धरती पर जब देवी स्वरूप धारण कर उतरती है, तो वह प्रकृति में सबसे निराला, कोमल तथा बेजोड़ स्वरूप होता है। चरणों में कुंकुम लगाए और नूपुर झंकार की मधुर ध्वनि सुनाती देवी का धरती पर साक्षात अवतरण है-नारी। स्त्री में तेज और दीप्ति की प्रमुखता है। इसी से हमारे यहां नारी के नाम में “देवी” शब्द जोड़ा जाता है। आजकल नई पीढ़ी की महिलाएं अपने नाम के आगे “देवी” शब्द लगाना भले ही पसंद न करती हो, पर है यह बड़ा ही अर्थ-गंभीर और महिमामय शब्द। देवी स्वयं कहती है कि “पृथ्वी पर सारी çस्त्रयों में जो भी सौभाग्य, सौंदर्य है, वो पूरी तरह से मेरा ही है।” तभी तो अष्टमी और नवमी को हम कन्याओं के पग पखारते हैं, उन्हें दक्षिणा देते हैं, लेकि नवही लक्ष्मी और सरस्वती-स्वरूपिणी कन्या जब हमारे घर कोख में उतरती है तो अवतार लेने से पहले हम उसे नष्ट कर डालते हैं! क्या यही है दुर्गा पूजा और हमारी श्रद्धा का सत्य?
शरदकाले माहपूजा क्रियते या च वार्षिकी।
तस्यां ममैतन्माहात्मयं श्रुत्वा भक्ति समन्वित:॥
सर्वबाधाविनिमरूक्तो धनधान्य सुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादने भविष्यति न संशय:॥
अर्थात् शारदीय और वसंत नवरात्रों में जो मेरी महापूजा की जाती है, उसमें श्रद्धाभक्ति के साथ श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए या सुनना
देवी आराधना का आधार—–
शरद और वसंत ऋतु में सभी प्राणी ज्यादा बीमार होते हैं, ऐसे में नियमपूर्वक फलाहार और मन, वचन, कर्म से शुद्ध आचरण करने से स्वस्थ जीवन जीने का अवसर प्राप्त होता है। भारतीय गृहस्थ जीवन के लिए वैसे भी शक्ति पूजन, शक्ति संवर्धन व शक्ति संचय को उपयोगी माना गया है। ‘स्त्रियां समस्ता:, सकला जगत्सु’ के अनुसार विश्व की सभी स्त्रियों को जगदंबा का रूप समझते हुए वीर-वीरांगनाओं के चरित्र से बल और शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से भी नवरात्रों के दौरान देवी की पूजा की जाती है, जिससे वैवाहिक जीवन के चार शत्रुओं काम, क्रोध, लोभ, मोहादि पर विजय पाई जा सके। पांच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी) तथा चार अंत:करण जैसे मन, बुद्घि, चित व अहंकार कुल नौ तत्व ही प्रकृति विकार के मुख्य परिणाम हैं। हर महिला जिसे गृहस्थ जीवन को सुखी बनाना है, उसे इनका महत्व जानना चाहिए। अनेक स्थानों पर कहा गया है-
दैत्यनाशार्थवचनो दकार: परिकीर्तित:।
उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मत:॥
रेफो रोगघ्नवचनो गश्च पापघ्नवाचक:।
भयशत्रुघ्नवचनश्चाकार: परिकीर्तित:॥
अर्थात् द-दैत्यनाश, उ-विघ्ननाश, र-रोगनाश, ग-पापनाश, आ-भय और शत्रुनाश का तात्पर्य है। अत: ‘ओम दुं दुर्गायै नम:’ भी एक प्रभावशाली मन्त्र है। मां से शक्ति प्राप्त कर हमें जिनका नाश करना है वे राक्षस कौन हैं? दुर्ग यानी हमारे तन-मन में छुपे तौर पर रहने वाले शोक, रोग, भव बन्धन, भय, आशंका आदि मनोविकार, शरीर के सामान्य क्रियाकलापों को प्रभावित करने वाले विकार या कीटाणु, जाने अनजाने होने वाले पाप, सब तरह के गुप्त प्रकट शत्रु ही दैत्य हैं।
रोग, शोक, महामारी, भय सामने हो, अपने शरीर की प्रतिरोधक शक्ति कम हो, रोग होने की आशंका हो या रोग आ चुका हो, तो देवी की शरण में जाना चाहिए।
साधकों की भाषा में यही दुर्गा देवी के नौ रूप हैं। यही आद्यशक्ति तीन रूपों में महालक्ष्मी, महासरस्वती एवं महाकाली के रूप में प्रसिद्ध हैं और सत, रज, तम की अधिष्ठात्री यही तीनों हैं। ये तीनों एक नारी के रूप में शक्तियां है। इन्हीं तीनों स्वरूपों, महाशक्तियों की आराधना करने से हमें बल, बुद्धि व सौभाग्य की प्राप्ति होती है। समस्त देवता भी भगवती की आराधना करते हैं। वे आदिशक्ति महालक्ष्मी के रूप में विराजमान होकर हर जगह पूजे जाते हैं। मां रजोगुण रूप में संसार का निर्माण करती हैं, सात्विक रूप में पालन करती हैं और समय की आवश्यकतानुसार तामसी रूप में संहार करती हैं।
भगवती की आराधना एवं उपासना से विशेष रूप से महिलाओं के अस्तित्व में दुर्गा का संचार होता है। इन नौ दिनों में मां से वरदान स्वरूप सहनशीलता, अस्थिर मन को स्थिरता, विवेक, आत्मबल, आत्मशक्ति की प्राप्ति कर सकते हैं। शक्ति साधना के समय मन, कर्म, वचन से श्रद्धापूर्वक मां की आराधना करने से सुख की प्राप्ति होती है। साधना के समय कई ऐसी स्थितियां सहज ही पैदा होती है, जो मन को भटकाती हैं। मां के स्वरूपों के प्रति विश्वास व प्रेम जागृत रहने से वातावरण में भी असुरी शक्तियों का नाश व दिव्य शक्तियों का संचार होने लगता है। नवरात्र के नौ दिन पावन दिन हैं। स्त्रियों को अपने भीतर छिपी शक्तियों को पहचानने के लिए यह उपयुक्त मौका है। महिलाएं तो शक्ति का भंडार हैं। केवल जरूरत है उन्हें अपने भीतर की संचित शक्तियों को पहचानने और उन्हें सही तरीके से संचालित करने की।
दुर्गासप्तशती के हर अध्याय में मां के विभिन्न स्वरूपों का उल्लेख मिलता है। दुर्गासप्तशती को ध्यानपूर्वक पढ़ने से मां अंबे की महिमा का बखूबी ज्ञान हो जाता है। दुर्गासप्तशती के तेरह अध्याय मां के स्वरूपों के माध्यम से भक्तों की मुश्किलों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। जीवन की किसी भी प्रकार की बाधाओं को दूर करने में नवरात्र के नौ दिन बहुत ही पावन माने गए हैं।
हमें मानना होगा देवी किसी पत्थर की मूर्ति में नहीं, वह तो केवल नारी में विराजमान है। वह देवी ही हमारेे घर में मां, पत्नी और बेटी के रूप में मौजूद है। हम घर में इन स्वरूपों का आदर करें और उनसे सच्चरित्र तथा शक्ति का आशीर्वाद मांगें। आज से शरत्काल के पवित्र आश्विन मास में शुभ्र चांदनी को फैलाते शुक्ल पक्ष में घर-घर में “दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोùस्तुते” की शास्त्रीय ध्वनि सुनाई देने लगी है।
ये मंत्र वे हैं, जिन्हें शताब्दियों से हमारी संस्कृति में भगवती से वर प्राप्ति के लिए जपा जाता है। दुर्गा पूजा, शारदीय नवरात्र और महाशक्तिअनुष्ठान-तीन नाम पर त्योहार एक। नवरात्र अर्थात जौ में उग आए नन्हे-नन्हे अंकुरों तथा नौ दिनों तक घर-आंगन में आनंद प्रसाद बांटती कन्यारूपिणी शक्ति का पूजन-अर्चन-वंदन। नवरात्र वर्ष में चार बार आते हैं। दो बार प्रत्यक्ष और दो बार गु# रूप में, लेकिन इनमें प्रत्यक्ष रूप में आने वाले शारदीय नवरात्र सबसे ज्यादा प्रशस्त हैं। दुर्गास#शती में देवी स्वयं कहती हैं कि “शारदीय नवरात्र में जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति सहित मेरी पूजा करेगा, वह सभी बाधाओं से मुक्तहोकर धन, धान्य और संतान को प्राप्त करेगा।”
कैसे करें देवी की पूजा…????
नवरात्र के दिनों में श्रद्घापूर्वक मां का दरबार सजाया जाता है। कई घरों में अखंड ज्योति प्रज्वलित की जाती है। घर परिवार की शुभता के लिए मंगल कलश स्थापित करके एक मिट्टी के बर्तन में जौ बोने का विधान है। इन नौ दिनों में मां दुर्गा का पूजन, पाठ और हवन किया जाता है। सुबह और शाम उनकी आरती उतारी जाती है। मां को लाल चुनरिया, लाल फूल चढ़ाए जाते हैं। नवरात्र के दौरान सुबह और शाम भक्तिपूर्वक दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए।
व्यस्तता के कारण आप प्रतिदिन एक अध्याय भी पढ़ सकती हैं। यदि व्रत संकल्प लेकर नौ दिनों का व्रत रखा है, तो भोजन में अन्न और नमक न लें। नवरात्र के दौरान सिर्फ फलाहार ही करें। कई लोग नवरात्र के दौरान सिर्फ पानी पीकर और दिन भर में एक जोड़ा लौंग खाकर ही रहते हैं।
नवरात्र का व्रत श्क्ति उपासना के सभी व्रतों में सर्वोच्च और श्रेष्ठ है। यह संपूर्ण मनोकामनाओं को पूरा करने वाला और मानसिक शांति देने वाला व्रत है। नवरात्र के आठवें दिन दुर्गाष्टमी मनाई जाती है। कुछ लोग नवमी के दिन उद्यापन करते हैं। उद्यापन में सही विधि से पूजा करें। हवन आदि करके मां भगवती को सामर्थ्यनुसार लाल चुनरी, श्रृंगार का सामान, माला और फल आदि चढ़ाकर सौभाग्य का वरदान प्राप्त करें। पूरी, हलवा, चने का भोग लगाकर नौ कुंवारी कन्याओं को भोजन करवाएं और उन्हें सामथ्र्यनुसार उपहार भी दें। दक्षिणा देना भी न भूलें।
श्रद्धानुसार एक बालक को भी भोजन कराएं और दक्षिणा-दान दें। अष्टमी व नवमी की संध्या को भक्तिपूर्वक भजन, पूजन, मां भगवती की आरती करना न भूलें।
देवी भागवत का कथन है कि दुख, दरिद्रता, कष्ट का निवारण, विजय, सामने खड़ी मुसीबत, रोग से रक्षा के लिए दुर्गा की विधि विधान से पूजा अर्चना करनी चाहिए।
ऐसे करें देवी मां की पूजा-अर्चना
प्राय: धार्मिक अनुष्ठानों में शुद्धता, दिशा और स्थान का खास ध्यान रखा जाता है। मां दुर्गा की पूजा करते समय उत्तर-पूर्व के स्थान का चुनाव करें।
हरियाली (जौ) बोने के लिए शुद्ध छनी हुई मिट्टी लें। माटी के साफ बर्तन में या धरती पर बोएं।
मां की प्रतिमा के दाहिनी ओर हरियाली और बांईओर कलश स्थापित करें।
अखण्ड ज्योति के लिए शुद्घ घी का प्रयोग करें।
मां को लाल चंदन, लाल फूल, लाल चुनरी एवं श्रृंगार की वस्तुएं भेंट करें।
सुबह-शाम मां का दुर्गासप्तशती पाठ, दुर्गा स्तोत्र, दुर्गा स्तुति एवं आरती करके आशीर्वाद प्राप्त करें।
व्रत विधान के अनुसार नौ दिन या कुछ लोग प्रथम व अन्तिम दिन फलाहारी व्रत रख सकते हैं।
अष्टमी के दिन नौ कुंवारी कंन्याओं (9 साल तक की उम्र की अति उत्तम मानी गई है) को मीठा भोजन कराके सामर्थ्यनुसार वस्त्र, वस्तुएं, दक्षिणा भेंट करें।
उद्यापन के बाद एक बालक और अपने गुरूजन को भी भोजन कराके वस्त्र, दक्षिणा देकर अपने सुखमय जीवन का आशीर्वाद प्राप्त करें।
नौवें दिन मां सिद्घिदात्री की आरती करें। इनकी पूजा-अर्चना करने से पारिवारिक संपन्नता, उन्नति, पूर्णता और श्रेष्ठता की प्राप्ति होती है।
नवरात्र जैसा सांस्कृतिक पर्व साधना और संयम के मनोभावों को प्रकट करने का पर्व-काल है। इन्हीं नौ दिनों में भगवान श्रीराम ने अत्याचारी रावण को मारने के लिए किष्किंधा में प्रवर्षण पर्वत पर “शक्ति पूजा” की थी। अधर्म के थपेड़े खा रहे पांडवों को महाभारत के धर्म युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण ने इन्हीं नौ दिनों में “देवी पूजा” करने का उपदेश दिया था। धर्मिक इतिहास की ओर नजर डालें तो नवरात्र का उल्लेख वैदिक काल से है। इसी कारण घर-घर में दुर्गा-पूजा उत्सव की तरह मनाई जाती है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार स्वच्छ दीवार पर सिंदूर से देवी की मुख-आकृति बना ली जाती है। सर्वशुद्धा माता दुर्गा की जो तस्वीर लय हो जाए, वही चौकी पर स्थापित कर दी जाती है, पर देवी की असली प्रतिमा तो “घट” है। घट पर घी-सिंदूर से कन्या चिह्न और स्वस्तिक बनाकर उसमें देवी का आह्वान किया जाता है। देवी के दाईं ओर नव-यवांकुर (जौ के अंकुर) और सामने हवनकुंड! नौ दिनों तक नित्य देवी का आह्वान फिर स्नान, वस्त्र और गंध आदि से षोडशोपचार पूजन। नैवेद्य में पतासे और नारियल तथा खीर। पूजन तथा हवन के बाद “दुर्गास#शती” का पाठ।
कूर्मपुराण में धरती की स्त्री का पूरा जीवन आकाश में रहने वाली नवदुर्गा की मूर्ति मे स्पष्ट रूप से बताया गया है। जन्म ग्रहण करती हुई कन्या “शैलपुत्री”, कौमार्य अवस्था तक “ब्रह्मचारिणी” तथा विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल और पवित्र होने से “चंद्रघंटा” कहलाती है। नए जीव को जन्म देने हेतु गर्भधारण करने से “कूष्मांडा” और संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री “स्कंदमाता” के रूप में होती है। संयम और साधना को धारण करने वाली स्त्री “कात्यायनी” और पतिव्रता होने के कारण अपनी और पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने से “कालरात्रि” कहलाती है। कालीपुराण के अनुसार सारे संसार का उपकार करने से “महागौरी” तथा धरती को छोड़कर स्वर्ग प्रयाण करने से पहले पूरे परिवार और सारे संसार को सिद्धि तथा सफलता का आशीर्वाद देती नारी “सिद्धिदात्री” के रूप में जानी जाती है।
दूध-दही
चौलाई (चंद्रघंटा)
पेठा (कूष्माण्डा)
श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
हरी तरकारी (कात्यायनी)
काली मिर्च व तुलसी (कालरात्रि)
साबूदाना (महागौरी)
आंवला(सिद्धीदात्री)
क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।
—-इसके बाद उन्हें उचित आसन पर बैठाकर उनके हाथ में मौली बांधे और माथे पर बिंदी लगाएं।
—-उनकी थाली में हलवा-पूरी और चने परोसे।
—–अब अपनी पूजा की थाली जिसमें दो पूरी और हलवा-चने रखे हुए हैं, के चारों ओर हलवा और चना भी रखें। बीच में आटे से बने एक दीपक को शुद्ध घी से जलाएं।
—-कन्या पूजन के बाद सभी कन्याओं को अपनी थाली में से यही प्रसाद खाने को दें।
—-अब कन्याओं को उचित उपहार तथा कुछ राशि भी भेंट में दें।
—–जय माता दी कहकर उनके चरण छुएं और उनके प्रस्थान के बाद स्वयं प्रसाद खाने से पहले पूरे घर में खेत्री के पास रखे कुंभ का जल सारे घर में बरसाएँ।