नर को नारायण बनाए पुरुषोत्तम/अधिक मास(.8 अगस्त ..12 से 16 सितम्बर 2012 तक)——-
इस वर्ष 18 अगस्त,2012 से ‘ अधिक मास ‘ आरंभ होगा , जो 16 सितम्बर,2012 तक रहेगा। इस अधिक मास को अधिमास , मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं।
भारत में दिनों , महीनों और साल की गणना का कैलेंडर दो तरह से बनता है- चंद्रमा की गति के आधार पर और सूर्य की गति के आधार पर।
ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु विशेषज्ञ पंडित दयानंद शास्त्री(. ) के अनुसार चंदमा की गति के अनुसार की जानेवाली गणना को चंद्रवर्ष और सूर्य की गति के अनुसार की जाने वाली गणना को सौरवर्ष के रूप में देखा जाता है।
अपने देश में समस्त मांगलिक कार्यों और पर्व-त्यौहार में चंद्र गणना पर आधारित कैलेंडर का प्रयोग किया जाता है। इसमें चंद्रमा की सोलह कलाओं के आधार पर एक महीने में दो पक्ष (शुक्ल एवं कृष्ण) होते हैं। कृष्ण पक्ष प्रतिपदा (पहले दिन) से पूणिर्मा तक प्रत्येक चंद्रमास में साढ़े 29 दिन होते हैं। इस प्रकार एक वर्ष .54 दिनों का होता है , जबकि पृथ्वी द्वारा सूर्य के परिभ्रमण में 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट एवं लगभग 46 सेकेंड लगते हैं। अत: प्रत्येक वर्ष 11 दिन 3घड़ी और लगभग 48 पल का अंतर पड़ जाता है और यह अंतर तीन वर्षों में बढ़ते-बढ़ते लगभग एक मास का हो जाता है। कालगणना के इसी अंतर को पाटने के लिए तीसरे वर्ष (लगभग 30 माह पश्चात) एक अधिमास की व्यवस्था है , जो बहुत ही वैज्ञानिक है। यही तेरहवां मास हो जाता है , क्योंकि चंद्रमा की कला का बढ़ना-घटना तो यथावत जारी ही रहता है। इसके बाद भी कालगणना में जो थोड़ा-बहुत सूक्ष्म अंतर रह जाता है , वह क्षय मास से पूरा हो जाता है।
धर्मग्रंथों के अनुसार इस मास में प्रात:काल सूर्योदय पूर्व उठकर शौच, स्नान, संध्या आदि अपने-अपने अधिकार के अनुसार नित्यकर्म करके भगवान का स्मरण करना चाहिए और पुरुषोत्तम मास के नियम ग्रहण करने चाहिए। पुरुषोत्तम मास में श्रीमद्भागवत का पाठ करना महान पुण्यदायक है। इस मास में तीर्थों, घरों व मंदिरों में जगह-जगह भगवान की कथा होनी चाहिए। भगवान का विशेष रूप से पूजन होना चाहिए और भगवान की कृपा से देश तथा विश्व का मंगल हो एवं गो-ब्राह्मण तथा धर्म की रक्षा हो, इसके लिए व्रत-निमयादि का आचरण करते हुए दान, पुण्य और भगवान का पूजन करना चाहिए।
पुरुषोत्तम मास के संबंध में धर्मग्रंथों में वर्णित है –
येनाहमर्चितो भक्त्या मासेस्मिन् पुरुषोत्तमे।
धनपुत्रसुखं भुकत्वा पश्चाद् गोलोकवासभाक्।।
अर्थात- पुरुषोत्तम मास में नियम से रहकर भगवान की विधिपूर्वक पूजा करने से भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और भक्तिपूर्वक उन भगवान की पूजा करने वाला यहां सब प्रकार के सुख भोगकर मृत्यु के बाद भगवान के दिव्य गोलोक में निवास करता है।
जब एक मास में दो संक्रान्ति हो तो क्षयमास कहलाता है। इस प्रकार चन्द्रवर्ष सौरवर्ष के लगभग समान हो जाता है। जिस महीने में सूर्य संक्रांति न हो , वह महीना अधिकमास ( मलमास) होता है एवं जिसमें दो संक्रांति हों , वह क्षयमास होता है। चन्दमास का संबंध चंद्रमा से है। अमावस्या के बाद चंदमा जब मेष राशि और अश्विनी नक्षत्र में उदित होकर प्रतिदिन एक-एक कला बढ़ता हुआ 15 वें दिन चित्रा नक्षत्र में पूर्णता को प्राप्त करता है , तब वह महीना ‘ चित्रा ‘ नक्षत्र के कारण चैत्र कहलाता है। जिस पक्ष में चंद्रमा क्रमश: बढ़ता हुआ शुक्लता ( प्रकाश) को प्राप्त करता है , वह शुक्ल पक्ष और जिसमें घटता हुआ कृष्णता ( अंधकार) की ओर बढ़ता है , वह कृष्ण पक्ष कहा जाता है। मास का नाम उस नक्षत्र के अनुसार होता है , जो महीने भर सायंकाल से प्रात:काल तक दिखाई पड़े और जिसमें चंद्रमा पूर्णता प्राप्त करे। चित्रा , विशाखा , ज्येष्ठा , आषाढ़ , श्रवण , भादपद , अश्विनी , कृत्तिका , मृगशिरा ,पुष्य , मघा एवं फाल्गुनी नक्षत्रों के अनुसार ही चंद्रमासों के नाम क्रमश: चैत्र , बैसाख , ज्येष्ठ , आषाढ़ , श्रावण ,भादपद , आश्विन , कार्तिक , मार्गशीर्ष , पौष , माघ एवं फाल्गुन होते हैं।
जिस महीने अधिमास आता है , उसमें 4 पक्ष होते हैं। प्रथम और चतुर्थ पक्ष शुद्ध एवं द्वितीय और तृतीय पक्ष अधिकमास कहलाते हैं। इस वर्ष श्रावण अधिक मास है। इसमें प्रथम श्रावण का कृष्ण पक्ष शुद्ध एवं शुक्ल पक्ष अधिकमास है। द्वितीय श्रावण का कृष्ण पक्ष अधिक मास तथा शुक्ल पक्ष शुद्ध है। सभी धार्मिक एवं मांगलिक कार्य एवंपर्व-उत्सव शुद्ध पक्षों में ही किए जाते हैं , अधिक मास इन कार्यों के लिए वर्जित माना गया है। अत: इस वर्षश्रावण मास के कृष्णपक्ष के सभी पर्व- उत्सव प्रथम श्रावण के कृष्णपक्ष में मनाए जाएंगे। शुक्लपक्ष के पर्व-उत्सवद्वितीय श्रावण के शुक्लपक्ष में आयोजित किए जाएंगे। प्रथम श्रावण के शुक्लपक्ष एवं द्वितीय श्रावण के कृष्ण पक्ष को मिलाकर पुरुषोत्तम मास माना जाएगा।
श्रावण कृष्णपक्ष के व्रत-पर्व , जैसे- अशून्यशयन व्रत , गणेश चतुर्थी , कामदा एकादशी , मास शिवरात्रि एवं हरियाली अमावस्या आदि पर्व प्रथम श्रावण के कृष्ण पक्ष (शुद्ध) में मनाए जाएंगे। श्रावण शुक्ल पक्ष के पर्व , जैसे-हरियाली तीज , नागपंचमी , तुलसी जयन्ती , पुत्रदा एकादशी , श्रावणी पूर्णिमा , रक्षाबंधन एवं श्रावणी कर्म (यज्ञोपवीत पूजन) आदि द्वितीय श्रावण के शुक्लपक्ष में मनाए जाएंगे।
भारतीय काल-गणना की पद्धति सर्वाधिक सूक्ष्म होने के साथ प्रकृति से पूर्ण सामंजस्य रखती है। सब ऋतुओं के पूरे एक चक्र को संवत्सर कहते हैं। यह संवत्सर सूर्य के परिभ्रमण से निर्मित होने वाली ऋतुओं से बनता है। इसीलिए ऋग्वेद में सूर्य को ऋतुओं का कारक बताया गया है। सूर्य जब किसी राशि में प्रवेश करता है, तो उसे सूर्य की संक्रान्ति कहा जाता है। तिथियों की उत्पत्ति चंद्रमा की कलाओं से होने के कारण शुक्लपक्ष-कृष्णपक्ष एवं चैत्र-वैशाख आदि चंद्र मास का सृजन होता है। सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार जिस चन्द्रमासके दोनों पक्षों में सूर्य की संक्रान्ति का अभाव हो, उसे अधिक मास कहते हैं तथा यदि मास में दो सौर-संक्रान्तियों का समावेश हो जाए तो वह क्षय मास कहलाता है।
ब्रह्मसिद्धांत की भी यही मान्यता है।
अधिक मास और क्षय मास को मल मास भी कहा जाता है। मल मास का लक्षण क्या होता है तथा इसका ज्ञान कैसे होता है और इस मास में क्या करना चाहिए एवं किन-किन वस्तुओं का त्याग होता है। इसे अनेक ग्रन्थों के वाक्यों से बताते हैं।
सिद्धान्तशिरोमणि नामक ग्रन्थ में श्री भास्कराचार्यजी ने कहा है कि जिस चान्द्र मास में सूर्य की संक्रान्ति नही होती है उस मास की अधिक मास संज्ञा हो जाती है। इसलिए संक्रमण रहित मास अधिक या मल या पुरूषोत्तम होता है।
जिस मास में अर्थात् चान्द्र मास में दो संक्रान्ति सूर्य की होने से एक मास की हानि उपस्थित होती है। इसलिए 2 संक्रान्ति वाले चान्द्रमास को क्षय मास कहते हैं।
यह क्षय मास प्राय: अभी कार्तिकादि तीन मास में होता है। कार्तिक, अगहन, पौष ही क्षय हो सकता है। किन्तु किसी किसी के पक्ष में कार्तिक आदि येषां ते. अर्थात कार्तिक है आदि में जिसके अगहन, पौष, माघ इन्ही में क्षय की संभावना होती है, ऎसा कथन है तथा जिस वष्ाü में क्षय मास होता है उस वष्ाü में अधिक मास 1 तीन मास के पूर्व तथा 1 अनन्तर होता है। यहां किसी के मत में प्रथम अधिक मास तीस दिन का और अन्य पक्ष में साठ दिन का मानते हैं।
प्रत्यक्ष देव सूर्यनारायण के राशि-संक्रमण से युक्त शुद्ध मास को ही वेदशास्त्रविहितनित्य, नैमित्तिक, काम्य, प्रायश्चित आदि सभी कर्मो को करने के लिए शुद्ध माना जाता है। जबकि मलमास(अधिक अथवा क्षय मास) में वेद-शास्त्रविहित नैमित्तिक एवं काम्य कर्म नहीं करने चाहिए। सामान्यत:32महीने, 16दिन और 4घंटों के बीत जाने पर भारतीय पंचांगों में अधिक मास का समावेश किया जाता है। गणितानुसारसौरवर्ष 365दिन, 6घंटे व 11सेकण्ड का होता है। जबकि चंद्र वर्ष लगभग 354दिन, 22पल एवं 30विपल(9 घंटे) का होता है। इन दोनों का अन्तर अधिक मास में पूरा कर लिया जाता है। लोक-व्यवहार में अधिक मास को अधिमास, मलमासया पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। अधिक मास (मलमास) में फल-प्राप्ति की कामना से किए जाने वाले समस्त नैमित्तिक कर्म वर्जित कहे गए हैं। इसमें विवाह, मुण्डन, यज्ञोपवीत, गृह-प्रवेश, गृहारम्भ,नए व्यापार का शुभारंभ, बहुमूल्य वस्तु, भूमि, आभूषण, वाहन आदि की खरीद करना, नववधुका प्रवेश, दीक्षा-ग्रहण, देव-प्रतिष्ठा, सकाम यज्ञादि का अनुष्ठान, अष्टकाश्राद्ध आदि काम्य (संसारिक) कर्मो का निषेध किया गया है। अधिक मास में केवल भगवान पुरुषोत्तम (श्रीहरि) की प्रसन्नता के लिए व्रत, उपवास, स्नान, दान या पूजनादिकिए जाते हैं। इससे प्राणी में पवित्रता का संचार होने से पापों का क्षय होता है।
भगवान पुरुषोत्तम ने इस मास को अपना नाम देकर कहा है कि अब मैं इस मास का स्वामी हो गया हूं और इसके नाम से सारा जगत पवित्र होगा तथा मेरी सादृश्यता को प्राप्त करके यह मास अन्य सब मासों का अधिपति होगा। यह जगतपूज्य और जगत का वंदनीय होगा और यह पूजा करने वाले सब लोगों के दारिद्रय का नाश करने वाला होगा।
अहमेवास्य संजात: स्वामी च मधुसूदन:। एतन्नान्मा जगत्सर्वं पवित्रं च भविष्यति।।
मत्सादृश्यमुपागम्य मासानामधिपो भवेत्। जगत्पूज्यो जगद्वन्द्यो मासोयं तु भविष्यति।।
पूजकानां सर्वेषां दु:खदारिद्रयखण्डन:।।
अधिक मास में पुरुषोत्तम-माहात्म्य का पाठ, पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की उपासना, जप, व्रत, दानादिकृत्य करना चाहिए। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार पुरुषोत्तम मास में गेहूं, चावल, मूंग, जौ, मटर, तिल, ककडी, बथुआ, कटहल, केला, घी, आम, जीरा, सोंठ, सुपारी, इमली, आंवला, सेंधा नमक आदि का सेवन करना चाहिए। परंतु ध्यान रहे कि पुरुषोत्तम मास में उडद, राई, प्याज, लहसुन, गाजर, मूली, गोभी, दाल, शहद, तिल का तेल, दूषित अन्न व तामसिक भोजन का त्याग करना ही उचित है। केवल एक समय भोजन तथा यथासम्भव भूमि पर शयन करना चाहिए। पुरुषोत्तम मास में शास्त्रीय नियमों का पालन करते हुए जो इसमें श्रद्धा-भक्ति के साथ व्रत, उपवास, पूजा आदि शुभ कर्म करता है, वह अपने कुल के साथ गोलोकमें पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करता है। इस प्रकार मलमास के रूप में निंदित इस मास को श्रीहरिने अपना पुरुषोत्तम नाम देकर जगत के लिए पूजनीय बना दिया। पुरुषोत्तम मास में नियम-संयम के साथ भगवान की भक्ति-भाव से सविधि अर्चना करने से वे अतिशीघ्र प्रसन्न होते हैं। पुरुषोत्तम मास का आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत महत्व है। इसमें धर्माचरणकरते हुए निष्काम भाव से भगवान की पूजा-सेवा, कथा-श्रवण, संत-सत्संग, दीप-दान आदि पवित्र कर्म करने से जीव भगवत्कृपाका पात्र बन जाता है।
इस मास में निम्न मंत्र का प्रतिदिन जप करना उचित रहेगा—
गोवर्धनधरम् वन्दे गोपालम्गोपरूपिणम्।
गोकुलोत्सवमीशानम्गोविंदम्गोपिकाप्रियम्॥
मंत्र जपते समय भगवती श्रीराधिकासहित द्विभुजमुरलीधर पीतवस्त्रधारीपुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का ध्यान करना चाहिए। पुरुषोत्तम मास में तुलसीपत्रसे शालिग्रामकी पूजा तथा श्रीमद्भभागवतमहापुराणका पाठ करने से अनंत पुण्य प्राप्त होता है। अवंतिका(उज्जयिनी) में श्रद्धालु पुराणोक्तसप्त सागरों में स्नान करके दान-पुण्य करते हैं। पुरुषोत्तम मास का सदुपयोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए करें। इससे नर नारायण बन सकता है।
——-पुरुषोत्तम मास बड़ा ही पावन व दिव्य मास है। इसे ‘अधिमास’ और ‘मलमास’ भी कहते हैं। मलमास की दृष्टि से शुभ कर्मों के वर्जित होने के कारण यह मास निंदित है। परंतु पुरुषोत्तमेति मासस्य नामाप्यस्ति सहेतुकम्। तस्य स्वामी कृपासिन्धुः पुरुषोत्तम उच्यते॥ अहमेवास्य संजातः स्वामी च मधुसूदनः। एतन्नाम्ना जगत्सर्वं पवित्रं च भविष्यति॥ मत्सादृश्यमुपागम्य मासानामधिपो भवेत्। जगत्पूज्यो जगद्वन्द्यो मासोऽयं तु भविष्यति॥ पूजकानां च सर्वेषां दुःखदारिद्र्यखण्डनः॥ भगवान् पुरुषोत्तम इसको अपना नाम देकर इसके स्वामी बन गए हैं। अतः इसकी महिमा बहुत बढ़ गई है। इस पुरुषोत्तम मास में साधना करने से कोई व्यक्ति पापमुक्त होकर भगवान को प्राप्त हो सकता है। यह मास अन्य सभी मासों का अधिपति है। यह जगत्पूज्य और जगद्वन्द्य है तथा इसमें पूजा करने पर यह लोगों के दुःख दारिद्र्य और पाप का नाश करता है। पुराणों की उक्तियां हैं- येनाहमर्चितो भक्त्या मासेऽस्मिन् पुरुषोत्तमे। धनपुत्रसुखं लब्ध्वा पश्चाद् गोलोकवासभाक्॥ अर्थात इस मास में पुरुषोत्तम भगवान की निष्ठा एवं विधिपूर्वक पूजा करने से भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और साधक इस लोक में सब प्रकार के धन-पुत्रादि के सुखों का भोग कर मृत्यु के बाद वैकुंठ जाता है। अतः सभी घरों में, मंदिरों में, तीर्थों में और पवित्र स्थलों में इस मास भगवान की विशेष रूप से महापूजा होनी चाहिए। साथ ही धर्म की रक्षा के लिए व्रत-नियमों का आचरण करते हुए दान, पुण्य, पूजन, कथा, कीर्तन और जागरण करना चाहिए। इससे गौ, ब्राह्मण, साधु-संत, धर्म, देश और विश्व का मंगल होगा। क्योंकि कहा गया है- मंगलं मंगलार्चनं सर्वमंगलमंगलम्। परमानन्दराज्यं च सत्यमक्षरमव्ययम्॥ जो मंगलरूप हैं, जिनका पूजन मंगलमय है, जो सभी मंगलों का मंगल करने वाले हैं तथा जो परमानंद के राजा हैं, ऐसे सत्य, अक्षर और अव्यय पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव का ध्यान करना चाहिए। ‘¬नमो भगवते वासुदेवाय।’ मंत्र का नियमित रूप से जप करना चाहिए। इस मास में श्री विष्णु सहस्रनाम, पुरुष सूक्त, श्री सूक्त, हरिवंश पुराण एवं एकादशी माहात्म्य कथाओं के श्रवण से भी सभी मनोरथ पूरे होते हैं। घट-स्थापन करना चाहिए और घी का अखंड दीप भी रखना चाहिए। श्री शालिग्राम भगवान की मूर्ति स्थापित करके उसकी पूजा स्वयं करनी चाहिए या किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा करानी चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता के 15 वें (पुरुषोत्तम नामक) अध्याय का नित्य प्रेमपूर्वक अर्थ सहित पाठ करना चाहिए। पुरुषोत्तम मास में श्रीमद्भागवत की कथा का पाठ करना-कराना महान पुण्यदायक होता है। यथासंभव सवा लाख तुलसीदल पर चंदन से राम, ¬या कृष्ण नाम लिखकर भगवान शालिग्राम या भगवद्विग्रहमूर्ति पर चढ़ाने चाहिए। इसकी महिमा अपरंपार है। पुरुषोत्तम मास में पुरुषोत्तम माहात्म्य की कथा सुननी चाहिए। नित्य प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर ‘गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरूपिणम्। गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिकाप्रियम्॥’ मंत्र का जप करते हुए पुरुषोत्तम भगवान की विधिपूर्वक षोडशोपचार से पूजा करनी चाहिए। पूजा करते समय और कथा श्रवण-पठन करते समय नीलवसना परम द्युतिमती भगवती श्रीराधाजी के सहित नव-नील-नीरद-श्याम-घन, पीत वस्त्रधारी द्विभुज मुरलीधर पुरुषोत्तम भगवान का ध्यान करते रहना चाहिए। पुरुषोत्तम माहात्म्य में श्री कौण्डिन्य ऋषि कहते हैं।
ध्यायेन्नवघनश्यामं द्विभुजं मुरलीधरम्। लसत्पीतपटं रम्यं सराधं पुरुषोत्तमम्॥
पुरुषोत्तम व्रत करने वाले को क्या भोजन करना चाहिए और क्या नहीं, क्या वर्ज्य है और क्या अवर्ज्य इसके संबंध में श्रीवाल्मीकि ऋषि ने कहा है- पुरुषोत्तम मास में एक समय हविष्यान्न भोजन करना चाहिए। भोजन में गेहूं, चावल, सफेद धान, जौ, मूंग, तिल, बथुआ, मटर, चौलाई, ककड़ी, केला, आंवला, दही, दूध, घी, आम, हर्रे, पीपल, जीरा, सोंठ, सेंधा नमक, इमली, पान-सुपारी, कटहल, शहतूत, सामक, मेथी आदि का सेवन करना चाहिए। केवल सावां या केवल जौ पर रहना अधिक हितकर है। माखन-मिस्री पथ्य है। गुड़ नहीं खाना चाहिए, लेकिन ऊख का या ऊख के रस का सेवन करना चाहिए। मांस, शहद, चावल का मांड़, उड़द, राई, मसूर की दाल, बकरी, भैंस और भेड़ का दूध ये सब त्याज्य कहा हैं। काशीफल (कुम्हड़ा), मूली, प्याज, लहसुन, गाजर, बैगन, नालिका आदि का सेवन वर्जित है। तिलका तेल, दूषित अन्न, बासी अन्न आदि भी ग्रहण न करें। अभक्ष्य और नशे की चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। फलाहार पर रहें और संभव हो तो कृच्छ-चांद्रायण व्रत करें। इस मास ब्रह्मचर्य का पालन और पृथ्वी पर शयन करना करें। थाली में भोजन न करें, बल्कि पलाश के बने पत्तल पर भोजन करें। रजस्वला स्त्री और धर्मभ्रष्ट तथा संस्कार रहित लोगों से दूर रहें। परस्त्री का भूलकर भी स्पर्श नहीं करें।
इस मास वैष्णव की सेवा करनी चाहिए। वैष्णवों को भोजन कराना बहुत पुण्यप्रद होता है। पुरुषोत्तम मास के व्रती को शिव या अन्य देवी-देवता, ब्राह्मण, वेद, गुरु, गौ, साधु-संन्यासी, स्त्री, धर्म और प्राज्ञगणों की निंदा भूलकर भी न तो करनी और न ही सुननी चाहिए। तांबे के पात्र में दूध, चमड़े के पात्र में पानी तथा केवल अपने लिए पकाया हुआ अन्न ये सब दूषित माने गए हैं। अतएव इनका परित्याग करना चाहिए। दिन में सोना नहीं चाहिए। संभव हो, तो मास के अंत में उद्यापन के लिए एक मंडप की व्यवस्था कर योग्य पंडित द्वारा भगवान की षोडशोपचार पूजा कराकर चार-पांच वेदविद् ब्राह्मणों द्वारा चतुर्व्यूह का जप कराना चाहिए। फिर दशांश हवन कराकर नारियल का होम करना चाहिए। गौओं को घास तथा दाना देना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। वैष्णवों को यथाशक्ति वसु-सोना, चांदी आदि एवं गाय, घी, अन्न, वस्त्र, पात्र, जूता, छाता आदि और गीता-भागवत आदि पुस्तकों का दान करना चाहिए। कांसे के बर्तन में तीस पूए रखकर संपुट करके ब्राह्मण-वैष्णव को दान करने वाला अक्षय पुण्य का भागी होता है। पुरुषोत्तम मास में भक्ति पूर्वक अध्यात्म विद्या का श्रवण करने से ब्रह्म हत्यादि जनित पाप नष्ट होते हैं।
पितृगण मोक्ष को प्राप्त होते हैं तथा दिन-प्रतिदिन अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस विद्या निष्काम भाव से श्रवण किया जाए, तो व्यक्ति पापमुक्त हो जाता है। ततश्चाध्यात्मविद्यायाः कुर्वीत श्रवणं सुधीः। सर्वथा वित्तहीनोऽपि मुहूर्तं स्वस्थमानसः॥ आजीविका न हो तो भी बुद्धिमान मनुष्य को दो घड़ी शांत मन से गुरु से अध्यात्म विद्या का श्रवण करना और पुरुषोत्तम तत्व को समझना चाहिए, क्योंकि गीता में कहा गया है- उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्येत्युदाहृतः। यो लोकत्रययाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥ (15/17) ‘क्षर और अक्षर-इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके अपरा-परा प्रकृति और पुरुष सब का धारण-पोषण करता है। वह अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा है।’ गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥ (9/18) वही पुरुषोत्तम सब की एकमात्र गति-मुक्तिस्थान हैं। जो सब के साक्षी, आश्रय, शरण्य तथा सुहृद हैं, वह भगवान सब की उत्पत्ति, लय, आधार और निधानस्वरूप हैं। सब चराचर के बीज-कारण, अविनाशी, माता, धाता, पिता और पितामह हैं और वही पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥ (13/22) वास्तव में वही पुरुषोत्तम देह में स्थित हुए भी परे हैं; साक्षी, उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भर्ता और भोक्ता हैं।
ब्रह्मादिकों के भी स्वामी महान ईश्वर हैं; वही सत्-चित्-आनंदघन, विशुद्ध परमात्मा, पुरुषोत्तम भगवान कहलाते हैं। भगवान पुरुषोत्तम की वाणी है यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥ (15/18) क्योंकि मैं नाशवान जडवर्ग क्षेत्र प्रकृति से सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं। पुरुषोत्तम मास में पुरुषोत्तम को जानने की श्रद्धा रखते हुए जो पयत्नपूर्वक व्रत करना है, वास्तव में वही सच्चा भजन, भाव, भक्ति और मुमुक्षुता है। जो पुरुषोत्तम के अति गोपनीय रहस्य को तत्व से जान गया, वह ज्ञानवान और कृतार्थ हो गया। अतः पुरुषोत्तम तत्व को समझना और उसका भजन करना चाहिए। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान का नाम, जप, कीर्तन, सत्संग, यज्ञ, हवन, दान-पुण्य, दीन-सेवा, तीर्थयात्रा, आर्त-सेवा, गो-रक्षा, कथा-श्रवण, पाठ-पूजा आदि नियमों का आचरण-पालन करना भजन है। इस कालावधि में विवाह, मुंडन, गृहारंभ, नवीन गृहप्रवेश यज्ञोपवीत, काम्य व्रतानुष्ठान, नवीन आभूषण बनवाना, नया वाहन खरीदना आदि वर्जित हैं।
आइये जाने अधिक मास/पुरुषोत्तम मास का विभिन्न ग्रंथों में वर्णन—-
मुहूर्तमात्तüण्ड : —सिद्घान्तकर्ताओं ने एक चान्द्र मास जब ही बताया है जब इसके मध्य सूर्य की संक्रान्ति होती है। सूर्य संक्रांति न हो तो अधिक मास होता है। जिस चान्द्रमास में अर्थात् दो अमावस्याओं के भीतर यदि दो सूर्य संक्रान्ति हो तो क्षयमास होता है।
अन्य मत से—–
अन्य ग्रंथों में लिखा है कि शकुनि आदि चार करण सूर्य का मल कहा गया है इसलिए इनके अनन्तर यदि सूर्य का संक्रमण हो तो अधिक मास होता है। गर्ग मत से लक्षण—–
जब कि सूर्य बिम्बस्थ चन्द्रमा होता है तो उसके बाद यदि सूर्य की संक्रान्ति होती है तो अधिक (मल) मास होने के कारण दान, व्रत, यज्ञादि शुभ कार्य नहीं करना चाहिए।
लल्लमत से अधिक मास की परिभाषा—-
आचार्य लल्ल का कहना है कि जब चन्द्रमा सूर्य मण्डल में प्रवेश करता है और इसके पश्चात सूर्य की संक्रान्ति यदि होती है तो अधिक मास होता है इसमें विवाह यज्ञ, उत्सव आदि नहीं करना चाहिए।
शाङग्र्धर फल ग्रन्थ : —शाङग्र्धर फल ग्रन्थ में कहा है कि अमावस्या व प्रतिपदा की सन्धि में सूर्य व चन्द्र बिम्ब का एकीकरण करके तिथ्यन्त से 6 घटी बाद एवं 6 घटी पूर्व चन्द्रमा सूर्य-मण्डलस्थ होता है। इसके अनन्तर सूर्य संक्रमण होने पर अधिक मास होता है। इससे हीन होने पर अधिक नहीं होता है। पितामह के मत से सूर्यमण्डलस्थ नाç़ड का ज्ञान—-
पितामह जी का कथन है कि अमावस्या या प्रतिपदा की सन्धि में सूर्य बिम्ब व चन्द्र बिम्ब का ऎक्य करके उसमें दोनों की गतियों के अन्तर से भाग देकर लब्धि को 60 से गुणा करने पर अभीष्ट दिन सूर्यमण्डल में चन्द्रमा की घटी होती है।
ज्योति: प्रकाश के मत से—–
ज्योति: प्रकाश के मत में कहा है कि किसी एक पक्ष में दर्शान्त (अमान्त) से दर्शान्त तक चान्द्रमास तथा अन्य पक्ष में सूर्यमण्डलान्त से मण्डलान्त तक चान्द्रमास होता है। यदि दोनों मत से इसके भीतर संक्रमण हो तो चान्द्रमास अर्थात् दर्शान्त या मण्डलान्त में संक्रान्ति हो तो अधिक मास होता है।
श्रीपति : —-आचार्य श्रीपति का कहना है कि जब चन्द्रमा सूर्य मण्डल में रहता है और यदि मण्डल बाहर आने पर सूर्य की संक्रान्ति होती है तो अधिक मास होता है। इसमें यज्ञ, महोत्सवादि का विनाश होता है। ऎसा श्रेष्ठ ऋषियों ने प्रतिपादन किया है।
गर्ग के मत से अधिक में त्याज्य कर्म :—– गर्गाचार्य जी का कहना है कि अग्न्याधान, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रतादि, वेदव्रत, वृषोत्सर्ग, चूडा कर्म, व्रतबन्ध, देवतीथोंüं में स्नान, विवाह, अभिषेक, प्रथम यान आरोहण और घर के काम अर्थात् गृहारम्भादि कार्य अधिक मास में नही करना चाहिए।
सूर्योदय नामक ग्रन्थ में कहा है कि मास में विहित आवश्यक कार्य, मलमास में मरने वाले का वार्षिक श्राद्घ, तीर्थ एवं गजच्छाया श्राद्घ, आधानाङग्ीभूत पितरों की क्रिया करनी चाहिए। यदि मध्य में किसी के मलमास हो तो एक मास का अधिक ही श्राद्घ होगा, अर्थात जिस साया में यह प्राप्त होता है उसकी द्विरावृत्ति होती है। यदि मल में ही किसी की मृत्यु हो तो उससे जो बारहवाँ मास हो उस में प्रेत क्रिया को समाप्त करना चाहिए और आभ्युदयिक तथा श्यामाकाग्रयण कृच्छ्र के साथ करना चाहिए।
काम्य कार्य का आरम्भ, वृषोत्सव, उपाकृति, मेखला, चौल, माङग्ल्य, अग्न्याधान, उद्यापन कर्म, वेदव्रत, महादान, अभिषेक, वर्द्घमानक, इष्ट तथा पूर्त कर्म नहीं करना चाहिए।
स्मृति रत्नावली के आधार पर कर्तव्य—–
स्मृति रत्नावली नामक ग्रन्थ में प्रतिपादित है कि जिस काम्य प्रयोग का आरम्भ मलमास से पूर्व ही हो गया है उसके दिनों की समाçप्त में जो होना चाहिए वह इस अधिक मास में विहित है। अर्थात उसकी समाçप्त अवश्य ही संदेह रहित होकर करनी चाहिए।
फल विवेक के आधार पर निषिद्घ कर्म—–
फल विवेक नामक ग्रन्थ में लिखा है कि जो राजा मोह के वशीभूत होकर यात्रा करता है उसकी सेना के सिपाहियों का कलह के साथ नाश और राजा की पराजय होती है।
गर्ग के मत से : गर्गाचार्य जी का आदेश है कि सोमयज्ञागादि नित्य कर्म, आग्रयण, आधान, चातुर्मास्यादि, महालय, माङग्ल्य और अभिषेक मल मास में नहीं करना चाहिए।
मरीचि जी के वचन से निषिद्घ कार्य—–
ऋषि मरीचि जी का कहना है कि गृह प्रवेश, गोदान, स्थान का आश्रय, महोत्सव मलमास में तथा संसर्प व अंहस्पति मास में नहीं करना चाहिए। वसिष्ठजी के आधार पर निषिद्घ कार्य वसिष्ठजी का कहना है कि वापी व कुआ, तालाब आदि प्रतिष्ठा, यज्ञादि कार्य मलमास में (संसर्प, अंहस्पति क्षय में) नहीं करना चाहिए।
मनुस्मृति के आधार पर कर्तव्य—-
ऋषि पाराशर का कहना है कि अधिक मास में गर्भस्थ की मास संज्ञा, वर्द्घापन कार्य, सेवक की मास संज्ञा, प्रेत कार्य, मासिक कर्म, सपिण्डीकरण और प्रतिदिन करने वाले कार्य का त्याग नहीं करना चाहिए।
कात्यायनि स्मृति के आधार पर—-
कात्यायनि स्मृति में कहा है कि गर्भाधानादि संस्कार से अन्न प्राशन संस्कार के अन्त तक करना तथा कर्णवेधादि क्रिया अधिक मास में कभी नहीं करना चाहिए।
गणपति के आधार पर——
गणपति का कथन है कि गर्भाधानादि संस्कार में, बालक अन्न प्राशन समय में गुरू शुक्र अस्तत्व और मलमास जनित दोष नहीं होता है। क्योंकि इसमें काल की प्रधानता होने से उक्त कार्य मलमास में करना चाहिये।
अब आगे किन-किन मासों में अधिक मास प़डने पर क्या-क्या फल प्राप्त होता है। इसे सूर्यपुराण के वाक्य से बताते हैं।
अधिक मासों में चैत्र वैशाख का फल—-
सूर्य पुराण में कहा है कि यदि चैत्र महीना अधिक हो तो सुभिक्ष, कल्याण, नीरोगता और इच्छित शुभकामनाओं से युत जनता होती है।
जब वैशाख मास अधिक मास होता है तो सुभिक्ष, सुन्दर वष्ााü, ज्चर और अतिसार पेचिस की संभावना होती है।
जेठ व आषाढ का फल :—– जब कि जेठ मास अधिक होता है तो रोग के कष्ट, यज्ञ और अधिक दानादि होते हैं।
जब कि आषाढ़ मास दो होते है तो पुण्य, यश, सुभिक्ष तथा अधिक सुख होता है।
सावन व भादों का फल : —–जिस वर्ष श्रावण मास मल मास होता है तो समस्त कर्मो की समृद्घि और शूद्रों की वृद्घि और भाद्रपद मास अधिक मास होने पर विरोध और क्षत्रियों में युद्घ होता है।
आश्विन, कार्तिक, अगहन व फाल्गुन का फल :—– जब आश्विन मास अधिक मास होता है तो दूसरे के शासन व चोरों से जनता दु:खी, सुभिक्ष, कल्याण, नीरोगता, दक्षिण में दुर्भिक्ष, राजाओं का नाश और ब्राrाणों की वृद्घि होती है।
जब कि दो कार्तिक मास होते हैं तो शुभ, अच्छे अनाज, समस्त जनता प्रसन्न, अनेक यज्ञ और ब्राrाणों की वृद्घि होती है।
जब कि अगहन मास मलमास होता है तो सुभिक्ष, समस्त जनता रोगों से हीन और फाल्गुन मास अधिक होने पर राजा का परिवर्तन, सुभिक्ष और सुख होता है।
जब आगे किस वर्ष में अधिक मास होगा यह जानने के लिए जो विधि मकरन्द ग्रन्थ में वर्णित है उसे बताते हैं।
मकरन्द ग्रन्थ में कहा है कि शक संख्या में 1666 घटाकर उन्नीस का भाग देने पर यदि 3 शेष बचे तो चैत्र, 11 शेष में वैशाख, 10 में जेठ, 8 में आषाढ़, 16 में सावन, 13 व 5 में भाद्रपद और 2 शेष में आश्विन मास होता है। ऎसा श्रेष्ठ ऋषियों का कहना है।
प्रकारान्तर से उक्त विधि ज्ञान—–
अन्य का कहना है कि शक संख्या में 928 घटाकर अवशिष्ट में 16 का भाग देने पर यदि शेष 9 हो तो चैत्र, 0 में वैशाख, 11 में जेठ, 6 में आषाढ़, 5 में सावन, 13 में भादों, 2 में आश्विन, ये चैत्र से सात मास मल होते है।
किसी के मत में शक संख्या में 3171 जो़डकर 1432 घटाकर 16 का भाग देने पर यदि शेष संख्या अधिमास की हो तो उसे देखकर अधिक मास का आदेश करना चाहिए। यहां ब्रrासिद्घान्त के मत में 16 शेष में आषाढ़ का ग्रहण करना चाहिए।
वैशाख में पाँच मास अधिक 8 या 11 वष्ाü में होेते हैं। इस प्रकार फाल्गुन, चैत्र, आश्विन व कार्तिक मास भी अधिक मास 141 वर्ष या 65 या 19 वर्ष में होते हैं। अगहन व पौष मास प्राय: करके क्षय मास होते हैं तथा कभी-कभी कार्तिक मास भी क्षय मास होता है। जब क्षय अगहन या पौष का होता है तो जेठ मास अधिक होता है। क्षय मास से पूर्व भादों से तीन मास अधिक होता है। कभी-कभी भादों मास भी अधिक होता है। जिस वर्ष कार्तिक का क्षय होता है यहां जेठ शब्द में भादों का ग्रहण करना चाहिए।
क्षयमास : —–क्षयमास किसे कहते हैं और यह कब होता है तथा कितने दिनों बाद होता है एवं इसके होने पर क्या फल होते है और जन्म-मरण में कौन सा ग्रहण करना चाहिए।
भगवान सूर्य संपूर्ण ज्योतिष शास्त्र के अधिपति हैं। सूर्य का मेष आदि 12 राशियों पर जब संक्रमण(संचार) होता है, तब संवत्सर बनता है जो एक वर्ष कहलाता है। जिस मास में सूर्य किसी राशि पर संक्रमण नहीं करता वह मल मास कहलाता है। इस बात की पुष्टि इस श्लोक से होती है-
यस्मिन् मासे न संक्रान्ति: संक्रान्तिद्वयमेव वा।
मलमास: स विज्ञेयो मासे त्रिंशत्तमे भवेत्।।
(ब्रह्मसिद्धांत)
क्या करें अधिक मास में (18 अगस्त 2012 से 16 सितम्बर 2012 तक)—
—–पुरुषोत्तम मास पूरा दोपहर को खाना खाने से पहले भगवत गीता का १५ वां अध्याय पढ़ के फिर ही भोजन करना | घर में से बरकत कभी जायेगी ही नहीं | कोई ऐसा है जो भगवत गीता का १५ वां अध्याय पूरा नहीं भी पढ़ सकता तो १५ वें अध्याय का एक श्लोक ही पढ लें | पर १५ वां अध्याय उतना बड़ा नहीं है,चाहें तो पूरा पढ़ सकते हैं |
—-पुरुषोत्तम मास में अनुष्ठान भी किया जाता है …जप ज्यादा किया जाता है | अधिक मास में जप की अधिक महिमा है | जिसको अनुष्ठान करना हो वे भाई-बहनें पुरुषोत्तम मास का फायदा जरुर उठायें |अनुष्ठान ना कर सकें …….नौकरी धंधे में से समय नहीं मिलता तो जप ज्यादा कर दें | रात को सोने से पहले जप कर लें |