श्रीयंत्र की महिमा और महत्व हमारे देश में अनेक प्रकार के यंत्र प्रचलित हैं, जिनसे हम देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। इनमें श्रीयंत्र सर्वोपरि एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। श्री यंत्र को धनदाता और सर्व सिद्ध दाता कहा गया है। इसकी पूजा से धन की देवी महालक्ष्मी भी प्रसन्न होती हैं। इसके पूजन से जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं। इसकी महिमा अपरंपार है।
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‘श्रीयंत्र’ की खोज एक विस्मयकारी खोज है, जो कि आज के संतप्त मानव को हर प्रकार की शांति प्रदान करने में पूर्ण समर्थ है। ज्यादातर लोग श्रीयंत्र को लक्ष्मी प्राप्ति का ही माध्यम समझते हैं, परन्तु ! श्रीयंत्र केवल धन प्राप्ति का ही नहीं, अपितु यह अपने आप में इतनी शक्ति समेटे हुए है, की यह संसार के सारे सुख देने में पूर्ण समर्थ है !!
श्री विद्या के यंत्र को ‘श्रीयंत्र’ कहते हैं या ‘श्रीचक्र’ कहते हैं। यह अकेला ऐसा यंत्र है, जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। श्री शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा, विभूति से किया जाता है। यह यंत्र श्री विद्या से संबंध रखता है। श्री विद्या का अर्थ साधक को लक्ष्मी़, संपदा, विद्या आदि हर प्रकार की ‘श्री’ देने वाली विद्या को कहा जाता है।
यह परम ब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महात्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है। यह चक्र ही उनका निवास एवं रथ है। यह ऐसा समर्थ यंत्र है कि इसमें समस्त देवों की आराधना-उपासना की जा सकती है। सभी वर्ण संप्रदाय का मान्य एवं आराध्य है। यह यंत्र हर प्रकार से श्री प्रदान करता है जैसा कि दुर्गा सप्तशती में कहा गया है।
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आराधना किए जाने पर आदिशक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग, अपवर्ग देने वाली होती है। उपासना सिद्ध होने पर सभी प्रकार की ‘श्री’ अर्थात चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए इसे ‘श्रीयंत्र’ कहते हैं। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर सुंदरी हैं। इसे शास्त्रों में विद्या, महाविद्या, परम विद्या के नाम से जाना जाता है।
मां से हम बिना डर के कुछ भी मांग सकते हैं। मां के हृदय में संतान के प्रति वात्सल्य होता है, करुणा होती है। वह भूल क्षमा करने वाली होती है। अत: ऋषियों ने उस श्री देवता की, मां को रूप में आराधना की। श्री देवता को मां का रूप कैसे मिला? शतपथ में इस संबंध में एक रूपक है। प्रजापति तप कर रहे थे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनके हृदय से श्री देवता नारी रूप लेकर उनके सामने प्रकट हुए। अर्थात् वैदिक काल से प्रजापति के काल तक आते-आते श्री देवता ने देवी का रूप धारण कर लिया। श्री देवता से श्री देवी का रूप धारण करने वाले इस देवता का आज हम लक्ष्मी रूप में पूजा, साधना व आराधना करते हैं। वैदिक ऋषियों ने भूतधात्री, सर्वसहा, आदि जननी, महालक्ष्मी, करुणामयी, आत्यंतिका प्रेम वाली, दुख-दारिद्रय व दैत्य का नाश करने वाली, जीवन बनाने वाली, जीवन खिलाने वाली, जीवन को आकार देने वाली आदि शक्ति को लक्ष्मी अथवा श्री कहकर उनकी अपार महिमा गाई गई है। लक्ष्मी को केवल मां कहकर पुकारने से हम उनके बालक नहीं बन जाएंगे। बालक बनने के आदर्श श्री सूक्त में चित्रित हैं।
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमैका भवानि, विवादे विषादे प्रवासे प्रमादे।
जले चाल नले पर्वते शत्रुमध्ये, अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि।
गतिस्त्वं…
अर्थात् विवाद में विषाद में प्रमाद में, जल में, अग्नि में, पर्वत पर, शत्रु के बीच में, वन में, शरण में आने पर हे मां! सदा मेरी रक्षा करना, तू ही मेरी एकमात्र गति है। हमारे आसपास लक्ष्मी सदैव ही विद्यमान हैं किंतु हम अपनी भूल, तामझाम, असंयमित जीवनचर्या, रागद्वेष, प्रलोभन आदि दुर्गुणों के कारण उन्हें प्राप्त करने के बावजूद खो देते हैं।
तंत्र-मंत्र, संस्कार, संस्कृति आदि भारत की अमूल्य धरोहर हैं। मंत्र से यदि विषधर भुजंग को वश में किया जा सकता है तो देवता, गंधर्व, यक्ष और अपरा शक्तियों को क्यों नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इसका मुख्य कारण यही है कि हम उस वस्तु के धरातल व रास्ते से अनभिज्ञ हैं।
प्राचीन काल में भी श्री की अनभिज्ञता संबंधी एक दृष्टांत आता है। महर्षि दुर्वासा की एक छोटी सी भूल ने श्री को शापित करने की धृष्टता कर डाली थी जिससे लक्ष्मी अर्थात् श्री कुछ समय के लिए खो गई थीं।सिद्ध और आपके नाम गोत्र से पोषित/शोषित श्री यंत्र (सफटिक/पारद/गोलग प्लेटेड/भोजपत्र /पीतल/चांदी आदि में प्राप्त करने हेतु संपर्क करें–
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श्री यन्त्र का महत्व —
लक्ष्मी प्राप्ति जीवन का एक आवश्यक लक्ष्य है। लक्ष्मी की आठ सिद्धियों आठ दिशाओं में होती हैं। संसार श्री हरि से प्रेम करता है गूढ़ विज्ञान मां और लक्ष्मी जी हरिप्रिया हैं। लक्ष्मी कभी स्थिर नहीं रहतीं। कबीर ने कहा भी है—
कमला थिरु न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की वधू, क्यों न चंचला होय॥
लक्ष्मी बनी रहे इसके लिए हम श्रीयंत्र की साधना व पूजा करते हैं। तंत्र के प्रसिद्ध ग्रंथ यामल में लिखा है चक्र त्रिपुर सुन्दर्या ब्रह्माण्डाकारी भीश्वरि, अर्थात् ईश्वरी त्रिपुर सुंदरी का आधार ब्रह्माडाकार ही उत्पत्ति का विकास चक्र हुआ, जिसका हमारे ऋषियों ने समाज के हित के लिए सरलीकरण किया। सभी दैवीय एवं आसुरी शक्तियां मंत्रों के अधीन कर दीं।
श्री सूक्त मां लक्ष्मी की प्रसन्नता की स्तुति है। लक्ष्मी का एक नाम श्री भी है। श्री अत्यंत प्राचीन है। वैदिक काल में शोभा, सुंदरता, सजावट के अर्थ में श्री शब्द का प्रयोग होता था। श्री एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है। पुरुष के नाम के पूर्व श्री शब्द इसलिए लगाया जाता है कि वह श्री से, लक्ष्मी से संपन्न हो अन्यथा वह श्री विहीन होगा, लक्ष्मी विहीन होगा। यही वैदिक श्री देवता था। उस काल में मूर्ति नहीं होती थी। वह केवल भावात्मक देवता था। धीरे-धीरे इसे मूर्ति का रूप दिया जाने लगा।
कैसे करें श्री यंत्र का निर्माण?
चार कंठ पांच शिव युवती के मेल से नौ रेखाएं बनती हैं, जिसे मूल प्रकृति कहते हैं। इन रेखाओं को एक दूसरे मिलाने पर 43 कोण बनते हैं। चार श्री कंठ, मध्य में चतुर्भुज वाले चार कोण, चौरस यंत्र वाला शक्ति मंत्र, पार्वती, माहेश्वरी, रुद्राणी, सती, उमा। उसके ऊपर प्रथम वलय कुंडलावाकार बनाकर उस पर 9 दल निर्मित करें। उसमें भगवान शंकर की नौ शक्तियां अर्थात् शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कालरात्रि महागौरी और सिद्धिदात्री आदि मूल नौ प्रकृतियां रखें। पुन: द्वितीय वलय कुंडलाकार बनाकर उस पर अष्टदल वाला कोण बनाएं। अनंग कुसुमा, अनंग मेखला, अनंग मंदना, अनंग मानाकुश, अनंग रेखा, अनंग वेगनी, अनंग क्रशा, अनंग भातिनि, आदि की स्थापना कर तीसरा वलय कुंडलाकर बनाकर .6 (षोडशदल) बनाएं। उसमें श्री लक्ष्मी, कमला, पद्मा, पद्मिनी, कमलालया, रमा, वृषाकयी, धान्या, पृथ्वी, यज्ञा, इंदिरा, ऊषा, माया, गिरा, राधा आदि 16 देवियों की स्थापना करें। अब रेखाकृत चार भंर्गुर निर्मित करें। इस प्रकार 43 कोण वाले महालक्ष्मी के आसन वाले श्रीयंत्र का निर्माण होता है।
बिंदु शिवरूप है। देवी का प्रथम आसन 1, 4, 5, 9, 16, 43 दल का कोण बन जाता है। तीनों क और दो ह ये काम शैव भाग हैं। शेष अक्षर ई, ई, ल, स, ल शक्ति के भाग हैं। योनि हृीं शुरू और अंत का हृीं शक्ति वाचक है। अंतिम हृीं शैव का भाग है। शैव काम के चार चक्र दक्षिणवर्ती, शक्ति के पांच चक्र वामवर्ती, कुल नौ चक्र वामवर्ती इस प्रकार शैव शक्ति सहित महालक्ष्मी श्रीयंत्र का निर्माण करें। अब रक्त चंदन के अंगुष्ठ भाग मात्र दो हाथी, जो पुष्य नक्षत्र में निर्मित हों, महालक्ष्मी रूपी श्रीयन्त्र के पास रखकर प्राण प्रतिष्ठा करें। प्राण प्रतिष्ठा का मंत्र निम्नानुसार है’
अस्य लक्ष्मी चक्रस्य श्री भगवान महादेव, ऋषि दुर्वासा
छंद:, आद्याशक्ति त्रिमूत मध्ये, क्लीं कीलक: श्री कामकला प्राण प्राण प्रतिष्ठा जपे विनियोग:।
इस प्रकार श्रीयंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करें—–
श्रीयंत्र से संबंधित कथा एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार लक्ष्मी जी अप्रसन्न होकर बैकुंठ धाम चली गईं। इससे पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होने लगीं। समस्त मानव जाति लक्ष्मी के अभाव में दीनहीन व दुखी होकर इधर-उधर फिरने लगी। तब वशिष्ठ मुनि ने लक्ष्मी को वापस लाने का निश्चय किया और तत्काल बैकुंठ धाम जाकर लक्ष्मी से मिले। लक्ष्मी जी अप्रसन्न थीं और किसी भी स्थिति में पृथ्वी पर आने को तैयार नहीं थीं। तब वशिष्ठ जी वहीं बैठकर आदि अनादि और अनंत भगवान श्री विष्णु जी की आराधना करने लगे। तब श्री विष्णु जी प्रसन्न होकर प्रकट हुए तब विशिष्ठ जी ने उनसे कहा, प्रभु, श्री लक्ष्मी के अभाव में हम सब पृथ्वीवासी पीडि़त हैं। आश्रम उजड़ गए, वणिक वर्ग दुखी है, सारे व्यवसाय तहस-नहस हो गए हैं। सबके मुख मुरझा गए हैं। आशा निराशा में बदल गई तथा जीवन के प्रति मोह समाप्त हो गया है। तब श्री विष्णु जी वशिष्ठ जी को लेकर लक्ष्मी जी के पास गए और उन्हें मनाने लगे, परंतु वे भी लक्ष्मी जी को मनाने में सफल नहीं हो सके। रूठी लक्ष्मी ने दृढ़तापूर्वक कहा कि मैं किसी भी स्थिति में पृथ्वी पर जाने को तैयार नहीं हूं। उदास मन के साथ वशिष्ठ जी पुन: पृथ्वी लोक में लौट आए और अपने प्रयास व लक्ष्मी जी के निर्णय से सबको अवगत करा दिया।
सभी अत्यंत दुखी हुए। कुछ सोचकर देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा कि अब तो मात्र एक ही उपाय है और वह है श्रीयंत्र की साधना। यदि श्रीयंत्र को स्थापित कर, प्राण-प्रतिष्ठा करके पूजा की जाए तो लक्ष्मी जी को अवश्य ही आना पड़ेगा। गुरु बृहस्पति की बात से ऋषि व महॢषयों में आशा का संचार हुआ। उन्होंने बृहस्पति जी के निर्देशन में श्रीयंत्र का निर्माण किया और उसकी सिद्धि एवं प्राण-प्रतिष्ठा कर दीपावली से दो दिन पूर्व अर्थात् धनतेरस को स्थापित कर उसका षोडशोपचार से पूजन किया। पूजा समाप्त होते-होते ही लक्ष्मी जी वहां उपस्थित हो गईं। लक्ष्मी ने कहा कि मैं किसी भी स्थिति में यहां आने को तैयार नहीं थी, परन्तु आपने जो प्रयोग किया, उसके प्रभाव से मुझे आना ही पड़ा। श्रीयंत्र तो मेरा आधार है, इसमें मेरी आत्मा वास करती है। दरअसल, यह सही भी है, इसीलिए श्रीयंत्र को सभी यंत्रों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। श्रीयंत्र से संबंधित पूजा स्थल यद्यपि यह संपूर्ण विश्व ही भगवती त्रिपुर सुंदरी का निवास है फिर भी स्थूल दृष्टि से उनके कुछ प्रमुख स्थानों का विवरण यहां प्रस्तुत है।
श्री विंध्यवासिनी क्षेत्र में अष्टभुजा के मंदिर के पास भैरव कुंड नामक स्थान है। यहां एक खंडहर में विशादकार श्रीयंत्र रखा हुआ है। एक अन्य श्रीयंत्र फर्रुखाबाद जनपद के तिरवा नामक स्थान पर है। वहां एक विशाल मंदिर है, जिसे माता अन्नपूर्णा का मंदिर कहा जाता है। लेकिन वास्तव में वह त्रिपुरा का मंदिर है। यहां एक ऊंचे से चबूतरे पर संगमरमर पत्थर पर बहुत बड़ा श्रीयंत्र बना हुआ है और उसके केंद्र बिंदु पर पाशाकुंश एंव धनुर्बाण से युक्त भगवती की बहुत ही सुंदर चतुर्भुजी प्रतिमा है। इस मंदिर का निर्माण राजा तिरवा ने लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व किसी तांत्रिक महात्मा के निर्देशानुसार कराया था। यह स्थान 51 शक्तिपीठों में से एक है। इसी प्रकार महराष्ट्र में मोखी नगर में भगवती का विशाल मंदिर है, जहां बहुत ही सुंदर श्रीयंत्र बना हुआ है। इस मंदिर को कामेश्वराश्रम के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार जबलपुर के पास परम पूज्य गुरुदेव जगद गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वदी ने भी सुरम्य वनाच्छादित प्रदेश में परमहंसी गंगा आश्रम की स्थापना की थी जहां मंदिर की ऊंचाई लगभग .18 फुट हैं और उसके गर्भ गृह में भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुरसुंदरी की पांच फुट ऊंची दिव्य एवं मनोहर प्रतिमा है। यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला की अनुपम कृति है, जो मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के झोटेश्वर नामक स्थान पर है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य सुरम्य स्थलों पर भी भगवती त्रिपुरसुंदरी के पीठ स्थापित हैं, जिनमें वाराणसी मे केदारघाट पर श्रीविद्या मठ, पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कोन्नगर स्थान पर राजराजेश्वरी सेवा मठ, मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में मोहनगढ़ में राजराजेश्वरी मंदिर, कोलकाता के श्रीरामपुर में श्रीमाता कामकामेश्वरी मंदिर और जनपद मेरठ के सम्राट पैलेस स्थान पर भगवती राजराजेश्वरी मंदिर प्रमुख हैं।
हिंदू धर्म में यंत्रों को शुभ माना जाता है। यंत्र कई तरह के होते है, लेकिन सबसें ज्यादा चमत्कारिक और जल्दी असर दिखाने वाला सबसे अच्छा यंत्र श्रीयंत्र माना जाता है। कलियुग में श्रीयंत्र कामधेनु के समान माना जाता है। मान्यता है कि इसकी उपासना सिद्ध होने पर हर तरह की श्री यानि चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। इसलिए इसे श्रीयंत्र कहते हैं। श्री यंत्र की पूजा करनें से सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है। अगर इसकी ठीक ढंग और विधि-विधान सें की जाए तो आपको जल्द ही इसका फल मिलेंगा। वेदों के अनुसार श्री यंत्र में मां लक्ष्मी सहित 33 करोड़ देवी-देवता विराजमान है। जिनका सच्चें मन सें पूजा करनें पर जल्द ही प्रसन्न होगें। सिद्ध और आपके नाम गोत्र से पोषित/शोषित श्री यंत्र (सफटिक/पारद/गोलग प्लेटेड/भोजपत्र /पीतल/चांदी आदि में प्राप्त करने हेतु संपर्क करें–
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वास्तुदोष निवारण में इस यंत्र का कोई सानी नहीं हैं, इसमें ब्रह्मांड की उत्पति और विकास का प्रदर्शन किया गया है।
इस बारें में दुर्गा सप्तशती के एक श्लोक में कहा गया है-
अराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गछा।
इसका मतलब है कि श्री यंत्र की आराधना किए जाने पर आदि शक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग, अपवर्ग देती है। श्रीयंत्र की उत्पति में एक पौराणिक कथा है जो इस प्रकार है। कथा के अनुसार एक बार कैलाश मानसरोवर के पास आदि शंकराचार्य ने कठोर तप करके शिवजी को प्रसन्न किया। जब शिवजी ने वर मांगने को कहा, तो शंकराचार्य ने विश्व कल्याण का उपाय पूछा। शिवजी ने शंकराचार्य को साक्षात लक्ष्मी स्वरूप श्रीयंत्र व श्रीसूक्त के मंत्र दिए। श्रीयंत्र परम ब्रह्मा स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवीभगवती महात्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है, क्योंकि यह चक्र ही उनका निवास और रथ है। उनका सूक्ष्म शरीर व प्रतीक रूप है। श्रीयंत्र के बिना की गई राजराजेश्वरी, कामेश्वरी त्रिपुरसुंदरी की साधना पूरी सफल नहीं होती। त्रिपुरी सुंदरी के अधीन समस्त देवी-देवता इसी श्रीयंत्र में आसीन रहते हैं। त्रिपुर सुंदरी को शास्त्रों में विद्या, महाविद्या, परम विद्या के नाम से जाना जाता है। वामकेश्वर तंत्र में कहा गया है- सर्वदेवमयी विद्या। दुर्गा सप्तशती में भी कहा गया है- विद्यासी सा भगवती परमा हि देवी। जिनका मतलब है कि हे देवि तुम ही परम विद्या हो।
इस महाचक्र का बहुत विचित्र विन्यास है। यंत्र के मध्य में बिंदु है, बाहर भूपुऱ, भुपुर के चारों तरफ चार द्वार और कुल दस प्रकार के अवयय हैं, जो इस प्रकार हैं- बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, वहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल कमल, षोडषदल कमल, तीन वृत्त, तीन भूपुर। इसमें चार उर्ध्व मुख त्रिकोण हैं, जिसे श्री कंठ या शिव त्रिकोण कहते हैं। पांच अधोमुख त्रिकोण होते हैं, जिन्हें शिव युवती या शक्ति त्रिकोण कहते हैं।
नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। इस प्रकार इस यंत्र में 43 त्रिकोण, 28 मर्म स्थान, 24 संधियां बनती हैं। तीन रेखा के मिलन स्थल को मर्म और दो रेखाओं के मिलन स्थल को संधि कहा जाता है।
यंत्रमित्याहुरेतस्मिन देव: प्रीणाति:।
शरीरमिव जीवस्य दीपस्य स्नेहवत प्रिये ॥ ____कुलार्णव तंत्र
यंत्र मन्त्रों का ही चित्रात्मक रूप है और देवी-देवता अपने निर्धारित यंत्रों में स्वयं वस करते हैं । पूजा-स्थल पर यंत्रों को स्थापित करके उनकी पूजा-अर्चना करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है । भुवनेश्वरीक्रम चंडिका में “भगवान शिव देवी पार्वती से कहते हैं, कि हे पार्वती! जिस प्रकार प्राणी के लिए शरीर अवश्यक है, उसी प्रकार देवताओं के लिए यंत्र आवश्यक है ।
यंत्र वास्त्व में सजगता को धारण करने का एक माध्यम माना गया है । यंत्रों की विभिन्न आकृतियाँ होती हैं, जैसे त्रिकोण, अधोमुख, वर्गाकार, पंचकोणाकार आदि । यंत्र पूजन से भक्त अपने इष्टदेव की कृप सहज ही प्राप्त करलेता है ।
वेदों के अनुसार सभी यंत्रों में श्रीयंत्र का स्थान प्रथम है, श्रीयंत्र में ३३ कोटि देवताओं का वास है । कलियुग में श्रीयंत्रको कामधेनु के समान माना गया है । श्रीयंत्र शीघ्र प्रभाव दिखाने वाला यंत्र माना गया है । यह यंत्र सिद्ध होने पर सभी प्रकार की श्री अर्थात चारों पुरुषार्थ की प्राप्ती होती है । श्रीयंत्र में वस्तुदोष निवारण की भी अभूतपूर्व क्षमता है ।
श्रीविद्या की उपासना ही श्रीयंत्र की उपासना है। श्रीविद्या पंचदशाक्षरी बीज मंत्रों से ही श्रीयंत्र बना है। श्रीयंत्र की उपासना का विधान तो बहुत ही लंबा है। श्रीचक्र बाजार से लेकर दर्शन करने से उसका कोई फल नहीं है। जब तक प्राण-प्रतिष्ठा न की गई हो। गुरु परंपरा से न बनाया गया हो। तांत्रिक अनुष्ठान की विधि पूर्ण होना आवश्यक है। यंत्र का वजन सही हो। रेखाएं साफ हों, तभी दर्शन का फल है।
प्राण-प्रतिष्ठित श्रीयंत्र को लें। पंचोपचार से पूजन करने के बाद इस यंत्र को पूर्ण ब्रह्मांड जानें, और अपने शरीर को भी वही जानें, फिर एकाग्रता के साथ शुद्ध घी के दीप की लौ का दर्शन करें और इस श्लोक का नित्य १००० बार उच्चारण करें।
यंत्र प्रत्यक्ष हो, यंत्र के मध्य बने बिंदु को देखते हुए यह कार्य होना चाहिए। यह क्रिया ४५ दिन तक लगातार हो।
भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणामिति स्तोतुं वाञ्छन कथयंति भवानि त्वमिति य:।
तदैव त्वं तस्मै दिशसि निज सायुज्यपदवीं मुकुन्द ब्रह्मेन्द्रस्फुटमकुट नीराजितपदाम॥
यह अनुभूत प्रयोग है..
महान खोजों के क्रम में ऽश्रीयंत्रऽ की खोज भी एक विस्मयकारी खोज है, जो कि आज के संतप्त मानव को हर प्रकार की शांति प्रदान करने में पूर्ण समर्थ है। ब्रह्मांड का प्रतीक श्री विद्या के यंत्र को ऽश्रीयंत्रऽ कहते हैं या ऽश्रीचक्रऽ कहते हैं। यह अकेला ऐसा यंत्र है, जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। श्री शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा, विभूति से किया जाता है। यह यंत्र श्री विद्या से संबंध रखता है। श्री विद्या का अर्थ साधक को लक्ष्मी़, संपदा, विद्या आदि हर प्रकार की ऽश्रीऽ देने वाली विद्या को कहा जाता है।
यह परम ब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महात्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है। यह चक्र ही उनका निवास एवं रथ है। यह ऐसा समर्थ यंत्र है कि इसमें समस्त देवों की आराधना-उपासना की जा सकती है। सभी वर्ण संप्रदाय का मान्य एवं आराध्य है। यह यंत्र हर प्रकार से श्री प्रदान करता है जैसा कि दुर्गा सप्तशती में कहा गया है-
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा
आराधना किए जाने पर आदिशक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग, अपवर्ग देने वाली होती है। उपासना सिद्ध होने पर सभी प्रकार की ऽश्रीऽ अर्थात चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए इसे ऽश्रीयंत्रऽ कहते हैं। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर सुंदरी हैं। इसे शास्त्रों में विद्या, महाविद्या, परम विद्या के नाम से जाना जाता है। वामकेश्वर तंत्र में कहा है-
सर्वदेव मयी विद्या
दुर्गा सप्तशती में- विद्यासि सा भगवती परमाहि देवि।
हे देवी! तुम ही परम विद्या हो। इस महाचक्र का बहुत विचित्र विन्यास है। यंत्र के मध्य में बिंदु है, बाहर भूपुऱ, भुपुर के चारों तरफ चार द्वार और कुल दस प्रकार के अवयय हैं, जो इस प्रकार हैं- बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, वहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल कमल, षोडषदल कमल, तीन वृत्त, तीन भूपुर। इसमें चार उर्ध्व मुख त्रिकोण हैं, जिसे श्री कंठ या शिव त्रिकोण कहते हैं। पांच अधोमुख त्रिकोण होते हैं, जिन्हें शिव युवती या शक्ति त्रिकोण कहते हैं। आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी में कहा-
चतुर्भि: श्रीकंठे: शिवयुवतिभि: पश्चभिरपि
नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। इस प्रकार इस यंत्र में ४३ त्रिकोण, २८ मर्म स्थान, २४ संधियां बनती हैं। तीन रेखा के मिलन स्थल को मर्म और दो रेखाओं के मिलन स्थल को संधि कहा जाता है।
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जानिए श्री यंन्त्र के नवचक्र को —
बिन्दु तथा महाबिन्दु :- मूलकारण महात्रिपुर सुन्दरी कामेश्वर कामेश्वरी सामरस्य जगत की मूल योनि तथा शिवभाग
त्रिकोण – आद्या विमर्शशक्ति या जीव भाव शब्द अर्थरूपी सृष्ति की कारणात्मिका पराशक्ति अहंभाव एवं जीव तत्व
अष्टार – पुर्यष्टक कारण शरीर लिंगशरीर का कारण
अन्तर्दशार- इन्द्रियवासना लिंग शरीर
बहिर्दशार- तन्मात्रा तथा पंचभूत (इन्द्रिय विषय)
चतुर्दशार- जाग्रत स्थूल शरीर
अष्टदल- अष्टारवासना
षोडसदल- दशारद्वय वासना
भूपुर- बिन्दु त्रिकोण अष्टदल षोडसदल इन चारों की समष्टि प्रमातृपुर और प्रमाणपुर का पशुपदीय प्रकृति मन बुद्धि अहंकार और शिवपदीय शुद्ध विद्यादितत्वचतुष्टय का सामरस्य।
ये हैं श्री यन्त्र के नवचक्रों के देवता और नाम के संकेत—
सर्वानन्दमय – महात्रुपुरसुन्दरी
सर्वसिद्धिप्रद – त्रिपुराम्बा
सर्वरोगहर -त्रिपुरसिद्धा
सर्वरक्षाकर- त्रिपुरमालिनी
सर्वार्थसाधक – त्रिपुरश्री
सर्वसौभाग्यदायक – त्रिपुरवासिनी
सर्वसंक्षोभणकारक- त्रिपुर सुन्दरी
सर्वाशापरिपूरक – त्रिपुरेशी
त्रैलोक्यमोहन – त्रिपुरा
यही नवावरण पूजा के नव देवता है,मतान्तर से इन्हे प्रकटा गुप्ता गुप्ततरा परा सम्प्रदाया कुलकौला निगर्भा अतिरहस्या परापरातिरहस्या इत्यादि नाम से भी पुकारते हैं।
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जानिए श्रीयंत्र का शब्दार्थ—
श्रीयंत्र का सरल अर्थ है – श्री का यंत्र अर्थात गृह। नियमनार्थक यम धातु से बना यंत्र शब्द गृह अर्थ को ही प्रकट करता है। क्योंकि गृह में ही सब वस्तुओं का नियंत्रण होता है। श्रीविद्या को ढूंढने के लिये उसके गृह श्रीयंत्र की ही शरण लेनी होगी। आगे श्री अर्था श्रीविद्या के परिचय से ज्ञात होगा कि वह उपास्य और उपेय दोनों है। उपेय वस्तु को उसके अनुकूल स्था ही अन्वेषण करने से सिद्धि होती है,अन्यथा मनुष्य उपहासास्पद बनता है। आदि कवि श्रीवालमीकिनी ने श्रीसीताजी के अन्वेषण में तत्पर श्रीहनुमानजी के द्वारा कहलाया है- “यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते”,अर्थात जिस प्राणी की जो योनि होती है वह उसी में ढूंढा जा सकता है। भगवान शंकराचार्य ने भी यंत्र का उद्धार देते हुये “तव शरणकोणा: परिणत:” इस वाक्य में यंत्र के अर्थ में गृहवाचक शरण पद का प्रयोग किया है। इस न्याय से उत्तरभारत एवं दक्षिण भारत में स्थित श्रीनगर नामक स्थानो की सार्थकता सिद्ध होती है। क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि इन नगरों में श्रीविद्या के उपासक अधिक संख्या में मिलते थे,और अब भी थोडे बहुत पाये जाते है। अस्तु यह विश्व ही श्रीविद्या का गृह है। यहां विश्व शब्द से पिण्डाण्ड एवं ब्रह्मांड दोनो का ग्रहण है। मायाण्ड प्रकृत्यण्ड भी स्थूल सूक्ष्म रूप से इन्ही के अन्तर्गत आ जाता है,यह आगे चलकर ततद्विशेष यंत्रों के विवरण से विशेषतया स्पष्ट हो जायेगा। सिद्ध और आपके नाम गोत्र से पोषित/शोषित श्री यंत्र (सफटिक/पारद/गोलग प्लेटेड/भोजपत्र /पीतल/चांदी आदि में प्राप्त करने हेतु संपर्क करें–
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स्फटिक श्रीयंत्र से जो व्यक्ति त्रिपुरसुन्दरी को प्रसन्न करने के लिए प्रयत्न करता हैं. उसके एक हाथ में विभिन्न प्रकार के भोग होते हैं तथा दुसरे हाथ में मोक्ष होता हैं. कहने का मतलब यह हैं कि त्रिपुरसुन्दरी महालक्ष्मी जी की साधना करने वाला साधक अपने सम्पूर्ण जीवन में विभिन्न प्रकार के भोगों का सेवन करते हुए अंत में मोक्ष को प्राप्त कर लेता हैं. इस प्रकार स्फटिक श्रीयंत्र के द्वारा की जाने वाली मात्र एक ऐसी साधना हैं जिससे साधक को मोक्ष की तथा भोग की प्राप्ति एक साथ होती हैं. स्फटिक से बने हुए श्रीयंत्र से साधक को शीघ्र फल की प्राप्ति होती हैं. इसलिए प्रत्येक साधक इस साधना को करने के लिए प्रयास करता रहता हैं.
जानिए श्रीयंत्र के लाभ और विशेषताएँ –
घर में श्रीयंत्र स्थापित करने से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हमेशा बना रहता हैं तथा इसे रखने से घर से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती हैं.
श्रीयंत्र अच्छी किस्मत, सदभाव, घर की शांति के लिए भी महतवपूर्ण होता हैं.
स्फटिक श्रीयंत्र को स्थापित करने से घर के वास्तुदोषों से भी मुक्ति मिल जाती हैं.
स्फटिक श्रीयंत्र को ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का स्वरूप माना जाता हैं तथा इसे घर में रखने से घर पर हमेशा इनकी कृपा बनी रहती हैं.
प्रतिदिन श्रीयंत्र पर ध्यान केन्द्रित करने से व्यक्ति की मानसिक शक्ति में विकास होता हैं.
उच्च यौगिक दशा में स्फटिक श्री यंत्र सहस्रार चक्र भेदन में सहायक होता हैं.
स्फटिक श्री यंत्र की पूजा रोजाना कार्यस्थल पर करने से व्यवसाय में तथा व्यापार में लाभ होता हैं.
घर में श्री यंत्र को स्थापित कर प्रतिदिन पूजा करने से सम्पूर्ण दाम्पत्य सुख की प्राप्ति होती हैं.
स्फटिक से बने हुए श्री यंत्र की पूजा अगर दीपावली की रात्रि को पूरे विधि – विधान से की जाये तो घर में पूरे वर्ष भर किसी वस्तु की कमी नहीं होती.
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श्रीयंत्र के बारे में कुछ तथ्य जो आप शायद ही जानते हों—
श्रीयंत्र या श्रीचक्र ऐसा पवित्र ज्यामितिय प्रतिरूप है, जिसका उपयोग सहस्राब्दियों तक साधकों और उनके अनुगामियों ने ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने के लिए किया। नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। इस प्रकार इस यंत्र में 43 त्रिकोण, 28 मर्म स्थान, 24 संधियां बनती हैं। तीन रेखा के मिलन स्थल को मर्म और दो रेखाओं के मिलन स्थल को संधि कहा जाता है। अद्वैत वेदान्त के सिद्दान्तों के मुताबिक यह ज्यामितिय पद्धति सृष्टि (जो आप चाहते हैं) या विनाश (जो आप नहीं चाहते) के विज्ञान में महारत हासिल करने की कुंजी है।
श्रीयंत्र की महिमा, वर्चस्व या महत्व को हम एक आलेख के माध्यम से वर्णित नहीं कर सकते। लेकिन इसकी उन विशेषताओं पर प्रकाश जरूर डाल सकते हैं, जिनसे सनातन धर्म को मानने वाले शायद ही परिचित हों।
श्रीयंत्र के अाध्यात्मिक ज्यामितिय प्रतिरूपों को जानने और समझने वाले लोगों की संख्या गिनी-चुनी है। ऐसे लोग या तो किसी योगी से संबद्ध होते हैं या फिर तंत्र के श्री विद्या शिक्षण संस्थान से जुड़े होते हैं। ये लोग आदि शक्ति देवी जगदम्बा के उपासक होते हैं।
यहां हम श्रीयंत्र के कुछ अद्भुत और आश्चर्यजनक तथ्यों से आपको रूबरू कराने जा रहे हैं।
1. श्रीयंत्र न केवल इस ब्रह्मांड का सुक्ष्म रूप है, बल्कि मानव शरीर का भी।
श्रीयंत्र की प्रत्येक परिधि मानव शरीर के एक चक्र को परिलक्षित करता है। और सतत घूमने वाला और विस्तारशील श्रीयंत्र इस ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है।
2. टोनोस्कोप (विभिन्न ध्वनियों के लिए प्रतिमान स्थापित करने का यन्त्र) में अॉम का घोष श्रीयंत्र के सदृश एक ज्यामितिय प्रतिमान का निर्माण करता है।
क्या यह सिर्फ संयोग है? लगता तो नहीं है।
सबसे पहले सायमेटिक्स की दुनिया की अग्रदूत डॉ. हान्स जेनी ने आधुनिक दुनिया में अन्योन्याश्रय संबंध को स्थापित किया था। संतों ने ऑम की पवित्र ध्वनि को उत्त्क्रम अभियांत्रिकी (रिवर्स इंजिनीयरिंग) के माध्यम से ज्यामितिय आकृति में बदल दिया।
माना जाता है कि अंक संख्या 108 ऑम और श्रीयंत्र का सांख्किीय प्रतिनिधि है, जो हमें आम तौर पर उपलब्ध है।
3. यह चक्र पांच नीचे की तरफ जाने वाले त्रिकोणों और चार ऊपर की तरफ जाने वाले त्रिकोणों के आरोपण से निर्मित होता है, जो स्त्री और पुरुष का सम्मिश्रण होता है।
नीचे की तरफ जाने वाले त्रिकोण स्त्री के विशिष्ट तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे कि शक्ति। और ऊपर जाने वाले त्रिकोण पुरुष के विशिष्ट तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे कि शिव।
सभी 9 अन्तःपाशी त्रिकोणों से 43 छोटे त्रिकोणों की रचना होती है, और इनमें से प्रत्येक त्रिकोण एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है।
4. श्रीचक्र के बारे में कहा जाता है कि यह न केवल देवी की असीमित शक्ति का प्रतीक है, बल्कि यह देवी का ज्यामितिय रूप है।
5. यह किसी के प्रज्ञा की रचना, या वेदान्त के केन्द्रीय उपदेशों का प्रतीक भर नहीं है। बल्कि यह माना जाता है कि इस ज्यामितिय स्वरूप का आभास योगियों को समाधि के दौरान होता है।
6. श्रीयंत्र की पूजा-अर्चना तीन प्रकारों- एक 2डी रूप में और दो 3डी रूप में की जाती है।
7. किसी भी योगी के लिए श्रीयंत्र एक धार्मिक यात्रा सरीखा है, जो आधार से शुरू होकर एक के बाद एक पग बढ़ाता हुआ केन्द्र की तरफ बढ़ता है और फिर ब्रह्मांड से मिल जाता है।
यह एक आध्यात्मिक यात्रा है जो साधकों को आत्मज्ञान की तरफ ले जाता है।
8. श्रीयंत्र की यह ज्यामितिय गणना इस कदर जटिल है कि गणितज्ञ इसे देख चकित होते रहते हैं। गणितज्ञ इस बात से आश्चर्यचकित हैं कि आधुनिक गणित का ज्ञान न होने के बावजूद वैदिक काल के लोगों ने कैसे इसकी रचना की होगी।
इस ज्यामितिय आकृति के बारे में सैकड़ों वर्ष पहले वैदिक काल के लोगों को पता था। इसे पी, फी या स्वर्ण अनुमान के रूप में जाना जाता था।
आज की तारीख में कम्प्यूटर से इस तरह की आकृति की रचना आसानी से की जा सकती है। लेकिन अगर किसी को कागज पर लिखकर इसकी रचना करना पड़े तो शायद पूरा जीवन भी कम पड़े। श्रीयंत्र की परिशुद्ध आकृति पर आज के कुछ गणितज्ञ बस इतना ही कहते हैं, वैदिक काल में भारतीय अपनी कल्पनाशीलता का उपयोग बेहतर करते थे। यह उसी का नतीजा है।
9. श्रीयंत्र या श्रीचक्र साधकों को ब्रह्मांडीय चेतना से मिलाने की कोशिश करता है। माना जाता है कि श्रीचक्र एक ऐसा यंत्र है जो खुद में ब्रह्मांडीय ऊर्जा को समेटे हुए है। यह ब्रह्मांड में मौजूद पवित्र ध्वनियों का ज्यामितिय रूप है।
10. बेंगलूरू से 335 किलोमीटर दूर श्रिंगेरी मठ में एक श्रीयंत्र या श्रीचक्र संरक्षित है। यह आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित पहला मठ है।
माना जाता है कि 2डी में मौजूद श्रीयंत्र का पोस्टर सौभाग्य में वृद्धि करता है, व्यवसाय में बढ़ोत्तरी करता है और नकारात्मक ऊर्जा को खत्म करता है।
नोटः टीवी चैनलों पर चल रहे ऐसे विज्ञापनों से सावधान रहें, जो चमत्कारिक श्रीयंत्र बेचने का दावा करते हैं।
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