कुम्भ का पौराणिक महत्त्व और इतिहास..???
कुम्भ हमारी संस्कृति में कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। पूर्णताः प्राप्त करना हमारा लक्ष्य है, पूर्णता का अर्थ है समग्र जीवन के सात एकता, अंग को पूरे अंगी की प्रतिस्मृति, एक टुकड़े के रूप में होते हुए अपने समूचे रूप का ध्यान करके अपने छुटपन से मुक्त। इस पूर्णता की अभिव्यक्ति है पूर्ण कुम्भ। अथर्ववेद में एक कालसूक्त है, जिसमें काल की महिमा गायी गयी है, उसी के अन्दर एक मंत्र है, जहाँ शायद पूर्ण कुम्भ शब्द का प्रयोग मिलता है, वह मन्त्र इस प्रकार है-
पूर्णः कुम्भोधिकाल आहितस्तं वै पश्यामो जगत्
ता इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ् बहुधा नु सन्तः
कालं तमाहु, परमे व्योमन् ।
इसका मोटा अर्थ है, पूर्ण कुम्भ काल में रखा हुआ है, हम उसे देखते हैं तो जितने भी अलग-अलग गोचर भाव हैं, उन सबमें उसी की अभिव्यक्ति पाते हैं, जो काल परम व्योम में है। अनन्त और अन्त वाला काल दो नहीं एक हैं; पूर्ण कुम्भ दोनों को भरने वाला है। पुराणों में अमृत-मन्थन की कथा आती है, उसका भी अभिप्राय यही है कि अन्तर को समस्त सृष्टि के अलग-अलग तत्त्व मथते हैं तो अमृतकलश उद्भूत होता है, अमृत की चाह देवता, असुर सबको है, इस अमृतकलश को जगह-जगह देवगुरु वृहस्पति द्वारा अलग-अलग काल-बिन्दुओं पर रखा गया, वे जगहें प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक हैं, जहाँ उन्हीं काल-बिन्दुओं पर कुम्भ पर्व बारह-बारह वर्षों के अन्तराल पर आता है बारह वर्ष का फेरा वृहस्पति के राशि मण्डल में धूम आने का फेरा है। वृहस्पति वाक् के देवता हैं मंत्र के, अर्थ के, ध्यान के देवता हैं, वे देवताओं के प्रतिष्ठापक हैं। यह अमृत वस्तुतः कोई द्रव पदार्थ नहीं है, यह मृत न होने का जीवन की आकांक्षा से पूर्ण होने का भाव है। देवता अमर हैं, इसका अर्थ इतना ही है कि उनमें जीवन की अक्षय भावना है। चारों महाकुम्भ उस अमृत भाव को प्राप्त करने के पर्व हैं।
ऐसी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले ब्रम्हाजी ने यहीं अश्वमेघ यज्ञ किया था. दश्वमेघ घाट और ब्रम्हेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरुप अभी भी यहां मौजूद हैं. इस यज्ञ के कारण भी कुम्भ का विशेष महत्व है. कुम्भ और प्रयाग एक दूसरे के पर्यायवाची है.
कुंभ अर्थात मिट्टी का घड़ा (मटका) मनुष्य के शरीर को पार्थिव पृथ्वी तत्व प्रधान कहते हैं। कुंभ को अर्थात घडे को मानव देह का प्रतीक माना गया है क्योंकि शरीर मिट्टी से निर्मित है तथा मृत्यु के पश्चात मिट्टी में ही विलीन होता है। हम सभी के मटके (कुंभ) भी कच्चे ही हैं क्योंकि हमें अपने रूप संपत्ति कर्तव्य इत्यादि का अथवा इनमें से किसी एक का अहंकार होता है। साथ ही हमारा मन कामक्त्रोधादि अनेक स्वभाव दोषों से ओतप्रोत होता है। इस प्रकार अपने अनेक पापों, वासनाओं एवं कामक्त्रोध आदि विकारों से ओतप्रोत देहरूपी कुंभ को रिक्त करने का सर्वोत्तम स्थल तथा काल है कुंभ मेला।
कुम्भ पर्व मनुष्य को आस्था में अभिषिक्त करने के लिये तो है ही, वह मनुष्य को अभिषेक का द्रव बनाने के लिये भी है। द्रव के सम्पर्क से द्रव नहीं बनता, तप के सम्पर्क से द्रव बनता है, इसीलिये उस तप की भावना का स्मरण ऐसे पर्व के अवसर पर आवश्यक है, जिसने गंगा को द्रवित किया, जिसने गंगा को सर्वजन कल्याण के लिये उन्मोचित किया, जिसने गंगा के किनारे तप करके इसकी धारा को संस्कृति की मुख्य धारा बनाया। तपोवन-आस्थातप के बिना, जीवन के कठिन निर्वाह के बिना, जड़ होती है इस महाकुम्भ पर बार-बार याद करें, तभी आप मंगलमय कुम्भाभिषेक के अधिकारी होंगे।
कुंभ पर्व अत्यंत पुण्यदायी होने के कारण प्रयाग में स्नान करने से अनंत पुण्यलाभ होता है। इसीलिए यहां करोड़ों श्रद्धालु साधु संत इस स्थान पर एकत्रित होते हैं। कुंभ मेले के काल में अनेक देवी देवता, मातृका, यक्ष, गंधर्व तथा किन्नर भी भूमण्डल की कक्षा में कार्यरत रहते हैं। साधना करने पर इन सबके आशीर्वाद मिलते हैं तथा अल्पावधि में कार्यसिद्धि होती है। गंगा यमुना सरस्वती गोदावरी एवं क्षिप्रा इन नदियों के क्षेत्र में कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। नदी के पुण्य क्षेत्र में वास करने वाले अनेक देवता पुण्यात्मा, ऋषिमुनि कनिष्ठ गण इस समय जागृत रहते हैं। इस काल में कृत्य कर्म के लिए पूरक होता है तथा कृत्य को कर्म की सहमति मिलती है। कुंभ मेले के काल में सर्वत्र आतत्वदर्शक पुण्य तरंगों का भ्रमण होता है। इससे मनुष्य के मन की शुद्धि होती है तथा उसमें उत्पन्न विचारों द्वारा कृत्य भी फलदायी होता है। अर्थात कृत्य एवं कर्म दोनों की शुद्धि होती है।
कुंभ मेले में सर्वपंथ तथा संप्रदाय के साधु संत सहस्त्रों की संख्या में एकत्रित होते हैं। इसमें विविध पीठों के शंकराचार्य, .. अखाड़ों के साधु महामण्डलेश्वर शैव तथा वैष्णव संप्रदाय के अनेक विद्वान संन्यासी संत महात्मा एकत्रित होते हैं। इस कारण इसका स्वरूप अखिल भारत वर्ष के संतों के सम्मेलन के समान भव्य दिव्य होता है। पुराणों में इसका उल्लेख है। नारद पुराण में बताया गया है कि कुंभ अति उत्तम होता है। कुछ विद्वान ईसा पूर्व 3464 में यह मेला प्रारंभ हुआ होगा अर्थात यह सिंधु संस्कृति से एक सहस्त्र वर्ष पूर्व की परंपरा है। वर्ष 6.9 में चीनी यात्री हुआंगत्संग ने भी अपनी पुस्तक भारत यात्रा का वर्णन में कुंभ मेले का वर्णन किया है तथा सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल में प्रयाग में हिंदुओं का कुंभ मेला होता है। ऐसा उल्लेख मिलता है।
धर्मव्यवस्था द्वारा चार सार्वजनिक मंच हिंदू समाज को उपलब्ध करवाये हैं। ये चार क्षेत्र चार दिशाओं के प्रतीक हैं। वर्ष 1942 में भारत के वाईसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने पं मदन मोहन मालवीय के साथ प्रयाग का कुंभ मेला विमान से देखा। वे लाखों श्रद्धालुओं का जन सागर देखकर आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने उत्सुकतावश पं मालवीय से प्रश्न किया, इस मेले में जन समूह को एकत्रित करने के लिये आयोजकों को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ा होगा, और इस पर काफी व्यय हुआ होगा?
पं मालवीय ने उत्तर दिया केवल दो पैसे, यह सुन लार्ड लिनलिथगो ने पं मालवीय से प्रति प्रश्न किया, पंडित जी आप मजाक कर रहे हैं? पं मालवीय ने थैली से पंचांग निकाला और उनके हाथ में देते हुए बोले इसका मूल्य दो पैसे है। इसी से जन सामान्य को इस पर्व के पवित्र कालखंड की जानकारी मिलती है। किसी भी व्यक्ति को व्यक्तिगत निमंत्रण नहीं दिया जाता।
इसका मुख्य कारण हिंदुओं की धर्मश्रद्धा है। गंगा माता तथा पवित्र त्रिवेणी संगम तीर्थ पर साधु संतों सहित हिंदू समाज इतनी बड़ी संख्या में इकट्ठा होता है। कुंभ मेले में किसने क्या परिधान किया है इसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं रहता। जब कोई नग्न साधु अपने अखाड़े सहित गंगा में कूदता है वह दृश्य अत्यंत मनोहर होता है। यहां स्त्री-पुरुष लिंगभेद का विस्मरण होता है तथा कामवासना का विचार तो दूर ही रहता है। यह विचार मन को स्पर्श नहीं करता। बस सबको यही धुन होती है कि गंगा में स्नान करने को मिले।
क्या आपको पता है कि हिंदुस्तान का कुम्भ मेला दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा मेला है या दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा अवसर है जिसमे सबसे से ज्यादा लोग एकत्रित होते हैं.. ऐसा पूरी दुनिया में किसी भी अवसर पर इतने लोगों के जुटने का रिकॉर्ड नहीं है…
प्रयाग कुम्भ—-
यह कुम्भ अन्य कुम्भों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रकाश की ओर ले जाता है. यह ऐसा स्थान है जहां बुद्धिमत्ता का प्रतीक सूर्य का उदय होता है. इस स्थान को ब्रह्माण्ड का उद्गम और पृथ्वी का केंद्र माना जाता है.ऐसी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले ब्रम्हाजी ने यहीं अश्वमेघ यज्ञ किया था. दश्वमेघ घाट और ब्रम्हेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरुप अभी भी यहां मौजूद हैं. इस यज्ञ के कारण भी कुम्भ का विशेष महत्व है. कुम्भ और प्रयाग एक दूसरे के पर्यायवाची है.
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क्या है कुभ और महाकुम्भ –?
ये केवल मेला नहीं अथवा कोई परंपरागत त्यौहार भी नहीं तो ये क्या है–?
हमारे पूर्वजों ने ऐसा क्या किया–? जिसमे बिना किसी प्रचार-प्रसार के लाखों ही नहीं करोणों की संख्या में आते
हैं पंचांग के एक लाइन पर, आम भारतीय संतो की टोली विभिन्न अखाड़े भारतीय सभी पन्थो के संत महंत महामंडलेश्वर विभिन्न संप्रदाय के जगद्गुरु, सभी शंकराचार्य अपने-अपने अखाड़ो सहित यहाँ आते हैं
यही शंकराचार्यों के उत्तराधिकारियों का चयन महामंडलेश्वरों का चुनाव व नियुक्तिया होती है ऐसा लगता है
की सम्पूर्ण भारत उमड़ रहा हो ऐसी परंपरा क्यों पड़ी या डाली गयी–?
भारत में यह सहज व स्वाभाविक प्रक्रिया है यहाँ लोकतंत्र कोई नया नहीं है, (एक बार कुछ पश्चिम मतावलंबी कुम्भ में आये वे महामना मदनमोहन मालवीय से मिले उन्होंने पूछा की इतनी बड़ी संख्या में आये है तो विज्ञापन में तो बड़ा ही धन खर्च लगा होगा मालवीय जी ने अपनी जेब से दो आने वाला पंचांग दिखा दिया बस इतना खर्च हुआ ) हमेसा सर्व सहमति से ही सभी विषयो का चयन होना हमारे स्वभाव में रहा है इस नाते किसी को भारत को लोकतंत्र सिखाने की जरुरत नहीं–!
ब्रिटिश और भारतीय शोधकर्ताओं ने चार साल के अध्ययन के बाद कहा है कि इस साल इलाहाबाद में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर होने जा रहा महाकुंभ विश्व के सबसे विशालतम धार्मिक जमावड़े में से एक है और यह ‘पृथ्वी पर सबसे बड़ा मेला है’। ब्रिटिश और भारतीय शोधकर्ताओं के दल ने चार साल तक कुंभ का अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने देखा कि लोग एक दूसरे के साथ किस तरह से व्यवहार करते हैं, भीड़ का उनका क्या अनुभव है और इस भीड़ का उनके रोजमर्रा के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस अध्ययन में कुंभ मेले को एक अविश्वसनीय कार्यक्रम और पृथ्वी पर सबसे बड़ा मेला बताया गया है। महाकुंभ मेले में पूरी दुनिया के लोग आते हैं और लाखों श्रद्धालु गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं। महाकुंभ के दौरान धर्म गुरुओं जुलूस तथा राख लपेटे नागा साधु सभी के आकर्षण का केंद्र होते हैं। यह अध्ययन डूंडी विश्वविद्यालय के निक हॉपकिंस और सेंट एंड्रियूज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीफन रेइसर तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नारायण श्रीनिवासन के नेतृत्व में किया गया है
यह हिन्दू की शक्ति है। यह उस भारत की शक्ति है जो सनातन धर्मी है, यह उस जमीन की ताकत है जो सेक्युलरवाद के मिलावटी प्लास्टिक−पालीथीन की थैली की जहर बुझी चमक से दूर, गंगा, यमुना, कावेरी और सिंधु को जीती है। आपकी बहसें आपको मुबारक। आपके झंडे आपको मुबारक। हम तो संगम स्नान को चले।
हजारों वर्ष की यह परम्परा, उस परम्परा में उठा हुआ अपना यह भारत वर्ष जिसमें वेद हैं, पुराण है, माता जानकी हैं, वनवासी राम हैं, गोवर्धनधारी कन्हैया है, तो भस्म शरीर पर लपेटे जटाधारी पिनाकपाणि भोलेनाथ हैं। इस माटी में उठे अगर बुद्ध और महावीर हैं तो आदिशंकर भी हैं, बाल्मीकि हैं तो कृष्ण को दीवार तोड़कर अहंकारी ब्राह्मणों का मान मर्दन करते हुए दर्शन देने पर मजबूर करने वाले कनकदास भी हैं। या चांडाल, श्वान में उसी गोविन्द का दर्शन करने वाले शंकराचार्य परम्परा के संत हैं, तो गुरुनानक और तीर्थंकर भी हैं। यहां मंथन है, चिंतन है जिज्ञासा है, मतभेद हैं तो उनका समाधान भी है। यहां यम का सत्य भी यदि विद्यमान है तो उसको ललकारने वाले नचिकेता का वीर वैराग्य भी है। यहां वह सब कुछ है जो भारत को भारत बनाता है। कुंभ का सत्व भारत का भारततत्व है। यहां जो आया वह निहाल हुआ, जो नहीं आ पाया और मात्र स्मरण ही कर पाया वह भी निहाल हुआ। जिसने श्रद्धा से कुम्भ देखा वह भी सत्व पा गया। और जिसने मात्र निर्धार्मिक कौतूहल से ही कुम्भ को देखा, जानने का प्रयास किया वह भी अपने उस सत्व की ओर पहुंचा जो उसने अपने लिए निर्धािरत कर रखा होगा।
कुम्भ हमारी राष्ट्रीयता का प्रतीक है..
सभी पंथ और संप्रदाय इसमें सम्लित हम भारतीय एक है इसकी गवाही देते और साक्ष्य बनते है शैव, वैष्णव, शाक्त, अघोर पंथी, उदासी, सिक्ख, जैन और बौद्ध मतावलंबी कुम्भ में उपस्थित होकर पूरे वर्ष भर का विचार बिमर्ष करते है, पूरी परंपरा में क्या-क्या परिवर्तन करना है सब कुम्भ में होता है, भारतीय समाज में क्या करना है कौन सा शंदेश देना है -? कौन सी परंपरा हमारे समाज को नुकसान पंहुचा रही है-? सभी विषयो पर विचार कर परिवर्तन किया जाता था यह सभी को स्वीकार्य था साधू-सन्यासियों के माध्यम से हिन्दू समाज के सभी घटकों में इसका पालन कराया जाता था, अभी आज कौन सा ऐसा पक्ष है जो कुम्भ में सामिल नहीं होता यानी भारतीय राष्ट्र में सम्लित नहीं होना चाहता. इस पर हमें विचार करना होगा, इस्लाम और ईसाई मतावलंबी क्या भारतीय राष्ट्र के अंग नहीं-? या वे इस राष्ट्र के अंगभूत नहीं होना चाहते-!
कुम्भ नहाने कौन कहां से आया, किस जाति का है, किसको क्या पता? कोई तमिलनाडु से है, या आसाम, अरुणाचल या गुजरात से या अंडमान, नेपाल या अमरिका से, वह ब्राह्मण है कि ठाकुर या यादव अथवा बाल्मीकि और तांग, मणिपुर या बस्तर का जनजातीय। त्रिवेणी तो सबको नहला देती है। समरसता का सबसे बड़ा संगम मंत्र ही त्रिवेणी में मिलता है। यह किसी को परवाह नही है कि आप कितने अमीर है या कितने गरीब। आप अपने शानदार और लक्जरी स्विस तंबुओं में फिल्मस्टारों के साथ कुम्भ स्नान के लिए रुके हैं या त्रिवेणी घाट के आसपास पुआल बिछाकर धर्मादा तम्बुओं में रातभर कीर्तन और भजन करते हुए पुण्य पा रहे हैं। किसी को यह देखने या उसकी समीक्षा करने की फुर्सत नहीं है।
इन्हें (ईसाई-मुसलमान ) अपने दोनों हाथो को फैलाकर कुम्भ की दिसा में बढ़ना चाहिए विदेशी विचार छोड़कर भारतीय संस्कृति में समरस होकर एक रस हों, जिससे भारतीय राष्ट्र में सम्लित हो सकें तभी कुम्भ की सार्थकता सवित होगी, कुम्भ हमारे राष्ट्र निर्माण और समाज ब्यवस्था का एक हिस्सा है जो हमारे समाज को नित्य नूतन बनाये रखने में निरंतर सचेत करता रहता है .
महाकुम्भ का स्नान तो उस अम्मा का होता है जो दुनियाभर की आपदाओं के सामने हिम्मत के साथ खड़े होते हुए बिना तम्बू और रिजर्वेशन का एडवांस इन्तजाम किए बच्चों और पोतों को त्रिवेणी घाट तक लाने का साहस करती है। भारतमाता का दर्शन न किया हो, तो कुम्भ नहाने आयीं इन मइया के पांव छू लीजिए। वहीं भारत स्नान हो जाएगा।
पुरानो की कथा है की समुद्र मंथन से जब अमृत कलश निकला बितरण को लेकर देवताओ और राक्षसों में छिना- झपटी हुई –जहाँ-जहाँ अमृत छलका गिरा वहां-वहां कुम्भ लगने लगा वास्तव में यह समरसता का अद्भित प्रयोग और समरसता का महाकुम्भ है जिसका उदहारण शायद कहीं मिले किसी भी समाज को लम्बे समय तक रहना होता है तो उसमे नित्य नए-नए प्रयोग समाज को एक जुट रखने समरस रखने बिचार को नित्य नूतन बनाये रखने नयी चेतना और उर्जा बनाये रखने हेतु समाज को चिरस्थायी बने हेतु कुम्भ भारतीय समाज का आधार है जहाँ एक तरफ सभी मत, पंथ और संप्रदाय के लोग अपनी रीती रिवाज और समाज उत्थान की दृष्टि से बिना किसी भेद- भाव से इकठ्ठा होते है हमें क्या- क्या सुधार करना है- ?
सब विषयो पर विचार करते हैं, वहीँ सभी जाति, भाषा और क्षेत्र से ऊपर उठकर संत दर्शन और संगम स्नान हेतु आते है वे किसी से न तो अपनी जाती बताते हैं न ही दुसरे से पूछते हैं यह दुनिया का अनूठा उदहारण है जो लाखों वर्षों से समाज के चिंतन के आधार पर चला आ रहा है, आज जिन प्रमुख स्थानों पर कुम्भ लगता है वे स्थान गंगा जी के किनारे हिमालय में हरिद्वार, गंगा -यमुना और सरस्वती जी का संगम प्रयाग, क्षिप्रा नदी के किनारे उज्जैन और गोदावरी तट पर नासिक है, लेकिन कुछ प्रमाणों से कहना है की भारत में २७ नक्षत्र, ऋतुएं, १२ राशियाँ इनके मिलन बिंदु को लेकर १२ स्थानों पर कुम्भ लगते थे जिसमे एक स्थान मक्का भी था, काल परिस्थितियां बदली हज़ार वर्ष का संघर्ष हिन्दू समाज दुर्बल हुआ परिणाम हम बहुत कुछ भूल गए कुछ नयी रीती रिवाज प्रारंभ किये गए कुछ पुराने रीती रिवाज बंद हो गए, कहते है कि यह कुम्भ दान का भी महान पर्व है
चक्रवर्ती सम्राट हर्ष वर्धन ने इस कुम्भ को विस्तार दिया वे प्रत्येक वर्ष सब -कुछ दनकर वापस घर जाते थे आज भी दान की परंपरा जारी है. इसी संगम तट पर वैदिक धर्म के पुनरो-धारक आचार्य कुमारिल भट्ट ने आत्मदाह किया उसी समय आदि जगदगुरु शंकराचार्य से उनकी भेट हुई, इसी संगम तट पर सम्राट अशोक ने विशाल किला का निर्माण किया जिसमे वैदिक कालीन वट वृक्ष मौजूद है, उदार कहे जाने वाले मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने उसे कटवाकर फेका ही नहीं तो खुदवाकर उसमे शीशा पिघलवाकर डाल दिया जिससे मान्यता अनुसार हन्दू धर्म समाप्त हो जाय, इश्वर की होनी को कौन मेट सकता है उसी कुँए में से वह वट वृक्ष आज निकल आया और सेना के कब्जे में उस किले में उसके दर्शन हेतु लाखों श्रद्धालू जाते है और अपने मुक्ति की कामना करते हैं
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क्या होता है कल्पवास?
कल्पवास का अर्थ होता है संगम के तट पर निवास कर वेदाध्ययन और ध्यान करना। प्रयाग इलाहाबाद कुम्भ मेले में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। कल्पवास पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक रहता है।
कल्पवास क्यों और कब से : कल्पवास वेदकालीन अरण्य संस्कृति की देन है। कल्पवास का विधान हजारों वर्षों से चला आ रहा है। जब तीर्थराज प्रयाग में कोई शहर नहीं था तब यह भूमि ऋषियों की तपोस्थली थी। प्रयाग में गंगा-जमुना के आसपास घना जंगल था। इस जंगल में ऋषि-मुनि ध्यान और तप करते थे। ऋषियों ने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा। उनके अनुसार इस दौरान गृहस्थों को अल्पकाल के लिए शिक्षा और दीक्षा दी जाती थी।
कल्पवास के नियम :—–
इस दौरान जो भी गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर आया है वह पर्ण कुटी में रहता है। इस दौरान दिन में एक ही बार भोजन किया जाता है तथा मानसिक रूप से धैर्य, अहिंसा और भक्तिभावपूर्ण रहा जाता है।पद्म पुराण में इसका उल्लेख है। संगम तट पर वास करने वाले को सदाचारी, शान्त मन वाला तथा जितेन्द्रिय होना चाहिए। कल्पवासी के मुख्य कार्य है:- 1. तप, 2. होम और 3. दान।
यहां झोपड़ियों (पर्ण कुटी) में रहने वालों की दिनचर्या सुबह गंगा-स्नान के बाद संध्यावंदन से प्रारंभ होती है और देर रात तक प्रवचन और भजन-कीर्तन जैसे आध्यात्मिक कार्यों के साथ समाप्त होती है।
लाभ—-
ऐसी मान्यता है कि जो कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है लेकिन जो मोक्ष की अभिलाषा लेकर कल्पवास करता है उसे अवश्य मोक्ष मिलता है। – मत्स्यपु 1.6/४०
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क्यों आता है 12 वर्ष पश्चात कुम्भ का मेला..???
देवता और राक्षसों के सहयोग से समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश की प्राप्ति हुई। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।
इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। जिनमें प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर और हरिद्वार गंगा नदी के किनारे हैं, वहीं उज्जैन शिप्रा नदी और नासिक गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ है। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है।
जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है।
अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं। अतएवं कुम्भ भी बारह होते हैं।
उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं।युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।
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कुम्भ – परम्परा कायम क्यों ?
१) पाप – ताप के शमन हेतु :—– कुम्भ के अवसर पर ग्रहों के संयोग से उस स्नान की नदियों का जल और अधिक पावन हो जाता है, जिसमे स्नान मनुष्य के पाप–ताप का शमन करने में सहायक होता है |
२) वास्तविक उदेश्य की यात्रा कराने हेतु :—- मानव को अपने परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति में सहायभूत होने के उदेश्य से हजारो वर्षों से संतो ने, ऋषियों ने इस परम्परा को कायम रखा है | कुम्भ में एक ओर जहाँ जिज्ञासु, अर्थार्थी आदि सभी प्रकार के भक्त आते है, वही दूसरी ओर सिद्ध, साधू, तपस्वी, जती-जोगी आदि न जाने किन-किन गिरी–गुफाओं से कुम्भ में पहुँचते है | उनमे से कोई-कोई विरले जीवन्मुक्त महापुरुष भी होते है, जो उन कुम्भों में पहुंचकर तीर्थों को तिर्थत्व प्रदान करते है | परम सौभाग्य, पुण्याई तथा ईश्वर की विशेष अनुकम्पा उदय होती है तो कुम्भ के अवसर पर पूज्य बापूजी जैसे जीवन्मुक्त ब्रम्हज्ञानी महापुरुष के दर्शन व सत्संग का लाभ मिलता है और श्रद्धालू उनसे सब दुःखों से पार होने की युक्तियाँ पा लेते है |
३) स्वयं तीर्थों के पावन होने हेतु :—-अग्नि पुराण’ में वसिष्ठजी कहते है : ‘गंगा तीर्थ से निकली मिट्टी धारण करनेवाला मानव सूर्य के समान पापों का नाशक होता है | जो मानव गंगा का दर्शन, स्पर्श और जलपान करता है, वाह अपनी सैकड़ों-हजारों पीढ़ियों को पवित्र कर देता है |’
ऐसी गंगा माता से राजा भागीरथ ने स्वर्ग से धरती पर आने की प्रार्थना की तब गंगाजी ने कहा :’भागीरथ ! लोग, ‘गंगे हर‘ कहकर मुझमें स्नान करेंगे और अपने पाप मुझमें डाल जायेंगे | फिर उस पाप को मै कहाँ धोऊंगी ?’
भागीरथ परब्रम्ह परमात्मा में कुछ देर शांत हो गये, बोले: ‘हे माँ ! लोग ‘गंगे हर’ कहकर तुझमें स्नान करेंगे और पाप डालेंगे, जिससे तुम दूषित तो होओगी किंतु जब आत्मतीर्थ में नहाये हुए ब्रम्हज्ञानी महापुरुष तुममे स्नान करेंगे तो उनके अंगस्पर्श से तुम्हारे पाप नष्ट हो जायेंगे और तुम पवित्र हो जाओगी |’ अत: जब ऐसे कुम्भों में ब्रम्हज्ञानी महापुरुष गंगास्नान करने आते है तो पतित-पावनी गंगा स्वयं को पावन करने का सौभाग्य प्राप्त कर तृप्त होती है |
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जानिए कुंभ मेले का इतिहास—
कुंभ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए इन्हीं ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंभ का आयोजन होता है।
कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी जबकि कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था।
कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है, लेकिन मेले का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें आठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुम्भ का प्रसंगवश वर्णन किया गया है।
कुंभ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियाँ हैं। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन 617-647 ई. के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की।
—-सूर्य एवं गुरू जब दोनों ही सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर लगता है। 1980, 1992, 2003 के बाद अब अगला महाकुंभ मेला यहां 2015 में लगेगा।
—-गुरु जब कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब उज्जैन में कुंभ लगता है। 1980,1992, 2004, के बाद अब अगला महाकुंभ मेला यहां 2016 में लगेगा।
12 वर्ष नहीं हर तीसरे वर्ष लगता है कुंभ—
गुरू एक राशि लगभग एक वर्ष रहता है। इस तरह बारह राशि में भ्रमण करते हुए उसे 12 वर्ष का समय लगता है। इसलिए हर बारह साल बाद फिर उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है। लेकिन कुंभ के लिए निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीसरे वर्ष कुंभ का अयोजन होता है। कुंभ के लिए निर्धारित चारों स्थानों में प्रयाग के कुंभ का विशेष महत्व है। हर 144 वर्ष बाद यहां महाकुंभ का आयोजन होता है।
महाकुंभ के संबंध में मान्यता—-
शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है।
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जानिए कुम्भ का वैज्ञानिक महत्त्व—–
सौर–मंडल के विशिष्ट ग्रहों के विशेष राशियों में प्रवेश करने से बना खगोलीय संयोग इस पर्व का आधार है | जब सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में हों और ब्रहस्पति मेष अथवा वृषभ राशि में स्थित हो तब प्रयाग में कुम्भ महापर्व का योग बनता है | इन दिनों यहाँ का वातावरण दिव्य, अदभुत तरंगों व स्पंदनो से भर जाता है, जो यहाँ के जल पर भी अपना प्रभव छोड़ते हैं | जिससे पतित-पावनी गंगा की धारा और भी पावन हो जाती है, जिसमे स्नान करने से श्रध्दालुओं को विशेष शांति व प्रसन्नता की अनुभूति होती है |
भागीरथी गंगा के जल में कभी कीड़े नही पड़ते हैं | यह माँ गंगा की अदभुत महिमा है , जो भारतीय संस्कृति की महानता का दर्शन करती है | इसे औषधि माना गया है | वैज्ञानिकों ने भी प्रयोगों द्वारा इस बात को स्वीकारा है | उनके अनुसार गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्र अत्यधिक होने और इसमें कुछ विशिष्ट जीवाणुओं के मौजूद होने से यह अत्यधिक विशिष्ट है | गंगाजल में हनिकारक जीवाणु नही पड़ते और मिलाये भी जाते है ती गंगाजल माँ उन्हें दूर करने की अदभुत क्षमता है जो की अन्य नदियों के जल में नही पायी जाती है |
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जानिए कुम्भ का आध्यत्मिकीकरण का कारण––
कुम्भ का आधिभौतिक लाभ तो कुम्भ में आयी भक्तों की भीड़ को वहाँ के पवित्र, सात्विक वातावरण से मिल जाता है | आधिदैविक लाभ भी गंगा माँ के जल में श्रद्धा–भक्ति से स्नान करने से मिल जाता है परंतु कुम्भ का आध्यात्मिक लाभ क्या है ? वह कैसे प्राप्त हो ? इन प्रश्नों के उत्तर तो किन्ही आत्मवेत्ता महापुरुष के श्रीचरणों में बैठकर ही प्राप्त किये जा सकते है |
आत्मवेत्ता ब्रम्हनिष्ठ संत पूज्य बापूजी कुम्भ के आध्यात्मिकीकरण की यात्रा कराते हुये कहते है “ ‘तन, मन व मति के दोषों की निवृति के लिए तीर्थ और कुम्भ पर्व है | अमृत की प्राप्ति के लिए होनेवाला देवासुर संग्राम हमारे भीतर भी हो रहा है |
संत तुलसीदासजी कहते है : ‘वेद समुद्र है, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता है जो उस समुद्र को मथकर कथारूपी अमृत निकालते है | उस अमृत में भक्ति और सत्संग रूपी मधुरता बसी रहती है |’ कुमति के विचार ही असुर है | विवेक मथनी है और प्राण-अपान ही वासुकि नागरुपी रस्सी है |
संसार ही सागर है | दैवी और आसुरी वृत्तियों को विवेकरूपी मंदराचल का सहयोग लेकर मंथन करते-करते अपने चित्तरूपी सागर से चैतन्य का अमृत खोजने की व्यवस्था का नाम है ‘कुम्भ पर्व’ | वे लोग सच में बड़भागी है जिन्हें अपने मूल अमृत-स्वभाव आत्मा की ओर ले जानेवाला वातावरण और सत्संग मिल पाता है | शरीर मरेगा कि तुम मरोगे? बीमारी शरीर को होती है कि तुमको होती है ? दुःख मन में होता है कि तुममें होता है ? दुःख आता है चला जाता है, तुम चले जाते हो क्या ? बीमारी आती है चली जाती है, तुम चले जाते हो क्या? इस प्रकार का आत्मज्ञान और उसको पाने की युक्तियाँ सबको सहज में मिल जाय, इसीलिए कुम्भ का पर्व है |
कुम्भ में संत-महात्माओं का सत्संग सान्निध्य मिलता है | उसका हेतु है कि हमारा मन अपनी जन्म–जन्मांतरो की वासनाओं का अंत करके भगवद्सुख में, भगवदशांति में सराबोर होकर भगवतप्रसाद पाने को तैयार हो और मतिदाता में विश्रांति पाये |’
इस तरह मनुष्य के सर्वांगीण विकास की दूरदृष्टि रखनेवाले भारत के ऋषि-मुनियों द्वारा सदियों से कुम्भ परम्परा की सुरक्षा की गयी है | जिसका मुख्य उद्देश्य यही है कि इस अवसर पर मनुष्य किन्ही ब्रम्हज्ञानी संत की शरण में पहुंचकर जीवन के वास्तविक अमृत ‘आत्मानंद’ की पावन गंगा में भी गोता लगा ले |