देवशयनी (DEVSHAYANI EKADASHI)(हरिशयनी) एकादशी .9 जुलाई ..1. को (शुक्रवार) को मनाई जाएगी ..
जीवन में योग, ध्यान व धारणा का बहुत महत्व है, क्योंकि इससे सुप्त शक्तियों का नवजागरण एवं अक्षय ऊर्जा का संचय होता है। इसका प्रतिपादन हरिशयनी एकादशी से भली-भांति होता है, जब भगवान विष्णु स्वयं चार महीने के लिए योगनिद्रा का आश्रय ले ध्यान धारण करते हैं। आषाढ़ मास की शुक्लपक्ष एकादशी को हरिशयनी या देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इसे शेषशयनी एकादशी व पद्मनाभा एकादशी भी कहते हैं। भारतवर्ष में गृहस्थों से लेकर संत, महात्माओं व साधकों तक के लिए इस आषाढ़ी एकादशी से प्रारम्भ होने वाले चातुर्मास का प्राचीन काल से ही विशेष महत्व रहा है।
शयन का अर्थ होता है सोना यानी निद्रा। इसे हरिशयन एकादशी भी कहा जाता है। हरि भगवान विष्णु का ही एक नाम है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस तिथि से चार माह तक भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर सोने के लिये क्षीरसागर में चले जाते हैं यानी वे निद्रा में रहते हैं। इसलिए आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी देवशयन एकादशी है । यह तिथि पद्मनाभा भी कहलाती है । कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थान या देवउठनी एकादशी) को वे उठ जाते हैं।
आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस वर्ष देवशनी एकादशी 19 जुलाई 2013 को (शुक्रवार) मनाई जानी है. इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ भी माना गया है. देवशयनी एकादशी को हरिशयनी एकादशी पद्मनाभा तथा प्रबोधनी के नाम से भी जाना जाता है सभी उपवासों में देवशयनी एकादशी व्रत श्रेष्ठतम कहा गया है.इस व्रत को करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, तथा सभी पापों का नाश होता है. इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा अर्चना करने का महतव होता है क्योंकि इसी रात्रि से भगवान का शयन काल आरंभ हो जाता है जिसे चातुर्मास या चौमासा का प्रारंभ भी कहते हैं.
इस अवधि में कृ्षि और विवाहादि सभी शुभ कार्यो करने बन्द कर दिये जाते है. इस काल को भगवान श्री विष्णु का निद्राकाल माना जाता है. इन दिनों में तपस्वी एक स्थान पर रहकर ही तप करते है. धार्मिक यात्राओं में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है. ब्रज के विषय में यह मान्यता है, कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर तीर्थ ब्रज में निवास करते है. बेवतीपुराण में भी इस एकादशी का वर्णन किया गया है. यह एकादशी उपवासक की सभी कामनाएं पूरी करती है. एक एकादशी को “देव प्रबोधनी एकादशी” के नाम से भी जाना जाता है.
देवशयन एकादशी के दिन से कार्तिक शुक्ल दशमीं तक कोई भी मांगलिक कार्य नहीं किया जाता। मांगलिक कार्य अर्थात गृह प्रवेश, विवाह, देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठï, यज्ञ-हवन, संस्कार आदि कार्य। इन कार्यों में देवताओं विशेष रुप से भगवान विष्णु की उपस्थिति जरूरी होती है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि यह उनका शयन का समय होता है। उनकी निद्रा में खलल न पड़े इसलिए सभी शुभ कार्य हरिशयन एकादशी के बाद से बंद हो जाते हैं, जो देवोत्थान एकादशी से प्रारंभ होते हैं ।
भारतीय संस्कृति में व्रत नियमों एवं पूजा का विधान मौसम एवं प्रकृति को ध्यान में रखकर ही किया गया है । देवशयनी एकादशी के व्रत का पालन का भी यही कारण है । देवशयनी एकादशी से चातुर्मास का समय शुरु होता है । चातुर्मास का समय वर्षा ऋतु का होता है । प्राचीन काल से ही भारत कृषि प्रधान देश है । इसलिए वर्षा ऋतु के चार माह खेती के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं । इसलिए किसान अपने सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर रहकर चार महिनें अपना खेती का काम निश्चिंत होकर कर सकता था । साथ ही नदी-नालों के कारण कहीं आवागमन भी संभव नहीं हो पाता था । इसलिए लगातार कृ षि कार्य में लगे किसान को चार माह तक खेती के साथ ही आध्यात्म ज्ञान प्राप्ति के लिए समय दिया गया है एवं इस समय में कथा, पुराण, वेद पाठ व धर्म ग्रंथों पर विचार द्वारा धर्मावलंबियों को प्रेरित करने की परंपरा प्रारंभ की गई । सभी हिन्दू धर्म स्थानों पर धार्मिक गतिविधियां दिखाई देती है । त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-शिव में भगवान विष्णु को पालनहार माना गया है। व्यवहार दृष्टि से विचार करें तो किसान को विष्णु के समान सम्मान प्रदान किया गया है, क्योंकि हमारा जीवन अन्न पर निर्भर होता है और अन्न किसान ही पैदा करता है। अत: किसान ही अन्नदाता है। चातुर्मास के समय में धर्म ज्ञान का लाभ ही नहीं वरन् शरीर तथा मन को सबल बनाने की क्रियाएं भी शामिल की गई हैं।
कथा :-
पुराणों के अनुसार विष्णु चार मास सुतल में निवास कर बलि को दिया वचन निभाते हैं। वामन अवतार में भगवान विष्णु ने दान के लिए प्रसिद्ध दैत्यराज बलि से तीन पग जमीन मांगी थी। राजा बलि द्वारा वचन देने के बाद विष्णु ने एक पग में पृथ्वी, आकाश और दिशाओं को नाप लिया तथा दूसरे पग में स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरा पग रखने के लिए बलि ने अपने आपको समर्पित कर दिया। इससे खुश होकर विष्णु ने बलि से वर मांगने को कहा। बलि ने कहा आप हमेशा मेरे यहां निवास करेंगे। तब लक्ष्मी ने अपने स्वामी को बलि के बंधन से बचाने के लिए उसे रक्षासूत्र बांध कर भाई बना लिया और स्वामी को वचन से मुक्त करने का निवेदन किया। बलि ने उन्हें वचन मुक्त तो किया पर चार माह तक सुतल लोक में रहने का वचन ले लिया। तभी से विष्णु द्वारा दिए गए वचन का पालन ब्रह्मï और महेश भी करते हैं। पुराणों में मान्यता है कि ब्रह्मï, विष्णु और महेश बारी-बारी से शयन करते हैं। विष्णु के बाद महेश अर्थात शंकर महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मï शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी, चार-चार माह तक सुतल यानी भूमि के अंदर निवास करते हैं।
देवशयनी एकादशी के व्रत की विधि ….
देवशयनी एकादशी व्रत को करने के लिये व्यक्ति को इस व्रत की तैयारी दशमी तिथि की रात्रि से ही करनी होती है. दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में किसी भी प्रकार का तामसिक प्रवृ्ति का भोजन नहीं होना चाहिए. भोजन में नमक का प्रयोग करने से व्रत के शुभ फलों में कमी होती है. और व्यक्ति को भूमि पर शयन करना चाहिए. और जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दान का सेवन करने से बचना चाहिए. यह व्रतदशमी तिथि से शुरु होकर द्वादशी तिथि के प्रात:काल तक चलता है. दशमी तिथि और एकाद्शी तिथि दोनों ही तिथियों में सत्य बोलना और दूसरों को दु:ख या अहित होने वाले शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए.
इस दिन उपवास कर भगवान विष्णु की सोने, चांदी, तांबा या पीतल की मूर्ति को पिताम्बर से सजा कर सफेद वस्त्र से गादी-तकिये वाले पलंग पर शयन कराना चाहिए । इस दिन से चातुर्मास या चौमासा प्रारंभ हो जाता है । चातुर्मास का अर्थ है चार महीने। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल द्वादशी तक के चार मास का समय चातुर्मास कहलाता है। इन चार माहों में अपनी इच्छा के नियमित उपयोग के पदार्थों का त्याग एवं ग्रहण करना शुरु होता है । जैसे मधुर स्वर के लिये गुड़, लंबी उम्र एवं संतान प्राप्ति के लिये तेल, शत्रु बाधा से मुक्ति के लिये कड़वा तेल, सौभाग्य के लिये मीठा तेल आदि का त्याग किया जाता है । इसी प्रकार वंश वृद्धि के लिये दूध का, बुरे कर्म फल से मुक्ति के लिये उपवास करने का व्रत लिया जाता है ।
देवशयनी एकादशी के दिन सुबह जल्दी उठें। इसके बाद घर की साफ-सफाई करें तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएं। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर(पीला कपड़ा) आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुनें।
इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अपने सामथ्र्य के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा दक्षिणा देकर विदा करें। अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराएं तथा स्वयं धरती पर सोएं। धर्म शास्त्रों के अनुसार यदि व्रती(व्रत रखने वाला) चातुर्मास नियमों का पालन करें तो उसे देवशयनी एकादशी व्रत का संपूर्ण फल मिलता है।
आषाढ के शुक्लपक्ष में एकादशी के दिन उपवास करके भक्तिपूर्वक चातुर्मास-व्रत के नियम को ग्रहण करें | श्रीहरिके योग-निद्रा में प्रवृत्त हो जाने पर वैष्णव चार मास तक भूमि पर शयन करें | भगवान विष्णु की शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हुए स्वरूप वाली सौम्य प्रतिमा को पीताम्बर पहिनाएं | तत्पश्चात एक सुंदर पलंग पर स्वच्छ सफेद चादर बिछाकर तथा उस पर एक मुलायम तकिया रखकर शैय्या को तैयार करें | विष्णु-प्रतिमा को दूध, दही, शहद, लावा और शुद्ध घी से नहलाकर श्रीविग्रह पर चंदन का लेप करें | इसके बाद धूप-दीप दिखाकर मनोहर पुष्पों से उस प्रतिमा का श्रृंगार करें |
तदोपरांत निम्नलिखित मंत्र से प्रार्थना करें-
सुप्तेत्वयिजगन्नाथ जगत्सुप्तंभवेदिदम्।
विबुद्धेत्वयिबुध्येतजगत्सर्वचराचरम्॥
हे जगन्नाथ! आपके सो जाने पर यह सारा जगत सुप्त हो जाता है तथा आपके जागने पर संपूर्ण चराचर जगत् जागृत हो उठता है।
श्रीहरिके श्रीविग्रहके समक्ष चातुर्मास-व्रतके नियम ग्रहण करें | स्त्री हो या पुरुष, जो भक्त व्रत करे, वह हरि-प्रबोधिनी एकादशी तक अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करे | जिस वस्तु का परित्याग करें, उसका दान दें |
” ॐ नमोनारायणाय या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय “ मंत्र का तुलसी की माला पर जप करें |
भगवान विष्णु का इस प्रकार ध्यान करें-
शान्ताकारंभुजगशयनं पद्मनाभंसुरेशं
विश्वाधारंगगनसदृशं मेघवर्णशुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तंकमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं
वन्दे विष्णुंभवभयहरं सर्वलौकेकनाथम्॥
जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्यापर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और सम्पूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अतिसुंदरहैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरणरूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपतिकमलनेत्रभगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।
हरिशयनी एकादशी की रात्रि में जागरण करते हुए हरिनाम-संकीर्तन करें | इस व्रत के प्रभाव से भक्त की सभी मनोकामनाएंपूर्ण होती हैं |
हरिशयनी एकादशी के व्रत को सतयुग में परम प्रतापी राजा मान्धाता ने अपने राज्य में अनावृष्टि से उत्पन्न अकाल की स्थिति को समाप्त करने के लिए किया था | हरिशयनी एकादशी के व्रत का सविधि अनुष्ठान करने से घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है तथा सुख-समृद्धि का आगमन होता है |
चातुर्मास यानी स्वास्थ्य और भक्ति के लिए चार महीने…..
देवशयनी से देवप्रबोधिनी एकादशी के बीच के चार महीने चातुर्मास कहलाते हैं। यह मूलत: बारिश का मौसम होता है। शास्त्रों और ऋषियों ने यह समय भगवान और स्वयं पर ध्यान देने वाला बताया है। इन चार महीनों में यात्रा या कृषि कर्म मुश्किल होता था सो इसे भक्ति के लिए माना गया है। बारिश के इन चार महीनों में हम व्रत-उपवास के नियम पालें और भगवान की भक्ति में लीन रहे ताकि हमारा तन और मन दोनों स्वस्थ्य रहें।
चौमासे में बादलों के कारण सूर्य और चंद्रमा से मिलने वाली ऊर्जा हम तक नहीं पहुंच पाती। अधिक नमी वाले वातावरण के कारण हमारी पाचन क्रिया भी प्रभावित होती है। भारतीय ऋषि मुनियों द्वारा व्रत में एक बार, एक दिन छोड़कर भोजन करने का विधान बनाया। जिसके पीछे भी यही कारण है कि चौमासे में अधिक मेहनत न करने के बाद भी व्यक्ति स्वस्थ्य बना रहे तथा शारीरिक क्रियाओं का तालमेल बना रहें।
चातुर्मास की यह विशेषता है कि सभी धर्म के सभी मत इसे साधनाकाल मानते हैं। क्योंकि चातुर्मास में साधकों का लक्ष्य जप, भगवत स्मरण और पूजन-अर्चन होता है। साधनाकाल होने से ब्रह्मïचर्य व्रत का पालन व पलंग पर शयन निषेध कहा गया है। स्वास्थ्य के लिए यह सावधानी आवश्यक है। चौमासे के चार माह – श्रावण, भाद्रपद, आश्विन तथा कार्तिक में क्रमश: शाक, दूध और दही का सेवन निषेध होता है । आयुर्वेद में लिखा गया है – चौमासे में पत्तेदार शाक-सब्जियों का भी उपयोग स्वास्थ्य को हानि पहुंचाता है ।
हरिशयनी (देवशयनी) एकादशी के व्रत का महत्त्व…
इस महाएकादशी का महात्म्य ब्रह्मवैवर्त पुराण में विस्तारपूर्वक बताया गया है। पद्मनाभ श्री हरि का शयनकाल प्रारम्भ होने के कारण इस दिन से चार मास यानी देवोत्थानी या प्रबोधिनी एकादशी तक सभी शुभ कार्य वजिर्त माने गए हैं। बताया गया है कि इन चार माह समस्त तीर्थ आकर ब्रजभूमि में निवास करते हैं, अत: इन दिनों ब्रज की यात्रा विशेष पुण्यदायी है। भविष्यपुराण में हरिशयन का प्रतिपादन भगवान विष्णु की योगनिद्रा के रूप में किया गया है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कन्ध में दानवीर बलि का आख्यान इसके पौराणिक महत्व को दर्शाता है। भगवान वामन ने जब राजा बलि से साढ़े तीन पग भूमि का दान मांगा और तीन ही पग में तीनों लोक नाप लिए, तब भी साक्षात् श्री हरि का सान्निध्य पा चुके ज्ञानवान राजा बलि साहस और वचनहीन न होते हुए बोले-प्रभु धन से ज्यादा महत्व धनी का होता है, अतएव जिसके धन को तीन पग में शुमार किया है आपने, आधा पग उसकी देह का भी आकलन कर लें।
बलि की प्रेमपूरित भक्ति, अनुराग एवं त्याग से गद्गद् भगवान विष्णु ने उसे पाताल लोक का अचल राज्य देकर और वरदान मांगने को कहा। राजा बलि ने वचनबद्ध हो चुके विष्णुजी से कहा- प्रभु, आप नित्य मेरे महल में निवास करें। उसी समय से श्री हरि द्वारा वर का अनुपालन करते हुए तीनों देवता-देवशयनी एकादशी से देव प्रबोधिनी एकादशी तक विष्णु, देवप्रबोधिनी से महाशिवरात्रि तक शिवजी और महाशिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक ब्रह्माजी पाताल लोक में निवास करते हैं।
संत एवं साधक इस देवशयन काल को विशेष आध्यात्मिक महत्व देते हैं। कहा जाता है कि जिसने केवल इस आषाढ़ एकादशी का व्रत रख कर कमल पुष्पों से भगवान विष्णु का पूजन कर लिया, उसने त्रिदेव का पूजन कर लिया।
देवशयनी एकादशी वृत के क्या लाभ हें..???
भगवान श्रीकृष्ण कहते हें की जो एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता है, वह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है । जो मनुष्य दीपदान, पलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं ।
चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए । सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए । जो चौमसे में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । राजन् ! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, अत: सदा इसका व्रत करना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए ।
आषाढ़ शुक्लपक्ष में ‘शयनी एकादशी’ के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया ।
‘शयनी’ और ‘बोधिनी’ के बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशीयाँ होती हैं, गृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं – अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती । शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए ।
जीवन में योग, ध्यान व धारणा का बहुत महत्व है, क्योंकि इससे सुप्त शक्तियों का नवजागरण एवं अक्षय ऊर्जा का संचय होता है। इसका प्रतिपादन हरिशयनी एकादशी से भली-भांति होता है, जब भगवान विष्णु स्वयं चार महीने के लिए योगनिद्रा का आश्रय ले ध्यान धारण करते हैं। आषाढ़ मास की शुक्लपक्ष एकादशी को हरिशयनी या देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इसे शेषशयनी एकादशी व पद्मनाभा एकादशी भी कहते हैं। भारतवर्ष में गृहस्थों से लेकर संत, महात्माओं व साधकों तक के लिए इस आषाढ़ी एकादशी से प्रारम्भ होने वाले चातुर्मास का प्राचीन काल से ही विशेष महत्व रहा है।
शयन का अर्थ होता है सोना यानी निद्रा। इसे हरिशयन एकादशी भी कहा जाता है। हरि भगवान विष्णु का ही एक नाम है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस तिथि से चार माह तक भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर सोने के लिये क्षीरसागर में चले जाते हैं यानी वे निद्रा में रहते हैं। इसलिए आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी देवशयन एकादशी है । यह तिथि पद्मनाभा भी कहलाती है । कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थान या देवउठनी एकादशी) को वे उठ जाते हैं।
आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस वर्ष देवशनी एकादशी 19 जुलाई 2013 को (शुक्रवार) मनाई जानी है. इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ भी माना गया है. देवशयनी एकादशी को हरिशयनी एकादशी पद्मनाभा तथा प्रबोधनी के नाम से भी जाना जाता है सभी उपवासों में देवशयनी एकादशी व्रत श्रेष्ठतम कहा गया है.इस व्रत को करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, तथा सभी पापों का नाश होता है. इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा अर्चना करने का महतव होता है क्योंकि इसी रात्रि से भगवान का शयन काल आरंभ हो जाता है जिसे चातुर्मास या चौमासा का प्रारंभ भी कहते हैं.
इस अवधि में कृ्षि और विवाहादि सभी शुभ कार्यो करने बन्द कर दिये जाते है. इस काल को भगवान श्री विष्णु का निद्राकाल माना जाता है. इन दिनों में तपस्वी एक स्थान पर रहकर ही तप करते है. धार्मिक यात्राओं में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है. ब्रज के विषय में यह मान्यता है, कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर तीर्थ ब्रज में निवास करते है. बेवतीपुराण में भी इस एकादशी का वर्णन किया गया है. यह एकादशी उपवासक की सभी कामनाएं पूरी करती है. एक एकादशी को “देव प्रबोधनी एकादशी” के नाम से भी जाना जाता है.
देवशयन एकादशी के दिन से कार्तिक शुक्ल दशमीं तक कोई भी मांगलिक कार्य नहीं किया जाता। मांगलिक कार्य अर्थात गृह प्रवेश, विवाह, देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठï, यज्ञ-हवन, संस्कार आदि कार्य। इन कार्यों में देवताओं विशेष रुप से भगवान विष्णु की उपस्थिति जरूरी होती है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि यह उनका शयन का समय होता है। उनकी निद्रा में खलल न पड़े इसलिए सभी शुभ कार्य हरिशयन एकादशी के बाद से बंद हो जाते हैं, जो देवोत्थान एकादशी से प्रारंभ होते हैं ।
भारतीय संस्कृति में व्रत नियमों एवं पूजा का विधान मौसम एवं प्रकृति को ध्यान में रखकर ही किया गया है । देवशयनी एकादशी के व्रत का पालन का भी यही कारण है । देवशयनी एकादशी से चातुर्मास का समय शुरु होता है । चातुर्मास का समय वर्षा ऋतु का होता है । प्राचीन काल से ही भारत कृषि प्रधान देश है । इसलिए वर्षा ऋतु के चार माह खेती के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं । इसलिए किसान अपने सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर रहकर चार महिनें अपना खेती का काम निश्चिंत होकर कर सकता था । साथ ही नदी-नालों के कारण कहीं आवागमन भी संभव नहीं हो पाता था । इसलिए लगातार कृ षि कार्य में लगे किसान को चार माह तक खेती के साथ ही आध्यात्म ज्ञान प्राप्ति के लिए समय दिया गया है एवं इस समय में कथा, पुराण, वेद पाठ व धर्म ग्रंथों पर विचार द्वारा धर्मावलंबियों को प्रेरित करने की परंपरा प्रारंभ की गई । सभी हिन्दू धर्म स्थानों पर धार्मिक गतिविधियां दिखाई देती है । त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-शिव में भगवान विष्णु को पालनहार माना गया है। व्यवहार दृष्टि से विचार करें तो किसान को विष्णु के समान सम्मान प्रदान किया गया है, क्योंकि हमारा जीवन अन्न पर निर्भर होता है और अन्न किसान ही पैदा करता है। अत: किसान ही अन्नदाता है। चातुर्मास के समय में धर्म ज्ञान का लाभ ही नहीं वरन् शरीर तथा मन को सबल बनाने की क्रियाएं भी शामिल की गई हैं।
कथा :-
पुराणों के अनुसार विष्णु चार मास सुतल में निवास कर बलि को दिया वचन निभाते हैं। वामन अवतार में भगवान विष्णु ने दान के लिए प्रसिद्ध दैत्यराज बलि से तीन पग जमीन मांगी थी। राजा बलि द्वारा वचन देने के बाद विष्णु ने एक पग में पृथ्वी, आकाश और दिशाओं को नाप लिया तथा दूसरे पग में स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरा पग रखने के लिए बलि ने अपने आपको समर्पित कर दिया। इससे खुश होकर विष्णु ने बलि से वर मांगने को कहा। बलि ने कहा आप हमेशा मेरे यहां निवास करेंगे। तब लक्ष्मी ने अपने स्वामी को बलि के बंधन से बचाने के लिए उसे रक्षासूत्र बांध कर भाई बना लिया और स्वामी को वचन से मुक्त करने का निवेदन किया। बलि ने उन्हें वचन मुक्त तो किया पर चार माह तक सुतल लोक में रहने का वचन ले लिया। तभी से विष्णु द्वारा दिए गए वचन का पालन ब्रह्मï और महेश भी करते हैं। पुराणों में मान्यता है कि ब्रह्मï, विष्णु और महेश बारी-बारी से शयन करते हैं। विष्णु के बाद महेश अर्थात शंकर महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मï शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी, चार-चार माह तक सुतल यानी भूमि के अंदर निवास करते हैं।
देवशयनी एकादशी के व्रत की विधि ….
देवशयनी एकादशी व्रत को करने के लिये व्यक्ति को इस व्रत की तैयारी दशमी तिथि की रात्रि से ही करनी होती है. दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में किसी भी प्रकार का तामसिक प्रवृ्ति का भोजन नहीं होना चाहिए. भोजन में नमक का प्रयोग करने से व्रत के शुभ फलों में कमी होती है. और व्यक्ति को भूमि पर शयन करना चाहिए. और जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दान का सेवन करने से बचना चाहिए. यह व्रतदशमी तिथि से शुरु होकर द्वादशी तिथि के प्रात:काल तक चलता है. दशमी तिथि और एकाद्शी तिथि दोनों ही तिथियों में सत्य बोलना और दूसरों को दु:ख या अहित होने वाले शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए.
इस दिन उपवास कर भगवान विष्णु की सोने, चांदी, तांबा या पीतल की मूर्ति को पिताम्बर से सजा कर सफेद वस्त्र से गादी-तकिये वाले पलंग पर शयन कराना चाहिए । इस दिन से चातुर्मास या चौमासा प्रारंभ हो जाता है । चातुर्मास का अर्थ है चार महीने। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल द्वादशी तक के चार मास का समय चातुर्मास कहलाता है। इन चार माहों में अपनी इच्छा के नियमित उपयोग के पदार्थों का त्याग एवं ग्रहण करना शुरु होता है । जैसे मधुर स्वर के लिये गुड़, लंबी उम्र एवं संतान प्राप्ति के लिये तेल, शत्रु बाधा से मुक्ति के लिये कड़वा तेल, सौभाग्य के लिये मीठा तेल आदि का त्याग किया जाता है । इसी प्रकार वंश वृद्धि के लिये दूध का, बुरे कर्म फल से मुक्ति के लिये उपवास करने का व्रत लिया जाता है ।
देवशयनी एकादशी के दिन सुबह जल्दी उठें। इसके बाद घर की साफ-सफाई करें तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएं। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर(पीला कपड़ा) आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुनें।
इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अपने सामथ्र्य के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा दक्षिणा देकर विदा करें। अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराएं तथा स्वयं धरती पर सोएं। धर्म शास्त्रों के अनुसार यदि व्रती(व्रत रखने वाला) चातुर्मास नियमों का पालन करें तो उसे देवशयनी एकादशी व्रत का संपूर्ण फल मिलता है।
आषाढ के शुक्लपक्ष में एकादशी के दिन उपवास करके भक्तिपूर्वक चातुर्मास-व्रत के नियम को ग्रहण करें | श्रीहरिके योग-निद्रा में प्रवृत्त हो जाने पर वैष्णव चार मास तक भूमि पर शयन करें | भगवान विष्णु की शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हुए स्वरूप वाली सौम्य प्रतिमा को पीताम्बर पहिनाएं | तत्पश्चात एक सुंदर पलंग पर स्वच्छ सफेद चादर बिछाकर तथा उस पर एक मुलायम तकिया रखकर शैय्या को तैयार करें | विष्णु-प्रतिमा को दूध, दही, शहद, लावा और शुद्ध घी से नहलाकर श्रीविग्रह पर चंदन का लेप करें | इसके बाद धूप-दीप दिखाकर मनोहर पुष्पों से उस प्रतिमा का श्रृंगार करें |
तदोपरांत निम्नलिखित मंत्र से प्रार्थना करें-
सुप्तेत्वयिजगन्नाथ जगत्सुप्तंभवेदिदम्।
विबुद्धेत्वयिबुध्येतजगत्सर्वचराचरम्॥
हे जगन्नाथ! आपके सो जाने पर यह सारा जगत सुप्त हो जाता है तथा आपके जागने पर संपूर्ण चराचर जगत् जागृत हो उठता है।
श्रीहरिके श्रीविग्रहके समक्ष चातुर्मास-व्रतके नियम ग्रहण करें | स्त्री हो या पुरुष, जो भक्त व्रत करे, वह हरि-प्रबोधिनी एकादशी तक अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करे | जिस वस्तु का परित्याग करें, उसका दान दें |
” ॐ नमोनारायणाय या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय “ मंत्र का तुलसी की माला पर जप करें |
भगवान विष्णु का इस प्रकार ध्यान करें-
शान्ताकारंभुजगशयनं पद्मनाभंसुरेशं
विश्वाधारंगगनसदृशं मेघवर्णशुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तंकमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं
वन्दे विष्णुंभवभयहरं सर्वलौकेकनाथम्॥
जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्यापर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और सम्पूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अतिसुंदरहैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरणरूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपतिकमलनेत्रभगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।
हरिशयनी एकादशी की रात्रि में जागरण करते हुए हरिनाम-संकीर्तन करें | इस व्रत के प्रभाव से भक्त की सभी मनोकामनाएंपूर्ण होती हैं |
हरिशयनी एकादशी के व्रत को सतयुग में परम प्रतापी राजा मान्धाता ने अपने राज्य में अनावृष्टि से उत्पन्न अकाल की स्थिति को समाप्त करने के लिए किया था | हरिशयनी एकादशी के व्रत का सविधि अनुष्ठान करने से घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है तथा सुख-समृद्धि का आगमन होता है |
चातुर्मास यानी स्वास्थ्य और भक्ति के लिए चार महीने…..
देवशयनी से देवप्रबोधिनी एकादशी के बीच के चार महीने चातुर्मास कहलाते हैं। यह मूलत: बारिश का मौसम होता है। शास्त्रों और ऋषियों ने यह समय भगवान और स्वयं पर ध्यान देने वाला बताया है। इन चार महीनों में यात्रा या कृषि कर्म मुश्किल होता था सो इसे भक्ति के लिए माना गया है। बारिश के इन चार महीनों में हम व्रत-उपवास के नियम पालें और भगवान की भक्ति में लीन रहे ताकि हमारा तन और मन दोनों स्वस्थ्य रहें।
चौमासे में बादलों के कारण सूर्य और चंद्रमा से मिलने वाली ऊर्जा हम तक नहीं पहुंच पाती। अधिक नमी वाले वातावरण के कारण हमारी पाचन क्रिया भी प्रभावित होती है। भारतीय ऋषि मुनियों द्वारा व्रत में एक बार, एक दिन छोड़कर भोजन करने का विधान बनाया। जिसके पीछे भी यही कारण है कि चौमासे में अधिक मेहनत न करने के बाद भी व्यक्ति स्वस्थ्य बना रहे तथा शारीरिक क्रियाओं का तालमेल बना रहें।
चातुर्मास की यह विशेषता है कि सभी धर्म के सभी मत इसे साधनाकाल मानते हैं। क्योंकि चातुर्मास में साधकों का लक्ष्य जप, भगवत स्मरण और पूजन-अर्चन होता है। साधनाकाल होने से ब्रह्मïचर्य व्रत का पालन व पलंग पर शयन निषेध कहा गया है। स्वास्थ्य के लिए यह सावधानी आवश्यक है। चौमासे के चार माह – श्रावण, भाद्रपद, आश्विन तथा कार्तिक में क्रमश: शाक, दूध और दही का सेवन निषेध होता है । आयुर्वेद में लिखा गया है – चौमासे में पत्तेदार शाक-सब्जियों का भी उपयोग स्वास्थ्य को हानि पहुंचाता है ।
हरिशयनी (देवशयनी) एकादशी के व्रत का महत्त्व…
इस महाएकादशी का महात्म्य ब्रह्मवैवर्त पुराण में विस्तारपूर्वक बताया गया है। पद्मनाभ श्री हरि का शयनकाल प्रारम्भ होने के कारण इस दिन से चार मास यानी देवोत्थानी या प्रबोधिनी एकादशी तक सभी शुभ कार्य वजिर्त माने गए हैं। बताया गया है कि इन चार माह समस्त तीर्थ आकर ब्रजभूमि में निवास करते हैं, अत: इन दिनों ब्रज की यात्रा विशेष पुण्यदायी है। भविष्यपुराण में हरिशयन का प्रतिपादन भगवान विष्णु की योगनिद्रा के रूप में किया गया है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कन्ध में दानवीर बलि का आख्यान इसके पौराणिक महत्व को दर्शाता है। भगवान वामन ने जब राजा बलि से साढ़े तीन पग भूमि का दान मांगा और तीन ही पग में तीनों लोक नाप लिए, तब भी साक्षात् श्री हरि का सान्निध्य पा चुके ज्ञानवान राजा बलि साहस और वचनहीन न होते हुए बोले-प्रभु धन से ज्यादा महत्व धनी का होता है, अतएव जिसके धन को तीन पग में शुमार किया है आपने, आधा पग उसकी देह का भी आकलन कर लें।
बलि की प्रेमपूरित भक्ति, अनुराग एवं त्याग से गद्गद् भगवान विष्णु ने उसे पाताल लोक का अचल राज्य देकर और वरदान मांगने को कहा। राजा बलि ने वचनबद्ध हो चुके विष्णुजी से कहा- प्रभु, आप नित्य मेरे महल में निवास करें। उसी समय से श्री हरि द्वारा वर का अनुपालन करते हुए तीनों देवता-देवशयनी एकादशी से देव प्रबोधिनी एकादशी तक विष्णु, देवप्रबोधिनी से महाशिवरात्रि तक शिवजी और महाशिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक ब्रह्माजी पाताल लोक में निवास करते हैं।
संत एवं साधक इस देवशयन काल को विशेष आध्यात्मिक महत्व देते हैं। कहा जाता है कि जिसने केवल इस आषाढ़ एकादशी का व्रत रख कर कमल पुष्पों से भगवान विष्णु का पूजन कर लिया, उसने त्रिदेव का पूजन कर लिया।
देवशयनी एकादशी वृत के क्या लाभ हें..???
भगवान श्रीकृष्ण कहते हें की जो एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता है, वह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है । जो मनुष्य दीपदान, पलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं ।
चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए । सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए । जो चौमसे में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । राजन् ! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, अत: सदा इसका व्रत करना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए ।
आषाढ़ शुक्लपक्ष में ‘शयनी एकादशी’ के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया ।
‘शयनी’ और ‘बोधिनी’ के बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशीयाँ होती हैं, गृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं – अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती । शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए ।