सात्विक धन का प्रभाव लंबे समय तक टिका रहता है —-
(पं.भानुप्रतापनारायण मिश्र )—-
वेद के साथ-साथ क्या मनुष्य तो क्या राक्षस, सभी का यही मानना है कि सफलता का मूल हिरण्य अर्थात स्वर्ण, सोने की धातु में है। प्राचीन काल में जब भारत सोने की चिड़िया कहा जाता था, तब इसका अर्थ उस समय प्रचलित सोने की मुद्रा के प्रचलन से था-
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥
यहां लक्ष्मी माता को ही हरिणी अर्थात सबके मन को अपने तरफ आकर्षित करने वाली कहा गया है। यह सच भी है। भगवान विष्णु के हृदय-स्थल में निवास करने वाली लक्ष्मी जी ही तो हैं। इन्हीं की पूजा दिवाली पर गणेश जी, सरस्वती जी, कुबेर जी के साथ पूरे धूमधाम से की जाती है। वह भी तब ,जब अमावस्या होती है। अमावस्या तिथि, जिसे यूं तो पितरों की सेवा के लिए रखा गया था, के दिन दीपावली की पूजा होती है। जब पूरा जगत अंधेरे में डूबा होता है, पूरी सृष्टि विचारशून्य होती है, उस समय लक्ष्मी जी प्रकट होती हैं। अरबों दियों की रोशनी में प्रकाश फैल जाता है। जब तक लक्ष्मी जी का आगमन नहीं होता, तब तक अलक्ष्मी अर्थात् दरिद्रता का राज होता है।
माता लक्ष्मी के आगमन को गरीबी से अमीरी की तरफ बढ़ने का सर्वसुलभ उपाय मनाने के लिए ही दिवाली का दिन हमारे ऋषियों ने तय किया है। कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की अमावस्या हर आदमी को सात्विक और तामसिक तरीके से धन कमाने का अवसर प्रदान करती है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार दिवाली हमेशा उसी समय मनायी जाती है, जब समस्त प्रकार के भोग प्रदान करने वाला ग्रह शुक्र अपनी मूल त्रिकोण राशि तुला में होकर सर्वशक्तिशाली होता है। उल्लेखनीय है कि तुला राशि का स्वामी ग्रहों में शुक्र ही होते हैं। शुक्र की अन्य राशि वृष लगन में ही लक्ष्मी जी की पूजा सर्वाधिक लोग इसीलिए करते हैं कि लक्ष्मी जी स्थिर होकर उनके घर में निवास करें। जो लोग सात्विक होकर धन कमाते हैं, उन्हें लक्ष्मी जी के साथ-साथ उनके वाहन सफेद उल्लू का आशीर्वाद भी मिलता है। जो लोग गलत तरीके से धन कमाते हैं, उनको काले उल्लू का साथ मिलता है। सात्विक धन लंबे समय तक टिका रहता है, दान आदि कार्यों में खर्च होता है, तामसिक धन के आने से घर में कलह-क्लेष बढ़ता है। परिवार टूट जाते हैं।

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