श्री आद्य शंकराचार्य जयंती ( .1 मई, ..16, बुधवार) पर विशेष—
सनातन संस्कृति को पुनर्प्रतिष्ठित करने वाले अद्वैत वेदांत के प्रणेता आदि शंकराचार्य को संसार के प्रमुख दार्शनिकों में मान्यता मिली हुई है। उनका अद्वैत दर्शन उनके भाष्यों में दृष्टिगत होता है।
भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान में आदि शंकराचार्य का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि सनातन धर्म के अनुयायी उन्हें भगवान शंकर का अवतार मानते हैं।
आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत दर्शन द्वारा लोगों के बीच खाइयों को पाटने का प्रयास कर धर्म और दर्शन में आधुनिकता की नींव रखी। उनकी जयंती ( 11 मई 2016, बुधवार) पर विशेष…
विष्णु सहस्र नाम के शांकर भाष्य का श्लोक है:—-
श्रुतिस्मृति ममैताज्ञेयस्ते उल्लंध्यवर्तते।
आज्ञाच्छेदी ममद्वेषी मद्भक्तोअ पिन वैष्णव।।
उक्त श्लोक में भगवान् विष्णु की घोषणा है कि श्रुति-स्मृति मेरी आज्ञा है, इनका उल्लंघन करने वाला मेरा द्वेषी है, मेरा भक्त या वैष्णव नहीं।
आठवीं शताब्दी की शुरुआत का लगभग दो दशक वैचारिक दृष्टि से भारत के लिए ऐसा क्रांतिकारी समय रहा, जो आज तक भारतीय दर्शन एवं लोक चेतना के केंद्र में बना हुआ है। यही वह काल था, जब आदि शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ था। ये मूलत: थे तो केरल के, लेकिन इन्होंने अपना कार्यक्षेत्र चुना उत्तर-भारत को, और बाद में देश की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित करके अपने विचारों को पूरे भारत तक पहुंचा दिया।
आश्चर्य इस बात पर होता है कि इतने विशाल देश की चेतना पर इतना व्यापक और इतना गहरा प्रभाव डालने का चमत्कार इन्होंने केवल .2 वर्ष की आयु में ही कर दिखाया।
वस्तुत: शंकराचार्य के विचारों की मूल शक्ति भारतीय दर्शन एवं प्रकृति के उस सूक्ष्म तत्व में निहित है, जहां वह अलग-अलग, यहां तक कि एक-दूसरे से विपरीत धाराओं के सम्मिलन से एक महासागर का रूप धारण कर लेती है। शंकराचार्य का वह दर्शन, जिसे हम अद्वैत वेदांत कहते हैं, में उन्होंने ब्रह्म और जीवन को एक ही मानकर उसकी जबर्दस्त भौतिकवादी व्याख्या करके अपने समकालीनों को चमत्कृत कर दिया था। यह खंडन के स्थान पर मंडन को लेकर चला। और भारत ने इसे अपने सिर-माथे पर लिया।
आदि शंकराचार्य ने बताया कि जीव की उत्पत्ति ब्रह्म से ही हुई है। जैसे कि झील में तरंगें पानी से ही उत्पन्न होती हैं, इसलिए ये दोनों अलग-अलग नहीं हैं। एक ही हैं। लेकिन जैसे तरंगें पानी में होते हुए भी पानी नहीं हैं, वैसे ही जीव भी ब्रह्म नहीं है। दरअसल अज्ञानता, जिसे हम सभी ‘माया’ के नाम से जानते हैं, जीव को ब्रह्म से अलग कर देती है। फलस्वरूप जीव भटकने लगता है। तो फिर इसका उपाय क्या है? उपाय बहुत सरल है और सहज भी। उपाय है-ज्ञान। विवेक से प्राप्त ज्ञान के सहारे जीव फिर से अपने मूल स्वरूप को, जो उसके ब्रह्म का स्वरूप है, प्राप्त कर सकता है। यानी व्यक्ति अंत तक संभावना में बना रहता है। यह अद्भुत है और क्रांतिकारी भी।
जाहिर है कि शंकराचार्य अपने अद्वैत दर्शन द्वारा दो तथ्य प्रतिपादित करने में अत्यंत सफल रहे। पहला था समानता का सिद्धांत, यानी कि यदि सभी में ब्रह्म है, सभी में एक ही तत्व है, तो फिर कैसी ऊंची-नीची जातियां और कौन छोटा-बड़ा धर्म। दूसरे, उन्होंने समाज में ज्ञान की प्रतिष्ठा स्थापित की। ज्ञान को सर्वोपरि माना।
यह ज्ञान डिग्री का ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान ग्रंथों का ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान ‘समझदारी का पर्याय है, ‘बोध’ का पर्याय है, जिसे उन्होंने ‘विवेक’ कहा है। अंग्रेजी में इसे ‘विज्डम’ कह सकते हैं, और संस्कृत में ‘प्रज्ञा’। चूंकि ऐसे विचार शाश्वत होते हैं, इसलिए उनकी प्रासंगिकता पर विचार करने की जरूरत ही नहीं होती है।
शंकर भगवद्पादाचार्य या आदि शंकराचार्य वेदांत के अद्वैत मत के प्रणेता थे। उनके उपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं, जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है।
स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है।
उन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छांदोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा।
वेदों में लिखे ज्ञान का उन्होंने प्रचार किया और भारत में चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की।
‘शिव रहस्य’ ग्रंथ में कलियुग में आदि शंकराचार्य का अवतार होने का उल्लेख मिलता है।
भविष्योत्तर पुराण का भी कथन है—
कल्यादौ द्विसहश्चांते लोकानुग्रह काम्यया। चतुर्भि: सहशिष्यैस्तु शंकरोवतरिष्यति।।
अर्थात कलियुग के दो हजार वर्ष बीत जाने पर लोक का अनुग्रह करने के उद्देश्य से चार शिष्यों के साथ भगवान शंकर आचार्य के रूप में अवतरित होंगे।
भगवान् परशुराम की कुठार प्राप्त भूमि केरल के ग्राम कालड़ी में जन्मे शिवगुरू दम्पति के पुत्र शंकर को उनके कृत्यों के आधार पर ही श्रद्धालु लोक ने ‘शंकरः शंकरः साक्षात्’ अर्थात शंकराचार्य तो साक्षात् भगवान शंकर ही है घोषित किया।
अवतार घोषित करने का आधार शुक्ल यजुर्वेद घोषित करता है: ‘त्रियादूर्ध्व उदैत्पुरूषः वादोअस्येहा भवत् पुनः।-
अर्थात् भक्तों के विश्वास को सुद्दढ़ करने हेतु भगवान अपने चतुर्थांशं से अवतार ग्रहण कर लेते हैं। अवतार कथा रसामृत से जन-जन की आस्तिकता को शाश्वत आधार प्राप्त होता है।
आद्य जगद्गुरू भगवान शंकराचार्य ने शैशव में ही संकेत दे दिया कि वे सामान्य बालक नहीं है। सात वर्ष के हुए तो वेदों के विद्वान, बारहवें वर्ष में सर्वशास्त्र पारंगत और सोलहवें वर्ष में ब्रह्मसूत्र- भाष्य रच दिया।
उन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना शिष्यों को पढ़ाते हुए कर दी। लुप्तप्राय सनातन धर्म की पुनर्स्थापना, तीन बार भारत भ्रमण, शास्त्रार्थ दिग्विजय, भारत के चारों कोनों में चार शांकर मठ की स्थापना, चारों कुंभों की व्यवस्था, वेदांत दर्शन के शुद्धाद्वैत संप्रदाय के शाश्वत जागरण के लिए दशनामी नागा संन्यासी अखाड़ों की स्थापना, पंचदेव पूजा प्रतिपादन उन्हीं की देन है।
आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म को शक्ति प्रदान करने के उद्देश्य से देश की चारों दिशाओं पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में चार पीठों की स्थापना की। पूर्व में श्रीजगन्नाथ पुरी, उड़ीसा में गोवर्द्धन पीठ की स्थापना की। आदि शंकराचार्य के शिष्य श्रीपद्मपाद इस पीठ पर सर्वप्रथम आसीन हुए। पश्चिम में द्वारका (गुजरात) में शारदापीठ की स्थापना करके सुरेश्वराचार्य को कार्यभार सौंपा। सुरेश्वराचार्य का नाम पहले पं मंडन मिश्र था, जिन्हें आदि शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। उत्तर में हिमालय पर्वत की गोद में पवित्र बदरिकाश्रम में ज्योतिष-पीठ की स्थापना करके श्रीतोटकाचार्य को वहां का सर्वप्रथम आचार्य नियुक्त किया। दक्षिण में श्रृंगेरी के श्रृंगगिरि पीठ (शारदा पीठ) में विश्वरूपाचार्य को पदारूढ़ किया। इसीलिए इन चारों पीठों के आचार्य ‘शंकाराचार्य’ कहलाए। इन पीठों की आचार्य-परंपरा आज भी जारी है। अस्तु, आदि शंकराचार्य ने देश की चारों दिशाओं में सनातन संस्कृति के सजग प्रहरियों के रूप में चार पीठों के माध्यम से चार धर्म-दुर्र्गो की स्थापना की।
इन चारों पीठों में उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार, आदि शंकराचार्य का जन्म कलिसंवत 2595 में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन 507 ईस्वी पूर्व हुआ था। इस वर्ष सन 2016 में वैशाख शुक्ल पंचमी (11 मई) को आदि शंकराचार्य की 2523वीं जयंती चारों पीठों सहित संपूर्ण भारत में अत्यंत उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाई जाएगी।
आदि शंकराचार्य ने दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में जन्म लिया। माना जाता है कि उनके नि:संतान माता-पिता ने पुत्र-प्राप्ति की कामना से भगवान शंकर की अति कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव ने उन्हें स्वयं अपने अंश से एक सर्वगुणसंपन्न पुत्र दिया, लेकिन शिवजी ने यह भी कहा कि यह बालक सनातन संस्कृति का पुनरुद्धार करके अल्पकाल में शिवलोक लौट आएगा। माता-पिता ने इष्टदेव शंकर भगवान के नाम पर इनका नाम भी शंकर ही रखा।
बालक शंकर महान विभूति बनेंगे, इसके प्रमाण बचपन से ही मिलने लगे थे। एक वर्ष की अवस्था में वे अपने भाव-विचार प्रकट करने लगे। दो वर्ष की अवस्था में उन्होंने पुराणादि की कथाएं कंठस्थ कर लीं। तीन वर्ष की अवस्था में उनके पिता स्वर्गवासी हो गए। पांचवें वर्ष में यज्ञोपवीत करके उन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेज दिया गया। केवल सात वर्ष की आयु में ही वे वेद, वेदांत और वेदांगों का पूर्ण अध्ययन करके घर वापस लौट आए। उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन भी दंग रह जाते थे।
विद्याध्ययन समाप्त कर शंकर ने संन्यास लेना चाहा, परंतु माता ने इसकी अनुमति नहीं दी। कहा जाता है कि तब एक घटना घटी। एक दिन जब वह माता के साथ नदी में स्नान कर रहे थे, उन्हें मगरमच्छ ने पकड़ लिया। इस प्रकार पुत्र के प्राण संकट में देखकर मां के होश उड़ गए। शंकर ने मां से अनुरोध किया कि यदि आप मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दे देंगी, तो यह मगर मुझे जीवित छोड़ देगा। माता ने तुरंत स्वीकृ ति दे दी और मगर ने उन्हें छोड़ दिया। माता की आज्ञा से वे आठ वर्ष की उम्र में घर से निकल पड़े। जाते समय उन्होंने मां को वचन दिया कि उनकी मृत्यु के समय घर पर ही उपस्थित रहेंगे। इस वचन को उन्होंने निभाया भी।
घर से चलकर शंकर नर्मदातट पर आए और वहां स्वामी गोविंद भगवत्पाद से दीक्षा ली। गुरु ने इनका नाम भगवत पूज्यपादाचार्य रखा। उन्होंने गुरुपादिष्ट मार्ग से साधना शुरू कर दी। अल्पकाल में ही वे बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा बन गए। उनकी सिद्धि से प्रसन्न होकर गुरु ने उन्हें काशी जाकर वेदांतसूत्र का भाष्य लिखने का निर्देश दिया।
किंवदंती है कि काशी में बाबा विश्वनाथ ने चांडाल के रूप में उन्हें दर्शन देकर उनकी परीक्षा ली, पर आचार्य शंकर ने उन्हें पहचान कर साष्टांग दंडवत किया। काशी विश्वेश्वर ने उन्हें ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखने का आदेश दिया। भाष्य लिखने के बाद वेद व्यास जी ने उनकी कठोर परीक्षा शास्त्रार्थ करके ली। मान्यता है कि महर्षि व्यास ने प्रसन्न होकर उनकी आयु 16 से दोगुनी 32 वर्ष कर दी। उन्होंने उन्हें अद्वैतवाद का प्रचार करने का निर्देश दिया।
आचार्य शंकर ने अनेक लोगों को सन्मार्ग में लगाया और कुमार्ग का खंडन करके धर्म का सही मार्ग समाज को दिखाया। आचार्य शंकर ने कई अद्भुत स्तोत्रों एवं भाष्यों की रचना की, जो आज भी आध्यात्मिक जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं।

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