयन संस्कार का महत्व 

पुंसवन संस्कार लेने तक गर्भस्थ शिशु एक मॉस पिण्ड की तरह ही होता हैं। चार मास का होने के बाद गर्भस्थ पिण्ड का शारीरिक विकास तीव्रता से होता हैं, अब उसके हृदय आदि अंग निर्मित होने लगते हैं, और हृदय के प्रकट होने से उसके अन्दर चैतन्य शक्ति का प्रादुर्भाव होने लगता हैं। इसी के साथ माता के शरीर में भी विलक्षण शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होने लगता हैं – वह यह कि माता अब “दौहद” अर्थात दो हृदय वाली हो जाती

हैं – एक शिशु का और दूसरा अपना. हृदय चैतन्य स्थान हैं, इसलिए चेतना के प्रादुर्भाव के साथ गर्भस्थ जीव इन्द्रियों के अर्थ में रूचि करने लगता हैं, फलतः माता के हृदय पर इच्छाएं प्रतिबिंबित होती हैं, जिन्हें पूरा करना गर्भस्थ बालक के शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं। माता को कभी किसी विशेष वास्तु आदि खाने की इच्छा अनायास होने लगती हैं, आदि यह सब गर्भस्थ शिशु के हृदय व चेतना के कारण ही होता हैं।

शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ती तो माता के शरीर के माध्यम से पूर्ण हो जाती हैं, परन्तु गर्भस्थ बालक के मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए, उसकी गर्भ में शिक्षा दीक्षा के लिए सिद्ध गुरु का होना अनिवार्य हैं, जो सीमन्तोन्नयन संस्कार प्रदान कर सकें।

इस संस्कार में शिशु की ग्रहण शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता हैं, तब उसे विभिन्न देवी-देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु, शिव के मंत्रों से चैतन्य किया जाता हैं. इसके साथ ही गर्भस्थ बालक को नवग्रह मंत्रों से भी संस्कारित किया जाता हैं, जिससे कि बालक के आगामी जीवन में ग्रहों की प्रतिकूलता दुर्भाग्य के रूप में बालक को अभिशप्त न करें. इस संस्कार से उसे ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त होती हैं और यदि प्रारब्धवश यदि कोई दुर्योग होता हैं, तो वह टल जाता हैं. इस संस्कार को प्राप्त करने से गर्भ में रहते हुए भी शिशु गुरु प्रदत्त शक्ति एवं आत्म चेतना के कारण कई प्रकार के ज्ञान से आपूरित हो जाता हैं, अपने पूर्व जन्म की विद्याओं को एकत्र कर पुनः इस शरीर में धारण कर लेता हैं. कई बार ऐसे बालक देखे गए हैं, जो आरम्भ से ही गणित, विज्ञानं, संस्कृत आदि में प्रकाण्ड पंडित पाए गए हैं. इसके पीछे गर्भकाल में निर्मित चेतना ही होती हैं, जो शिशु को अपने पूर्व जन्म की विद्याओं को स्मरण करा देती हैं. यह संस्कार अत्यंत सौभाग्य का विषय हैं।

कभी कभी आवश्यकता होने पर पुंसवन और सीमन्तोन्नयन एक साथ भी किये जा सकते थे | आजकल पैसे का अनुपयुक्त प्रदर्शन करके बहुत बड़े स्तर पर किया जाने वाला Baby Shower वास्तव में पुंसवन और सीमन्तोन्नयन संस्कारों का ही आधुनिक रूप है |

किन्तु आज ये संस्कार बहुतायत में तो मनोरंजन तथा पैसे का भद्दा दिखावा मात्र ही बनकर रह गए हैं जबकि यथार्थ में इन संस्कारों का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व था और इनके पीछे ये महान सोच थी कि परिवार, समाज तथा राष्ट्र को सुसंस्कृत और सभ्य नई पीढ़ी उपलब्ध हो सके और इसीलिए ज्योतिषाचार्य के द्वारा ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर शुभ मुहूर्त का चयन करके उस मुहूर्त विशेष में इन संस्कारों को सम्पन्न किया जाता था |

जानिए सीमन्तोन्नयन संस्कार की विधि–

शास्त्र सम्मत मान्यता है कि गूलर की टहनी से पति पत्नी की मांग निकाले व साथ में ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि का जाप करें। इसके पश्चात पति इस मंत्र का उच्चारण करे-

येनादिते: सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।
तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि।।

इसका अर्थ है कि देवताओं की माता अदिति का सीमंतोन्नयन जिस प्रकार उनके पति प्रजापति ने किया था उसी प्रकार अपनी संतान के जरावस्था के पश्चात तक दीर्घजीवी होने की कामना करते हुए अपनी गर्भिणी पत्नी का सीमंतोन्नयन संस्कार करता हूं। इस विधि को पूरा करने के पश्चात गर्भिणी स्त्री को किसी वृद्धा ब्राह्मणी या फिर परिवार या आस-पड़ोस में किसी बुजूर्ग महिला का आशीर्वाद लेना चाहिये। आशीर्वाद के पश्चात गर्भवती महिला को खिचड़ी में अच्छे से घी मिलाकर खिलाये जाने का विधान भी है। इस बारे में एक उल्लेख भी शास्त्रों में मिलता है।

किं पश्यास्सीत्युक्तवा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं।
भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्।।

इसका अर्थ है कि खिचड़ी खिलाते समय स्त्री से सवाल किया गया कि क्या देखती हो तो वह जवाब देते हुए कहती है कि संतान को देखती हूं इसके पश्चात वह खिचड़ी का सेवन करती है। संस्कार में उपस्थित स्त्रियां भी फिर आशीर्वाद देती हैं कि तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हें सुंदर स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो व तुम सौभाग्यवती बनी रहो।

 

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