आइये जाने क्या हें बसंत पंचमी ????
आप सभी बसंत पंचमी पर्व के बाते में जानते हें ..इस वर्ष यह पर्व माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन .8 जनवरी,2..2 को मनाया जायेगा…इस दिन अबूझ मुहूर्त होने के कारण अनेक युवक-युवतियां विवाह बंधन में भी बंधते हें…बसंत पंचमी को अबुझ सावा होता है। यानी इस दिन विवाह के लिए पंडितों से मुहूर्त निकलवाने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे में इस दिन वह लोग भी विवाह करते हैं जिनकी शादी में ग्रहों की चाल की वजह से कुछ अड़चनें होती हैं। यही कारण है कि इस मुहूर्त की जबर्दस्त डिमांड भी रहती है।
हिन्दु कैलेण्डर के अनुसार प्रत्येक वर्ष माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को वसंत पंचमी के रुप में मनाया जाता है. भारत में छ: ऋतुओं को मुख्य रुप से मनाया जाता है. पतझड़ ऋतु के बाद वसंत ऋतु का आगमन होता है. हर तरफ रंग-बिरंगें फूल खिले दिखाई देते हैं. खेतों में पीली सरसों लहलहाती बहुत ही मदमस्त लगती है. वसंत पंचमी का दिन बहुत ही शुभ माना जाता है. वसंत पंचमी से पांच दिन पहले से वसंत ऋतु का आरम्भ माना जाता है. चारों ओर हरियाली और खुशहाली का वातावरण छाया रहता है. इस दिन को विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. इसलिए विद्यार्थियों के लिए विद्या आरम्भ का मुहूर्त बहुत ही श्रेष्ठ मुहूर्त होता है. जिन व्यक्तियों को गृह प्रवेश के लिए कोई मुहूर्त ना मिल रहा हो वह इस दिन गृह प्रवेश कर सकते हैं. कोई व्यक्ति अपने नए व्यवसाय को आरम्भ करने के लिए शुभ मुहूर्त को तलाश रहा हो तब वह वसंत पंचमी के दिन अपना नया व्यवसाय आरम्भ कर सकता है. अन्य कोई भी कार्य जिनके लिए किसी को कोई उपयुक्त मुहूर्त ना मिल रहा हो तब वह वसंत पंचमी के दिन वह कार्य कर सकता है.
पतझड़ में पेड़ों से पुराने पत्तों का गिरना और इसके बाद नए पत्तों का आना बसंत के आगमन का सूचक है। इस प्रकार बसंत का मौसम जीवन में सकारात्मक भाव, ऊर्जा, आशा और विश्वास जगाता है। यह भाव बनाए रखने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि ज्ञान और विद्या की देवी की पूजा के साथ बसंत ऋतु का स्वागत किया जाता है । माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी बसंत पंचमी के रूप में मनाई जाती है। यह बसंत ऋतु के आगमन का प्रथम दिन माना जाता है। यह दिन सरस्वती की जयंती के रूप में मनाया जाता है। इसे श्री पंचमी भी कहते हैं। इस दिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए देवी सरस्वती की पूजा की परंपरा है। इस दिन माता सरस्वती, भगवान कृष्ण और कामदेव व रति की पूजा की परंपरा है ।बसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है। इस समय पंच-तत्त्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रुप में प्रकट होते हैं। पंच-तत्त्व- जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपना मोहक रूप दिखाते हैं। आकाश स्वच्छ है, वायु सुहावनी है, अग्नि (सूर्य) रुचिकर है तो जल! पीयूष के समान सुखदाता! और धरती! उसका तो कहना ही क्या वह तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है! ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाता! धनी जहाँ प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं तो निर्धन शिशिर की प्रताड़ना से मुक्त होने के सुख की अनुभूति करने लगते हैं।
बसंत ऋतु का आगमन बसंत पंचमी पर्व से होता है। शांत, ठंडी, मंद वायु, कटु शीत का स्थान ले लेती है तथा सब को नवप्राण व उत्साह से स्पर्श करती है। पत्रपटल तथा पुष्प खिल उठते हैं। स्त्रियाँ पीले- वस्त्र पहन, बसंत पंचमी के इस दिन के सौन्दर्य को और भी अधिक बढ़ा देती हैं। लोकप्रिय खेल पतंगबाजी, बसंत पंचमी से ही जुड़ा है। यह विद्यार्थियों का भी दिन है, इस दिन विद्या की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती की पूजा आराधना भी की जाती है।
बसंत का अर्थ—
बसंत ऋतु तथा पंचमी का अर्थ है- शुक्लपक्ष का पाँचवां दिन अंग्रेज़ी कलेंडर के अनुसार यह पर्व जनवरी-फ़रवरी तथा हिंदू तिथि के अनुसार माघ के महीने में मनाया जाता है।
बसंत पंचमी का पौराणिक महत्त्व—-
संपूर्ण संस्कृति की देवी के रूप में दूध के समान श्वेत रंग वाली सरस्वती (Saraswati Devi) के रूप को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वाग्देवी को चार भुजायुक्त व आभूषणों से सुसज्जित दर्शाया गया है। स्कंद पुराण में सरस्वती (Saraswati Devi) जटाजुटयुक्त, अर्धचन्द्र मस्तक पर धारण किए, कमलासन पर सुशोभित, नील ग्रीवा वाली एवं तीन नेत्रों वाली कही गई हैं। रूप मंडन में वाग्देवी का शांत, सौभ्य व शास्त्रोक्त वर्णन मिलता है।
बसंत पंचमी (Basant Panchami) के पर्व को मनाने का एक कारण बसंत पंचमी (Basant Panchami) के दिन सरस्वती जयंती का होना भी बताया जाता है। कहते हैं कि देवी सरस्वती (Saraswati Devi) बसंत पंचमी के दिन ब्रह्मा के मानस से अवतीर्ण हुई थीं। बसंत के फूल, चंद्रमा व हिम तुषार जैसा उनका रंग था।
बसंत पंचमी (Basant Panchami) के दिन जगह-जगह माँ शारदा की पूजा-अर्चना की जाती है। माँ सरस्वती (Saraswati Devi) की कृपा से प्राप्त ज्ञान व कला के समावेश से मनुष्य जीवन में सुख व सौभाग्य प्राप्त होता है। माघ शुक्ल पंचमी को सबसे पहले श्रीकृष्ण (shri krishna) ने देवी सरस्वती (Saraswati Devi) का पूजन किया था, तब से सरस्वती पूजन (Saraswati Pujan) का प्रचलन बसंत पंचमी (Basant Panchami) के दिन से मनाने की परंपरा चली आ रही है।
सरस्वती (Saraswati Devi) ने अपने चातुर्य से देवों को राक्षसराज कुंभकर्ण से कैसे बचाया, इसकी एक मनोरम कथा वाल्मिकी रामायण के उत्तरकांड में आती है। कहते हैं देवी वर प्राप्त करने के लिए कुंभकर्ण ने दस हजार वर्षों तक गोवर्ण में घोर तपस्या की। जब ब्रह्मा वर देने को तैयार हुए तो देवों ने कहा कि यह राक्षस पहले से ही है, वर पाने के बाद तो और भी उन्मत्त हो जाएगा तब ब्रह्मा ने सरस्वती (Saraswati Devi) का स्मरण किया।
सरस्वती (Saraswati Devi) राक्षस की जीभ पर सवार हुईं। सरस्वती (Saraswati Devi) के प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से कहा- ‘स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम।’ यानी मैं कई वर्षों तक सोता रहूँ, यही मेरी इच्छा है। इस तरह देवों को बचाने के लिए सरस्वती और भी पूज्य हो गईं। मध्यप्रदेश के मैहर में आल्हा का बनवाया हुआ सरस्वती (Saraswati Devi) का प्राचीन मंदिर है। वहाँ के लोगों का विश्वास है कि आल्हा आज भी बसंत पंचमी (Basant Panchami) के दिन यहाँ माँ की पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वाग्देवी को चार भुजा युक्त व आभूषणों से सुसज्जित दर्शाया गया है। स्कंद पुराण में सरस्वती जटा-जुटयुक्त, अर्धचन्द्र मस्तक पर धारण किए, कमलासन पर सुशोभित, नील ग्रीवा वाली एवं तीन नेत्रों वाली कही गई हैं। रूप मंडन में वाग्देवी का शांत, सौभ्य व शास्त्रोक्त वर्णन मिलता है। संपूर्ण संस्कृति की देवी के रूप में दूध के समान श्वेत रंग वाली सरस्वती के रूप को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। बसंत पर्व का आरंभ बसंत पंचमी से होता है। इसी दिन श्री अर्थात विद्या की अधिष्ठात्री देवी महासरस्वती का जन्मदिन मनाया जाता है। सरस्वती ने अपने चातुर्य से देवों को राक्षसराज कुंभकर्ण से कैसे बचाया, इसकी एक मनोरम कथावाल्मिकी रामायण के उत्तरकांड में आती है। कहते हैं देवी वर प्राप्त करने के लिए कुंभकर्ण ने दस हज़ार वर्षों तक गोवर्ण में घोर तपस्या की। जब ब्रह्मा वर देने को तैयार हुए तो देवों ने कहा कि यह राक्षस पहले से ही है, वर पाने के बाद तो और भी उन्मत्त हो जाएगा तब ब्रह्मा ने सरस्वती का स्मरण किया। सरस्वती राक्षस की जीभ पर सवार हुईं। सरस्वती के प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से कहा- स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम। यानी मैं कई वर्षों तक सोता रहूँ, यही मेरी इच्छा है।
क्यों होता हें बसंत पंचमी के दिन सरस्वती जयंती/ पूजन ???
ब्राह्मण-ग्रंथों के अनुसार वाग्देवी सरस्वती ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्वनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघमास की पंचमी तिथि निर्धारित की गयी है। बसंत पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। अतः वागीश्वरी जयंती व श्रीपंचमी नाम से भी यह तिथि प्रसिद्ध है। ऋग्वेद के (10/125 सूक्त) में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन है। माँ सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। कहते हैं। जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है, वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। बहुत लोग अपना ईष्ट माँ सरस्वती को मानकर उनकी पूजा-आराधना करते हैं।
इस दिन विद्या की देवी सरस्वती के जन्म हुआ था । धार्मिक मान्यता है कि बसंत पंचमी के दिन ही ब्रह्मा के मानस से सरस्वती पैदा हुई थी। माता सरस्वती को बुद्धि, ज्ञान, संगीत और कला की देवी माना जाता है। पुरातन काल में भी ऋषि-मुनियों के आश्रम एवं गुरुकुल में बालकों को विद्या प्राप्ति के लिए प्रवेश कराया जाता था। सरस्वती पूजा विधान माघ चतुर्थी के दिन सरस्वती पूजा की शुरुआत शुद्ध आचरण, वाणी संयम जैसे नियमों के पालन से होती है । वसंत पंचमी के दिन सुबह स्नान कर घट-स्थापना कर संकल्प लेने के बाद सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है । आम के पत्ते, सफेद और पीले फूल देवी को चढ़ाए जाते हैं । इसके बाद प्रसाद के रूप में खीर, दूध, दही, मक्खन, सफेद तिल के लड्डू, सफेद चंदन, वस्त्र, घी, नारियल, शक्कर व मौसमी फल चढ़ाएं । वैदिक मंत्र, सरस्वची कवच, स्तुति आदि से देवी की प्रार्थना करें। इस दिन किताबों और कलम की पूजा की जाती है । ऐसी मान्यता है कि इनमें सरस्वती का वास होता है । इस दिन बालकों को अक्षर ज्ञान एवं विद्यारंभ भी कराया जाता है । बसंत पंचमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण एवं भगवान विष्णु पूजा की भी परंपरा है । स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि बसंत ऋतु के रूप में भगवान कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते हैं। अत: ब्रज में बसंत के दिन से ही होली का उत्सव शुरू हो जाता है और राधा-गोविंद का उत्सव मनाया जाता है। इस दिन दाम्पत्य जीवन में सुख की कामना से कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा की जाती है। कथा एक दिन ब्रह्मदेव अपनी सृष्टि को देखने के लिए भूमि पर घूमने लगे। उन्होंने यहां पर सभी जीव-जन्तु को यहां मौन, उदास और निष्क्रीय देखा। यह दशा देखकर ब्रह्माजी बहुत चिंतित हुए और वे सोचने लगे कि क्या उपाय किया जाएं? कि सभी प्राणी एवं वनस्पति आनंद और प्रसन्न होकर झुमने लगे। मन में ऐसा विचार कर उन्होंने कमल पुष्पों पर जल छिड़का उनमें से देवी सरस्वती प्रकट हुई। जो सफेद वस्त्र धारण किए हुए, गले में कमलों की माला सहित अपने हाथों में वीणा, पुस्तक धारण किए हुए थी। भगवान ब्रह्मा ने देवी से कहा, तुम सभी प्राणियों के कंठ में निवास कर इनको वाणी प्रदान करो। सभी को चैतन्य एवं प्रसन्न करना तुम्हारा काम होगा और विश्व में भगवती सरस्वती के नाम से विख्यात होगी। चुंकि तुम इस लोक का कल्याण करोगी, इसलिए विद्वत समाज तुम्हारा आदर कर पूजा करेगा। बसंत पंचमी को सरस्वती मां की पूजा की जाती है। सरस्वती ज्ञान और विद्या की देवी है। सरस्वती की आराधना से विद्या आती है, विद्या से विनम्रता, विनम्रता से पात्रता, पात्रता से धन और धन से सुख मिलता है। कृष्ण ने गीता में स्वयं को ऋतुओं में बसंत कहा है। जिसका अर्थ है बसंत की तरह उल्लास से भरना । बसंत में वामदेव और शनि की पूजा की भी परंपरा है। सनातन धर्म में काम को पुरुषार्थ कहा गया है। कामदेव की पूजा कर इसी पुरुषार्थ की प्राप्ति की जाती है। पंचमी बसंत ऋतु के आगमन का प्रथम दिन होता है। बसंत ऋतु फूलों का मौसम है, फूलों की तरह मुस्कुराहट फैलाएं। बसंत श्रृंगार की ऋतु है। जो व्यक्ति को व्यवस्थित रखने और सजे-धजे रहने की सीख देती है। बसंत का रंग बासंती होता है। जो त्याग का, विजय का रंग है, अपने विकारों का त्याग करें एवं कमजोरियों पर विजय पाएं। उल्लास से भरे हुए रहें। वसंत में सूर्य उत्तरायण होता है। जो संदेश देता है कि सूर्य की भांति हम भी प्रखर और गंभीर बनें। प्राकृतिक दृष्टि से बसंत को ऋतुओं का राजा कहा गया है। क्योंकि बसंत एकमात्र ऐसी ऋतु है जिसमें उर्वरा शक्ति यानि उत्पादन क्षमता अन्य ऋतु की अपेक्षा बढ़ जाती है। वृक्षों में नए पत्ते आते हैं, फसल पकती है और सृजन की क्षमता बढ़ जाती है। मौसम न ज्यादा ठंडा न ही ज्यादा गरम होता है, जो कार्यक्षमता बढ़ाता है। बसंत पंचमी
के साथ ही ठंड का मौसम विदा होता है। इसके बाद गर्मी शुरू होती है। इसलिए कहा गया है बसंत में गरमी करने वाली चीजों को नहीं खाना चाहिए। पंचमी को आम की मंजरी (फूल या बौर) का सेवन करना चाहिए तथा इसे हाथों में मलना चाहिए। मान्यता है ऐसा करने से अतिसार, प्रमेह एवं रक्त रोग नहीं होते हैं।जिन पर सरस्वती की कृपा होती है, वे ज्ञानी और विद्या के धनी होते हैं। बसंत पंचमी का दिन सरस्वती जी की साधना को ही अर्पित है। शास्त्रों में भगवती सरस्वती की आराधना व्यक्तिगत रूप में करने का विधान है, किंतु आजकल सार्वजनिक पूजा-पाण्डालों में देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित कर पूजा करने का विधान चल निकला है। यह ज्ञान का त्योहार है, फलतः इस दिन प्रायः शिक्षण संस्थानों व विद्यालयों में अवकाश होता है। विद्यार्थी पूजा स्थान को सजाने-संवारने का प्रबन्ध करते हैं। महोत्सव के कुछ सप्ताह पूर्व ही, विद्यालय विभिन्न प्रकार के वार्षिक समारोह मनाना प्रारंभ कर देते हैं। संगीत, वाद- विवाद, खेल- कूद प्रतियोगिताएँ एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन ही विजेयताओं को पुरस्कार बांटे जाते हैं। माता-पिता तथा समुदाय के अन्य लोग भी बच्चों को उत्साहित करने इन समारोहों में आते हैं। समारोह का आरम्भ और समापन सरस्वती वन्दना से होता है। प्रार्थना के भाव हैं-
ओ माँ सरस्वती ! मेरे मस्तिष्क से अंधेरे (अज्ञान) को हटा दो तथा मुझे शाश्वत ज्ञान का आशीर्वाद दो!
परीक्षा के समय में हर छात्र चाहता है कि वह परीक्षा में उत्तीर्ण हो बल्कि उसकी दिली ख्वाहिश होती है कि वह अच्दे नंबरों से परीक्षा उत्तीर्ण करें । कई छात्रों की समस्या होती है कि कड़ी मेहनत के बावजूद उन्हें पाठ याद नहीं रह पाता, वे जवाब भूल जाते हैं । छात्रों को अच्छी सफलता के लिए खूब पढ़-लिखकर ज्ञान व विद्या की देवी सरस्वती की आराधना करनी चाहिए ।
बसंतोत्सव और पीला रंग—
यह रंग हिन्दुओं का शुभ रंग है। बसंत पंचमी पर न केवल पीले रंग के वस्त्र पहने जाते हैं, अपितु खाद्य पदार्थों में भी पीले चावल पीले लड्डू व केसर युक्त खीर का उपयोग किया जाता है, जिसे बच्चे तथा बड़े-बूढ़े सभी पसंद करते है। अतः इस दिन सब कुछ पीला दिखाई देता है और प्रकृति खेतों को पीले-सुनहरे रंग से सजा देती है, तो दूसरी ओर घर-घर में लोग के परिधान भी पीले दृष्टिगोचर होते हैं। नवयुवक-युवती एक -दूसरे के माथे पर चंदन या हल्दी का तिलक लगाकर पूजा समारोह आरम्भ करते हैं। तब सभी लोग अपने दाएं हाथ की तीसरी उंगली में हल्दी, चंदन व रोली के मिश्रण को माँ सरस्वती के चरणों एवं मस्तक पर लगाते हैं, और जलार्पण करते हैं। धान व फलों को मूर्तियों पर बरसाया जाता है। गृहलक्ष्मी फिर को बेर, संगरी, लड्डू इत्यादि बांटती है। प्रायः बसंत पंचमी के दिन पूजा समारोह विधिवत नहीं होते हैं, क्योंकि लोग प्रायः घर से बाहर के कार्यों में व्यस्त रहते हैं। हाँ, मंदिर जाना व सगे-संबंधियों से भेंट कर आशीर्वाद लेना तो इस दिन आवश्यक ही है।
बच्चे व किशोर बसंत पंचमी का बड़ी उत्सुकता से इंतजार करते हैं। आखिर, उन्हें पतंग जो उड़ानी है। वे सभी घर की छतों या खुले स्थानों पर एकत्रित होते हैं, और तब शुरू होती है, पतंगबाजी की जंग। कोशिश होती है, प्रतिस्पर्धी की डोर को काटने की। जब पतंग कटती है, तो उसे पकड़ने की होड़ मचती है। इस भागम-भाग में सारा माहौल उत्साहित हो उठता है।
ज्योतिष में बसंत पंचमी—
सूर्य के कुंभ राशि में प्रवेश के साथ ही रति-काम महोत्सव आरंभ हो जाता है। यह वही अवधि है, जिसमें पेड़-पौधे तक अपनी पुरानी पत्तियों को त्यागकर नई कोपलों से आच्छादित दिखाई देते हैं। समूचा वातावरण पुष्पों की सुगंध और भौंरों की गूंज से भरा होता है। मधुमक्खियों की टोली पराग से शहद लेती दिखाई देती है, इसलिए इस माह को मधुमास भी कहा जाता है। प्रकृति काममय हो जाती है। बसंत के इस मौसम पर ग्रहों में सर्वाधिक विद्वान ‘शुक्र’ का प्रभाव रहता है। शुक्र भी काम और सौंदर्य के कारक हैं, इसलिए रति-काम महोत्सव की यह अवधि कामो-द्दीपक होती है। अधिकतर महिलाएं इन्हीं दिनों गर्भधारण करती हैं। जन्मकुण्डली का पंचम भाव-विद्या का नैसर्गिक भाव है। इसी भाव की ग्रह-स्थितियों पर व्यक्ति का अध्ययन निर्भर करता है। यह भाव दूषित या पापाक्रांत हो, तो व्यक्ति की शिक्षा अधूरी रह जाती है। इस भाव से प्रभावित लोग मां सरस्वती के प्राकटच्य पर्व माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) पर उनकी पूजा-अर्चना कर इच्छित क़ामयाबी हासिल कर सकते हैं। इसके लिए माता का ध्यान कर पढ़ाई करें, उसके बाद गणेश नमन और फिर मन्त्र जाप करें। इसके अलावा संक्षिप्त विधि का सहारा भी लिया जा सकता है। हर राशि के छात्र अपनी राशि के शुभ पुष्पों से मां महासरस्वती की साधना कर सकते हैं। मेष और वृश्चिक राशि के छात्र लाल पुष्प विशेषत: गुड़हल, लाल कनेर, लाल गैंदे आदि से आराधना करके लाभ उठाएं। वृष और तुला राशि वाले श्वेत पुष्पों तथा मिथुन और कन्या राशि वाले छात्र कमल पुष्पों से आराधना कर सकते हैं। कर्क राशि वाले श्वेत कमल या अन्य श्वेत पुष्प से, जबकि सिंह राशि के लोग जवाकुसुम (लाल गुड़हल) से आराधना करके लाभ पा सकते हैं। धनु और मीन के लोग पीले पुष्प तथा मकर और कुंभ राशि के लोग नीले पुष्पों से मां सरस्वती की आराधना कर सकते हैं।
अगर आप मंदिर जा रहे हैं, तो पहले ॐ गं गणपतये नम: मन्त्र का जाप करें। उसके बाद माता सरस्वती के इस मन्त्र ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महासरस्वती देव्यै नम: का जाप करके आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। इस मन्त्र के जाप से जन्मकुण्डली के लग्न (प्रथम भाव), पंचम (विद्या) और नवम (भाग्य) भाव के दोष भी समाप्त हो जाते हैं। इन तीनों भावों (त्रिकोण) पर श्री महाकाली, श्री महासरस्वती और श्री महालक्ष्मी का अधिपत्य माना जाता है। मां सरस्वती की कृपा से ही विद्या, बुद्धि, वाणी और ज्ञान की प्राप्ति होती है। देवी कृपा से ही कवि कालिदास ने यश और ख्याति अर्जित की थी। वाल्मीकि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, शौनक और व्यास जैसे महान ऋषि देवी-साधना से ही कृतार्थ हुए थे।
बसंतोत्सव पर प्रसाद और भोजन—
बसंत पंचमी के दिन वाग्देवी सरस्वती जी को पीला भोग लगाया जाता है और घरों में भोजन भी पीला ही बनाया जाता है। इस दिन विशेषकर मीठा चावल बनाया जाता है। जिसमें बादाम, किसमिस, काजू आदि डालकर खीर आदि विशेष व्यंजन बनाये जाते हैं। इसे दोपहर में परोसा जाता है। घर के सदस्यों व आगंतुकों में पीली बर्फी बांटी जाती है। केसरयुक्त खीर सभी को प्रिय लगती है। गायन आदि के विशेष कार्यक्रमों से इस त्यौहार का आनन्द और व्यापक हो जाता है।

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