आइये जाने शनि ग्रह को (पुराणों व ज्योतिष शास्त्र में)—–
  
इतिहास-पुराणों में शनि की महिमा बिखरी पड़ी है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि गणेशजी का जन्म होने पर सभी ग्रह उनका दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुँचे। जैसे ही शनि ने आख़िर में भगवान गणेश के चेहरे पर नज़र डाली, उनका मस्तक कट कर धरती पर गिर गया। बाद में हाथी का सिर उनके धड़ पर लगाकर बालक गणेश को जीवित किया गया। शास्त्रों की यही बातें ज्योतिष में भी प्रतिबिम्बित होती हैं। ज्योतिष में शनि को ठण्डा ग्रह माना गया है, जो बीमारी, शोक और आलस्य का कारक है। लेकिन यदि शनि शुभ हो तो वह कर्म की दशा को लाभ की ओर मोड़ने वाला और ध्यान व मोक्ष प्रदान करने वाला है। साथ ही वह कैरियर को ऊँचाईयों पर ले जाता है। लोगों में शनि को लेकर कई तरह की भ्रांतियाँ हैं। बहुत-से लोगों का मानना है कि शनि देव का काम सिर्फ़ परेशानियाँ देना और लोगों के कामों में विघ्न पैदा करना ही है। लेकिन शास्त्रों के अनुसार शनि देव परीक्षा लेने के लिए एक तरफ़ जहाँ बाधाएँ खड़ी करते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रसन्न होने पर वे सबसे बड़े हितैशी भी साबित होते हैं।
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-. ) के अनुसार सूर्य पुत्र शनि देव का नाम सुनकर लोग सहम से जाते है लेकिन हिसा कुछ नहीं है ,बेसक शनि देव की गिनती अशुभ ग्रहों में होती है लेकिन शनि देव इन्शान के कर्मो के अनुसार ही फल देते है , शनि बुर कर्मो का दंड भी देते है।शनि उच्चा राशी तुला में प्रवेश कर रहे है , जिनकी कुंडली में शनि तुला राशी गत है जिस भाव में बैठा है उस भाव सम्बन्धी कार्यों में वृद्धि करेगा जब शनि तुला राशी में सूर्य के साथ युति होने के कारण राजनितिक लोंगे के लिए अशुभ फल देगा , वाद-विवाद में बढ़ोत्तरी होगी , धातु की बढ़ोत्तरी होगी , भारतीय राजनीती में बहुत ज्यादा उतर चढाव देखने को मिलेगा , जिनका शनि अच्चा होगा भिखारी से रजा बन जायेगा और जिनका अशुभ होगा रजा से भिखारी बनते देर नहीं लगेगी , जिनकी कुंडली में शनि तुला राशी गत है जिस भाव में बैठा है उस भाव सम्बन्धी कार्यों में वृद्धि करेगा , यदि शनि लग्न , केंद्र या त्रिकोण में है या अपनी उच्चा राशी में स्वग्रही या मित्र राशी में है तो अपनी दशा अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करेगा , मानसगरी ग्रन्थ के अनुसार शनि देव के शुक्र बुध मित्र. बृहस्पति सम. शेष शत्रु हैं ।
नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥
ऊँ शत्रोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।शंयोभिरत्रवन्तु नः। ऊँ शं शनैश्चराय नमः।
ऊँ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्‌।, छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्‌।

वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-.90.4.90067 ) के अनुसार शनि की महिमा ही कुछ ऐसी है कि उनका इंसान की कर्मकुंडली पर भारी होना इंसान को डरा देता है। शनि देव की यही छवि देवताओं में उन्हें ख़ास स्थान दिलाती है। शास्त्रों में शनि को सूर्य का पुत्र और मृत्यु के देवता यम का भाई बताया गया है। शनि की विशेषताओं का बखान करते हुए प्राचीन ग्रंथ “श्री शनि महात्म्य” में लिखा गया है कि शनि देव का रंग काला है और उनका रूप सुन्दर है, उनकी जाति तैली है और वे काल-भैरव की उपासना करते हैं।ज्योतिष में साढ़ेसाती और ढैया आदि दोषों का कारण शनि को माना गया है। जब वर्तमान समय में शनि किसी की चंद्र राशि में, उससे एक राशि पहले या बाद में स्थित हो तो उसे साढ़ेसाती कहते हैं। कहते हैं कि साढ़ेसाती के दौरान भाग्य अस्त हो जाता है। लेकिन शनि को सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाला ग्रह माना जाता है। यदि शनि की नियमित आराधना की जाए और तिल, तैल व काली चीज़ों का दान किया जाए, तो शनि देव की अनुकम्पा पाने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता।
शास्त्रों के मतानुसार हनुमानजी भक्तों को शनि के सभी कष्टों से मुक्ति दिलाते हैं। रामायण के एक आख्यान के मुताबिक़ हनुमानजी ने शनि को रावण की क़ैद से छुड़ाया था और शनि देव ने उन्हें वचन दिया था कि जो भी हनुमानजी की उपासना करेगा, शनि देव सभी मुश्किलों से उसकी रक्षा करेंगे।

शनि की उत्पत्ति का पौराणिक वृत्तांत——
महर्षि  कश्यप का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या अदिति से हुआ जिसके गर्भ से विवस्वान (सूर्य ) का जन्म हुआ | सूर्य का विवाह त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से हुआ | सूर्य व संज्ञा के संयोग से वैवस्वत मनु व यम दो पुत्र तथा यमुना नाम की कन्या का जन्म हुआ | संज्ञा  अपने पति के अमित तेज से संतप्त रहती थी |सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन  न कर पाने पर  उसने अपनी छाया को अपने ही समान बना कर सूर्य के पास छोड़ दिया और स्वयम पिता के घर आ गयी | पिता त्वष्टा  को यह व्यवहार उचित नहीं लगा और उन्हों ने संज्ञा को पुनः सूर्य के पास जाने का आदेश दिया | संज्ञा ने पिता के आदेश की अवहेलना की और घोड़ी का रूप बना कर कुरु प्रदेश के वनों में जा कर रहने लगी |
               इधर सूर्य संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते रहे | कालान्तर में संज्ञा के गर्भ से भी  सावर्णि मनु और शनि दो पुत्रों का जन्म हुआ | छाया शनि से बहुत स्नेह करती थी और संज्ञा पुत्र  वैवस्वत मनु व यम से कम | एक बार बालक यम ने खेल खेल में छाया को अपना चरण दिखाया तो उसे क्रोध आ गया और उसने यम को चरण हीन होने का शाप दे दिया |  बालक यम ने डर कर पिता को इस विषय में बताया तो उन्हों ने शाप का परिहार बता दिया और  छाया संज्ञा से बालकों के बीच भेद भाव पूर्ण व्यवहार करने का कारण पूछा | सूर्य के भय से  छाया संज्ञा ने  सम्पूर्ण सत्य प्रगट कर दिया |
 संज्ञा  के इस व्यवहार से क्रोधित हो कर सूर्य अपनी ससुराल में गए | ससुर त्वष्टा ने समझा बुझा कर अपने दामाद को शांत किया और कहा –“ आदित्य ! आपका तेज सहन न कर सकने के कारण ही संज्ञा ने यह अपराध किया है और घोड़ी के रूप में वन में भ्रमण कर रही है | आप उसके इस अपराध को क्षमा करें और मुझे अनुमति दें की मैं आपके तेज को काट छांट कर सहनीय व मनोहर बना दूँ |अनुमति मिलने पर त्वष्टा  ने सूर्य के तेज को  काट छांट दिया और विश्वकर्मा ने उस छीलन से भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र का निर्माण किया |मनोहर रूप हो जाने पर सूर्य संज्ञा को ले कर अपने स्थान  पर आ गए | बाद में संज्ञा ने नासत्य और दस्र नामक अश्वनी कुमारों को जन्म दिया | यम की घोर तपस्या से प्रसन्न हो कर महादेव ने उन्हें पितरों का आधिपत्य दिया और धर्म अधर्म के निर्णय करने का अधिकारी बनाया |यमुना व ताप्ती नदी के रूप में प्रवाहित हुई | शनि को नव ग्रह मंडल में स्थान दिया गया |
शनिदेव को ग्रहत्व कि प्राप्ति——
स्कन्द पुराण में काशी खण्ड में वृतांत है कि छाया सुत शनिदेव ने अपने पिता भगवान सूर्य से प्रार्थना की कि मै ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूँ जिसे आज तक किसी ने प्राप्त न किया हो, आपके मंडल से मेरा मंडल सात गुना बडा हो और मेरे वेग का कोई सामना नही कर पाये चाहे वह देव,असुर,दानव, ही क्यों न हो | शनिदेव की यह बात सुन कर भगवान सूर्य प्रसन्न हुए और उत्तर दिया कि इसके लिये उसे काशी जा कर भगवान शंकर कि आराधना करनी चाहिए | शनि देव ने पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया और शिव ने प्रसन्न हो कर शनि को ग्रहत्व प्रदान कर नव ग्रह मंडल में स्थान दिया |
शनि की क्रूर दृष्टि का रहस्य—–
ब्रह्म पुराण के अनुसार शनि देव बाल्य अवस्था से ही भगवान विष्णु के परम भक्त थे |हर समय उन के ही ध्यान में मग्न रहते थे | विवाह योग्य आयु होने पर  इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से संपन्न हुआ |इनकी पत्नी भी साध्वी एवम तेजस्विनी थी | एक  बार वह पुत्र प्राप्ति की कामना से शनिदेव के निकट आई | उस समय शनि ध्यान मग्न थे अतः उन्हों ने अपनी पत्नी की ओर दृष्टिपात तक नहीं किया |लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब शनि का ध्यान भंग नहीं हुआ तो  वह ऋतुकाल निष्फल हो जाने के कारण से क्रोधित हो गयी और शनि को शाप दे दिया कि – अब से तुम जिस पर भी दृष्टिपात करोगे वह नष्ट हो जाएगा |तभी से शनि कि दृष्टि को क्रूर व अशुभ समझा जाता है | शनि भी सदैव अपनी दृष्टि नीचे ही रखते हैं ताकि उनके द्वारा किसी का अनिष्ट न हो |फलित ज्योतिष में भी शनि कि दृष्टि को अमंगलकारी कहा गया है |
ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी शनि कि क्रूर  दृष्टि का वर्णन है | गौरी नंदन गणेश के जन्मोत्सव पर शनि बालक के दर्शन कि अभिलाषा से गए |मस्तक झुका कर बंद नेत्रों से माता पार्वती के चरणों में प्रणाम किया , शिशु गणेश माता कि गोद में ही थे | माँ पार्वती ने शनि को आशीष देते हुए प्रश्न किया ,” हे शनि देव ! आप गणेश को देख नहीं रहे हो इसका क्या कारण है |” शनि ने उत्तर दिया –“ माता ! मेरी सहधर्मिणी का शाप है कि मैं जिसे भी देखूंगा उसका अनिष्ट होगा ,इसलिए मैं अपनी दृष्टि नीचे ही रखता हूँ | “ पार्वती ने सत्य को जान कर भी दैववश शनि को बालक को देखने का आदेश दिया | धर्म को साक्षी मान कर शनि ने वाम नेत्र के कोने से बालक गणेश पर दृष्टिपात किया | शनि दृष्टि पड़ते ही गणेश का मस्तक धड से अलग हो कर गोलोक में चला गया | बाद में श्री हरि ने एक गज शिशु का मस्तक गणेश के धड से जोड़ा और उस में प्राणों का संचार किया |तभी से गणेश गजानन नाम से  प्रसिद्ध हुए |
शनि का शाकटभेद  योग—–
पद्म पुराण के अनुसार पूर्वकाल में जब शनि गोचर वश कृतिका नक्षत्र के अंतिम अंशों में पहुंचे तो विद्वान दैवज्ञों ने रघुकुल भूषण राजा दशरथ को सावधान किया कि शनि रोहिणी का भेदन करके आगे बढ़ने वाले हैं जिस से शाकट भेद योग बनेगा | इस योग के कारण .2 वर्ष तक संसार में भयंकर अकाल रहेगा | राजा दशरथ ने यह सुन कर अपने संहारास्त्र का संधान किया और नक्षत्र मंडल में शनि के समक्ष पहुँच गए |शनि राजा दशरथ के साहस व पौरुष से प्रसन्न हुए तथा उन्हें वर मांगने को कहा | दशरथ ने कहा कि आप लोक हित में रोहिणी में गोचर भ्रमण के समय कभी भी दीर्घ अवधि का दुर्भिक्ष न करें |शनि ने दशरथ कि प्रार्थना स्वीकार कि और कभी भी लंबी अवधि का दुर्भिक्ष न करने  का वचन दिया |
पुराणों में शनि  का स्वरूप एवम प्रकृति   —–  
मत्स्य पुराण के अनुसार शनि कि कान्ति इन्द्रनील मणि के समान है| शनि गिध्द पर सवार हाथ में धनुष बाण ,त्रिशूल व व्र मुद्रा से युक्त हैं |पद्म पुराण में शनि कि स्तुति में  दशरथ  उनकी प्रकृति का चित्रण करते हैं कि शनि का शरीर कंकाल के समान  है,पेट पीठ से सटा हुआ है, शरीर का ढांचा विस्तृत है जिस पर मोटे रोएं स्थित हैं | शनि के नेत्र भीतर को धसें हैं तथा दृष्टि नीचे कि और है |शनि तपस्वी हैं व मंद गति हैं | भूख से व्याकुल व अतृप्त रहते हैं |शनि का वर्ण कृष्ण के समान नील है |   
ज्योतिष शास्त्र में शनि  का स्वरूप एवम प्रकृति——
प्रमुख ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार शनि दुष्ट ,क्रोधी , आलसी ,लंगड़ा ,काले वर्ण का ,विकराल ,दीर्घ व कृशकाय शरीर का है |द्रष्टि नीचे ही रहती है , नेत्र पीले व  गढ्ढे दार हैं |शरीर के अंग व रोम कठोर तथा नख व दांत मोटे हैं |शनि वात प्रकृति का तमोगुणी ग्रह है |
शनि का रथ एवम गति  —–
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार शनि का रथ लोहे का है |वाहन गिद्ध है |सामान्यतः यह एक राशि में 30 मास तक भ्रमणशील रहता है तथा सम्पूर्ण राशि चक्र को लगभग 30 वर्ष में पूर्ण करता है | इस मंद गति के कारण ही इसका नाम शनैश्चर व मंद प्रसिद्ध है | पद्म पुराण के अनुसार शनि जातक कि जन्म राशि से पहले ,दूसरे ,बारहवें ,चौथे व आठवें स्थान पर आने पर कष्ट देता है |
 शनि गृह वैज्ञानिक परिचय—–
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार शनि सौरमंडल का एक सदस्य ग्रह है। यह सूरज से छटे स्थान पर है और सौरमंडल में बृहस्पति के बाद सबसे बड़ा ग्रह हैं। इसके कक्षीय परिभ्रमण का पथ १४,२९,४०,००० किलोमीटर है। शनि के ६० उपग्रह हैं। जिसमें टाइटन सबसे बड़ा है| शनि ग्रह की खोज प्राचीन काल में ही हो गई थी। शनि ग्रह की रचना ७५% हाइड्रोजन और २५% हीलियम से हुई है। जल, मिथेन, अमोनिया और पत्थर यहाँ बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं।नवग्रहों के कक्ष क्रम में शनि सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर अट्ठासी करोड,इकसठ लाख मील दूर है.पृथ्वी से शनि की दूरी इकहत्तर करोड, इकत्तीस लाख,तियालीस हजार मील दूर है.शनि का व्यास पचत्तर हजार एक सौ मील है,यह छ: मील प्रति सेकेण्ड की गति से २१.५ वर्ष में अपनी कक्ष मे सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है.शनि धरातल का तापमान २४० फ़ोरनहाइट है.शनि के चारो ओर सात वलय हैं|
 ज्योतिष शास्त्र में शनि——
  वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार ज्योतिष शास्त्र में शनि  को पाप व अशुभ  ग्रह माना गया है ग्रह मंडलमें शनि को सेवक का पद प्राप्त हैयह मकर  और कुम्भ  राशियों का स्वामी है |यह तुला   राशि में उच्च का तथा मेष राशि  में नीच का माना जाता है कुम्भ इसकी मूल त्रिकोण राशि भी है|शनि  अपने स्थान से तीसरे, सातवें,दसवें  स्थानको पूर्ण दृष्टि से देखता है और इसकी दृष्टि को  अशुभकारक कहा गया है |जनमकुंडली मेंशनि  षष्ट ,अष्टम  भाव का कारक होता है |शनि   की सूर्य -चन्द्र –मंगल सेशत्रुता शुक्र  – बुध से मैत्री और गुरु से समता है यह स्व ,मूलत्रिकोण व उच्च,मित्र  राशि नवांश  में ,शनिवार  में ,दक्षिणायनमें , दिन के अंत में ,कृष्ण पक्ष में ,वक्री होने पर  ,वर्गोत्तम नवमांश में बलवान व शुभकारक होता है |
शनि के कारकत्व——
 प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथोंके अनुसार शनि लोहा ,मशीनरी ,तेल,काले पदार्थ,रोग, शत्रु,दुःख ,स्नायु ,मृत्यु ,भैंस ,वात रोग ,कृपणता ,अभाव ,लोभ ,एकांत, मजदूरी, ठेकेदारी ,अँधेरा ,निराशा ,आलस्य ,जड़ता ,अपमान ,चमड़ा, पुराने पदार्थ ,कबाडी ,आयु ,लकड़ी ,तारकोल ,पिशाच बाधा ,संधि रोग ,प्रिंटिंग प्रैस ,कोयला ,पुरातत्व विभाग इत्यादि का कारक है |
शनि के कारण होने वाले रोग  ——
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार जन्म  कुंडली में  शनि   अस्त ,नीच या शत्रु राशि का ,छटे -आठवें -बारहवें  भाव में स्थित हो ,पाप ग्रहों से युत  या दृष्ट, षड्बल विहीन हो तो  कोढ़ ,वात रोग ,स्नायु रोग , पैर व घुटने के रोग ,पसीने में दुर्गन्ध , संधिवात, चर्म रोग , दुर्घटना , उदासीनता , गठिया ,थकान ,पोलियो  इत्यादि रोग  उत्पन्न करता है |
फल देने का समय—-
शनि  अपना शुभाशुभ फल  36 से 42 वर्ष कि आयु में ,अपने वार व शिशिर ऋतु में,अपनी दशाओं व गोचर में( साढ़ेसाती व ढैया में ) प्रदान करता है |वृद्धावस्था पर भी  इस का अधिकार कहा गया है |
शनि का राशि फल—–
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार जन्म कुंडली में शनि का मेषादि राशियों में स्थित होने का फल इस प्रकार है :-
मेष में –शनि हो तो जातक व्यसन व परिश्रम से तप्त,उग्र स्वभाव का ,प्रपंची ,निष्ठुर ,धनहीन ,बन्धु वर्ग का निहंता ,कुरूप ,क्रोधी ,घृणित कार्य करने वाला व निर्धन होता है |
वृष   में  शनि  हो तो जातक सेवक , अनुचित भाषी ,निर्धन ,नीच मित्रों से युक्त ,मूढ़ ,व अधिक कार्यों में तत्पर होता है |
मिथुन में शनि हो तो जातक परिश्रमी ,अधिक ऋण व बंधन से पीड़ित ,कपटी ,आलसी ,कामी ,पाखंडी ,धूर्त व दुष्ट स्वभाव का होता है |
कर्क में  शनि  हो तो जातक बाल्यकाल में अस्वस्थ ,पंडित , मातृहीन ,सरल,  विशेष कार्य करने वाला ,विपरीत स्वभाव वाला ,प्रसिद्ध, मध्य अवस्था में राज तुल्य सुख प्राप्त करने वाला ,पर बाधक ,बन्धु विरोधी ,पर भोग से वृद्धि पाने वाला होता है |
सिंह में शनि  हो तो जातक लिखने –पढ़ने वाला ,ज्ञाता ,शालीनता से रहित ,स्त्री सुख से रहित ,भृति जीवी ,स्वजनों से हीन ,निन्दित कार्य करने वाला ,क्रोधी ,मनोरथों से भ्रांत ,मध्यम शरीर धारी होता है |
कन्या में शनि हो तो जातक नपुंसक आकार वाला ,शठ ,परान्भोजी ,अपना कार्य करने को तत्पर ,परोपकारी होता है |
तुला मे शनि हो तो सभा व समुदाय में बड़ा ,विदेश भ्रमण से धन व सम्मान प्राप्त करने वाला ,सभा समुदाय में ज्येष्ठ ,राजा ,ज्ञाता ,स्व जनों से रक्षित धन वाला व धूर्त स्त्री का भोगी होता है |
वृश्चिकमें  शनि हो तो जातक द्रोही ,अहंकारी ,क्रोधी ,विष व शस्त्र से आहत,परधन का हरण करने वाला ,निन्दित कार्य करने वाला ,खर्च व रोगों से पीड़ित हो कर कष्ट भोगने वाला होता है
धनु में शनि हो तो जातक अध्ययन –व्यवहारिक शिक्षा में अनुकूल मति वाला ,गुणवान पुत्र से युक्त ,अपनी शालीनता व धर्माचरण से प्रसिद्ध ,अन्त्य अवस्था में अतुल लक्ष्मी का भोग करने वाला ,अल्पभाषी ,सरल व बहुत नाम वाला होता है |
मकर में  शनि हो तो जातक पर स्त्री व स्थान का भोगी ,गुणवान ,शिल्प ज्ञाता ,श्रेष्ठ वंश से पूजित ,समुदाय से सम्मानित ,स्नान आभूषण स्नेही ,क्रिया कला का ज्ञाता ,परदेश वासी होता है
कुम्भ में  शनि हो तो जातक झूठा ,व्यसनी ,धूर्त ,दुष्ट मित्र वाला ,स्थिर,ज्ञान कथा व स्मृति धर्म से दूर ,कटु वक्ता ,अनेक कार्यों को  आरम्भ करने वाला होता है |
मीन में   शनि हो तो जातक यज्ञ व शिल्प का प्रेमी ,शांत, मित्र व बन्धुओं में प्रधान ,नीति का ज्ञाता ,धन वृद्धि वाला ,धर्म व्यवहार रत ,नम्र ,गुणवान होता है |
(शनि पर किसी अन्य ग्रह कि युति या दृष्टि के प्रभाव से उपरोक्त राशि फल में परिवर्तन भी संभव है| )
शनि का सामान्य  दशा फल——-
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार जन्म कुंडली में शनि स्व ,मित्र ,उच्च राशि -नवांश का ,शुभ भावाधिपति ,षड्बली ,शुभ युक्त -दृष्ट हो तो शनि की दशा में राज सम्मान ,सुख वैभव ,धर्म लाभ,ग्राम -नगर व किसी संस्था के प्रधान पद कि प्राप्ति ,जन समर्थन , शनि के कारकत्व वाले पदार्थों से लाभ ,पश्चिम दिशा से लाभ ,स्टील ,कोयला व तेल कंपनियों के शेयरों से लाभ ,समाज कल्याण के कार्य ,पुराने आवास व वाहन कि प्राप्ति ,आध्यत्मिक ज्ञान व चिंतन ,विचारों में स्थिरता व प्रोढ़ता,व्यवसाय में सफलता ,पशुओं के व्यापार में सफलता ,वृद्धा स्त्री का संसर्ग प्राप्त होता है | जिस भाव का स्वामी शनि  होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों में सफलता व लाभ होता है |
यदि शनि अस्त ,नीच शत्रु राशि नवांश का ,षड्बल विहीन ,अशुभभावाधिपति  पाप युक्त दृष्ट हो तो  शनि  की अशुभ दशा में उद्वेग,वाहन नाश ,अप्रीति ,स्त्री व स्वजनों से वियोग ,पराजय ,शराब व जुआ से अपकीर्ति ,वात जन्य रोग ,शुभ कार्यों में असफलता ,बंधन , आलस्य ,निराशा ,मानसिक तनाव , शरीर में शुष्कता व खुजली .थकान ,शरीर पीड़ा ,अंग भंग , नौकर व संतान से विरोध होता है |शनि के कारकत्व वाले पदार्थों से हानि होती है | जिस भाव का स्वामी शनि होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों में असफलता व हानि होती है |
गोचर में शनि—-वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार —-
जन्म या नाम राशि से 3,6 ,11वें स्थान पर शनि शुभ फल देता है |शेष स्थानों पर शनि का भ्रमण अशुभ कारक  होता है |
जन्मकालीन चन्द्र से प्रथम स्थान पर  शनि का गोचर( साढ़ेसाती के मध्य के अढ़ाई वर्ष )अपमान ,असफलता ,शारीरिक व मानसिक पीड़ा ,राज्य से भय ,आर्थिक हानि देता है | बुध्धि ठीक से काम नहीं करती व शरीर निस्तेज और मन अशांत रहता है |
दूसरे स्थान पर शनि के गोचर ( साढ़ेसाती के अंतिम अढ़ाई वर्ष ) से घर में अशांति और कलह क्लेश होता है | धन कि हानि ,नेत्र या दांत में कष्ट होता है | परिवार से अलग रहना पड़ जाता है |
तीसरे स्थान पर शनि का गोचर आरोग्यता , मित्र  व व्यवसाय लाभ ,शत्रु की पराजय ,साहस वृद्धि ,शुभ समाचार प्राप्ति ,भाग्य वृद्धि ,बहन व भाई के सुख में वृद्धि व राज्य से सहयोग दिलाता  है |
चौथे स्थान पर  शनि के  गोचर से स्थान परिवर्तन ,स्वजनों से वियोग या विरोध ,सुख हीनता ,मन में स्वार्थ व लोभ का उदय , वाहन से कष्ट ,छाती में पीड़ा होती है |
पांचवें स्थान पर  शनि के  गोचर से भ्रम ,योजनाओं में असफलता ,पुत्र को कष्ट, धन निवेश में हानि व उदर विकार होता है |
छ्टे स्थान पर  शनि के गोचर से धन अन्न व सुख कि वृद्धि ,रोग व शत्रु पर विजय व संपत्ति का लाभ होता है |
सातवें स्थान पर  शनि के  गोचर से दांत व  जननेंन्द्रिय सम्बन्धी रोग , मूत्र विकार ,पथरी ,यात्रा में कष्ट , दुर्घटना ,स्त्री को कष्ट या उस से विवाद , आजीविका में बाधा होती है|
आठवें स्थान पर शनि के गोचर से धन हानि ,कब्ज ,बवासीर इत्यादि गुदा रोग ,असफलता ,स्त्री को कष्ट ,राज्य से भय ,व्यवसाय में बाधा ,पिता को कष्ट ,परिवार में अनबन ,शिक्षा प्राप्ति में बाधा व संतान सम्बन्धी कष्ट होता है |
नवें  स्थान पर शनि के  गोचर से भाग्य कि हानि ,असफलता ,रोग व शत्रु का उदय ,धार्मिक कार्यों व यात्रा में बाधा आती है |
दसवें  स्थान पर शनि के  गोचर से मानसिक चिंता , अपव्यय ,पति या पत्नी  को कष्ट ,  कलह,नौकरी व्यवसाय में विघ्न , अपमान ,कार्यों में असफलता ,राज्य से परेशानी होती है |
ग्यारहवें स्थान पर शनि के गोचर से धन ऐश्वर्य की वृद्धि,  लोहा –चमड़ा –कोयला –सीमेंट –पत्थर –लकड़ी –मशीनरी आदि से लाभ ,आय में वृद्धि ,रोग व शत्रु से मुक्ति , कार्यों में सफलता, मित्रों का सहयोग मिलता है |
बारहवें स्थान पर  शनि के  गोचर  ( साढ़ेसाती के आरम्भ के अढ़ाई वर्ष ) से धन कि हानि ,खर्चों कि अधिकता ,संतान को कष्ट ,प्रवास ,परिवार में अनबन व भाग्य कि प्रतिकूलता होती है |
( गोचर में शनि के उच्च ,स्व मित्र,शत्रु नीच आदि राशियों में स्थित होने पर , अन्य ग्रहों से युति ,दृष्टि के प्रभाव से , अष्टकवर्ग फल से या वेध स्थान पर शुभाशुभ ग्रह होने पर उपरोक्त गोचर फल में परिवर्तन संभव है | )
शनि कि साढ़ेसाती व ढैया—-
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार  के अनुसार शनि की साढेसाती की मान्यतायें तीन प्रकार से होती हैं,पहली लगन से दूसरी चन्द्र लगन या राशि से और तीसरी सूर्य लगन से,उत्तर भारत में चन्द्र लगन से शनि की साढे साती की गणना का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है.इस मान्यता के अनुसार जब शनिदेव चन्द्र राशि से पूर्व राशि में गोचर वश प्रवेश करते हैं तो साढेसाती आरम्भ हो जातीहै  लगभग अढ़ाई वर्ष इस राशि में अगले अढ़ाई वर्ष जन्मराशी में और अंतिम अढ़ाई वर्ष जन्म राशि से अगली राशि में शनि का कुल गोचर काल साढ़े सात वर्ष होता है जिस कारण से इस अवधि को शनि की साढेसाती कहा जाता है | जन्म राशि से जब शनि चतुर्थ या अष्टम राशि में रहता  है तो शनि का ढैया कहा जाता है |
जन्म कुंडली में शनि बलवान , शुभ भावों का स्वामी  शुभ युक्त व शुभ दृष्ट हो कर शुभ फलदायक सिद्ध होता हो तो शनि कि साढेसाती या ढैया में अशुभ फल नहीं मिलता बल्कि उसका भाग्योत्थान व उत्कर्ष होता है |शनि के अष्टक वर्ग में यदि साढेसाती या ढैया कि राशि में चार या अधिक शुभ बिंदु प्राप्त हों तो भी शनि अशुभ फल नहीं देता | यदि जन्मकालीन शनि निर्बल ,अशुभ भावों का स्वामी , मारकेश ,पाप युक्त या दृष्ट ,अशुभ भावों में स्थित होने के कारण अशुभ कारक हो व अष्टक वर्ग में उस राशि में चार से कम शुभ बिंदु हों तो शनि कि साढेसाती या ढैया में चिता ,रोग व शत्रु से कष्ट ,अवनति ,आर्थिक हानि ,परिवार में मतभेद ,स्त्री व संतान को कष्ट ,कार्यों में विघ्न ,कलह ,अशांति होती है |
मेष ,कर्क ,सिंह,कन्या ,वृश्चिक ,मकर  मीन राशि को मध्य के अढ़ाई वर्ष , वृष ,सिंह ,कन्या,धनु,मकर कुम्भ,मीन के आरम्भ के अढ़ाई वर्ष तथा मिथुन ,तुला ,वृश्चिक,कुम्भ,व मीन के अंतिम अढ़ाई वर्ष साढेसाती में अधिक अशुभ फलदायक होते हैं |
शनि का पाया या चरण—–
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार शनि के गोचर का शुभाशुभ फल निश्चित करने के लिए शनि के पाए या चरण का विचार भी किया जाता है | जिस राशि में शनि हो वह यदि जन्म या नाम राशि से 3,7,10 वें स्थान पर हो तो सर्वश्रेष्ठ ताम्बे का पाया ,2-5-9 वें स्थान पर हो तो श्रेष्ठ चांदी का पाया ,1-6-11 वें स्थान पर हो तो मध्यम सोने का पाया तथा 4-8-12 वें स्थान पर हो तो अशुभ फलदायक लोहे का पाया होता है |
शनि शान्ति के उपाय——

——-जन्मकालीन शनि  निर्बल होने के कारण अशुभ फल देने वाला हो या शनि कि साढ़ेसाती व ढैया अशुभ कारक हो तो निम्नलिखित उपाय करने से बलवान हो कर शुभ फल दायक हो जाता है |

—— शनि गृह की शान्ती के लिये हर शनिवार को पिपल के पेड मे सरसो के तेल का दिपक लगाये, हनुमानजी के दशन करे तथा हनुमान चालिसा का पाठ करे, पत्येक शनिवार को शनिदेव को तेल चढाये तथा दशरथकृत शनि स्रोत का पाठ करे, तथा शनि की होरा मे जलपान नही करे, साथ ही काले कपडे पहने नही| केवल शनि ही नही, सभी नवग्रहो कि शांति के लिए ‘ग्रहमक’ नमक यज्ञ घर में किया जाता है जिस से नवग्रहो कि शांति हो पीड़ा समाप्त होती है. किसी पंडित द्वारा किया जाता है.  
——रत्न धारण – नीलम लोहे या सोने की अंगूठी में पुष्य ,अनुराधा ,उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रों में जड़वा कर शनिवार  को  सूर्यास्त  के बाद  पुरुष दायें हाथ की तथा स्त्री बाएं हाथ की मध्यमा अंगुली में धारण करें | धारण करने से पहले ॐ  प्रां प्रीं प्रों  सः शनये  नमः मन्त्र के १०८ उच्चारण से इस में ग्रह प्रतिष्ठा करके धूप,दीप , नीले पुष्प,  काले तिल व अक्षत आदि से पूजन कर लें|
नीलम की सामर्थ्य न हो तो उपरत्न संग्लीली , लाजवर्त भी धारण कर सकते हैं | काले घोड़े कि नाल या नाव के नीचे के कील  का छल्ला धारण करना भी शुभ रहता है |
—–दान व्रत ,जाप –  शनिवार के नमक रहित व्रत रखें | ॐ  प्रां प्रीं प्रों  सः शनये  नमः मन्त्र का २३  ०००  की संख्या में जाप करें | शनिवार को काले उडद ,तिल ,तेल ,लोहा,काले जूते ,काला कम्बल , काले  रंग का वस्त्र इत्यादि का दान करें |
किसी लोहे के पात्र में सरसों का तेल डालें और उसमें अपने शरीर कि छाया देखें | इस तेल को पात्र व दक्षिणा सहित शनिवार को संध्या काल में दान कर दें |
—–श्री हनुमान चालीसा का नित्य पाठ करना भी शनि दोष शान्ति का उत्तम उपाय है |
=======================================================

                          ——-दशरथ  कृत शनि  स्तोत्र—–

नमः कृष्णाय नीलाय शितिकंठनिभाय च |नमः कालाग्नि रूपाय कृतान्ताय च वै नमः ||
नमो निर्मोसदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च | नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ||
नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुनः | नमो दीर्घाय शुष्काय कालद्रंष्ट नमोस्तुते||
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरिक्ष्याय वै नमः|  नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने ||
नमस्ते सर्व भक्षाय बलि मुख नमोस्तुते|सूर्य पुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ||
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोस्तुते| नमो मंद गते तुभ्यम निंस्त्रिशाय नमोस्तुते ||
तपसा दग्धदेहाय नित्यम योगरताय च| नमो नित्यम क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नमः||
ज्ञानचक्षुर्नमस्ते ऽस्तु    कश्यपात्मजसूनवे |तुष्टो ददासि वै राज्यम रुष्टो हरसि तत्क्षणात ||
देवासुर मनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा | त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः||
प्रसादं कुरु में देव  वराहोरऽहमुपागतः ||
पद्म पुराण में वर्णित शनि के  दशरथ को दिए गए वचन के अनुसार जो व्यक्ति श्रद्धा पूर्वक शनि की लोह प्रतिमा बनवा कर शमी पत्रों से उपरोक्त स्तोत्र द्वारा पूजन करके तिल ,काले उडद व लोहे का दान प्रतिमा सहित करता है तथा नित्य विशेषतः शनिवार को भक्ति पूर्वक इस स्तोत्र का जाप करता है उसे दशा या गोचर में कभी शनि कृत पीड़ा नहीं होगी और शनि द्वारा सदैव उसकी रक्षा की जायेगी |

==========================================

शनिदेव,क्यों हैं लंगडे ..????

जीवात्मा हो या परमात्मा सभी को अपने-अपने कर्मो का फल भोगना प़डता है। ईश्वर भी कर्म बंधन से मुक्त नहीं है जब-जब उनके पुण्य कर्मो का क्षय हो जाता है, उन्हें भी पुण्य कर्मो की वृद्धि के लिए अवतार लेना प़डता है। शनिदेव जो स्वयं न्यायाधीश व दण्डाधिकारी है उन्हें स्वयं भी शाप युक्त होकर अपंगता का शिकार होना प़डा। शनिदेव की पगुंता या लंग़डेपन के नेपथ्य में दो कथायें मुख्य रूप से प्रचलित है। भगवान गणेश को गजानन बनाने के पीछे भी शनिदेव की दृष्टि को ही श्रेय जाता है। पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भगवान शिव व माता पार्वती ने “पुण्यक व्रत” का आयोजन किया था। इसी पुण्यक व्रत के प्रभाव स्वरूप माता पार्वती को पुत्र रत्न की प्राçप्त हुई। इस पुत्र प्राप्ति के उपलक्ष्य में शिव लोक में समारोह का आयोजन किया गया जिसमें सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया। सभी ने शिव-पार्वती पुत्र को अनेको उपहार तथा आशीर्वाद दिए। सभी देवी-देवता इस मांगलिक उत्सव पर अत्यंत प्रसन्न थे। इस समारोह में शनिदेव भी आए थे और वे नेत्र झुकाए हुए थे तथा मन ही मन शिव पुत्र को आशीर्वाद दे रहे थे। उसी समय माता पार्वती की दृष्टि शनिदेव पर प़डी और उन्होंने शनिदेव को नीचे दृष्टि किए हुए देखा।
यह देखकर माता पार्वती को अपने पुत्र का अपमान लगा और उन्होंने शनिदेव से अपने पुत्र को न देखने का कारण पूछा। शनिदेव ने कहा कि मैं अपनी पत्नी के शाप (तुम जिसकी ओर देखोेगे वह नष्ट हो जाएगा) से अभिशप्त हँू। माता! इसी कारणवश मैं, पुत्र गणेश की ओर दृष्टिपात नहीं कर रहा हँू। माँ पार्वती ने इस बात को हंसी में उ़डा दिया और कहा कि मेरे पुत्र को सभी देवी-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है और आपकी दृष्टि मेरे पुत्र का कुछ भी अमंगल नहीं कर सकती। माता पार्वती के हठ के परिणामस्वरूप शनिदेव ने ज्यों ही पुत्र गणेश पर दृष्टि डाली त्यो ही उनका सिर ध़्ाड से अलग हो ब्रrााण्ड में विलीन हो गया। शिव लोक में हाहाकार मच गया और माँ पार्वती पुत्र वियोग में विलाप करने लगीं और मूर्छित हो गई। तभी भगवान विष्णु उत्तर दिशा की ओर निकल प़डे और उन्होंने एक हथिनी जो अपने नवजात शिशु के साथ उत्तर दिशा में सिर करके सो रही थी, उस गज शिशु का मस्तक भगवान विष्णु ने काट लिया और शिव पुत्र के ध़्ाड पर जो़ड दिया। होश मेे आने पर माँ पार्वती ने शनिदेव को शाप दे दिया, किन्तु सभी देवताओं ने शनिदेव का पक्ष लिया कि शनिदेव ने आपके हठ के कारण ही आपके पुत्र पर दृष्टिपात किया था।
माँ पार्वती को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने उस शाप को शनिदेव के एक पैर की विकलता के रूप में बदल दिया तब से ही शनिदेव लंग़डेपन के शिकार हो गये। शनिदेव के लंग़डेपन के पीछे दूसरी पौराणिक कथा यह है कि – ऋषि विश्ववा के दो पत्नियां थी – “इडविडा” और “कैकसी”। इडविडा ब्राrाण कुल से थी, जिनसे “कुबेर” और “विभीषण” नामक दो संतानें उत्पन्न हुई थी और असुर कुल में उत्पन्न दूसरी पत्नी कैकसी से “रावण”, “कुंभकर्ण” और “सूर्पणखाँ” नामक तीन संताने थी। कुबेर ने धनाध्यक्ष की पदवी प्राप्त कर ली थी, जिसके कारण रावण तथा उसके भाईयों को बहुत ईष्र्या हुई और अपना तपोबल बढ़ाने के लिए रावण ने भाईयों सहित ब्रrाा की पूजा कर वरदान प्राप्त कर लिए और परम शक्ति का स्वामी बना गया।
रावण की पत्नी मंदोदरी जब गर्भवती हुई तो रावण ने अपराजेय तथा दीर्घायु पुत्र की कामना से सभी ग्रहों को अपनी इच्छानुसार स्थापित कर दिया। सभी ग्रह भविष्य में होने वाली घटनाओं को लेकर चिंतित थे लेकिन रावण के भय से वही ठहरे रहें लेकिन जब मेघनाद का जन्म होने वाला था, उसी समय शनिदेव ने स्थान परिवर्तन कर लिया जिसके कारण मेघनाद की दीर्घायु, अल्पायु में परिवर्तित हो गई। शनि की बदली हुई स्थिति को देखकर रावण अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने शनि के पैर पर अपनी गदा से प्रहार कर दिया जिसके कारण शनिदेव लंग़डे हो गए। 
============================================================
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार जन्मकुंडली में शनि ग्रह अशुभ प्रभाव में होने पर व्यक्ति को निर्धन, आलसी, दुःखी, कम 
 
शक्तिवान, व्यापार में हानि उठाने वाला, नशीले पदार्थों का सेवन करने वाला, अल्पायु निराशावादी, जुआरी, कान का रोगी, कब्ज का रोगी, जोड़ों के दर्द से पीड़ित, वहमी, उदासीन, 
 
नास्तिक, बेईमान, तिरस्कृत, कपटी, अधार्मिक तथा मुकदमें व चुनावों में पराजित होने वाला बनाता है। 
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार जिनकी कुंडली में शनि आशुभ है या जन्मकुंडली में शनि ग्रह अशुभ प्रभाव में होने पर व्यक्ति को निर्धन हो जाये , हर समय आलसी रहे , दुःखी, कम शक्तिवान, बार बार व्यापार में हानि उठाने वाला, जब शनि अशुभ फल देता है तो जातक नशीले पदार्थों का सेवन करने वाला बन जाता है , उसका दिमाक अच्छे कार्यों को नहीं करता जिसके कारन उसे जुआ खेलने , मैच में सट्टा लगाने या खिलाने वाला बन जाता है ,ऐसे जातक को कब्ज का रोगी, जोड़ों में दर्द से पीड़ित, वहमी , नास्तिक या बुरे कर्मो को करने वाला , बेईमान- धोखेबाज तिरस्कृत और अधर्मी बनता है , ऐसे जातक निम्न उपाय करे ..
अशुभ शनि ग्रह का उपाय के निवारण हेतु ये प्रयोग/उपाय करें—-
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) के अनुसार  एक समय में केवल एक ही उपाय करें.उपाय कम से कम 40 दिन और अधिक से अधिक 43 दिनो तक करें.यदि किसी करणवश अवरोध/गेप/नागा  हो तो फिर से प्रारम्भ करें., यदि कोइ उपाय नहीं कर सकता तो परिवार/खून का रिश्तेदार ( भाई, पिता, पुत्र इत्यादि) भी कर सकता है.–

—– ऐसे जातक को मांस , मदिरा, बीडी- सिगरेट नशीला पदार्थ आदि का सेवन न करे ,
—–हनुमान जी की पूजा करे एवं बजरंग बाण का पाठ करे ,
—- पीपल को जल दे अगर ज्यादा ही शनि परेशां  करे तो शनिवार के दिन शमशान घाट या नदी के किनारे पीपल का पेड़ लगाये ,
—–सवा किलो सरसों का तेल किसी मिट्टी के कुल्डह में भरकर काला कपडा बांधकर किसी को दान दे दें या नदी के किनारे भूमि में दबाये .
—–शनि के मंत्र का प्रतिदिन 108 बार पाठ करें। मंत्र है ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः। या शनिवार को शनि मन्त्र ॐ शनैश्वराय नम का 23 ,000 जाप करे .
—– उडद के आटे के 108 गोली बनाकर मछलियों को खिलाने से लाभ होगा ,
—–बरगद के पेड की जड में गाय का कच्चा दूध चढाकर उस मिट्टी से तिलक करे तो शनि अपना अशुभ प्रभाव नहीं देगा ,
—- श्रद्धा भाव से काले घोडे की नाल या नाव की कील का छल्ला मध्यमा अंगुली में धारण करें या शनिवार सरसों के तेल की मालिश करें,
—- शनिवार को शनि ग्रह की वस्तुओं का दान करें, शनि ग्रह की वस्तुएं हैं –काला उड़द,चमड़े का जूता, नमक, सरसों तेल, तेल, नीलम, काले तिल, लोहे से बनी वस्तुएं, काला कपड़ा आदि।
——शनिवार के दिन पीपल वृक्ष की जड़ पर तिल या सरसों के तेल का दीपक जलाएँ।
—–गरीबों, वृद्धों एवं नौकरों के प्रति अपमान जनक व्यवहार नहीं करना चहिए.
—–शनिवार को साबुत उडद किसी भिखारी को दान करें.या पक्षियों को ( कौए ) खाने के लिए डाले ,
—–ताऊ एवं चाचा से झगड़ा करने एवं किसी भी मेहनतम करने वाले व्यक्ति को कष्ट देने, अपशब्द कहने से कुछ लोग मकान एवं दुकान किराये से लेने के बाद खाली नहीं करते अथवा उसके बदले पैसा माँगते हैं तो शनि अशुभ फल देने लगता है।

——शनि ग्रह के तांत्रिक मंत्र का प्रतिदिन 108 बार पाठ करें। मंत्र है क्क प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः। शनि मन्त्र के अनुष्ठान की मन्त्र जाप संख्या है २३,००० है।
—–शनि ग्रह का यंत्र गले में धारण करें।
—— शनि ग्रह का यंत्र अपने पूजास्थल अथवा घर के मुख्य द्वार पर स्थापित करें।

—– शनि ग्रह की वस्तुओं का दान करें। शनि ग्रह की वस्तुएं हैं काला उड़द, तेल, नीलम, काले तिल, कुलथी, लोहा तथा लोहे से बनी वस्तुएं, काला कपड़ा, सुरमा आदि।
—— शनिवार को कीड़े-मकोड़ों को काले तिल डालें।
—–शनिवार को काली माह (काले उड़द) की दाल पीस कर उसके आटे की गोलियां बनाकर मछलियों को खिलाएं।
—– शनिवार को श्मशान घाट में लकड़ी दान करें।
—— सात शनिवार सरसों का तेल सारे शरीर में लगाकर और मालिश करके साबुन से  नहाएं।
—– शनिवार को शनि ग्रह की वस्तुएं न दान में लें और न ही बाजार से खरीदें।
—– सात शनिवार को सात बादाम तथा काले उड़द की दाल धर्म स्थान में दान करें।
—— बहते पानी में रोजाना नारियल बहाएँ। या किसी बर्तन में तेल लेकर उसमे अपना क्षाया देखें और बर्तन तेल के साथ दान करे. क्योंकि शनि देव तेल के दान से अधिक प्रसन्ना होते है,
—–अपना कर्म ठीक रखे तभी भाग्य आप का साथ देगा और कर्म कैसे ठीक होगा इसके लिए आप मन्दिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए जाएं.,माता-पिता और गुरु जानो का सम्मान करे ,अपने धर्मं का पालन करे,

——-भाई बन्धुओं से अच्छे सम्बन्ध बनाकर रखें.,पितरो का श्राद्ध करें. या प्रत्येक अमावस को पितरो के निमित्त मंदिर में दान करे,गाय और कुत्ता पालें, यदि किसी कारणवश कुत्ता मर जाए तो दोबारा कुत्ता पालें. अगर घर में ना पाल सके तो बाहर ही उसकी सेवा करे,
——–यदि सन्तान बाधा हो तो कुत्तों को रोटी खिलाने से घर में बड़ो के आशीर्वाद लेने से और उनकी सेवा करने से सन्तान सुख की प्राप्ति होगी .गौ ग्रास. रोज भोजन करते समय परोसी गयी थाली में से एक हिस्सा गाय को, एक हिस्सा कुत्ते को एवं एक हिस्सा कौए को खिलाएं आप के घर में हमेसा बरक्कत रहेगी
——सपेरे को सांप को दूध पिलाने के लिए पैसे दान करें।
——-सुबह/प्रातःकाल घर में रोटी बनाकर काली गाय या काले कुत्ते को खिलाएं।
 
शुभम भवतु..कल्याण हो…….जय शनि देव…..
 
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री(मोब.-09024390067 ) 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here