भारतीय र्धम, संस्कृति एवं साहित्य के उत्कर्ष में गोस्वामी तुलसीदास का अवदान अनुपम है। जीवन में स्वीकृत मूल्यों और मान्यताओं के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा है। तुलसी लोक संस्कृति के कवि हैं। यही उस सन्त की मानवी संस्कृति है। उनके युगबेाधक सन्देह में सम्पूर्ण मानवता की रक्षा का भाव है।
तुलसी वर्तमान संस्कृति के प्रणेता और मानवता के अमर सन्देश प्रदाता हैं। उनकी दृष्टि भक्ति, आचार व्यवहार, सामाजिक मर्यादा, नैतिक मूल्य और लोकहित के लिए उपयोगी तत्वों पर टिकी रही। तुलसी महान लोकनायक और क्रांतिदर्शी कवि थे। सत्य की स्थापना और असत्य का नाश तुलसी के लोकाभिराम की जीवन गाथा है। रामकथा के माध्यम से तुलसी ने हमारे समक्ष मानवता का ऐसा सन्देश प्रस्तुत किया है जिसको अपनाकर हम अपनी संस्कृति की, अपनी वैचारिक विरासत की तथा सम्पूर्ण मानवता की रक्षा कर सकते हैं।
सम्पूर्ण भारतवर्ष में गोस्वामी तुलसीदास के स्मरण में तुलसी जयंती मनाई जाती है. श्रावण मास की सप्तमी के दिन तुलसीदास की जयंती मनाई जाती है. इस वर्ष यह .. अगस्त .016 के दिन गोस्वामी तुलसीदास जयंती मनाई जाएगी. गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति की रामभक्ति धारा को ऐसा प्रवाहित किया कि वह धारा आज भी प्रवाहित हो रही है. गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति के द्वारा न केवल अपना ही जीवन कृतार्थ किया वरन सभी को श्रीराम के आदर्शों से बांधने का प्रयास किया. वाल्मीकि जी की रचना ‘रामायण’ को आधार मानकर गोस्वामी तुलसीदास ने लोक भाषा में राम कथा की रचना की
गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति के द्वारा न केवल अपना ही जीवन कृतार्थ किया वरन् समूची मानव जाति को श्रीराम के आदर्शों से जोड़ दिया। आज समूचे विश्व में श्रीराम का चरित्र उन लोगों के लिए आय बन चुका है जो समाज में मर्यादित जीवन का शंखनाद करना चाहते हैं।
संवद् 1554 को श्रावण शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अवतरित गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति की रामभक्ति धारा को ऐसा प्रवाहित किया कि आज गोस्वामी जी राम भक्ति के पर्याय बन गए। गोस्वामी तुलसीदास की ही देन है जो आज भारत के कोने-कोने में रामलीलाओं का मंचन होता है। कई संत राम कथा के माध्यम से समाज को जागृत करने में सतत् लगे हुए हैं। भगवान वाल्मीकि की अनूठी रचना ‘रामायण’ को आधार मानकर गोस्वामी तुलसीदास ने लोक भाषा में राम कथा की मंदाकिनी इस प्रकार प्रवाहित की कि आज मानव जाति उस ज्ञान मंदाकिनी में गोते लगाकर धन्य हो रही है।
तुलसीदास का मत है कि इंसान का जैसा संग साथ होगा उसका आचरण व्यवहार तथा व्यक्तित्व भी वैसा ही होगा क्योंकि संगत का असर देर सवेर अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष, चेतन व अवचेतन मन एवं जीवन पर अवश्य पड़ता है। इसलिए हमें सोच-समझकर अपने मित्र बनाने चाहिए। सत्संग की महिमा अगोचर नहीं है अर्थात् यह सर्वविदित है कि सत्संग के प्रभाव से कौआ कोयल बन जाता है तथा बगुला हंस। सत्संग का प्रभाव व्यापक है, इसकी महिमा किसी से छिपी नहीं है।
तुलसीदास का कथन है कि सत्संग संतों का संग किए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती और सत्संग तभी मिलता है जब ईश्वर की कृपा होती है। यह तो आनंद व कल्याण का मुख्य हेतु है। साधन तो मात्र पुष्प की भांति है। संसार रूपी वृक्ष में यदि फल हैं तो वह सत्संग है। अन्य सभी साधन पुष्प की भांति निरर्थक हैं। फल से ही उदर पूर्ति संभव है न कि पुष्प से।
उपजहिं एक संग जग माहीं।
जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।
सुधा सुरा सम साधु असाधू।
जनक एक जग जलधि अगाधू।
संत और असंत दोनों ही इस संसार में एक साथ जन्म लेते हैं लेकिन कमल व जोंक की भांति दोनों के गुण भिन्न होते हैं। कमल व जोंक जल में ही उत्पन्न होते हैं लेकिन कमल का दर्शन परम सुखकारी होता है जबकि जोंक देह से चिपक जाए तो रक्त को सोखती है। उसी प्रकार संत इस संसार से उबारने वाले होते हैं और असंत कुमार्ग पर धकेलने वाले। संत जहां अमृत की धारा हैं तो असंत मदिरा की शाला हैं। जबकि दोनों ही संसार रूपी इस समुद्र में उत्पन्न होते हैं।
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पथ परिहरि बारि बिकार।
सृष्टि रचयिता विधाता ने इस जड़ चेतन की समूह रूपी सृष्टि का निर्माण गुण व दोषों से किया है। लेकिन संतरूपी हंस दोष जल का परित्याग कर गुणरूपी दुग्ध का ही पान किया करते हैं।
तुलसीदास जीवन वृत्त—-
गोस्वामी तुलसीदास 1497-162. एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर क़स्बे (वर्तमान चित्रकूट जिला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ विद्वान् आपका जन्म सम्वत- 1568 विक्रमी में सोरों शूकरक्षेत्र में हुआ मानते हैं। अपने जीवनकाल में उन्होंने 12 ग्रंथ लिखे। उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। उनको मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारांतर से ऐसा अवधी भाषांतर है जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। रामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। त्रेता युग के ऐतिहासिक राम-रावण युद्ध पर आधारित उनके प्रबंध काव्य रामचरितमानस को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46वां स्थान दिया गया।अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं। यद्यपि कुछ इसे सोरों शूकरक्षेत्र भी मानते हैं।
राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गांव है। वहां आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् 1554 के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहां तुलसीदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक मां के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट-पुष्ट था और उसके मुख में दांत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन मां का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियां नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढे़ पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियां भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।
भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस रामबोला नाम से बहुचर्चित बालक को ढूंढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। इसके बाद वे उसे अयोध्या (उत्तर प्रदेश) ले गये और वहां संवत 1561 माघ शुक्ला पंचमी (शुक्रवार) को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मंत्र का स्पष्ट उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके बालक को राम-मंत्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो सुन लेता, उसे वह कंठस्थ हो जाता। वहां से कुछ काल के बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुंचे। वहाँ नरहरि बाबा ने बालक को राम-कथा सुनायी किन्तु वह उसे भली-भांति समझ न आयी।
ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुंदरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। चूँकि गौना नहीं हुआ था अतः कुछ समय के लिये वे काशी चले गये और वहां शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये। वहाँ रहते हुए अचानक एक दिन उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी और वे व्याकुल होने लगे। जब नहीं रहा गया तो गुरूजी से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये।
पत्नी रत्नावली चूँकि मायके में ही थी क्योंकि तब तक उनका गौना नहीं हुआ था अतः तुलसीराम ने भयंकर अंधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुंचे। रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लज्जा के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को तुलसीदास बना दिया।
अपनी पत्नी रत्नावली से इन्हें अत्याधिक प्रेम था परंतु अपने इसी प्रेम के कारण उन्हें एक बार अपनी पत्नी रत्नावली की फटकार ” लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ” अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ता। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत बीता।। ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी और तुलसी जी राम जी की भक्ति में ऎसे डूबे कि उनके अनन्य भक्त बन गए. बाद में इन्होंने गुरु बाबा नरहरिदास से दीक्षा प्राप्त की ||
तुलसीदास जी का अधिकाँश जीवन चित्रकूट, काशी और अयोध्या में व्यतीत हुआ. तुलसी दास जी अनेक स्थानों पर भ्रमण करते रहे उन्होंने अनेक कृतियों की रचना हैं, तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों में रामचरित मानस, कवितावली, जानकीमंगल, विनयपत्रिका, गीतावली, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण इत्यादि रचनाएं प्रमुख हैं ||
तुलसीदास जी की मुख्य रचनाएँ—
तुलसीदास जी संस्क्रत भाषा के विद्वान थे अपने जीवनकाल में उन्होंने ने अनेक ग्रंथों की रचना की तुलसीदास जी रचित श्री रामचरितमानस को बहुत भक्तिभाव से पढ़ा जाता है, रामचरितमानस जिसमें तुलसीदास जी ने भगवान राम के चरित्र का अत्यंत मनोहर एवं भक्तिपूर्ण चित्रण किया है. दोहावली में तुलसीदास जी ने दोहा और सोरठा का उपयोग करते हुए अत्यंत भावप्रधान एवं नैतिक बातों को बताया है. कवितावली इसमें श्री राम के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में किया गया है.
रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड मौजूद हैं. गीतावली सात काण्डों वाली एक और रचना है जिसमें में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन किया गया है. इसके अतिरिक्त विनय पत्रिका कृष्ण गीतावली तथा बरवै रामायण, हनुमान बाहुक, रामलला नहछू, जानकी मंगल, रामज्ञा प्रश्न और संकट मोचन जैसी कृत्तियों को रचा जो तुलसीदास जी की छोटी रचनाएँ रहीं. रामचरितमानस के बाद हनुमान चालीसा तुलसीदास जी की अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य रचना है. जिसे सभी भक्त बहुत भक्ति भाव के साथ सुनते हैं.
तुलसीदास जी समाज के पथप्रदर्शक—
तुलसीदास जी ने उस समय में समाज में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने विधर्मी बातों, पंथवाद और सामाज में उत्पन्न बुराईयों की आलोचना की उन्होंने साकार उपासना, गो-ब्राह्मण रक्षा, सगुणवाद एवं प्राचीन संस्कृति के सम्मान को उपर उठाने का प्रयास किया वह रामराज्य की परिकल्पना करते थे. इधर उनके इस कार्यों के द्वारा समाज के कुछ लोग उनसे ईर्ष्या करने लगे तथा उनकी रचनाओं को नष्ट करने के प्रयास भी किए किंतु कोई भी उनकी कृत्तियों को हानि नहीं पहुंचा सका ||
गोस्वामी जी सन्त कवि थे। उनकी सभी रचनाएं धार्मिक चिन्तन एवं भक्ति भावना से ओत प्रोत हैं। रामचरित मानस में यही भावना कूट-कूटकर भरी है। आध्यात्मिक साधना हेतु तुलसी ने भक्ति मार्ग को अपनाया। तुलसी मर्यादा का निर्वाह करते हैं उनका भाव हृदय को छु लेता है। युग चेतना के प्रवर्तक और लोकमत का समन्वय रामचरित मानस में तुलसी ने संदेश के रूप में किया है। भारत की सम्पूर्ण चेतना को मार्मिक काव्य की वाणी में व्यक्त करके तुलसी प्रमुदित हो जाता हैं। राम चरित मानस उनका अलौकिक कोष है। सदा उच्च आदर्शों, नवीन जीवन मुल्यों का स्वर कवि ने मुखरित किया। तुलसी ज्ञान और प्रतिभा के दनी कवि हैं। उन्होंने लोक और शास्त्र, गृहस्थ ज्ञान, पाणिडत्य और अपाण्डित्य का समन्वय प्रस्तुत किया है। युगधर्म को उन्होंने पहचाना।
यूं तो उनके लिखे गए ग्रंथों की सूची लंबी है पर तुलसी साहित्य के आलोचक मानते हैं कि केवल रामचरितमानस लिखकर ही तुलसीदास अमर हो गए। इस कालजयी कृति ने उनके यश का न केवल प्रसार किया बल्कि उन्हें भक्तिकाल के कवियों में अद्वितीय जगह दिला दी। रामचरितमानस की रचना की भी दिलचस्प कहानी है। जब संवत 1631 का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रंथ संपन्न हुआ। संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों कांड पूर्ण हो गये। इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले गए। वहां उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। इसके बाद रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रातःकाल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम। उसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहां उपस्थित लोगों ने सत्यं , शिवं और सुन्दरम की आवाज भी कानों से सुनी। जब काशी के पंडितों को यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुष-बाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गयी और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा।
तुलसीदास ने अपने काव्य में बीस से अधिक रागों का प्रयोग किया है, जैसे आसावरी, जैती, बिलावल, केदारा, सोरठ, धनाश्री, कान्हरा, कल्याण, ललित, विभास, नट, तोड़ी, सारंग, सूहो, मलार, गौरी, मारू, भैरव, भैरवी, चंचरी, बसंत, रामकली, दंडक आदि। परंतु केदार, आसावरी, सोरठ कान्हरा, धनाश्री, बिलावल और जैती के प्रति उनकी विशेष रुचि रही है।
सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर यह पता चलता है कि तुलसी ने प्रत्येक भाव के उपयुक्त राग में अपने पदों की रक्षा की है। उन्होंने बड़ी सफलता से विभिन्न रागों के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त किया है। मारू, बिलावत, कान्हरा, धनाश्री में वीर भाव के पदों की रचना हुई हैं। श्रृंगार के पद विभास, सूहो विलास और तोड़ी से सृजित हैं। उपदेश संबंधी पदों की रचना भैरव, धनाश्री और भैरवी में की गई है। ललित, नट और सारंग में समर्पण संबंधी पद हैं।
संगीत के क्षेत्र में रसकल्पना काव्य के क्षेत्र में भिन्न होती है। काव्य का एक पद एक ही भाव की सृष्टि करता है किंतु संगीत के एक राग करुणा, उल्लास, निर्वेद आदि अनेक भावों की सृष्टि करने में सफल हो सकता है।
तुलसीदास ने भी एक ही राग का प्रयोग अनेक स्थलों पर अनेक भावों को स्पष्ट करने के लिए किया है।
आज भी भारत के कोने-कोने में रामलीलाओं का मंचन होता है. उनकी इनकी जयंती के उपलक्ष्य में देश के कोने कोने में रामचरित मानस तथा उनके निर्मित ग्रंथों का पाठ किया जाता है. तुलसीदास जी ने अपना अंतिम समय काशी में व्यतित किया और वहीं विख्यात घाट असीघाट पर संवत 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया (शनिवार के दिन अपने प्रभु श्री राम जी के नाम का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग किया |
तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुंदर थी, लगता है जैसे उस युग में उन्होंने कैलीग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान राजापुर के एक मन्दिर में श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकांड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है। लगभग चार सौ वर्ष पूर्व तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों की रचना की थी। आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुंच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कंठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।
रामचरितमानस की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदी में इसके जितने संस्करण छपे हैं, उस पर जितने शोध प्रबंध छपे हैं, जितनी टीकाएं लिखी गयी हैं, उतनी किसी अन्य काव्यकृति पर नहीं. अकेले गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित होकर रामचरितमानस के सिर्फ मंझले साइज की बत्तीस लाख चालीस हजार प्रतियां अब तक बिक चुकी हैं ||
यह एक उदाहरणमात्र है. सवाल है कि रामचरितमानस उत्तरोत्तर आधुनिक काल का भी ‘मानस’ कैसे बना हुआ है? आखिर चार शताब्दियों के बाद भी तुलसी जनमानस में क्यों और कैसे बसे हुए हैं? दरअसल तुलसी ने रामचरितमानस को समय के साथ इस तरह जोड़ा कि वह हमेशा वर्तमान बना रहता है. इतनी बड़ी आबादी यदि रामचरितमानस से जुड़ी है तो जाहिर है कि इसका एक बड़ा कारण भाषा है. तुलसीदास ने अपनी भाषा की ताकत को पहचाना था. तुलसी ने जो कुछ कहा है, वह लोक के लिए कहा है ||
तुलसी लोकदर्शी कवि थे। तुलसी लोकदर्शी कवि थे। उनके द्वारा न केवल भक्तों का अपितु लोक कल्याण का भी ध्यान रखा गया उनका हृदय जन मंगल की भवाना से परिपूर्ण था। यही कारण है कि रामचरित मानस जनजन का कण्ठहार बन गया। तुलसी जैसे मनीषी कवि को जन्म स्थान की संकीर्णता में नहीं रखना चाहिए। कवि का रचना संसार ही उसकी महत्ता का ज्योतिपुंज होता है। कवितावली में अपने जीवन की सारी बातें रखने का उनका प्रयास था। उन्होंने सबको सियाराम मय देखा।
उन्होंने नया कुछ नहीं कहा. तुलसी ने संस्कृत में कही बातों को ही कहा, किंतु नये ढंग से कहा और उसे अभिव्यक्त करने के लिए जनता की भाषा को चुना. तुलसी से यह प्रेरणा ग्रहण की जा सकती है कि मातृभाषा को अपने समाज में पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए अभियान चलाया जाए क्योंकि हिंदी के जातीय तत्वों को पुनर्गठित करने और अपनी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए दूसरा कोई पथ नहीं है ||