श्री अंगारेश्वर महादेव की कथा—
देवाधिदेव भगवान शंकर ने पार्वती जी से कहा की हे पर्वत की कन्या उज्जैन में तिरालीसवाँ ज्योतिर्लिंग अंगारेश्वर का हैं जिनके दर्शन मात्र से सर्व सम्पदा प्राप्त होती हैं…
पूर्व कल में लाल शरीर की शोभवाला और टेड़े शरीर वाला क्रोध से युक्त यह बालक मेरे द्वारा ही उत्पन्न हुआ…मेने उसे पृथ्वी पर रख दिया इसलिए उसका नाम भूमि पुत्र हुआ.पैदा होते ही स्थूल शरीर वाला वह बालक भय देने लगा..उसके कोप से पृथ्वी कम्पित होने लगी..मनुष्य और देवतादि सब दुखी हो गए ..समुद्रों में तूफान(बाढ़) आने लगी..पर्वत हिलने लगे..उसी के प्रभाव स्वरूप देवता मनुष्य आदि परेशान होने लगे..
वाल खिल्यादिक ऋषि देवता इंद्रा सभी देवगुरु वृहस्पति के पास गए और उनसे चर्चा कर उन्हें अपने साथ लेकर ब्रह्मलोक गए..और पितामह ब्रह्मा जी को सारा वृतांत सुनाया की किस प्रकार भगवान शंकर के शरीर से बालक का जन्म हुआ और उत्पन्न होने के कुछ ही समय में उसने तीनो लोकों का भ्रमण कर डाला..अनेकों का भक्षण कर लिया और सभी को परेशान कर दिया..
सभी की बातें सुनकर प्रजापिता ब्रह्मा जी ने मुझसे कैलाश पर्वत पर आकर मिलाने का निर्णय किया..
मेरे पास आकर सभी ने भय पूरक मेरे शरीर से उत्पन्न उस बालक के क्रिया कलापों का वर्णन किया..की किस प्रकार उस बालक ने सभी को भयं तरस दिया और अनेकों का भक्षण कर लिया..
यह सुकर मेने उस बालक को बुलाया और उससे पूछा की ऐसा क्यों कर रहे हो..???
तब उस बालक ने कहा की प्रभु में कोनसा काम करूँ..??
मेने उसे समझाया को जगत को त्रास मत दो..
ऐसा कहकर मेने उसे बार-बार समझाया..मेने उसे कहा की मेरे शरीर की राजस प्रकृति से तुम्हारा जन्म हुआ हैं..इसीलिए तुम्हारा नाम अंगारक हुआ हैं तुम लोगो का मंगल करो,उन्हें प्रसन्न और आनंदित रखो यही तुम्हारा कर्म हैं… इस समय तुमसे भूलवश वक्री (कठिन) कार्य हुए हैं इसलिए विद्वान लोग तुम्हें “वक्र” नाम से पुकारेंगे..
इस प्रकार मेरे समझाने पर उस बालक ने पूछा की बिना आहार (भोजन) के मेरी तृप्ति कैसे होगी ???
उसने कहा की हे देवाधिदेव आप मुझे अच्छा स्थान दो,स्वामित्व दो,शक्ति दो और आहार (भोजन) भी जल्दी से दे दो.. उस पुत्र के ऐसे वचन सुनकर मेने सोचा की यह पुत्र (बालक) हैं और प्रिय भी हैं..ऐसा विचार कर उत्तम स्थान “अक्षय” देना चाहिए..यह सोचकर मेने उसे अपनी गोद में बिठा लिया और प्रेम से कहा की हे पुत्र मेने तुझे महाकाल वन (उज्जैन नगरी) में गंगेश्वर से पूर्व में स्थान दिया हैं..उस स्थान पर शिप्र और खगर्ता का शुभ संगम हुआ हैं..जब मेने गंगा को मस्तक पर धारण किया था उस समय वह प्रमाद से (गुस्से से) चन्द्र मंडल से नीचे गिरी थी (आई थी) तब वह महाकाल वन क्षेत्र में गिरी थी..उस समय गंगा आकाश से नीचे आई थी इसीलिए उसका नाम खगर्ता हुआ और इसीलिए मेने वहां पर अवतार लिया..में यहाँ पर लिंग मिर्टी (महादेव) के रूप में निवास करता हूँ..और सभी देवतादिक मेरी पूजा करते हैं..यह स्थान देवतों को भी दुर्लभ हैं अतः हैं प्रिय पुत्र तुम शीघ्र वहां के लिए प्रस्थान करो.. और उस संगम पर मेरी पूजा करो वह संगम का स्थल तुम्हारे नाम से जग में प्रसिद्द होगा..और ग्रहों के बीच में तेरा आधिपत्य (स्वमित्व) होगा..तुझे मेने तीसरा स्थान दिया हैं..
वहां तुम्हें तृप्ति प्राप्त होगी..ग्रहों के बीच तुम्हारी पूजा होगी और तिथियों में मेने तुम्हें चतुर्थी तिथि हैं इस चतुर्थी को जो भी तुम्हारी प्रसन्नता के लिए व्रत, शांति दक्षिणा सहित पूजन करेंगे…उससे तुम्हें तृप्ति होगी,भोजनं मिलेगा..और मेने तुम्हें वार मंगलवार दिया हैं जिससे सभी को मंगल की प्राप्ति होगी..जो भी मनुष्य मंगलवार को विद्यारम्भ करेगा,नए वस्त्राभूषण धारण करेगा या फिर शरीर पर तेल लगाएगा उसे इस सभी कर्मो का फल नहीं मिलेगा..मेरी कही बातें सुनकर उस वक्रांग मंगल पुत्र ने स्वीकार कर ली और उसका नाम अंगारकेश्वर हो गया..और इस प्रकार मेरे वचन अनुसार वह अवंतिकापुरी (वर्तमान उज्जैन,मध्यप्रदेश) में अवस्थित हो गया..
उस वक्रांग मंगल पुत्र ने जब शिप्रा जी के पावन तट पर रमणीय खगर्ता संगम पर मुझे लिंग रूप में देखा तो तो वह परम शांति को प्राप्त हो गया और मेने उसे देखकर आलिंगन किया..उसे आशीर्वाद दिया की हैं पुत्र तेरे सभी वांछित पूर्ण होंगे..हैं मंगल में तुझ से प्रसन्न हुँ..आज से तेरा नाम अंगारकेश्वर तीनो लोकों में प्रसिद्द होगा इसमें कोई संशय नहीं हैं..जो कोई भी मेरे दर्शन प्रतिदिन इस संमेश्वर के पास करेगा उसका इस पृथ्वी पर पुनः जन्म नहीं होगा..जो मेरा पूजन मंगलवार के दिन इस “अंगारकेश्वर” पर करेंगे वह इस कलियुग में कृतार्थ हो जायेगा..इसमें कोई संशय नहीं हैं..जो लोग मंगलवार की चतुर्थी को मेरा व्रत,पूजन और दर्शन करेंगे वह इस घोर दुखों युक्त संसार में पुनः जन्म नहीं लेंगे..जब मंगलवार को अमावस्या हो तब खगर्ता संगम पर देवता पूजित हैं..उस दिन यहाँ दर्शन और पूजा-स्नान से वाराणसी,प्रयाग, गयाजी और करुक्षेत्र में एवं पुष्कर में स्नान-पूजन का जो पुण्य मिलता हैं उससे भी अधिक पुण्य फल यहाँ पूजन और दर्शन से प्राप्त होगा..
————————————————————–
स्कन्द पुराण के अनुसार श्री अंगारेश्वर महादेव की कथा—
स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान शंकर का अंधकासुर राक्षस से इस स्थान पर भीषण संग्राम हुआ । राक्षस को भगवान शंकर का वरदान था कि उसके शरीर से एक बून्द रक्त भी पृथ्वी पर गिरने से अनेकों राक्षस उत्पन्न होगें । राक्षस ने देवता, ऋषी, मुनी और ब्राह्मणों को सताना शुरू किया तो वे सब घबरा कर ब्रह्ममाजी के पास गए । ब्रह्ममा जी ने विष्णु जी के पास भेज दिया । ये सभी देवता, ऋषी, मुनि भगवान भोलेनाथ के पास गए । भगवान भोलेनाथ स्वयं युद्ध लड़ने आए । लड़ते-लड़ते स्वयं थक गए । भगवान के ललाट से पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिरी और धरती के गर्भ से अंगारक स्वरूप मंगल की उत्पत्ति हुई । भगवान शंकर ने जैसे ही राक्षस पर त्रिशुल से प्रहार किया तो मंगल भगवान ने राक्षस के सारे रक्त को स्वाहा कर दिया ।
भगवान मंगल का स्वरूप अंगार के समान लाल हैं ।
भगवान मंगल का स्वरूप अष्टावक के स्वरूप में हैं ।
मंगल भगवान अग्नितत्व हैं और मंगल विष्णु स्वरूप भी हैं ।
मंगल पूर्ण ब्रह्म हैं । भगवान भोलेनाथ ने मंगल को अवंतिका में महांकाल वन में तीसरा स्थान दिया हैं ।
मंगल का उत्पत्ति स्थल अंगारेश्वर, शिप्रा नदी के किनारे कर्क रेखा पर स्थित हैं । ऐसी मान्यता हैं कि यदि इस स्थान पर छेंद किया जाए तो उसका अन्तिम सिरा अमेरिका में निकलेगा ।
———————————————————–
ऐसे हुई अंगारक की उत्पत्ति—–
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नवग्रहों में विशेष स्थान रखने वाले मंगल ग्रह का जन्म स्थान उज्जैन यानि प्राचीन नगरी अवन्तिका को माना गया है। देश के सभी स्थानों से मंगल पीड़ा निवारण और अनुग्रह प्राप्त करने के लिए लोग यहां आते हैं। जनमान्यताओं के अनुसार मंगल की जन्म स्थली पर भात पूजा कराने से मंगलजन्य कष्ट से व्यक्ति को शांति मिलती है। मंगल को नवग्रहों में सेनापति के पद से शुशोभित किया गया है। जन्म कुंडली में मंगल की प्रधानता जहां मंगल दोष उत्पन्न करती है, वहीं व्यक्ति को सेना, पुलिस या पराक्रमी पदो पर शुशोभित कर यश और कीर्ति भी दिलती है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मंगल पृथ्वी से अलग हुआ एक ग्रह है। इसीलिए इसे भूमि पुत्र माना गया है। इसे विष्णु पुत्र भी कहते हैं। स्कंध पुराण के अनुसार अवन्तिका में दैत्य अंधकासुर ने भगवान शिव की तपस्या कर यह वरदान प्राप्त किया था कि उसके शरीर से जितनी भी रक्त की बूंदे गिरेंगी वहां उतने ही राक्षस पैदा हो जाएंगे। वरदान के अनुसार तपस्या के बल पर अंधकासुर ने अपार शक्ति प्राप्त कर ली और पृवी पर वह अनियंत्रित उत्पाद मचाने लगा। उसके उत्पादों से बचने के लिए व इंद्रादि देवताओं की रक्षा के लिए स्वयं भगवान शिव को उससे लड़ना पड़ा था। लड़ते-लड़ते जब शिव थक गए तो उनकेे ललाट से पसीने की बूंदें गिरी। इससे एक भारी विस्फोट हुआ और एक बालक अंगारक की उत्पत्ति हुई। इसी बालक ने दैत्य के रक्त को भस्म कर दिया और अंधकासुर का अंत हुआ।
एक अन्य कथा के अनुसार जब अंगारका का जन्म हुआ , तभी से वह वक्री कार्य करने लगा। इसकी उत्पत्ति के बाद भूकंप और ज्वालामुखी जैसे उत्पाद होने लगे और पृथ्वी पर त्राहि-त्राहि मच गई। यह देख ऋषियों ने भगवान शिव से प्रार्थना की। भगवान शिव ने अंगारक को अपने पास बुलाया और कहा तुम्हें पृथ्वी पर मंगल करने के लिए उत्पन्न किया गया है न कि अमंगल करने के लिए। इस पर मंगल ने कहा कि यदि पृथ्वी का अमंगल रोककर मंगल करना है तो आप मुझे शक्ति और सामथ्र्य दीजिए।
इस पर भगवान शिव ने अंगारक को तपस्या करने का आदेश दिया। अंकारक ने पूछा कि मैं किस स्थान पर तपस्या करूं? इस पर भगवान शिव ने कहा महाकाल के वन क्षेत्र में खरगता के संगम पर तपस्या करो। भगवान शिव के आदेश पर मंगल ने .6,.00 वर्ष तक घोर तपस्या की। मंगल की तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हुए और मंगल को ग्रहों का सेनापति बना दिया। नवग्रहों में इसे तीसरा स्थान प्रदान किया। अंगारक के पूछने पर कि मेरा पूजन कहां होगा तथा मेरा प्रभाव क्या होगा? इस पर शिव ने कहा कि मेरे लिंग पर आकर तुमने तप किया है। इसलिए यह लिंग तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा। तुम मनुष्य मात्र की कुंडलियों में योग कारक रहोगे। योग की अनुकूलता के लिए जो व्यक्ति यहां (अवंन्तिका) आकर तुम्हारी पूजा करेगा, उसका मंगल होगा। तभी से लोग मंगल की पूजा के लिए उज्जैन में आते हैं और अपनी श्रद्धा अनुसार अंगारेश्वर महादेव मंदिर में पूजा करके मंगल की अनुकूलता प्राप्त करते हैं।
विशेष:— किसी अनुभवी और विद्वान ज्योतिषी से चर्चा करके ही श्री अंगारेश्वर महादेव पर मंगलदोष निवारण के उपाय भात पूजन आदि करना चाहिए। मंगल की पूजा का विशेष महत्व होता है। अपूर्ण या कुछ जरूरी पदार्थों के बिना की गई पूजा प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकती है।