आइये जाने क्या हें गुरु पूर्णिमा ???? क्या हें गुरु पूर्णिमा का प्रभाव एवं महत्त्व ..????
( भावांजली-पंडित दयानंद शास्त्री-. )
विक्रम सम्वत् ..69 (आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा) ——–गुरू पूर्णिमा—— 0.rd July 20.2
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
इस दिन महाभारत ग्रन्थ के रचयिता महर्षि वेदव्यास जी का जन्मदिन भी है। उन्होने चारो वेदो की रचना की थी.इस कारण उनका नाम वेद व्यास पड़ा, उन्हें आदि गुरु भी कहा जाता है। उनके सम्मान में गुरू पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
हमें वेदों का ज्ञान देने वाले व्यास जी ही थे। अत: वे हमारे आदिगुरु हुए। उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए हमें अपने-अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करते थे तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु की पूजा किया करते थे और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा अर्पण किया करते थे। इस दिन केवल गुरु की ही नहीं अपितु कुटुम्ब में अपने से जो बड़ा है अर्थात माता-पिता, भाई-बहन आदि को भी गुरुतुल्य समझना चाहिए।
धर्म ग्रंथों के अनुसार यदि किसी इंसान को गुरु बनाने में यदि हिचकचाहट हो तो भगवान विष्णु, शंकर, हनुमान आदि को भी गुरु बनाया जा सकता है।
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है – अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है – उसका निरोधक। अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। इस दिन सुबह घर की सफ़ाई स्नान आदि के बाद घर में किसी पवित्र स्थान पर सफेद वस्त्र फैलाकर उस पर बारह-बारह रेखाएँ बनाकर व्यास-पीठ बनाएँ।
‘गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये’ मंत्र से संकल्प करें। इसके बाद दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ें।
अब ब्रह्माजी, व्यासजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम मंत्र से पूजा आवाहन आदि करें। फिर अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा कर उन्हें दक्षिणा दें।
प्राचीनकाल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर अपने गुरू का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति, सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतार्थ होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरु को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह-जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।
इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए क्योंकि गुरु का आशीर्वाद ही सबके लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है।
साधकोंके जीवनमें गुरुपूर्णिमाका महत्त्व अनन्यसाधारण है । गुरुके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेका यह दिन है । वर्षभर अधिक सेवा न करनेवाले साधकों की भी यह इच्छा रहती है कि गुरुपूर्णिमाके दिन अधिकाधिक सेवा कर, इस दिन १ सहस्रगुना कार्यरत गुरुतत्त्वका लाभ लेकर, साधनामें प्रगति करें । इस कारण गुरु-पूर्णिमाकी सेवामें साधक अधिक संख्यामें सम्मिलित होते हैं । गुरुपूर्णिमाका लाभ, सेवा परिपूर्ण एवं भावपूर्ण करनेपर ही होता है ।
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है।[3]अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। [क] बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। [ख]
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में गुरु की सेवा का महत्व प्रतिपादित किया है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ज्ञान का व्यवसायिक रूप से प्रवचन करने वाले अनेक गुरु इस संदेश का महत्व अपने अपने ढंग से बयान करते हुए अपनी छवि गुरु जैसी बना लेते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुरू के स्वरूप की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है इसलिये इसका उपयोग चाहे जैसे किया जा सकता है पर जो लोग श्रीमद्भागवत के अक्षरक्षः पालन करने के समर्थक हैं वह गुरू के अधिक व्यापक स्वरूप की बजाय उसके सूक्ष्म अर्थ पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। उनका स्पष्टतः मानना है कि असली गुरु वही है जो अपने शिष्य को तत्वज्ञान से अवगत कराने के साथ ही उसमें धारित या स्थापित करने का सामर्थ्य रखता हो।
भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।
इस दिन (गुरु पूजा) प्रात:काल स्नान पूजा आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर उत्तम और शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। उन्हें ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर पुष्पमाला पहनानी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय का अज्ञानता का अन्धकार दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है। इस पर्व को श्रद्धापूर्वक मनाना चाहिए, अंधविश्वासों के आधार पर नहीं। गुरु पूजन का मन्त्र है-
‘गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:।’
गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।
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आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाते हैं गुरु पूर्णिमा—-
आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का क्या राज़ है? धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा।
और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया? ज्यादा ठीक होता, ज्यादा मौजूं मालूम पड़ता। नहीं, लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है। वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से।
सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं। गुरु मेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं। गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं। गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है।
जीवन में संपत्ति, स्वास्थ्य, सत्ता, पिता, पुत्र, भाई, मित्र अथवा जीवनसाथी से भी ज्यादा आवश्यकता सदगुरु की है। सदगुरुशिष्य को नयी दिशा देते हैं, साधना का मार्ग बताते हैं और ज्ञान की प्राप्ति कराते हैं।
सच्चे सदगुरु शिष्य की सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करते हैं, योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं, भक्ति की सरिता में अवगाहन कराते हैं और कर्म में निष्कामता सिखाते हैं। इस नश्वर शरीर में अशरीरी आत्मा का ज्ञान कराकर जीते-जी मुक्ति दिलातेहैं।
सदगुरु जिसे मिल जाय सो ही धन्य है जन मन्य है।
सुरसिद्ध उसको पूजते ता सम न कोऊ अन्य है॥
अधिकारी हो गुरुदेव से उपदेश जो नर पाय है।
भोला तरे संसार से नहीं गर्भ में फिर आय है॥
गुरुपूनम जैसे पर्व हमें सूचित करते हैं कि हमारी बुद्धि और तर्क जहाँ तक जाते हैं उन्हें जाने दो। यदि तर्क और बुद्धि के द्वारा तुम्हें भीतर का रस महसूस न हो तो प्रेम के पुष्प के द्वारा किसी ऐसे अलख के औलिया से पास पहुँच जाओ जो तुम्हारे हृदय में छिपे हुए प्रभुरस के द्वार को पलभर में खोल दें।
पैसा कमाने के लिए पैसा चाहिए, शांति चाहिए, प्रेम पाने के लिए प्रेम चाहिए। जब ऐसे महापुरुषों के पास हम निःस्वार्थ, निःसंदेह, तर्करहित होकर केवल प्रेम के पुष्प लेकर पहुँचते हैं, श्रद्धा के दो आँसू लेकर पहुँचते हैं तो बदले में हृदय के द्वार खुलने का अनुभव हो जाता है। जिसे केवल गुरुभक्त जान सकता है औरों को क्या पता इस बात का ?
गुरु-नाम उच्चारण करने पर गुरुभक्त का रोम-रोम पुलकित हो उठता है चिंताएँ काफूर हो जाती हैं, जप-तप-योग से जो नही मिल पाता वह गुरु के लिए प्रेम की एक तरंग से गुरुभक्त को मिल जाता है, इसे निगुरे नहीं समझ सकते…..
आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष को जिसने गुरु के रुप में स्वीकार कर लिया हो उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय ? गुरु के बिना तो ज्ञान पाना असंभव ही है। कहते हैं :
ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान ।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान ॥
बस, ऐसे गुरुओं में हमारी श्रद्धा हो जाय । श्रद्धावान ही ज्ञान पाता है। गीता में भी आता हैः
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
अर्थात् जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है।
ऐसा कौन-सा मनुष्य है जो संयम और श्रद्धा के द्वारा भवसागर से पार न हो सके ? उसे ज्ञान की प्राप्ति न हो ? परमात्म-पद में स्थिति न हो?
शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।
ध्यान रखना, अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए काव्य-प्रतीक, तो तुम आषाढ़ की तरह हो, अंधेरे बादल हो। न मालूम कितनी कामनाओं और वासनाओं का जल तुममें भरा है, और न मालूम कितने जन्मों-जन्मों के संस्कार लेकर तुम चल रहे हो, तुम बोझिल हो। तुम्हारे अंधेरे से घिरे हृदय में रोशनी पहुंचानी है। इसलिए पूर्णिमा की जरूरत है!
चांद जब पूरा हो जाता है, तब उसकी एक शीतलता है। चांद को ही हमने गुरु के लिए चुना है। सूरज को चुन सकते थे, ज्यादा समीचीन होता, तथ्यगत होता, क्योंकि चांद के पास अपनी रोशनी नहीं है। इसे थोड़ा समझना होगा। चांद की रोशनी उधार है। सूरज के पास अपनी रोशनी है। चांद पर तो सूरज की रोशनी का प्रतिफलन होता है। जैसे कि तुम दीये को आईने के पास रख दो, तो आईने में से भी रोशनी आने लगती है। वह दीये की रोशनी का प्रतिफलन है, वापस लौटती रोशनी है। चांद तो केवल दर्पण का काम करता है, रोशनी सूरज की है।
गुरु अपने शिष्य से और कुछ नही चाहते। वे तो कहते हैं:
तू मुझे अपना उर आँगन दे दे, मैं अमृत की वर्षा कर दूँ ।
तुम गुरु को अपना उर-आँगन दे दो। अपनी मान्यताओं और अहं को हृदय से निकालकर गुरु से चरणों में अर्पण कर दो। गुरु उसी हृदय में सत्य-स्वरूप प्रभु का रस छलका देंगे। गुरु के द्वार पर अहं लेकर जानेवाला व्यक्ति गुरु के ज्ञान को पचा नही सकता, हरि के प्रेमरस को चख नहीं सकता।
अपने संकल्प के अनुसार गुरु को मन चलाओ लेकिन गुरु के संकल्प में अपना संकल्प मिला दो तो बेडा़ पार हो जायेगा।
नम्र भाव से, कपटरहित हृदय से गुरु से द्वार जानेवाला कुछ-न-कुछ पाता ही है।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।’ (गीताः ४.३४)
जो शिष्य सदगुरु का पावन सान्निध्य पाकर आदर व श्रद्धा से सत्संग सुनता है, सत्संग-रस का पान करता है, उस शिष्य का प्रभाव अलौकिक होता है।
‘श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण’ में भी शिष्य से गुणों के विषय में श्री वशिष्ठजी महाराज करते हैः “जिस शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा, विश्वास और सदभावना होती है उसका कल्याण अति शीघ्र होता है।”
शिष्य को चाहिये के गुरु, इष्ट, आत्मा और मंत्र इन चारों में ऐक्य देखे। श्रद्धा रखकर दृढ़ता से आगे बढे़। संत रैदास ने भी कहा हैः
हरि गुरु साध समान चित्त, नित आगम तत मूल।
इन बिच अंतर जिन परौ, करवत सहन कबूल ॥
‘समस्त शास्त्रों का सदैव यही मूल उपदेश है कि भगवान, गुरु और संत इन तीनों का चित्त एक समान (ब्रह्मनिष्ठ) होता है। उनके बीच कभी अंतर न समझें, ऐसी दृढ़ अद्वैत दृष्टि रखें फिर चाहे आरे से इस शरीर कट जाने का दंड भी क्यों न सहन करना पडे़ ?
अहं और मन को गुरु से चरणों में समर्पित करके, शरीर को गुरु की सेवा में लगाकर गुरुपूर्णिमा के इस शुभ पर्व पर शिष्य को एक संकल्प अवश्य करना चाहियेः ‘इन्द्रिय-विषयों के लघु सुखों में, बंधनकर्ता तुच्छ सुखों में बह जानेवाले अपने जीवन को बचाकर मैं अपनी बुद्धि को गुरुचिंतन में, ब्रह्मचिंतन में स्थिर करूँगा।’
हमने गुरु को सूरज कहा होता, तो बात ज्यादा दिव्य और गरिमापूर्ण लगती। और सूरज के पास प्रकाश भी विराट है। चांद के पास कोई बहुत बड़ा प्रकाश थोड़े ही है, बड़ा सीमित है। पर हमने सोचा है बहुत, सदियों तक, और तब हमने चांद को चुना है -दो कारणों से। एक, गुरु के पास भी रोशनी अपनी नहीं है, परमात्मा की है। वह केवल प्रतिफलन है। वह जो दे रहा है, अपना नहीं है, वह केवल निमित्त मात्र है, वह केवल दर्पण है।
तुम परमात्मा की तरफ सीधा नहीं देख पाते, सूरज की तरफ सीधे देखना भी बहुत मुश्किल है। प्रकाश की जगह आंखें अंधकार से भर जाएंगी। परमात्मा की तरफ भी सीधा देखना असंभव है। रोशनी ज्यादा है, बहुत ज्यादा है, तुम संभाल न पाओगे, असह्य हो जाएगी। तुम उसमें टूट जाओगे, खंडित हो जाओगे, विकसित न हो पाओगे।
इसलिए हमने सूरज की बात छोड़ दी। वह थोड़ा ज्यादा है, शिष्य की सामर्थ्य के बिल्कुल बाहर है। इसलिए हमने बीच में गुरु को लिया है।
गुरु एक दर्पण है, पकड़ता है सूरज की रोशनी और तुम्हें दे देता है। लेकिन इस देने में वह रोशनी को मधुर और सहनीय बना देता है। इस देने में रोशनी की त्वरा और तीव्रता समाप्त हो जाती है। दर्पण को पार करने में रोशनी का गुणधर्म बदल जाता है। सूरज इतना प्रखर है, चांद इतना मधुर है।
इसीलिए तो कबीर ने कहा है, गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय। किसके छुऊं पैर?
वह घड़ी आ गई, जब दोनों सामने खड़े हैं।
फिर कबीर ने गुरु के ही पैर छुए, क्योंकि बलिहारी गुरु आपकी, जो गोविंद दियो बताय।
श्रीमद्भागवत गीता एक अनमोल ग्रंथ है। ऐसा कोई भी पेशेवर या गैर पेशेवर अध्यात्मवेता नहीं है जो उसके स्वर्णिम भंडार रूपी तत्वज्ञान से अपना मोह दूर रख सके। यह अलग बात है कि पेशेवर संत गुरु का अर्थ अत्ंयत व्यापक कर जाते हैं। वह उसमें माता पिता, दादा दादी और नाना नानी भी जोड़ देते हैं ताकि वह अपने शिष्यों के साथ उनके परिवार में भी पैठ बना सकें। जबकि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों से ऐसा आभास नहीं होता। वहां गुरु से आशय केवल तत्वज्ञान देने वाले परिवार से बाहर के गुरु से ही है। उसकी सेवा की बात करना स्वाभाविक भी हैै। वह भी उस समय जब उससे शिक्षा प्राप्त की जा रही हो। उस समय गुरुकुलोंु में शिक्षा होती थी और सेवा एक आवश्यकता थी। न कि गुरुजी के दिये ज्ञान को धारण किये बिना हर वर्ष उसके यहां मत्था टेककर अपना जीवन धन्य समझना।
गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत में मौजूद हर वनस्पति, प्राणियों, ग्रह-नक्षत्रों को अपना गुरु माना। जिनकी प्रकृति और गुणों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इनकी संख्या २४ थी। इनमें प्रमुख रुप से पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, सूर्य, चंद्र, कबूतर, मधुमक्खी, हाथी, अजगर, पतंगा, हिरण, मछली, गरुड़, मकड़ी, बालक, वैश्या, कन्या, बाण प्रमुख थे। जिनसे उन्होंने कोई गुरु मंत्र और शिक्षा नहीं ली। मात्र इनकी गति, प्रकृति, गुणों को देखकर अपनी दृष्टि और विचार से शिक्षा पाई और आत्म ज्ञान पा लिया।
इससे ही श्री दत्तात्रेय जगद्गुरु बन गए।
गुरु दत्तात्रेय ने जगत को बताया कि मात्र देहधारी कोई मनुष्य या देवता ही गुरु नहीं होता। बल्कि पूरे जगत की हर रचना में गुरु मौजूद है। यहां तक कि स्वयं के अंदर भी। जिनको देखना और जानना बहुत जरुरी है
कुछ पेशेवर संत माता पिता की सेवा का उपदेश देकर भीड़ की वाहवाही लूटते हैं क्योंकि उनके भक्तों में अनेक माता पिता भी होते हैं। ऐसे में कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि क्या श्रीमद्भागवत गीता में माता पिता के सेवा के लिये कोई स्पष्टतः उल्लेख नहीं हैं तो उन्हें बता दें कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो गृहस्थ जीवन का त्याग करने की बजाय उसे निभाने की बात कही है। हमारे माता पिता हमारी गृहस्थी का ही भाग होते हैं न कि उनसे अलग हमारा और हमसे अलग उनका कोई अस्तित्व होता है। हम उनकी गृहस्थी का विस्तार हैं तो वह हमारी गृहस्थी के शीर्ष होते हैं। जो व्यक्ति गृहस्थ धर्म का पालन करता है वह अपनी गृहस्थी में शामिल हर सदस्य के प्रति अपना कर्तव्य निभाता है। इस दैहिक संसार में कोई भी आदमी अपने गृहस्थ कर्म से विमुख नहीं हो सकता इसलिये गुरु के स्वरूप का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है।
लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवकश्यता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। जीवन में गुरु होना चाहिए पर न हो तो फिर श्रीमद्भागवत गीता को ही गुरू मानकर शिष्य भाव से उसका अध्ययन करना चाहिये जो अब सभी भाषाओं में उपलबध है। भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन किया जाये तो ज्ञान चक्षु स्वतः खुल जायेंगे। फिर कहीं सत्संग और चर्चा करें तो अपने ज्ञान को प्रमाणिक भी बना सकते हैं। मुख्य बात संकल्प की है। हमारा स्वय का संसार हमारे सामने अपने ही संकल्प से वैसे ही स्थित होता है जैसे परमात्मा के संकल्प से स्थित है। अगर द्रोणाचार्य जैसे गुरु नहीं मिलते तो एकलव्य जैसा शिष्य तो बना ही जा सकता है।
इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए क्योंकि गुरु का आशीर्वाद ही सबके लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है। इस दिन गुरुओं के आशिर्वाद प्राप्त करने, दर्शन -पूजन और सेवा करना अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है. गुरु का आशिर्वाद लेने से शिष्य का आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त होता है ।
गुरु और शिष्य का सम्बन्ध विषुद्ध रूप से आध्यात्मिक संबंध होता है, जिसमें दोनो की उम्र से कोई अन्तर नहीं पड़ता । गुरु और शिष्य का यह सम्बन्ध भक्ति और साधना की परिपक्वता और प्रौढ़ता पर आधारित होता है । शिष्य में सदा यह भावना काम करती है कि गुरु की कृपा से मेरा आध्यात्मिक विकास हो और कृपा के अक्षय भंडार गुरु में तो सदा यह कृपापूर्ण भाव रहता ही है कि मेरे इस शिष्य का आत्मिक कल्याण हो जाए ।
गुरुपूजा का दिन गुरु और शिष्य के मध्य ऐसे आध्यात्मिक संबंध को वन्दन करने का दिन है । यदि जगत् में सद्गुरु ने शिष्यों को उनके मनुष्य होने का महत्व तथा उन्हें अपने अन्तस्थ आत्मा को अनुभव कराने का उपाय न बतलाया होता तो अपनी अन्तरात्मा के दर्शन ही नहीं होते ।
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आइये जाने की इस गुरु पूर्णिमा पर अपनी राशि के अनुसार अपने गुरु को क्या दें उपहार—-
—-यदि आपकी राशि मेष, कर्क, तुला या मकर है तो आप अपने गुरु को सफेद वस्त्र,चावल, सफेद मिठाई का उपहार दें।
—-वृषभ, सिंह, वृश्चिक या कुंभ राशि के लोग अपने गुरु को लाल वस्त्र, गेंहू व लाल फल भेंट करें।
—-मिथुन, कन्या, धनु, मीन राशि वाले यदि अपने गुरु को पीले वस्त्र, चना दाल, या पीले फल भेंट करेंगे तो श्रेष्ठ रहेगा।
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भूलकर भी गुरु के सामने यह न करें—-
शिष्य को चाहिए की गुरु के आसन एवं शैय्या का प्रयोग खुद नही करें। गुरु के सामने टिक कर न बैठें, उनके सामने पांव फैला कर ना बैठें, उनके सामने अश्लील शब्दों का प्रयोग नही करें आदि बातों का ध्यान रखें।
धर्म शास्त्रों में यह लिखा है कि गुरु के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। फल, वस्त्र, अन्न अथवा कोई न कोई उपहार लेकर ही गुरु के पास जाना चाहिए। यहां हम आपको बता रहें कि राशि के अनुसार आप अपने गुरु को क्या उपहार दें। गुरु को राशि के अनुसार उपहार देने से आपको गुरु का आशीर्वाद तो मिलेगा ही साथ ही सुख-समृद्धि भी प्राप्त होगी।
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यदि कामयाबी चाहिए तो करें गुरु यंत्र की पूजा—
गुरु पूर्णिमा का पर्व है। यदि इस दिन गुरु यंत्र को स्थापित कर उसकी विधि-विधान से पूजा की जाए तो हर कार्य में सफलता मिलने लगती है। जिन लोगों की कुंडली में गुरु अशुभ है उनके लिए भी इस दिन गुरु यंत्र की स्थापना कर पूजा करना श्रेष्ठ रहेगा।
गुरु यंत्र का महत्व—–
ज्योतिष के अनुसार गुरु ग्रह धर्म का ज्ञान का प्रतीक है जिन जातकों की कुंडली में गुरु सही नहीं होता है उन जातकों का शरीर ठीक अनुपात में नहीं होता। ऐसे जातक जो भी काम करते हैं उस काम में उन्हें सफलता मिलने में संदेह रहता है। विवाह में समस्याएं आती है। ऐसे जातक नेतृत्व करने में अक्षम होते हैं व इनमें भाषा संबंधी दोष भी होता है।
ऐसे करें गुरु यंत्र की स्थापना—-
सुबह जल्दी उठकर नित्य कर्म से निपटकर गुरु यंत्र को गौमूत्र, गंगा जल व गाय के दूध से स्नान कराएं। इसके बाद गुरु यंत्र को पूजन स्थल पर रखकर उसके आगे दीप जलाएं व पंचोपचार पूजन करें। इसके बाद पीले फूल, पीले फल व पीली मिठाई चढ़ाएं। इसके बाद नीचे लिखे गुरु मंत्र का जप करें। जप करने के लिए पीले चंदन की माला का उपयोग करें। इस प्रकार प्रतिदिन गुरु यंत्र का पूजन करें व मंत्र जप करें। शीघ्र ही आपकी सभी समस्याओं का निराकरण हो जाएगा। गुरु यंत्र के साथ यदि भगवान शिव की उपासना भी करें तो श्रेष्ठ फल प्राप्त होते हैं।
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गुरु पूर्णिमा पर कृ्षि महत्व——
गुरु पूर्णिमा यानि व्यास पूर्णिमा के दिन प्रकृ्ति की वायु परीक्षा की जाती है । यह परीक्षा माँनसून के दौरान कृ्षि और बागवानी कार्यो में महत्वपूर्ण सिद्ध होती है । व्यास पूर्णिमा के दिन को वायु परिक्षण के लिये शुभ माना जाता है । इस दिन मानसून परीक्षा कर आने वाली फसल का पूर्वानुमान लगाया जाता है । और अगले चार माहों में सूखा या बाढ आने की स्थिति का पूर्वानुमान लगाया जाता है । भारत प्राचीन काल से ही कृषि प्रधान देश है. ऎसे में इस दिन की महत्वता और भी बढ जाती है ।